संस्मरण'- जन पक्षधरता के महान् विद्वान् नामवर - शेष नारायण सिंह

वरिष्ठ पत्रकार। विभिन्न समाचार पत्रों और टेलीविजन चैनलों में राजनैतिक टिप्पणीकार। समाचार पत्रों के अलाव उर्दू समाचार पत्रों में भी नियमित लेखनगांधी, अम्बेडकर, ज्योतिबा फूले और सरदार पटेल पर गहन अध्ययन। सम्प्रतिः प्रमुख दैनिक 'देशबन्धु' में राजनैतिक सम्पादक।


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१९७४ में जोधपुर विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में आंचलिक उपन्यास के अध्ययन के कोर्स में डॉ. राही मासूम रजा का 'आधा गाँव' लगा दिया गया। बड़ा हो हल्ला हुआ। छात्रों के एक गुट ने आसमान सर पर उठा लिया और किताब को हटवाने के लिए आन्दोलन करने लगे। उपन्यास में कुछ ऐसी बातें लिखी थीं जो पुरातनपंथी दिमाग वालों की समझ में नहीं आ रही थीं लिहाजा उन लोगों ने आन्दोलन शुरू कर दिया। डॉ. नामवर सिंह वहां उन दिनों हिंदी के विभागाध्यक्ष थे। किताब को कोर्स से हटाने की मांग शुरू हो गई। डॉ. नामवर सिंह झुकना नहीं जानते थे और अपनी इसी प्रवृत्ति के कारण उन पोंगापंथी छात्रों के सामने भी नहीं झुके। जब उन्होंने देखा कि आन्दोलन बहुत जोर पकड़ गयाअपने ऊपर उनको इतना विश्वास था कि वे किसी भी नौकरी से चिपकना चाहते ही नहीं थे। जोधपुर वालों का आन्दोलन दिल्ली विश्वविद्यालय में भी शुरू हो गया। कुछ दक्षिणपंथी जमातों से सम्बद्ध छात्रों ने दिल्ली में भी हल्ला-गुल्ला किया और डाक्टर साहब ने इस्तीफा दे दिया। उसके बाद डॉ. राम विलास शर्मा ने उनको आगरा के केंद्रीय हिंदी संस्थान में जाने के लिए राजी किया, सब कुछ हो गया लेकिन भविष्य तो हिंदी की दुनिया में उनके लिए कुछ और भूमिका तय कर चुका था। जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में उन दिनों हिंदी का नियमित कोर्स नहीं था। डी.पी. त्रिपाठी जे.एन. यू. छात्र संघ के अध्यक्ष थे। छात्रों ने मांग की कि डॉ. नामवर सिंह को जे.एन.यू. लाया जाए। और डॉ. नामवर सिंह को लाने का फैसला हो गया। एक नया कोर्स शुरू हुआ जिसका नाम था। उन दिनों विश्वविद्यालय में विदेशी छात्रों का जमावड़ा होता था, शायद यह कोर्स उनके लिए ही तय किया गया रहा होगा। हिंदी में एम ए करने वालों की पहली बैच का प्रवेश इसी कोर्स में हुआ था। आज के प्रसिद्ध कवि मनमोहन, स्व. घनश्याम मिश्र आदि इसी कोर्स में दाखिल हुए थे।


    डॉ. नामवर सिंह के जे.एन.यू. आ जाने के बाद हिंदी आलोचना भी कैम्पस में चर्चा के केंद्र में आ गई। राजकमल प्रकाशन से निकलने वाली विख्यात साहित्यिक पत्रिका 'आलोचना' के सम्पादक भी वे ही थे। उन दिनों जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में देश के शीर्ष विद्वानों का जमावड़ा हुआ करता था। प्रो. मुहम्मद हसन के साथ मिलकर डॉ. नामवर सिंह ने भारतीय भाषा केंद्र को दुनिया की एक आदरणीय संस्था बना दिया। इसी भारतीय भाषा केंद्र में साहित्य की विभूतियों के आने-जाने का सिलसिला जो शुरू हुआ तो बहुत समय बाद तक चलता रहा। उन दिनों सारी कक्षाएं पुराने कैम्पस में चलती थीं। अध्यापकों के आवास और छात्रावास नए कैम्पस में हुआ करते थे। आम तौर पर लोग दोनों परिसरों के बीच बनी पत्थर की पगडंडी से पैदल ही आया जाया करते थे। हालांकि ६१२ नम्बर की एक डी टी सी बस भी थी जो ओल्ड कैम्पस से गोदवरी हॉस्टल तक आती थी। इसी पगडंडी पर पैदल चलते हुए डाक्टर साहब ने आम बातचीत में माक्र्सवादी सौंदर्यशास्त्र के महान् विद्वान क्रिस्टोफर काडवेल की किताब 'इल्यूजन एंड रियलिटी' का जिक्र किया था। तब तक मैंने उस किताब का नाम नहीं सुना था। उन्होंने उसके बारे में मुझे बताया और उत्सुकता पैदा की कि मैं उसके बारे में और जानकारी करूं। साहित्यिक आलोचना में यह किताब पिछले अस्सी साल से सन्दर्भ की पुस्तक में गिनी जाती है।


