आलेख - क्या प्रेमचंद विधवा-विवाह के वाकई समर्थक हैं? - प्रो. मुश्ताक अली

प्रो. मुश्ताक अली - उत्तर प्रदेश के गाजीपुर के निकट रजवाड़ीमें जन्म। स्नातक से डी फिल तक की शिक्षा इलाहाबाद विश्वविद्यालय से। 'माया' पत्रिका का तकरीबन 9 वर्षों तक उप संपादन।इलाहाबाद विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में तकरीबन 23 वर्षों तक अध्यापन और 2 वर्षों तक विभागाध्यक्ष पद का दायित्व निर्वहन। अनेक पुस्तके प्रकाशित। पत्रकारिता के क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान के लिए भारतेंदु हरिश्चंद्र पुरस्कार प्राप्त ।


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आम तौर पर यह माना जाता है कि प्रेमचंद विधवा-विवाह के समर्थक थे लेकिन उनके कुछ ऐसे इंटरव्यू और पत्र मिले हैं जिनसे यह पता चलता है कि वे विधवा-विवाह के विरोध में थे। हकीकत क्या है? यह बात सौ आने सही है। कि अपने व्यक्तिगत जीवन में वे विधवा-विवाह के हिमायती रहे हैं और विधवा शिवरानी देवी से उन्होंने बाकायदा विवाह किया था। शिवरानी देवी ने 'प्रेमचंद घर में' शीर्षक पुस्तक में स्वयं लिखा है 'मेरी पहली शादी ग्यारहवें साल में हुई थी। वह शादी कब हुई, इसकी मुझे ख़बर नहीं। कब मैं विधवा हुई, उसकी भी मुझे ख़बर नहीं। विवाह के तीन-चार महीने के बाद ही मैं विधवा हुई।' (आत्माराम एंड संस दिल्ली, १९९१, पृष्ठ ११)


    इसी पुस्तक में शिवरानी देवी ने आगे लिखा है, “मेरे पिता मुझे इस हालत में देखकर खुश न थे। पहले तो उन्होंने पंडितों से सलाह ली। इसके बाद उन्होंने इश्तिहार निकलवाया। इश्तिहार आपने (प्रेमचंद जी) भी पढ़ाउसी समय आपने उन्हें खत भेजा- मैं शादी करना चाहता हूँ। मेरे पिता ने लिखा-आप फतेहपुर आइए। आप मेरे पिता को पसंद आए। उन्होंने आपको बरच्छा और किराए के रुपये दिए। मेरी शादी में आपकी चाची वगैरह किसी की राय नहीं थी। मगर यह आपकी दिलेरी थी। आप समाज का बंधन तोड़ना चाहते थे। यहाँ तक कि आपने अपने घरवालों को भी खबर नहीं दी। मेरी शादी हुई।'' (वही, पृ. ११)


    यानी प्रेमचंद ने विधवा विवाह का समर्थन तो किया ही, उन्होंने विधवा से विवाह भी किया। प्रेमचंद का वही जज्बा उनके शुरुआती उपन्यासों में भी दिखाई पड़ता है, जहाँ उनके नायक विधवा विवाह का समर्थन करते हैंहमखुर्मा न हमसवाब' ('प्रेमा' अर्थात् दो सखियों का विवाह-१९०७) का नायक अमृत राय रईस आश्रम के मुंशी बदरी प्रसाद की बेटी से बेपनाह मुहब्बत करता है लेकिन सोशल रिफॉर्मर लाला धनुखधारी लाल के विधवा विवाह पर हुए भाषण को सुनकर इतना आंदोलित होता है कि पंडित वसंत कुमार की विधवा से बाकायता विवाह रचाता है। प्रेमचंद पर उस समय समाज सुधार का ऐसा जुनून सवार  कि जिस प्रेमा का विवाह मजबूरी में दाननाथ से हुआ था, उसे पूर्णा से और पूर्णा को दाननाथ से मरवाकर प्रेमा को फिर विधवा बना देते हैं और विधुर हो चुके अमृतराय की शादी विधवा हो चुकी प्रेमा से करवा देते हैं। अमृतराय की प्रेमा से शादी के अलावा प्रेमचंद दो विधवाओं की शादी और दिखाते हैं। विधवा रामकली का अपनी मर्जी से प्राणनाथ से और विधवा लक्ष्मी का विवाह जीवननाथ से होता है।


