श्रद्धांजलि - एक आन्दोलन का चला जाना

मौत ने हिन्दी को एक बड़ी क्षति दे दी। जानी-मानी लेखक, संपादक और संचयनकर्ता रमणिका गुप्ता को मौत अपने साथ ले गई। इस साल अर्चना वर्मा, कृष्णा सोबती और नामवर सिंह के बाद हिंदी के साहित्याकाश को हुई चौथी क्षति है और यह जोड़ने के लिए कि ८९ को छूती उम्र में रमणिका गुप्ता का निधन शोक का नहीं, एक जीवन की संपूर्णता को महसूस करने का विषय है। रमणिका गुप्ता का जीवन एवं उसकी निर्मिति तथा विचारों की आधुनिकता बनावटी नहीं थी। बनावटी तब होती जब वह अपने पारिवारिक जीवन रुआब और आभिजात्यपन से डिक्लास न होकर उसी जीवन की शान शौकत को धारण किए रहतीं और लिखतीं। जीवन और संवेदना में गहरा जुड़ाव होता है हम संवेदन और विचारों को जीवन से पृथकू नही कर सकते हैं। रमणिका गुप्ता जिस परिवार से ताल्लुक रखती थीं, उस आभिजात्य परिस्थिति व जीवन का एक भी अक्स उनकी विचारधारा और रचनात्मकता में नहीं दिखता है। इसका मूल कारण उन्होंने कभी भी अपनी जातीय संस्कृति और ठसक को स्वीकार ही नहीं कियाउससे स्वयं को पृथक रखा, स्वयं का वर्गान्तरण किया। यही कारण है, वह स्त्री होने के बावजूद भी वाम आन्दोलन और दलित आदिवासी चिन्तन की केन्द्रीय धुरी बनकर हिन्दी में आज के अस्मिता विमर्शो को नया रूप प्रदत्त करती रहीं और दलित साहित्य आदिवासी साहित्य स्त्री विमर्श को साहित्य की मुख्यधारा तक ले जाने का दुरूह काम करती रहीं।


      २२ अप्रैल १९३० को अविभाजित हिन्दुस्तान के पंजाब प्रान्त में रमणिका का जन्म हुआ था। तब हिन्दुस्तान ब्रितानी सत्ता के अधिपत्य में था। पिता प्यारेलाल बेदी सेना में कर्नल थे। परिवार धनवान था। सभी रिश्तेदार चाचा आदि भी अंग्रेजी शासन के उच्च पदों पर आसीन थे। रमणिका के विचारों और विद्रोही चेतना में उसके बचपन के परिवेश व पारिवारिक संस्कारों का बड़ा हाथ था। उच्च सामन्ती परिवारों में स्त्री को तमाम वर्जनाओं से गुजरना पड़ता है। जाहिर है रमणिका पर भी वर्जनाएँ थोपी गई होंगीयहीं से उनके भीतर विद्रोह और विचारों का खुलापन पनपने लगा जिसने आगे चलकर रमणिका गप्ता नाम एक बड़ी लेखिका का निर्माण किया। वे अपनी आत्मकथा में अपने ऊपर पारिवारिक प्रभाव को स्वीकार करती हैं। एक जगह लिखती हैं, 'मैंने पिता से उदारता और माँ से जिद हासिल किया।