  चित्र : विजय अग्रवाल


      कठिन से कठिन बात को बहुत ही साधारण तरीके से बता देना डाक्टर नामवर सिंह के बाएं हाथ का खेल था। आजादी की लड़ाई के दौरान सन् बयालीस में कम्युनिस्टों का अंग्रेजों के साथ खड़ा हो जाना एक ऐसा तथ्य है जिसको सभी मंचों से दोहराया जाता रहा है। हम भी नहीं समझ पाते थे कि ऐसा क्यों हुआ। एक दिन उन्होंने समझाया। उन्होंने कहा कि दूसरा विश्वयुद्ध जब उफान पर था और हिटलर ने सोवियत रूस पर हमला कर दिया तो हिटलर का विरोध करना जनयुद्ध हो गया और दुनिया भर की बाएं बाजू की जमाते तानाशाह हिटलर को हराने के लिए लामबंद हो गईं। उसी प्रक्रिया में भारत की कम्युनिस्ट पार्टी ने भी हिटलर की विरोधी ताकतों का समर्थन कर दिया। उस प्रक्रिया में कम्युनिस्टों को आजादी के बाद बार-बार ताने सुनने पड़े लेकिन जब फैसला हुआ था तब उसमें कोई गलती नहीं थीदेश और विदेशों में उनके छात्रों की बहुत बड़ी संख्या है। सब अपने-अपने क्षेत्र में शीर्ष पर हैं। डॉ. मैनेजर पाण्डेय, मनमोहन, असद जैदी, उदय प्रकाश, राजेन्द्र शर्मा, अली जावेद, जगदीश्वर चतुवेर्दी, पंकज सिंह, महेंद्र शर्मा आदि उनके छात्र रहे हैं। हिंदी के जितने भी सही अर्थों में शीर्ष विद्वान् हैं उनमें से अधिकतर उनके छात्र हैं। उनके बारे में सबके पास निजी संस्मरण हैं। उनकी सेमिनारीय प्रतिभा भी बेजोड़ रही है। हमने देखा हैकि जब भी वे किसी सेमिनार में शामिल हो जाते थे तो चर्चा उनके बारे में ही केन्द्रित हो जाती थी। जहां वे नहीं भी होते थे कोई न कोई उनकी दृष्टि का उल्लेख कर देता था और चर्चा उसी विषय पर केन्द्रित हो जाती थी।


    उनके छात्रों में बहुत से ऐसे प्रतिभाशाली छात्र भी थे जो उनके खिलाफ हो रही साजिशों को हर स्तर पर बेनकाब करते थे। १९७७ में एक बार जे.एन.यू. के सिटी सेंटर, ३५ फीरोज शाह रोड, नई दिल्ली में एक सम्मेलन हो रहा था। बंबई से आए एक साहित्यिक बाहुबली ने उसको संपन्न करवाने का जिम्मा लिया हुआ था। जनता पार्टी का राज था। अटल बिहारी वाजपेई विदेश मंत्री थे। विदेश मंत्रालय के एक संयुक्त सचिव ने उस सम्मलेन को सहयोग दिया था। कार्यक्रम प्राइवेट था लेकिन सरकार का गुप्त सहयोग था। डॉ. नामवर सिंह के खिलाफ उसमें कुछ पत्रक पढ़े जाने थे। भारतीय भाषा केंद्र के छात्रों को भी इस आयोजन के एजेंडा की भनक लग गई। श्रोता के रूप में घनश्याम मिश्र, विजय चौधरी, पंकज सिंह आदि शारीरिक रूप से सक्षम छात्र भी वहां पंहुच गए। जैसे ही भूमिका के दौरान उन कार्तिकेय जी ने नामवर जी के बारे में कुछ उलटा सीधा कहा, उनका मुखर विरोध हुआ। वे अपनी बात पर अड़े रहे तो उनको रोका गया और जब वे नहीं माने तो अगला कदम भी संपादित कर दिया। बाद में स्व. सर्वेश्वर दयाल सक्सेना ने उनको समझाया कि यहाँ था। इस तरह का प्रयास उनको जरूरी नतीजे नहीं दे पाएगा। शाम को जब कैम्पस में इस टीम के कुछ सदस्य मिले तो डाक्टर साहब ने उनको समझाया कि बौद्धिक धरातल पर ही विरोध किया जाना चाहिए था। शारीरिक दंड देना बिलकुल गलत था।