    लेकिन इसी 'प्रेमा' की कथा को कुछ उलटफेर के साथ १९२७ में जब उन्होंने प्रतिज्ञा' में पेश किया तब विधवा विवाह नहीं कराया। 'प्रेमा' में तो उन्होंने अमृत राय का विधवा विवाह पूर्णा से करा दिया था, लेकिन 'प्रतिज्ञा' में पूर्णा को 'वनिता आश्रम' में भेजकर मीरा की तरह कृष्ण की भक्तिन बना दिया। 'प्रेमा' में विधवा-विवाह कराने को वे उचित नहीं समझते थे, इसलिए सीतामऊ के डॉक्टर रघुवीर सिंह को ७ मई १९३२ का बाकायदा एक खत लिखा: * * *प्रतिज्ञा' और 'प्रेमा' मेरी ही लिखी हुई हैं। 'प्रेमा' मैंने १९०५ में लिखा था। उस वक्त मैं नवाब राय के नाम से लिखता था। उसमें एक विधवा का विवाह कराया गया था, अर्थात् पूर्णा का अमृत राय से विवाह हुआ थालेकिन आप दोनों पुस्तकों को सामने रख लें तो आपको सिवा बसंत राय के गंगा वाले दृश्य के और कोई बात न मिलेगी। मैंने विधवा का विवाह कराके हिंदू नारी को आदर्श से गिरा दिया था। उस वक्त जवानी की उम्र थी और सुधार की प्रवृत्ति जोरों पर थी। उस रूप में मैं उस पुस्तक को नहीं देखना चाहता था। इसलिए मैंने कथा में उलटफेर करके इसे लिख डाला। आप देखेंगे कि आरंभ दोनों का भिन्न है, अंत भी। समानता केवल पात्रों के नामों में है।'' (प्रेमचंद का अप्राप्य साहित्य, खंड २, सं. कमल किशोर गोयनका, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, नई दिल्ली, १९८८, पृ. ९९)


    मुंशी प्रेमचंद ने क्योंकि यह स्वयं स्वीकार किया हैकि उन्होंने 'प्रेमा' में विधवा-विवाह कराकर हिंदू नारी को आदर्श से गिरा दिया था, इसीलिए 'प्रतिज्ञा' की कथा ही उन्होंने बदल दीअब विधवा-विवाह को लेकर उनका नजरिया स्पष्ट है लेकिन आगे यह देखना दिलचस्प होगा कि अपने अन्य उपन्यासों में विधवाओं की समस्या को कैसे ग्रहण करते हैं और उसका कैसे हल निकालते हैं।'


    प्रेमचंद के उपन्यासों में 'हमखुर्मा व हमसवाब' (प्रेमा) के बाद जलवए ईसार' (वरदान) ऐसा पहला उपन्यास है। जिसकी नायिका बृजरानी युवावस्था में विधवा हो गई दिखाई गई है। यों तो बचपन से ही उसे प्रताप से प्यार था लेकिन विधवा होने के बाद वह एक वियोगिनी और कवयित्री के रूप में अपना जीवन व्यतीत करती है, उपन्यास के अंत तक प्रेमचंद जी उसका विवाह नहीं कराते।


    बृजरानी की तरह 'प्रेमाश्रम' की गायत्री भी है। गायत्री लखनऊ के रईस और तालुकेदार राय कमलानंद की ज्येष्ठ पुत्री है जिसकी शादी गोरखपुर के एक रईस से हुई थी लेकिन दो ही साल बाद वह विधवा हो गई थी (प्रेमाश्रम, पृ. ७३) द्वारा। गायत्री का पुनर्विवाह हो गया होता तो ज्ञानशंकर न तो इसकी इज्जत लूट पाता और न ही उसके साथ वह रासलीला रचाता।