    उस दौर में शिक्षा का हक आम भारतीयों के लिए भी कठिन था और स्त्री के लिए तो बेहद मुश्किल था, तब उन्होंने पंजाब विश्वविद्यालय से एम.ए. और बी.ए. करने बाद दिल्ली से पीएच.डी. की। पढ़ाई के लिए भी तमाम बन्दिशों का सामना करना पड़ा मगर वह अन्ततः सफल रहीं। अपनी पढ़ाई की कथा उन्होंने अपनी आत्मकथा “आपहुदरी' में विस्तार से दी है। रमणिका का विवाह हुआ, पारिवारिक दायित्वों का निर्वहन किया मगर यह जीवन टिकाऊ नहीं रहा। एक तरफ वैवाहिक बन्धन दूसरी तरफ सामाजिक दायित्वों का पारस्परिक संघर्ष पति पत्नी के बीच अलगाव-असहमति का कारण बना। रमणिका के जीवन का सबसे महत्वपूर्ण समय १९६० का रहा जब उनके पति का ट्रान्सफर बिहार राज्य के धनबाद में हुआ। तब धनबाद बिहार में था, अब झारखण्ड में हो गया है। यह आदिवासी बहुल परिक्षेत्र है। यहाँ आदिवासी और दलित व गरीब तबके के लोग कोयला खदानों में मजदूर के रूप में काम करते हैं। रमणिका इनके बीच जाने लगीं, उनके हित में छोटे मोटे आन्दोलन व बैठकों का सिलसिला शुरू कर दिया। धीरे धीरे पहचान बढ़ी। इनकी मुलाकात उस समय के बड़े कांग्रेस नेताओं से हुई और १९६२ में रमणिका कांग्रेस में शामिल हो गईं। १९६२ से १९६७ तक कांग्रेस में काम किया और आदिवासी समुदाय व राजनैतिक समुदाय तथा समाजसेवियों के बीच इनकी छवि एक ईमानदार एक्टिविस्ट की बनी। १९६७ में कांग्रेस से इनकी असहमति हुई और संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी की मेम्बर बन गई और १९६८ में मांडू विधान सभा का चुनाव लड़ा जिसमें मात्र ७०० वोट से हार गईं। चुनाव हारने के बाद वे मजदूर आन्दोलन में सक्रिय हो गईं। कोयला मजदूरों के बीच संगठन बनाने को लेकर कई बार उन्होंने आन्दोलन किया तथा प्रशासन से सीधे मोर्चा लिया। हजारीबाग कोयला श्रमिक संगठन बनाने में वह सफल हो गईं। बाद में सोशलिस्ट पार्टी के नेतृत्व से मनमुटाव के कारण उन्होंने पुनः कांग्रेस ज्वाईन किया तथा १९७२ में बिहार विधान परिषद की सदस्य बनीं। अपनी राजनैतिक शुचिता वैचारिक परिपक्वता तथा स्वभाव के कारण वह लम्बे समय तक विधान परिषद् में रहीं और कांग्रेस के लिए काम करती रहीं। १९७८ में वे लोकदल में शामिल हो गई और मांडू विधान सभा से लोकदल के टिकट से भारी मतों से निर्वाचित हुई। १९८५ में वह सीपीआई एम के सदस्य के रूप में बिहार विधान सभा में रहीं।


      ९० के दशक में रमणिका जी ने दिल्ली को अपना ठिकाना बनाया और अपनी कार्यस्थली भी। वे महत्वाकांक्षी भी थीं और साधन संपन्न भी। दिल्ली ने उनको हाथों-हाथ लिया। उनकी प्राथमिकताएँ नहीं बदलीं, रचनात्मक काम इस दौरान खूब किएउन्होंने दिल्ली में रमणिका गुप्ता फाउण्डेशन का गठन किया और युद्धरत आम आदमी नामक पत्र का प्रकाशन भी किया। उनका दिल्ली प्रवास और दिल्ली का जीवन रचनात्मक रूप से ठीक रहा मगर दिल्ली की राजनीति और दिल्ली के प्रतिबद्धता विहीन लेखक किसी को भी अपनी गिरफ्त में लेकर साहित्य में गड़बड़ियाँ कराने लगते हैं। उमर भी बढ़ चुकी थी, काम काज दूसरे लोग देख रहे थे अस्तु रमणिका गुप्ता के नाम से होने वाले आयोजनों में दूर दराज के लोग अपदस्थ हो गए और दिल्ली के इने गिने कुलीन लेखकों ने रमणिका गुप्ता फाऊण्डेशन में अपना वर्चस्व स्थापित कर लिया। यही हाल युद्धरत आम आदमी पत्रिका का रहा। संपादकों ने इसकी वह पहचान बदल दी जिसके लिए रमणिका धनबाद में जानी जाती थीं। मगर व्यक्तिगत रूप से रमणिका गुप्ता ने अपनी मूल प्राथमिकताएं कभी बदली नहीं। दलित, आदिवासी और स्त्री साहित्य उनके केंद्रीय सरोकार रहे। आने वाले वर्षों में उन्होंने जैसे अपनी सारी ऊर्जा, अपनी सारी निधि जैसे इन्हीं सरोकारों के लिए झोंक दी। युद्धरत आम आदमी के विशेषांक पर विशेषांक अपने-आप में हिंदी ही नहीं, बल्कि भारतीय साहित्य की धरोहर हो गए। अलग-अलग भाषाओं में महिलाओं द्वारा लिखी गई रचनाओं पर केंद्रित उन्होंने एक श्रृंखला ''हाशिए उलांघती स्त्री'' के नाम से प्रकाशित की। अलग-अलग भाषाओं का दलित साहित्य भी प्रकाशित किया।