      डॉ. नामवर सिंह का नाम जब भी लिया जाएगा तो यह बात बिना बताए सब की समझ में आ जाएगी कि उन्होंने कभी किसी को अपमानित नहीं किया लेकिन आत्मसम्मान से कभी भी समझौता नहीं किया। काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में हिंदी के प्राध्यापक के रूप में वे कम्युनिस्ट पार्टी के उम्मीदवार के रूप में चुनाव लड़े थे, चुनाव में हार गए तो नौकरी से भी इस्तीफा दे दिया। उन दिनों उनके सबसे छोटे भाई काशीनाथ सिंह को बी एच यू में काम मिल गया था। घर चल रहा था। परिवार साथ ही रहता था। सुबह जब वे घर से निकलते थे तो चार आना उनकी जेब में होता था। उसमें उनके पान का खर्चा और केदार की दुकान पर चाय का खर्च चल जाता था। काशी उन दिनों बहुत बड़े साहित्यकारों का ठिकाना हुआ करता था। काशीनाथ सिंह ने बताया था या शायद कहींटी लिखा भी है कि एक बार उन्होंने उनकी जेब में कुछ रुपये डाल दिया। जब शाम को घर आए तो उनको समझाया कि उनके अपने खर्च के लिए जो चाहिए, वह उनके पास रहता है। आगे से ऐसी बात नहीं होनी चाहिए। ऐसे बहुत सारे दृष्टांत हैं जिनके आधार पर उनक शख्सियत के इस अहम पहल को रेखांकित किया जा सकता है।


    हिंदी आलोचना के क्षेत्र में और भी बहुत से लोग हैं जो अपने को उनके बराबर बताते थे। पुराने कैम्पस की क्लब बिल्डिंग के लॉन पर बैठे हुए १९७७ की फरवरी में बाबा नागार्जुन ने बहुत ही गंभीरता से कहा था कि बाकी सब नामवर सिंह के हवाले से अपनी बात कहते हैं जबकि नामवर सिंह हमेशा मौलिक बात करते हैं। उनके कहे में माक्र्सवाद की शास्त्रीय और व्यावहारिक समझ को वे लोग देख सकते हैं जो विषय को समझते हैं। दिल्ली में हर दौर में नामवर के विरोधियों के खेमे रहे हैं लेकिन ज्यादातर के विरोध निजी कारणों से होते हैं या अन्य कम्युनिस्ट पार्टियों से सम्बद्धता के कारण होते हैं। मैंने पिछले चालीस वर्षों में ऐसे लोग भी देखे हैं जिनका उन्होंने कोई फायदा नहीं होने दिया, बल्कि नुक्सान होने के अवसर बनाए लेकिन वे लोग भी उनकी मेधा और विद्वत्ता के कारण उनकी तारीफ करते हैं। कलकत्ता विश्वविद्यालय के रिटायर्ड प्रोफेसर डॉ. जगदीश्वर चतुवेर्दी ऐसे ही एक विद्वान् हैं। जे एन यू में उनके प्रवेश में भी नामवर सिंह ने अड़चन डाली थी। दिल्ली में उनकी नौकरी लगने में भी अड्डूंगा लगाया और भी कोई सहयोग नहीं किया लेकिन जगदीश्वर हमेशा उनका सम्मान करते हैं। उनके हजारों छात्रों में जगदीश्वर इकलौते छात्र है जिन्होंने उनके जीवन और लेखन के बारे में एक किताब लिखी हैजगदीश्वर का कहना है कि डॉ. नामवर सिंह ने अमेरिकी साम्राज्यवाद के खिलाफ जो भी लिखा है वह साम्राज्यवाद के खिलाफ लिखे गए सभी भाषाओं के लेखन की तुलना में बेजोड़ है। साम्प्रदायिकता के खिलाफ उनका लेखन अगर सेकुलर ताकतों के पैरोकार लोग ठीक से पढ़ लें और उसका प्रयोग करें तो साम्प्रदायिक राजनीति निश्चित रूप से कमजोर पडेगी। उनके बारे में लिखी हुई अपनी किताब को जब जगदीश्वर चतुवेर्दी ने उनके घर जाकर दिया तो उन्होंने कहा कि तुमने मुझे एक बार फिर जीवित कर दिया। उस किताब में उनके विचलन का भी जिक्र है, किसी को भी महान् कह देने की उनकी परवर्ती प्रवृत्तियों का भी जिक्र है, उनकी आलोचना भी हैलेकिन डाक्टर साहब ने उसकी तारीफ की और उस किताब को माथे से लगाया।


    एक शानदार जीवन बिता कर डॉ. नामवर सिंह की मृत्यु हुई है। जो कुछ उन्होंने लिखा है वह अपने देश के साहित्यिक इतिहास की धरोहर है। उनकी प्रमुख किताबें हैं, हिंदी के विकास में अपभ्रंश का योगदान, आधुनिक साहित्य की प्रवृत्तियां, छायावाद, पृथ्वीराज रासो की भाषा, इतिहास और आलोचना, कविता के नए प्रतिमान, दूसरी परंपरा की खोज। आने वाली पीढियां इनके आलोक में मेधा का विकास करती रहेंगी।