    'गोदान' में भोला की लड़की झुनिया को विधवा दिखाया गया है क्योंकि झुनिया का आदमी बंबई में हुए हिन्दू-मुस्लिम दंगे में मारा गया थाभोला उसकी । दूसरी सगाई करना चाहता था लेकिन झुनिया उसके लिए राजी नड नहीं हुई। बाद में उसके जीवन में गोबर आ जाता है जिसे वह प्यार करने लगती है लेकिन गोबर बिना विवाह के उसे अपने घर में कैसे ले आए? अपनी माँ धनिया को कैसे समझाए जबकि धनिया दोनों की प्रेम लीला से नाराज रहा करती थी। जब झुनिया के गोबर से ५ महीने का पेट रह गया और वह उसे बीच रास्ते छोड़कर लखनऊ भाग खड़ा हुआ तब झुनिया के पास होरी और धनिया की शरण में जाने के अलावा कोई रास्ता नहीं बचा। दोनों ने बिरादरी की चिंता किए बगैर झुनिया को अपना लिया लेकिन बिरादरी ने उन्हें जाति-बाहर कर दिया। पंचायत ने होरी पर १०० रुपये नकद और ३० मन अनाज का डाँड़ लगाने का फैसला सुना दिया। होरी और धनिया को विवश होकर पंचायत का फैसला मानना पड़ा तब जाकर हुक्का खुला और बिरादरी ने अपराध क्षमा कर दिया। यानी झुनिया गोबर से बिना विवाह के ही उसकी पत्नी हो गई और उसके बच्चे की माँ भी बन गई। यहाँ प्रेमचंद का अति आदर्शवाद दिखाई पड़ता है क्योंकि तत्कालीन समाज में विधवा विवाह जब उन्हें असंभव दिखाई पड़ा तब उन्होंने बिना विवाह के ही झुनिया को धनिया और होरी की बहू बना दिया।


    प्रेमचंद के उपन्यासों में कुछ अधेड़ उम्र की विधवाएँ आती हैं जिनकी शादी की उम्र लगभग समाप्त हो गई है। वे अपना जीवन निर्वाह या तो अपने मायके में रहकर करती हैं। या अपने किसी करीबी रिश्तेदार के पास रहकर। 'वरदान' ही ऐसा पहला उपन्यास है जिसमें बृजरानी के अलावा सुदामा को उस समय ही विधवा दिखाया गया है जब प्रताप की उम्र महज छ: साल थी। सुदामा की उम्र ठीक नहीं मालूम लेकिन इतना तो तय है कि विंध्याचल के अष्टभुजा मंदिर में वह २० साल से हर मंगलवार को बच्चे की अभिलाषा में पूजा-पाठ करने आती रही। प्रताप की चिंता में ही उसकी पूरी जिंदगी कट जाती है, अपनी उसे कोई परवाह नहीं।


    'सेवासदन' के ३८वें परिच्छेद में सुमन और शांता के पिता दारोगा पं. कृष्णचंद्र आत्महत्या कर लेते हैं। उनकी पत्नी गंगाजली विधवा हो जाती है। कभी-कभी अपने मायके अमोला (मिर्जापुर) में जाकर रहने का उल्लेख जरूर है लेकिन अपनी बेटियों की चिंता में ही उसकी बाकी की जिंदगी गुजरी, स्वयं की जिंदगी का उल्लेख नहीं मिलता। 'प्रेमाश्रम' में गायत्री के अलावा मनोहर की आत्महत्या के बाद बलराज की माँ बिलासी भी विधवा दिखाई गई है(पृ. २४४)। लेकिन विधवा होने के बाद उसकी बहू से अनबन हो जाती है फिर आगे प्रेमचंद ने उसकी कोई खोज खबर नहीं ली।


