आलेख - प्रतिरोध की अभिव्यक्ति थे गिरीश कर्नाड - कुमार विजय

जन्म प्रतापगढ़, उत्तर प्रदेश में और शिक्षा इलाहाबाद विश्वविद्यालय से हासिल करने के बाद सन् 2002 से इलाहाबाद (वर्तमान प्रयागराज) में रंगमंच से जुड़कर रचनात्मक जीवन की शुरुआत की। सन् 2009 से मुम्बई में फिल्म एवं टीवी के लिये कथा, पटकथा, संवाद एवं गीत लेखन के साथ कई लघु फिल्म एवं वृत्तचित्र का निर्माण एवं निर्देशन किया। सन् 2017 में हिंदी फिल्म जेडी में फिल्माए गए गीत 'सावन बन आय गयो बदरा' के लिए सर्वश्रेष्ठ आगामी गीतकार के रूप में 'रेडियो मिर्ची म्यूजिक अवार्ड' द्वारा नामंकित किया गया।


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गिरीश कर्नाड भारतीय कला परिपथ पर भीड़ से अलग एक ऐसे चेहरे थे जिन्होंने अपने लेखन, रंगकर्म, सिनेमा और जीवन के माध्यम से भरतीय समाज की तमाम दुरभिसँधियों को नकारने का मुखर प्रयास किया। वह कभी भी सत्ता के सापेक्ष नहीं रहे बल्कि हमेशा ही उनकी आवाज सत्ता के खिलाफ प्रतिरोध के स्वर को बुलंद करती रही। इंदिरा गांधी सरकार की नीतियों के खिलाफ जाकर उन्होंने कभी एफ टी आई के निदेशक पद से इस्तीफा दे दिया था तो अभी ताजा तरीन मामले में उन्होंने भाजपा सरकार की नीतियों का विरोध करते हुए। मैं भी अर्बन नक्सल' की तख्ती गले में लटकाकर अपना विरोध दर्ज कराया। मूलत: कोंकण भाषी परिवार में जन्मे गिरीश कर्नाड अंग्रेजी भाषा में भी दक्ष थे इसके बावजूद उन्होंने अपने लेखन को किसी वैश्विक अनुष्ठान का हिस्सा बनाने के बजाए उसे आम आदमी के मुहावरों से जोड़ने के प्रयास के तहत अपने लेखन को कन्नड़ भाषा में केंद्रित किया। लेखक होने के साथ उन्होंने अभिनेता, निर्देशक और सामाजिक चिंतक के रूप में अपने होने को अर्थ दिया।


    गिरीश कर्नाड ने कभी भी जरूरी सवालों से मुंह नहीं मोड़ा, जब जितना मुखर होने की जरूरत रही, वे हुए और एक कलाकर होने के सही अर्थ को उन्होंने मुख्तसर तौर पर परिभाषित किया। नाटककार के रूप में उन्होंने तुगलक, हयवदन, नागमण्डल, ययाति जैसे नाटकों के माध्यम से भारतीय समाज में मौजूद मिथक कथा रूपों को नए प्रतीक के रूप में रचकर अपनी रचनात्मक बेचैनी का एक महाकाव्यात्मक आख्यान रच दिया। इतिहास, अध्यात्म और समकालीन राजनीति का जितना सघन संबंध कर्नाड के नाटकों में दिखता है, वह अन्यत्र नहीं देखा जा सकता। ये रचनाएं नाट्य शिल्प की दृष्टि से जहां एक अलहदा रूपक के साथ सामने आई, वहीं कर्नाड ने उसमें अपनी वैचारिक प्रगतिशीलता का समावेश कर वैचारिक तौर पर एक नई ऊंचाई दी। मूलतः कन्नड़ में रचित इन कृतियों का कथा परिदृश्य अपनी सृजनात्मकता में इतना भवितव्य था कि इन रचनाओं के हिंदी अनुवाद ने हिंदी रंगमंच के परिदृश्य को भी नया कलेवर और अपूर्व बैविध्य प्रदान कर समृद्ध करने का काम किया। हिंदी के बहुतेरे रंग निर्देशक गिरीश कर्नाड की इन कृतियों को मंच पर प्रस्तुत कर अपने रचनात्मक कौशल को सामने लाने में सफल हुए।


  बतौर नाटककार गिरीश कर्नाड जैसी स्वीकार्यता मराठी नाटककार विजय तेंदुलकर के अलावा और किसी अन्य लेखक के हिस्से में नहीं है। अपने चरित्रों की बारीक बुनावट करने वाले कर्नाड इस देश की परिस्थितियों को भी बखूबी समझते थे। यही कारण रहा कि उनके नाटक


         


भाषाई तौर पर भाषा की आंचलिक सीमा को सहज ही पार करने में सक्षम रहे। धारवाहिक 'मालगुडी डेज' में अभिनय कर गिरीश कर्नाड ने समय के साथ नाटककार से इतर अभिनेता के रूप में भी अपनी एक अलग पहचान बनाई। इसके बाद तो उन्होंने हिंदी और अन्य दक्षिण भारतीय भाषाओं की तमाम कला और व्यावसायिक फिल्मों में काम किया। ये सब उनकी बड़ी उपलब्धियां रहीं पर उन्हें सबसे ज्यादा याद किया जाना चाहिए सामाजिक सद्भावना के पक्ष में किए गए प्रयास और प्रतिरोध को स्वर देने के लिए। साम्प्रदायिक सौहार्द के बड़े पैरोकार थे। पक्षधरता नहीं, वे भारतीय मूल के ख्यातिलब्ध लेखक बी.एस. नायपाल को कुछ साल पहले मुम्बई के साहित्य सम्मेलन में लाइफटाइम अचीवमेंट सम्मान दिए जाने का इसलिए विरोध करते हुए कहा था कि 'नायपॉल निश्चित रूप में हमारी पीढ़ी के महान अंग्रेजी लेखकों में से हैं. लेकिन इंडिया-ए वुडेड सिविलाइजेशन किताब लिखने से लेकर उन्होंने कोई भी मौका नहीं छोड़ा जब वे मुसलमानों के खिलाफ न दिखे हों और मुसलमानों पर पाँच शताब्दियों तक भारत में बर्बरता करने का आरोप न लगाया हो।'


    इस तरह उन्होंने साल २००३ में कर्नाटक के चिकमंगलूर जिले में लेखकों के एक समूह का नेतृत्व किया, जिसने बाबाबुदगिरी पहाड़ियों पर बने तीर्थस्थल पर दत्तात्रेय की मूर्ति स्थापित करने के प्रयासों का विरोध किया था और गिरफ्तारी भी दी थी। श्री गुरु दत्तात्रेय बाबाबुदन स्वामी दरगाह के समकालिक मंदिर में मुस्लिम और हिंदू दोनों मज़हबों के लोग प्रार्थना किया करते हैं, लेकिन कुछ लोगों का दावा था कि यह एक हिंदू मंदिर है और वे यहां दत्तात्रेय की मूर्ति स्थापित करना चाहते थे। गिरफ्तारी देने को लेकर उनका कहना था कि, 'हमारे प्रदर्शन का मूल आधार कानून का सम्मान करना था और जो लोग धर्मस्थल को लेकर विवाद खड़ा कर रहे हैंवे कानून का सम्मान नहीं कर रहे हैं और समाज को धार्मिक तौर पर विभाजित करना चाहते हैं। जबकि हम उन्हें और सब को बताना चाहते हैं कि कानून का सम्मान किया जाना चाहिए।


    हाल के दिनों में यूआर अनंतमूर्ति और गौरी लंकेश जैसे लेखकों की हत्या के बाद उनके प्रतिरोध की आवाज और अंदाज दोनों अधिक मुखर हो उठा था। वे अभियक्ति पर किसी भी सरकारी अंकुश के खिलाफ थे। लेखिका गौरी पी लंकेश की पहली बरसी पर उन्होंने मौन प्रदर्शन किया था और सरकार को चुनौती देते हुए अपने गले में 'Me too urban naxal' की पट्टी भी लटकाई और इस पट्टी को लेकर उन्होंने कहा कि यदि सरकार की गलत नीतियों का विरोध करना मुझे अर्वन नक्सल बनाता है तो हाँ मैं भी अर्बन नक्सल हूँ। प्रतिगामी राजनीति के इतने विरोध के बावजूद वे किसी राजनीतिक पार्टी के समर्थक या प्रचारक नहीं रहे, वे हमेशा खुद को जन सापेक्ष बनाए रखे। उनके इस रवैये को पूरे देश में सराहना और समान रूप से धार्मिक रूढ़िवादियों द्वारा आलोचना का प्रतिसाद भी मिला। पद्म विभूषण, पद्म श्री, संगीत नाटक अकादमी सम्मान, ज्ञानपीठ सम्मान के साथ फिल्म फेयर सम्मान भी समय-समय पर उनकी झोली में आते रहे। गिरीश कर्नाड का जीवन लेखकों और कलाकारों के लिए एक मशाल की तरह है। उन्होंने विरोध के नारे सिर्फ रचे नहीं बल्कि पूरी ताकत और पुरसर अंदाज में उसे जिया भी। उन्होंने कलाधर्मियों को एक बेहतर कलाकर बनने के रास्ते दिखाए हैं जिसके लिए आने वाला समय उनका ऋणी रहेगा।


                                                                     सम्पर्क : ए-32, गोकुल अपार्टमेंट, नायगाँव (पूरब), मुम्बई-401208, मो.नं. : 9004748130