    रमणिका का वह जीवन जो उन्होंने झारखण्ड में जिया जमीनी संघर्षों और वास्तविक अनुभवों का जीवन था। वहाँ आदिवासियों के जीवन व उनके शोषण तथा उनकी इस दुर्दशा में कौन कौन सी ताकतें सम्मलित हैं। इसका बोध उन्हें वहीं हुआ। उसी जीवन का और अनुभवों का तकाजा था कि उन्होंने “आदिवासी विमर्श'' को अस्मिता के सवालों में रखा और आदिवासी लेखन को साहित्य की समकालीन चेतना बनाया। आदवासियों पर उनका काम सबसे महत्वपूर्ण है और जरूरी भी हैउन्होंने आदिवासी जीवन की संस्कृति, परम्परा व ऐतिहासिक भौगोलिक समाजिक आयामों पर उस समय काम किया जब आदिवासी विमर्श पर न के बराबर लिखा गया था। इस सन्दर्भ में उनकी दो किताबें बेहद जरूरी हैं। पहली है-आदिवासी साहित्य की यात्रा यह एक सम्पादित किताब है। मगर मूल में आदिवासी साहित्य की उपयोगिता, सौन्दर्य व वैचारिकता पर बात की गई है। आदिवासी साहित्य यात्रा के विभिन्न पड़ावों को विभिन्न लेखकों-विशेषज्ञों ने अपने-अपने ढंग से लिखे लेखों में व्यक्त किया है, जो इस पुस्तक में संगृहीत हैं। उन्हीं की भाषा-बोली में व्यक्त आदिवासियों की जिंदगी और उनकी चेतना का सटीक और सही चित्रण करने वाली है यह किताब।


    उनकी दूसरी महत्वपूर्ण किताब है “आदिवासी कौन'' यह किताब आदिवासी अस्मिता की पहचान कराती है।


    यह पुस्तक आदिवासियों के जीवन के कई ऐसे अनछुए पहलुओं को हमारे सामने लाती है जिनसे अभी तक हम अपरिचित थे। स्वयं आदिवासियों द्वारा कलमबद्ध किए गए विचारों को यहाँ दिया गया है। आदिवासियों की दशा में परिवर्तन कैसे हो, उनकी शिक्षा कैसी हो व किस प्रकार उनके जीवन से जुड़ी सभी समस्याओं का निदान किया जाएजैसे सवालों को भी यहाँ उठाया गया है। आदिवासियों के अस्तित्व की बानगी प्रस्तुत करती यह पुस्तक सभी के लिए महत्वपूर्ण है।