    'निर्मला' में वकील उदयभानु लाल के मारे जाने के बाद निर्मला, कृष्णा, चंद्रभानु और सूर्यभानु की माँ कल्याणी भी विधवा दिखाई गई है लेकिन कई बच्चों की विधवा हो गई माँओं को प्रेमचंद ने केंद्र में नहीं रखा है। हाँ जिस भुवनमोहन से निर्मला की शादी उसके पिताजी ने मरने से पहले तय की थी, वह बाद में निर्मला से शादी से इनकार करता है और किसी जायदाद वाली विधवा से शादी करने की बात करता है। पति के देहांत के बाद कल्याणी के लिएइससे बड़ी और क्या विपत्ति हो सकती है कि जवान बेटी सिर पर सवार हो और वह कुछ करने में असमर्थ हो। इसी उपन्यास के जिस मुंशी तोताराम से निर्मला की शादी तय होती है, उनकी ५० वर्षीय विधवा बहन रुक्मिणी की समस्या को प्रेमचंद ने भाई के घर की मालकिन बनाकर हल कर दिया हैलेकिन उसी रुक्मिणी की वजह से निर्मला की जिंदगी जहर हो जाती है।


    'गबन' की रतन भी ऐसी विधवाओं में आती है जिसके वकील पति पं. चंद्रभूषण के देहांत के बाद उनके भतीजे पं. मणिभूषण द्वारा उसकी संपत्ति हड़प लिए जाने के बाद वह सड़क पर आ जाती है। दरअसल उसके पति पं. चंद्रभूषण ने जीते जी अपनी पत्नी रतन के नाम कोई विरासत नहीं की थी, उसी का फायदा उठाते हुए मणिभूषण ने उसकी सारी संपत्ति हड़प ली।


    'कर्मभूमि' के पहले भाग में अमरकांत की सास रेणुका देवी यानी सुखदा की माँ को विधवा दिखाया गया है लेकिन वे एक धनी-मानी परिवार की विधवा हैं जिनके पास अकूत संपत्ति है। उनके गुजारे की कोई समस्या नहीं। वैसे भी प्रेमचंद ने लिखा है कि रेणुका देवी रूप और अवस्था से नहीं, विचार और व्यवहार से वृद्धा थीं लेकिन लोकमत की अवहेलना नहीं कर सकती थीं यानी वे अपने विवाह की बात तो सोच ही नहीं सकती थीं। 'कर्मभूमि' के पहले भाग में ही पठानिन को भी विधवा दिखाया गया है जो अपना गुजारा कढ़े हुए रुमाल वगैरह बेचकर करती है लेकिन 'कर्मभूमि के दूसरे भाग में सलोनी जो ३-४ बीघे की काश्तकार है का उल्लेख है जो उपन्यास के अंत तक महत्वपूर्ण और क्रांतिकारी भूमिका में दिखाई गई है, संभवत: विधवा ही है। उसे खेतों की बँटाई से जो मिल जाता है, उसी से उसका निर्वाह होता है।


    प्रेमचंद के उपन्यासों का अवलोकन करने के बाद विधवा विवाह के संबंध में मोटे तौर पर तीन तरह की बातें सामने आती हैं। पहली यह कि व्यक्तिगत जीवन में प्रेमचंद बाल विधवा के विवाह के हिमायती रहे हैं और उन्होंने स्वयं भी ऐसा किया था। ऐसा ही उन्होंने अपने शुरुआती उपन्यासों में भी किया। दूसरी बात यह कि उनको जब यह अहसास हुआ कि उन्होंने विधवा विवाह कराके हिंदू नारी को आदर्श से गिरा दिया है तब से उन्होंने किसी विधवा का विवाह नहीं कराया। तीसरी बात यह कि जब वे समाज की बंदिशों को नहीं छोड़ पाए तब उन्होंने बिना विवाह के ही नायिका को नायक की पत्नी और उसके बच्चे की माँ बना दिया। लेकिन उनके उपन्यासों में जो अधेड विधवाएँ आई हैं, उनमें से कछ को तो उन्होंने अपने हाल पर छोड़ दिया और कुछ को उनके मायके वालों के रहमोकरम पर छोड़ दिया।


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