आलेख - मिथक से यथार्थ तक का सफर - स्वप्निल श्रीवास्तव

स्वप्निल श्रीवास्तव - प्रतिष्ठित कवि-कथाकार। शिक्षा : गोरखपुर विश्वविद्यालय, गोरखपुर कृतियाँ : ईश्वर एक लाठी है, ताख पर दियासलाई, मुझे दूसरी पृथ्वी चाहिए, जिंदगी का मुकदमा, जब तक है जीवन, एक पवित्र नगर की दास्तान (कवितासंग्रह) । सम्मान : भारत भूषण अग्रवाल कविता पुरस्कार, फिराक सम्मान तथा अन्तर्राष्ट्रीय सम्मान। कविता और कहानी लेखन के अलावा समीक्षा और अनुवाद में अभिरूचि। देश-विदेश की भाषाओं में कविताओं के अनुवाद। सरकारी सेवा से निवृत्त होकर फिलहाल फैजाबाद में स्थायी निवास।


                                                                 ------------------------


                                                            मैं मरने के अभिनय की बात नहीं करता, सचमुच मर जाऊँगा


                                                                   ऐन आपकी आँखों के सामने मेरा अंत हो जाएगा


                                                                                                                                                  नागमंडल


      गिरीश कर्नाड को याद करते हुए मुझे विलियम शेक्सपियर के नाटक 'एज यू लाइक इट' की कुछ पंक्तियां याद आती हैं। वे लिखते हैं कि यह दुनिया एक रंगमंच है और स्त्री - पुरूष अभिनेता हैं। उनके अपने प्रवेश और निकास द्वार हैं। एक आदमी अपने समय में कई भूमिकाएं निभाता है। इसी क्रम में हम कबीर को भी याद कर सकते है। उन्होंने कहा है - देह धरे को दंड है, भोगत है हर कोए, ज्ञानी भोगे ज्ञान से भोगी भोगे सोए।


    यह हमारी दुनिया और जीवन का सत्य है। इस दुनिया में हर व्यक्ति अपनी भूमिकाएं निभाता है। दुनिया के रंगमंच में ऐसे अभिनेता हैं - जो अपने अभिनय की छाप छोड़ जाते है और हम उन्हें मंच से जाने के बाद याद करते है। उनके संवाद हमें बदलते है। वे हमें जीवन के लिए उर्जा देते हैं। कुछ ऐसे अभिनेता है जो मंच पर बहुत दिनों तक बने रहते हैं लेकिन हमारे ऊपर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है। ये अभिनेता नहीं हमारे समय के खलनायक है जो केवल रंगमंच का कारोबार करते हैं। उनका कोई सामाजिक सरोकार नहीं रहता। ऐसे लोगों की जगह इतिहास के डस्टबिन में सुरक्षित रहती है। रंगमच नेपथ्य से शुरू होता हैनाटक के पहले मंच पर सूत्रधार आता है और नाटक की पृष्ठभूमि के बारे में बताता है। उसके बाद मंच पर पात्र आते हैं। रंगमंच की सफलता निर्देशक के ऊपर निर्भर करती है।


    गिरीश कर्नाड भारतीय रंगमंच के ऐसे नायकों में रहे हैं - जिन्होंने देहभाषा के साथ रंगभाषा बदलने का काम किया। कर्नाड की मातृभाषा कोंकणी थी लेकिन उन्होंने कन्नड़ में मूललेखन किया। उनके नाटक हिंदी में अनूदित हुए और उनका मंचन हिंदी परिक्षेत्रों के साथ देश के अन्य हिस्सों में हुआ। बहुत से लोग उन्हें हिंदी का नाटककार मानते और जानते रहे हैं। वे बंगाली लेखक शरतचंद, विमल मित्र, महाश्वेता देवी, पंजाबी लेखिका अमृता प्रीतम की तरह हिंदी में लोकप्रिय रहे। इन लेखकों के साथ गिरीश कर्नाड को हिंदी पाठकों और दर्शकों ने खूब अपनाया। आज के समय में उनकी लोकप्रियता की कल्पना ही नहीं की जा सकती। यह मीडिया का दौर है - जहां साहित्य की जगह निरंतर कम होती जा रही है मनोरंजनएक धंधा बन चुका है। वह हमें विचारहीनता और विचलन की तरफ ले जा रहा है। इस भाग - दौड़ की जिन्दगी में वह सब कुछ छूटता चला जा रहा है, जो हमारे जीवन को समृद्ध करता है। साहित्य और कला जैसी विधाएं हाशिए पर हैं। सबसे बड़ी विधा पूंजी और सत्ता है। लोग इन्हीं के आसपास मोक्ष की खोज करते रहते हैं। जो सत्ता के विरूद्ध काम करता है, उसे अरबन नक्सल कह दिया जाता रहा है।


    गिरीश कर्नाड का जीवन कम रोचक नहीं रहा है। वे १० जून १९३८ को महाराष्ट्र के माथेरान में पैदा हुए। फिर उनका परिवार कर्नाटक आ गया। धारवाड़ स्थित कर्नाटक विश्वविद्यालय से उन्होंने स्नातक की उपाधि ली और गणित में सर्वोच्च स्थान हासिल किया। लेखक प्रायः गणित में बेहद कमजोर विद्यार्थी होते है लेकिन गिरीश कर्नाड इसके अपवाद सिद्ध हुए। वहां से वह आक्सफोर्ड गए - जहां से दर्शनशास्त्र, राजनीतिशास्त्र और अर्थशात्र में स्नातकोत्तर की डिग्री प्राप्त की। वे आक्सफोर्ड में सात साल रहे। शिकागो के अतिथि प्रोफेसर रहे। छात्र जीवन से ही उनकी नाटकों में अभिरूचि रही थी।


    उनका पहला नाटक - ययाति छब्बीस साल की उम्र में प्रकाशित हुआ। यह नाटक महाभारत की एक कथा पर आधारित है लेकिन गिरीश कर्नाड ने इसे नए परिप्रेक्ष्य में देखने की कोशिश की है। यही उनकी विशेषता है,वे प्राख्यानों और लोककथाओं को नए स्वरूप में प्रस्तुत करते हैं। वे उसे वर्तमान से जोड़ते हैं। वे कथा को विचारवान बनाते हैं। हिंदी पाठकों को धर्मवीर भारती के अंधायुग की जरूर याद होगी। भारती महाभारत की कथा में सत्ता - संबंधों और उसके भीतर चल रहे षड्यंत्रों को हमारे सामने उजागर करते हैअंधायुग सर्वाधिक प्रदर्शित नाटक है। महाभारत सीरियल के संवाद - लेखक राही मासूम रजा ने महाभारत की कथा को नया अर्थ दिया है। कर्नाड ने ययाति की कथा के साथ नया दृष्टिकोण प्रस्तुत किया है। ययाति की दो पत्नियां हैं। शुक्राचार्य की बेटी देवयानी और असुर कन्या की आत्मजा शर्मिष्ठा। देवयानी रानी है और शर्मिष्ठा उसकी दासी - जिसके साथ ययाति का देह - संबंध वर्जित है। इस संबंध का उल्लंघन करने के बाद वह श्राप स्वरूप असमय वृद्धावस्था को प्राप्त होते हैं। इस श्राप से मुक्त होने का यही तरीका है कि कोई उन्हें अपनी युवावस्था का दान कर दे। उनके कई पुत्र इसके लिए तैयार नहीं होते लेकिन उनका सबसे छोटा पुत्र इसके लिए तैयार हो जाता है। बस कथा इतनी है। इस कथा के भीतर वे देवयानी और शर्मिष्ठा के भीतर के द्वंद्व दिखाते हैं। शर्मिष्ठा की कुंठा और देवयानी का वर्चस्व इस नाटक को दिलचस्प बनाते हैं सबसे अद्भुत संवाद ययाति के पुत्र पुरूराज और उसकी पत्नी चित्रलेखा के साथ यायाति से संवाद हैं। इस गृहयुद्ध में प्रजा कम कष्ट नहीं उठाती। चित्रलेखा का एक संवाद देखें -


    ...आपने अपने बेटे से तारूण्य छीन लिया। इसलिए यह तर्कसंगत है कि उससे संबंधित सब आप स्वीकार करें।


    .. यह क्या महाप्रभु नीति तो अपनी रक्षा के लिए सामान्य जनता द्वारा निर्मित बंधन है। पैदा हुए बच्चे प्रबल प्रवाह में पेड़- पौधों के समान दिशाहीन - निराधार न हो जाएं इसलिए योजनाएं बनाई गई हैं। हमें असामान्य होना चाहिए।.. पूर्वजों की नीति की बेड़ियों को हम क्यों धारण करें।


    ये संवाद हमें बताते हैं कि गिरीश कर्नाड अपने नाटकों द्वारा हमें संदेश भी देते है।


                                                                           ..............................


    ययाति के बाद उनका दूसरा नाटक - तुगलक का प्रकाशन १९६४ में हुआ। यह नेहरूयुगीन समय था। यह नाटक बेहद विवादास्पद शासक मुहम्मद बिन तुगलक के जीवन पर आधारित था। तुगलक की मान्यता एक सनकी शासक के रूप में रही है। उसके फैसलों और कार्यप्रणाली के बारे में बहुत से दिलचस्प किस्से है। इतिहासकारों में उसे लेकर भिन्न-भिन्न मत रहे हैं। जहां इतिहासकार ईश्वरी प्रसाद उसे विद्वान् और सुसंस्कृत शासक मानते रहे हैं। वही आशीर्वादी लाल की राय अलग थी। वे उसे विरोधाभासों का समुच्य मानते थे। इब्नेबतूता उसे परोपकारी राजा मानता था। तुगलक के दो निर्णयों की काफी आलोचना हुई। पहला दिल्ली से दौलताबाद राजधानी का स्थानांतरण और दूसरा तांबे के सिक्के को चांदी के सिक्के के बराबर के मूल्य का साबित करना। पहले निर्णय के बारे में बताया गया कि चूंकि उसका साम्राज्य दक्षिण तक फैला हुआ था, इसलिए राजधानी को राज्य के बीचोबीच होना चाहिए ताकि राज्य पर नियंत्रण रखा जा सकेदूसरा यह कि किसी रियासत का सिक्का किसी धातु से नहीं, उसके मोल से निर्धारित होता है।


    तुगलक पर यह आरोप लगाया जाता है कि उसने अपने वालिद और भाई की हत्या करवाई। जबकि तथ्य अलग थे। उसके वालिद और भाई लकड़ी के तख्ते पर जुलूस में चल रहे थे, उसी बीच पागल हाथी के उपद्रव से तख्ता उलट गया और दोनों की मृत्यु हो गई। गिरीश कर्नाड के नाटक में ये तथ्य सामने आते हैं। इतिहास में प्रायः यह देखा गया है कि लोग तथ्य की तस्दीक नहीं करते पूर्व लीक पर ही चलते रहते है। तुगलक के साथ यही हुआ, उसे सनकी और असफल सम्राट के रूप में ही देखा जाता रहा है। उसके मानस और उसके भीतर चल रहे द्वंद्व को समझने की कोशिश नहीं की गई। गिरीश कर्नाड ने इस एकतरफा दृष्टि को बदलने कीकोशिश की है।


    इस नाटक के दृश्य-३ में तुगलक और शेख के साथ जो तल्ख संवाद हुए हैं, उसे कोई शासक बरदाश्त नहीं कर सकता। संवाद के कुछ अंश देखे -


    शेख- .. अगर आपके हुक्म से गुलाम ही आपके जलसे में आनेवाले हो, तो मेरा यहां आने का मकसद ही खत्म हो जाएगा ...


  मुहम्मद - मुमकिन हो कि हमने कभी नासमझी की हो। लेकिन हमारा दावा है कि हमने अपना फर्ज अदा करने में लापरवाही कभी नहीं बरती।


  वह आगे कहता है .. घुटनों के बल रेंग कर फासला तय नहीं किया जाता, शेख साहब! घुटनों के बजाए मैं पंजों पर चलना चाहता हूं।


    गिरीश कर्नाड ने तुगलक को मसीहा नहीं सिद्ध किया है। उसके भीतर भी मानवीय कमजोरी है लेकिन वह दोनों कौमों की बेहतरी के लिए कटिबद्ध रहता है। जिस तरह की राजनीतिक परिस्थितियां उसे विरासत में मिली थी, उसके भीतर उसके गुणों - अवगुणों का विकास हुआ था। इस नाटक में तत्कालीन समय और उसके अंतर्विरोध साफ दिखाई देते हैं। इस नाटक के जरिए वे तुगलक और इतिहास की नए सिरे से खोज करते हैं।


  इस नाटक का कन्नड़ से हिंदी में तर्जुमा प्रसिद्ध नाट्य निदेशक बी. वी. कारंत ने किया है। विश्वप्रसिद्ध निर्देशक अब्राहम अल्काजी ने इसका निर्देशन किया था। इस नाटक की भूमिका में उन्होंने लिखा है..यह समझना कठिन नहीं हैकि गिरीश कर्नाड ने तुगलक के चरित्र और काल को अपने नाटक के लिए क्यों चुना। एक कारण, जैसा उन्होंने स्वयं कहा है, कन्नड़ में ऐतिहासिक नाटकों का प्रायः अभाव सा है ... कुछ ही वर्षों में तुगलक की गगनचुंबी योजनाएं और स्वप्न धूल में मिट गए। अपनी इच्छाओं की पूर्ति में बाधा बननेवाले सभी व्यक्तियों को उसने मौत के घाट उतार दिया .. निपट अकेला . शवों के झुंड से और अपने ही हाथों किए सर्वनाश से घिरा हुआ वह उन्माद के छोर तक पहुंच गया..।


    यह तय है कि शासन चलाना बच्चों का खेल नहीं है, उसके लिए कठोर फैसले लेने पड़ते हैं, हत्या उनमें से एक है। जिस अशोक को हम आदर्श सम्राट मानते रहे हैं, उसके हाथ भी खून से रंगे हुए थे। तुगलक के सामने जो राजनीतिक परिस्थितियां थीं, वे उसे क्रूर बनाने में कम उत्तरदायी नहीं हैं।


      इस नाटक ने कर्नाड को एक नाटककार के रूप में स्थापित किया। इस नाटक का कई भारतीय भाषाओं में अनुवाद हुआ।


      गिरीश कर्नाड के नाटक बहुधा ऐतिहासिक पात्रों और लोककथाओं को लेकर लिखे गए है लेकिन उसकी कथा में किंचित बदलाव करके उसे आधुनिक बनाया गया है। उसमें वर्तमान के प्रश्न उठाए गए है। उसे समकालीनता से जोड़ा गया हैकर्नाड प्रतिबद्ध लेखक हैं। उनके नाटक सिर्फ मनोरंजन नहीं करते बल्कि हमें वैचारिक रूप से शिक्षित करते हैं। उनके लेखन और कर्म में फांक नहीं थीवे जनांदोलन और प्रतिरोध का भी हिस्सा बनते थे।


    उनके दो अन्य नाटक - हयवदन और नागमंडल आज के समय में बहुत प्रसांगिक हैं। तुगलक की तरह उनका नाटक हयवदन बहुत मकबूल हुआ। दोनों नाटक लोककथाओं पर आधारित हैं।


                                                                    .............................


                                                   एक तो घोड़े का मुखौटा लगाए आते-जाते लोगों को


                                                  डराते हो, ऊपर से रोने - बिलखने का स्वांग भी रचते हो


                                                           आखिर हंसी - मजाक की कोई हद है


                                                                    ..................................


                                                           सचमुच इन चमत्कारों का कोई अंत नहीं


                                              घड़ी पहले कोई कहता है कि घोड़े के चेहरेवाला मनुष्य होता है


                                                            तो मैं जोर से हंस पड़ता, लेकिन अब?


                                                                                                                  (हयवदन)


       यह नाटक देवदत्त, कपिल और पद्मिनी की कथा है। देवदत्त शिक्षित और सुसंस्कृत युवक है। उसे कला और संस्कृति से प्रेम है। कपिल उसके उलट है लेकिन उसकी देहयष्टि अद्भुत है। इन दोनों के बीच अनिंद्य सुंदरी पद्मिनी है। देवदत्त और कपिल में गहरी मित्रता है। देवदत्त से पद्मिनी का विवाह हो जाता है। वह इस हेतु काली को अपनी भुजाएं और रूद्र को अपना सिर चढ़ाने का वचन दे चुका थावे तीनों एक यात्रा पर निकलते हैं और रास्ते में रुक जाते हैं। पद्मिनी को सुहाग का फूल दिखाई देता है। कपिल अपने बस्त्र उतार कर पेड़ पर चढ़ जाता है। पद्मिनी कपिल की देह देख कर कहती है ...कैसी सुडौल काया- चौढी पीठ ... तरंगों की सी थिरकती मांसपेशियों से भरे समुद्र की तरह! और वह छोटी सी पतली कमर - निहारती रहो तो रोम - रोम खिल जाए ...।


      .... जैसे किसी गंधर्व ने शिकारी का जन्म लिया हो! उसकी देह थिरकती है, अंग - अंग फड़कते हैं, जैसे कोई नृत्य हो।


    मंदिर पहुंच कर देवदत्त अपने वचन के अनुसार अपना मस्तक देवी को काट कर अर्पित कर देता है। उसे देखकर कपिल विस्मित हो जाता है और अपना मस्तक देवी को भेंट कर देता है।


    जब दोनों प्रतीक्षा के बाद नहीं आते हैं तो पद्मिनी मंदिर की तरफ जाती है और इस दृश्य को देख कर स्तब्ध हो जाती है। लेकिन असली कथा इस प्रकरण के बाद शुरू होती है। देवी की आकाशवाणी होती है कि कटे हुए सिर को जोड़ दे तो वे जीवित हो उठेगे। शाम के अंधेरे में पद्मिनी देवदत का सिर कपिल के धड़ से और कपिल का सिर देवदत्त से जोड़ देती है।


    नाटक यह सवाल उठाता है कि आदमी देह या मस्तिष्क। देवदत्त का आधा भाग कपिल का शरीर है और कपिल आधा देवदत्त है। यह आधा अधूरापन दोनों के लिए संकट का कारण बनता हैदेह का संचालन मस्तिष्क से होता है। कुछ इसी तरह की समस्या मोहन राकेश के नाटक - आधे - अधूरे की भी है। वहां एक आदमी कई तरह की भूमिका में होता है। बुद्धि और देह का यह अंतर्द्वन्द्व ही आज की समस्या है। इससे मुक्त होने के लिए दोनों पूर्वदशा में आना चाहते हैं। देवदत्त से ज्यादा बड़ी समस्या पद्मिनी के लिए है कि वह देवदत्त किसे माने।


    यह आस्तित्व का संकट ही हमारी मूल समस्या है। जीवन की लड़ाई में मस्तिष्क जीतेगा या देह की हार होगी। इस नाटक के कुछ संवाद देखें --


    कपिल --क्यों मैं इतने दिन अपने से जूझते - लड़ते समझने लगा था कि मैं जीत गया .. अब मैं कपिल हूं - जंगली बेरहम कपिल। अपने शरीर और सिर के बीच का दरार मिटा देनेवाला कपिल। अब तुम क्या चाहती हो? और एक सिर और एक आत्महत्या? मेरी बात सुनो, तुम अभी यहां से वापस चली जाओ। देवदत्त के पास। वही तुम्हारा पति है - इस बच्चे का बाप।


                                                                           ...................


    पद्मिनी - चुप रहो पगले! तुम्हारे शरीर ने किसी नदी में स्नान किया, सुख भोगा, तो तुम्हारे मस्तक को यह नहीं जानना चाहिए कि वह नदी कौन सी थी, उसका बहाव कैसा था।


    देवदत्त और कपिल दोनों अपने पूर्व आस्तित्व को पाने के लिए लड़ते रहते हैं और अंत में वे मृत्यु को प्राप्त हो जाते हैं।


    हयवदन के बारे में निर्देशक और नाट्य समीक्षक रामगोपाल बजाज की टिप्पणी महत्वपूर्ण हैवे लिखते हैं... पुरूष की अपूर्णता ( मनुष्य की अपूर्णता ) को विभिन्न काल खंडों में रखकर अनेक नाटक लिखे गए हैं- आधे - अधूरे, द्रोपदी, सूर्य की अंतिम किरण से सूर्य की पहली किरण तक आदि में भी यही ध्वनि है। इन सभी नाटकों में स्त्री-पुरूष संबंध को लेकर किसी या किन्हीं बिंदुओं से त्रिकोण बनते हैं। हयवदन की उपकथा में मनुष्य के पूर्ण मनुष्य होने से आरम्भ होकर - शरीर और मस्तिष्क दोनों की श्रेष्ठता की कामना मुख्य कथा में प्रदर्शित की जाती है।


    अब उनके एक अन्य नाटक - नागमंडल की कथा की ओर चले। गिरीश कर्नाड ने इस नाटक की भूमिका में स्वीकार किया है कि यह नाटक कर्नाटक की दो लोककथाओं का परिणाम है - जिसे उन्होंने प्रोफेसर ए. के रामनुजम से सुना था। यह नाटक उन्होंने शिकागो -प्रवास में लिखा था। यह नाटक भी हयवदन की तरह रूपांतरण की कथा है। यह कहानी अप्पण्णा / नागप्पा, रानी और कुरूडब्बा के बीच चलती है। रानी अप्पण्णा की पत्नी है लेकिन उसका वैवाहिक जीवन सुखी नहीं है। वह अपनी पत्नी को बंद ताले के बीच रखता है। कुरूडब्बा इस दाम्पत्य जीवन को नियमित करने के लिए उसे जड़ी - बूटी देती है कि इसका काढ़ा बनाकर अप्पण्णा को खिला दे। रानी काढ़ा तो बनाती है लेकिन उसे एक दूह पर डाल देती है। उसमें से फन फैलाए हुए नाग दिखाई देता है। नाग उसके गुसलखाने के नाली से होते हुए उसके कमरे तक अप्पण्णा का भेष बदल कर रात के प्रहर में पहुंचता है। उसका व्यवहार बदला हुआ मिलता है। दिन के समय अप्पण्णा उसका पति आता है जिसका रुख एकदम उलट है। रात के समय कर्नाड उसे नागप्पा का नाम देते हैं।


    असली समस्या तब पैदा होती है जब रानी गर्भवती हो जाती है। यह बात वह नागप्पा के सामने रखती है तो वह कहता है कि वह नाग परीक्षा के समय नाग का नाम ले तो वह निष्कलंक साबित हो जाएगीअप्पण्णा का यह आरोप है कि उसने रानी के साथ किसी तरह के देह संबंध नहीं बनाए हैं तो वह गर्भवती कैसे हो सकती हैरानी के सामने दो विकल्प हैं या तो वह जलते हुए लोहे के छड़ को पकड़ ले या नाग की बांबी में अपना हाथ डाल कर अपने आपको निर्दोष सिद्ध करे। नाटक के कुछ कथोपकथन देखें -


    रानी - क्या यह बेहतर नहीं होगा कि मैं नागराज के दंश और बांबी की अंधेरी चुप्पी को अंगीकार कर लें?


    बुजुर्ग - २ - सुनो बिटिया, लोहे की छड़तपकर लाल हो चुकी है, इधर आओ।


    रानी - नहीं मैं नाग - परीक्षा ही दंगी।... इस गांव में आकर मैंने अपने हाथों से दो का परस किया है।


    अप्पण्णा - सुनो वह खुद अपने मुंह से कुबूल कर रही है। दो.. दो कौन हैं वे दो।


    रानी.. मेरा पति और यह काला नाग .. इसमें कुछ भी झूठ हो तो यह काला नाग मुझे डंस ले।


    काला नाग उसके कंधे पर चढ़ कर छत्र की तरह अपना फन फैला देता है। भीड़ अवाक रह जाती है। पंचायत भी चकित। लोग कहते है तुम्हारी पत्नी कोई साधारण स्त्री नहीं देवी है। अप्पण्णा कहता है - मुझे माफ कर दो। मैं पापी हूं। मैं अंधा हो गया था।


    इसी तरह हमारी राजनीति और समाज में साधारण घटनाओं को आसाधारण बनाने के करिश्मे किए जाते है। यह रूपांतरण और चमत्कार की कला है - जो यथार्थ को ढंक देती है। इस कथा का संदेश दूर तक जाता है। हम जिस समय में रह रहे हैं, वहां मिथक को वास्तविक माने जाने का खेल चल रहा है। वे मिथक से यथार्थ तक की यात्रा करते हैं।


                                                                      ..........


       गिरीश कर्नाड की प्रतिभा और भूमिका नाटक तक सीमित नहीं है। उन्होंने फिल्मों में भी अभिनय किया है और उसमें अपनी नाट्य - भाषा का उपयोग किया हैयू.आर. अनंतमूर्ति के उपन्यास संस्कार पर बनी फिल्म में उन्होंने प्राणाचार्य की केंद्रीय भूमिका को जीवंत कर दिया था। श्याम बेनेगल की फिल्म निशांत में उस स्कूल मास्टर के दर्द को याद करिए - जिसकी पत्नी का अपहरण सामंत द्वारा कर लिया जाता है। उस सामंत के विरूद्ध भीड़ इकट्ठी हो जाती हैइसमें उसकी और सामंत दोनों की पत्नियां मारी जाती हैं।


      मंथन फिल्म श्वेत आंदोलन के जनक वर्गिस कुरियन के जीवन पर निर्मित है। इस फिल्म में कर्नाड डाक्टर के रोल में हैं। इकबाल फिल्म का कोच हो या टाइगर जिंदा है- फिल्म का रॉ के अफसर की भूमिका का निर्वाह वे बड़ी कुशलता के साथ करते हैं। इस फिल्म में उनके अभिनय के सामने नायक सलमान खान ठिगने दिखते हैं। व्यावसायिक फिल्म आशा, पुकार और उत्सव में उन्होंने सफल अभिनय किया था। चाहे कला फिल्म हो या व्यावसायिक फिल्म दोनों स्तरों पर वे कामयाब हुए हैं। टी.वी. सीरियल मालगुडी डेज में उन्होंने स्वामी का मुख्य किरदार अदा किया था। यह सीरियल घर-घर देखा जाता था। इस तरह उनका जीवन वैविध्यपूर्ण था। वे कन्नड़ और अंग्रेजी में समान रूप से लिखते थे।


    वे लेखन से ही नहीं सामजिक सरोकार से जुड़े लेखक थे। उन्होंने आपातकाल का विरोध किया था और फिल्म एंड टेलीविजन संस्थान के निदेशक पद से इस्तीफा दे दिया था। पिछले कई वर्षों से उनके भीतर आक्सीजन की कमी हो गई थी - जिसकी आपूर्ति वह नाक में नली लगाकर करते थे। ऐसी विकट स्थिति में उन्हें - मैं हूँ अरबन नक्सल की तख्ती लगाए देखा गया था। वे उन बुद्धिजीवियों से अलग थे जो बंद कमरों में क्रांति का बिगुल बजाते हैं। किसी आंदोलन में शामिल होने से डरते हैं। पानसरे, कलबुर्गी या गौरी लंकेश हो, उन्होंने सबकी हत्या का विरोध किया। वे विपक्ष के लेखक थे। अफसोस यह है कि ऐसे लेखकों की पीढ़ी समाप्तप्राय हो रही है - जिससे दरबारी संस्कृति का उन्नयन हो रहा है और प्रतिरोध के स्पेस कम हो रहे हैं।


    गिरीश कर्नाड को संगीत अकादमी, साहित्य अकादमी, कन्नड़ साहित्य अकादमी के पुरस्कार के साथ ज्ञानपीठ सम्मान मिला था। वे पद्मश्री, पद्मविभूषण से विभूषित किए गएथे लेकिन यह उनका वास्तविक परिचय नहीं है। वास्तविक परिचय यह है कि उन्होंने नाटकों के क्षेत्र में मौलिक काम किया। पुराण और लोकमिथकों की प्रस्तुति नए संदर्भो में की। बादल सरकार, विजय तेंदुलकर, उत्पल दत्त जैसे साथी नाटककारों से मिल कर रंगमंच की भारतीय छवि बनाई। उनके साथ इस पीढ़ी का अंत हो रहा है।


    गिरीश कर्नाड अपने जीवन में कम विवादास्पद नहीं थे। कुछ साल पहले जब मुम्बई की एक संस्था ने वी, एस नायपाल को लाइफ एचीवमेंट एवार्ड से नवाजा तो उन्होंने उनके मुस्लिम विरोध की भरपूर आलोचना कीउन्होंने रवीद्रनाथ टैगोर को दूसरे दरजे का लेखक बता कर एक नया विवाद खड़ा कर दिया। उनकी पहचान इन विवादों से अलग है। विवाद से किसी लेखक का मूल्यांकन नहीं होता। किसी लेखक का साहित्य और समाज में क्या योगदान है- इस आधार पर उसे जांचने का काम किया जाना चाहिए।


                                                          सम्पर्क : 510-अवधपुरी कालोनी, अमानीगंज,फैज़ाबाद-224001, उत्तर प्रदेश मो.नं. : 9415332326