  आदिवासी विमर्श के बाद सबसे जरूरी मुद्दा यदि रमणिका के साहित्य में है तो वह स्त्रीवादी लेखन है। चूंकि वह स्वयं स्त्री थीं और जीवन भर एक आभिजात्य संस्कारों व परिवारिक वर्जनाओं से जूझती रहीं लिहाजा उनका स्त्रीवादी लेखन औरों के सापेक्ष यथार्थ व तार्किक है। हमारे यहाँ स्त्रीवादी लेखन की सबसे बड़ी बिडम्बना यह रही कि यहाँ स्त्री लेखन का नेतृत्व आभिजात्य महानगरीय परिवारों की स्त्रियों ने किया। ऐसी लेखिकाओं ने किया जिन्होंने भारतीय सामाजिक संरचना व भारतीय सामन्ती संरचना का बिल्कुल अध्ययन नहीं किया और नहीं उन्हें हिन्दुस्तानी आम स्त्री मेहनतकश स्त्री मजदूर स्त्री दलित और आदिवासी स्त्री का बोध था। वे आंग्ल भाषा से अनूदित स्त्रीवादी साहित्य का अध्ययन करती रहीं और अपनी कहानियों व रचनाओं में उन्हीं बातों को प्रतिचित्रित करती रहीं। इसका कुप्रभाव यह हुआ कि स्त्रीवादी लेखन तो हुआ मगर भारतीय स्त्री और उसका निजी जातीय पक्ष व समस्याएँ इस लेखन के दायरे में नहीं आ सके। कहने का आशय है कि महानगरीय औरअकादमिक स्त्री विमर्श से नब्बे फीसदी स्त्री विस्थापित रही। इसीलिए जिन सवालों को लेकर इस देश में नारीवाद का बड़ा आन्दोलन खड़ा हो जाना चाहिए था, वह मात्र पाठ्यक्रम की किताबों तक सीमित होकर रह गया।


    'आपहुदरी' दिलचस्प आत्मकथा हैइसमें समय का इतिहास दर्ज है। इसमें विभाजन के समय दंगे दर्ज हैं, इसमें बिहार राजनेताओं के चेहरे की असलियत दर्ज है। इसमें संवादधर्मिता और नाटकीयता दोनों है। यह आत्मकथा इसलिए भी विशिष्ट है कि रमणिका जी ने जैसा जीवन जिया महसूस किया है, वैसा ही लिखा। यह स्त्री वैचारिकी नहीं है। आत्मकथा में अद्भुत अपूर्व स्मृतियां हैं। इस आत्मकथा के माध्यम से एक जिद्दी लड़की का निर्माण होता है। रमणिका गुप्ता ने इस आत्मकथा के माध्यम से अपने साहस की कथा कही हैआपहुदरी आत्मकथा के रूप में एक नया मोड़ भी है। नैतिक निर्णयों को ठेंगा, तथाकथित पारिवारिक पवित्रता के ढकोसलों का उद्दघाटन, इसकी बेबाकबयानी, इसकी निस्संकोच निडरता, सच बोलने का इसका आग्रह और साहस या अपने बचाव-पक्ष के प्रति इसकी लापरवाही इस आत्मकथा को स्त्री जीवन का आख्यान बना देता है। यह रमणिका की कहानी नहीं बल्कि रोज-ब-रोज कई-कई रमणिकाओं की दास्तान है। इसमे रमणिका गुप्ता ने जैसा जीवन जिया वैसा यहां लिख दिया। कहीं कोई पाखंड नहीं। इस आत्मकथा के अतिरिक्त उनकी एक और आत्मकथा हैहादसे जो इसी तरह की सच्चाई और बेबाकी को बयाँ करती है


    अब तक उनकी गद्य और पद्य की ४० पुस्तके प्रकाशित हो चुकी है तथा उन्होंने २४ पुस्तकों का संपादन किया है, साथ ही वर्तृतमान में इनकी छ: पुस्तके प्रकाशनाधीन है। गद्य में 'सीता', 'मौसी' उपन्यास, 'बहजुठाई' कहानी-संग्रह, 'निज घरे परदेसी 'दलित सपनों का भारत और यथार्थ', 'स्त्री-विमर्श:कलम और कुदाल के बहाने' तथा 'लहरों की लय', निबंधात्मक, आलोचनात्मक और यात्रा-वृत्तांत तथा 'हादसे' आत्मकथात्मक पुस्तके हैं।


    रमणिका गुप्ता ने अपने जीवन में जो कुछ हासिल किया, वे अपने संघर्षों से ही हासिल किया और जो कुछ उनके पास परम्परा से प्राप्त था, उसको छोडकर हासिल किया। २७ मार्च २०१९ को उन्होंने अपने इस रचनात्मकता भरे-पूरे जीवन से मुक्ति लीवह कुछ समय से बीमार चल रहीं थीं बीमारी के साथ भी उन्होंने रचनात्मकता व जीवटता को बनाए रखा। सृजन सरोकार पत्रिका की तरफ से हम सब उनको विनम्र श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं।