संस्मरण - 75 पार राजेन्द्र कुमार - हल्का किए बैठे रहो! - अली अहमद फ़ातमी

प्रारंभिक शिक्षा मजीदिया हाई स्कूल इलाहाबाद से। उच्च शिक्षा इलाहाबाद विश्वविद्यालय सेइलाहाबाद केन्द्रीय विश्वविद्यालय में उर्दू के प्रोफेसर एवं विभागाध्यक्ष से अवकाश ग्रहण करने के बाद स्वतंत्र लेखन। अनेक अवार्ड से सम्मानित कई पुस्तकों के लेखक एवं हिन्दी-उर्दू के पत्रपत्रिकाओं में अनेक लेख प्रकाशित।


                                                                  ---------------------------


हमारे बड़े भाई, दोस्त और हिन्दी भाषा-साहित्य के सुप्रसिद्ध कवि, लेखक व आलोचक प्रो. राजेन्द्र कुमार ने अपनी उम्र के पछत्तर वर्ष पूरे कर लिए। दोस्तों और चाहने वालों ने उनके सम्मान में यह भव्य आयोजन किया है जो जरूरी था। इसलिए कि असाहित्यिक व असुरक्षित देश व समाज में जहाँ लेखकों व बुद्धिजीवियों के मान-सम्मान में कमी आती दिखाई दे रही है, अगर हम पढ़ने-लिखने वाले ही अपने वरिष्ठ लेखकों व शायरों की इज्जत व सम्मान नहीं करेंगे तो ये सियासतदान और हुकमरान तो करने से रहे। इसलिए आज का यह समारोह जरूरी है और मुबारक भीसर्वप्रथम तो मैं अपने बड़े भाई और मेहरबान शख़सियत को दिल से मुबारकबाद देता हूँ और दुआ करता हूँ कि वह सौ साल जिएं और इसी तरह सक्रिय और जिन्दा दिल रहें। लेकिन 'पछत्तर पार' का शीर्षक देखकर जहाँ ख़ुशी का गुमान हो रहा है, वहीं हल्का -सा डर भी लग रहा है। यह 'पार' का शब्द आरपार का भी एहसास दिलाता हैखैर आर-पार का मामला कभी-न-कभी तो होता ही है और सबके साथ होना है। इसलिए इससे डरना क्या? लेकिन डर लगता हैउस सन्नाटे और खालीपन से, जो एक लेखक व कलाकार छोड़ जाता है और जो भरता दिखाई नहीं देता, जो अब धीरे-धीरे इलाहाबाद में दबे पाँव प्रवेश कर चुका है और यह एहसास हर उस व्यक्ति को होगा, जिसने भरे पूरे इलाहाबाद को देखा है। मैंने भी देखा है।


    मैंने जब इसी शहर में अपनी शैक्षणिक व साहित्यिक ज़िन्दगी की शुरूआत की थी, तो उस समय शहर में शायरों, अदीबों, बुद्धिजीवियों की बहार ही बहार थी। इन मामूली आँखों ने गैर मामूली शख्सियतों के दीदार किए हैं। फ़िराक़ गोरखपूरी के क़दमों में बैठा हूँ, महादेवी वर्मा का दीदार किया है। सुमित्रानंदन पन्त की जुल्फें देखी हैं। अमृत राय की रस घोलने वाली आवाज़ और महबूबाना अदाओं को देखा है। उपेन्द्र नाथ अश्क के क़लमकारी और कारोबारी अंदाज़ को भी देखा बल्कि झेला है। भैरव प्रसाद गुप्त की कड़क, रौबदार और अहम् प्रिय शख्सियत को क़रीब से देखा और समझा कि एक ख़ुददार साहित्यकार क्या और कैसा होता है? राम स्वरूप चतुर्वेदी, रघुवंश, जगदीश गुप्त, अमरकान्त, मार्कण्डेय आदि एक तरफ़ तो दूसरी तरफ़ प्रो. एजाज़ हुसैन, प्रो. एहतेराम हुसैन, प्रो. सै.मो. अक़ील, बलवन्त सिंह, महमूद अहमद हुनर आदि। क्या बहार थी, क्या तकरार थी, क्या कड़वाहट भरी मिठास थी, हिन्दी-उर्दू की एकता थी, एक परिवार और ख़ानदान की तरह जो आज भी बरक़रार है। उन्हीं जमानों में हमने राजेन्द्र कुमार को भी देखा। सत्य प्रकाश मिश्र, दूधनाथ सिंह, रवीन्द्र कालिया, ममता कालिया आदि को भी देखा जो जवान थे और हम नौजवान ! लेकिन इन सब में राजेन्द्र कुमार की जवानी में शराफ़त थी और बाक़ी सबमें शरारत। अपनी संजीदगी, ख़ामोशी और शराफ़त के कारण वे जवानी में भी बुजुर्ग लगते थे। मेरा ख्याल है कि बचपन में भी बुजुर्ग ही रहे होंगे।


    फ़िराक़ गोरखपुरी कहा करते थे कि अच्छी व बड़ी शायरी के लिए थोड़ी बहुत आवारगी और बदचलनी जरूरी हुआ करती है। यह बात वे पूरी संजीदगी और शराफ़त से उसके मर्म व नाजुक रिश्तों पर तक़रीर करते रहते कि हम हैरान रह जाते। फिर हमें विश्वास सा हो गया, हमने भी यह नेक रास्ता अपनाने की पूरी कोशिश की लेकिन लड़खड़ाए और मुंह के बल गिरे, यही कारण कि हम अच्छे साहित्यकार न बन सके। लेकिन फिर राजेन्द्र कुमार इतने बड़े अदीब कैसे बन गए क्योंकि उनके अन्दर आवारगी की सलाहियत तो मुझसे भी कम है। वे बड़े साहित्यकार हैं और साथ ही शरीफ़ और सभ्य इंसान भी, यह दोनों बोझ एक साथ कोई कैसे उठा सकता है? यह केवल राजेन्द्र कुमार ही बता सकते हैं कि इनके पास न केवल शराफ़त का बल्कि सादगी और संजीदगी का बड़ा ख़ज़ाना है। वह कानपुर जैसे कारोबारी शहर से जरूर आए हैं और साइंस के विद्यार्थी रहे हैं लेकिन बरसों बल्कि दहाइयों से इलाहाबाद के सूफ़ियाना व फ़क़ीराना कल्चर में रहते हुए, यहीं की पावन मिट्टी में खिल गए हैं। सन्तों का ख़मीर और सूफ़ियों का जमीर इनमें रच बस गया है। इसी तरह तसव्वुफ़ का विजदान और सन्तों का ज्ञान ध्यान भी इनकी सादा शख्सियत में घुल मिल गया है। यह जो आज के समारोह के निमंत्रण में उनकी तस्वीर है। और उस तस्वीर में जो बड़े-बड़े चार खाने की सदरी है उसको में लगभग पन्द्रह-सोलह वर्षों से उनके बदन पर देख रहा हूँ। यही इकलौती सदरी है जिससे पूरा कड़क से कड़क जाड़ा शर्माकर, मुंह मोड़कर रूख़सत हो जाता है। इसी तरह जूता भी एक जोड़ा और मोज़ा भी एक जोड़ा, स्वेटर एक, पैन्ट और शर्ट भी एक ही एक हों तो हैरत की बात न होगी। कैसे गुजारा करते हैं ये?



    खैर यह बातें तो लुत्फ़ के लिए हैं पर सच बात यह है कि राजेन्द्र जी की शख्सियत की सबसे बड़ी खूबी यही है कि उन्होंने दुनिया की; समाज की भौतिकता से अपने आप को बचाए रखा। बड़ी मुश्किल से सर छुपाने को एक छोटा सा घर बना सके। वह भी उस समय जब बेटे बड़े होने लगे।


  बहरहाल अब तो बेटे हैं, बहुएं हैं, पोते-पोतियाँ हैं, लेकिन मुझे नहीं मालूम कि वे पोते-पोतियों से खेलते हैं या पोते-पोतियाँ उनसे खेलते हैंइसलिए कि राजेन्द्र जी पछत्तर के ज़रूर हो गए हैं, लेकिन उनके अन्दर का मासूम बच्चा अभी भी जिन्दा है और खुदा करे कि वे जिन्दा रहे, इसलिए कि वह अगर जिन्दा रहा, तो वह सौ साल के होकर भी बूढ़े नहीं होंगे, ऐसा मझे यकीन है। राजेन्द्र जी के साथ हमने


    राजेन्द्र जी के साथ हमने दहाइयाँ गुज़ारी हैं, महफ़िलों में, गोष्ठियों में, सफ़र में, त्यौहारों में, दुख-सुख में। हर तरह के मंच पर हम साथ-साथ रहे हैं। काम भी किया और मोहब्बत का जाम भी पिया। यह ख्याल भी सताता रहा कि काश उनका कोई महबूब होता और हम उससे मिल पाते। लेकिन जहाँ तक मैं उनको जान सका हूँ, किताबों को अपनी महबूबा बना लिया है और पढ़ने-पढ़ाने को ही हिज्रो-विसाल बना लिया है, इस क़दर और ऐसा कि अपनी तपस्या के द्वारा वह ख़ुद ही महबूब हो गए हैं। इलाहाबाद के महबूब : हिन्दी/उर्दू के महबूब। यहाँ तक कि झूसिया हुए दूधनाथ के भी महबूब थे। महबूबियत की ऐसी खूबसूरत तस्वीर तो उर्दू शायरी के महबूब में भी कमश्कम देखने को मिलती है कि जिसे आशिक भी पसन्द करे और उसका रक़ीब (दुश्मन) भीदिल तो यह चाहता है कि हिन्दी जगत के महबूब राजेन्द्र कुमार, उर्दू में भी महबूब बन जाएँ और शायद बन भी गए हैं। इसलिए कि वे जितनी और जैसी उर्दू जानते हैं, और जिस तरह उर्दू शायरी, विशेषकर मीर गालिब, फ़िराक़-फ़ैज़ आदि पर उनकी नज़र है, और जो नजरिया है उसको देखकर तो हम सभी हैरान रह जाते हैं और कभी-कभी परेशान भी। वे हिन्दी के जलसों और भाषणों में कभी-कभी परेशान भी। वे हिन्दी भी उर्दू के शेर पढ़ते चले जाते हैं कि जिनको आम उर्दू वाले तो दरकिनार उर्दू के प्रोफ़ेसर आदि भी ठीक से पढ़ नहीं सकते। अभी हाल में विजय देव नारायण साही पर भाषण देते हुए, 'इक़बाल' का एक गहरा शेर एक खास अंदाज़ से पढ़ा। मेरी तरफ़ देखा, तो वह शेर मुझे भी ठीक से याद नहीं था। अगर दूसरी पंक्ति मुझसे पूछ लेते तो, भरी महफ़िल में मेरी रुसवाई हो जाती, लेकिन उन्होंने पूरे विश्वास के साथ शेर पढ़ा-


    सुकैं मोहाल है कुदरत के कारखाने में।


    सबात एक तग़य्युर है इस ज़माने में ।।


    ऐसे कई अवसर आए, जब उन्होंने उर्दू शायरी और शायरों पर उम्दा भाषण दिए। मुझे याद है कि २००८ ई. में जब मैंने 'ग़ालिब और इलाहाबाद' के शीर्षक से सेमीनार किया था, तो उर्दू के लेखकों के साथ-साथ मैंने राजेन्द्र जी से भी लेख पढ़ने की गुजारिश की थी। उन्होंने अपने लेख जिसका शीर्षक 'गालिब-१८५७ और फ़िक्रे-दुनियां' था, पढ़ा जो बहुत पसन्द किया गया। इसी प्रकार एक लेख मीर पर और एक भाषण 'चकबस्त' पर मुझे आज भी याद है। प्रेमचन्द और मन्टो पर तो वे महारत रखते हैं।


    उर्दू साहित्य से दिलचस्पी राम स्वरूप चतुर्वेदी और दूधनाथ सिंह को भी खूब थी। इस मुकाम पर राजेन्द्र जी इन लोगों से भी दो कदम आगे ही नज़र आते हैंइसलिए कि राजेन्द्र जी केवल आलोचनात्मक लेख ही नहीं लिखते, बल्कि उन्होंने कहानियाँ भी लिखी हैं। एक पत्रिका भी निकालते थे, शायरी भी की है हिन्दी में कविताएं लिखी हैतो उर्दू में बाक़ायदा ग़ज़लें भी कही हैं। और ये ग़ज़लें ही उनका न दिखाई देने वाला दर्पण है जिसमें कहीं-कहीं शबाब झलक उठता है। ऐसा इसलिए सम्भव हो सका कि ग़ज़ल में दिल की ज़बान ज्यादा बोलती है, दिमाग़ की कम ये दो शेर देखिए-


  अभी भी आग बाक़ी है कि लोहा भी है दुनिया का


  छुपा बैठा है बूढ़े जिस्म में इक नौजवाँ बाँका


  अगर कल ख्वाब बन जाऊँ तो उन आँखों के दे देना


  जो खींचा चाहती हैं इक बदलती दुनिया का ख़ाका


      गौरतलब बात यह है कि बूढ़े जिस्म में छुपा बाँका नौजवान अपने महबूब के लिए जिन्दा कम है, बल्कि दुनिया को बदलने का ख्वाब उसे जवान किए हुए है। यहाँ मामला शबाब का कम, ख़्वाब का ज्यादा है और ख्वाब देखना इंसान की फ़ितरत है। लेकिन ख्वाबों की फ़ितरत तो शायर की हक़ीक़त से अपना रिश्ता तो बनाती है, उसके नजरिए और सोच से और जिसकी सोच आसमानी के बजाए जमीनी होगी, ख्वाब भी जमीनी सच्चाइयों से जुड़े होंगे। इस शेर में देखिए, मेरी बात दुरूस्त लगेगी-


  हाथों से उठा लो मुझे माथे से लगालो,


  मैं खाक हूँ ज़मीं की, आसमाँ नहीं हूँ मैं।।


  एक शेर और देखिए-


  ख्वाहिश भला बनने की मुझे क्यों भला होगी।


  अच्छा है उनकी निगह में अच्छा नहीं हूँ मैं ।


  इस शेर में हल्की सी आवारगी की झलक दिखाई देती । लेकिन उससे ज्यादा बेपरवाई और बेनियाजी की। यह  वही बेनियाज़ी है जो 'मीर' का क्रशका (तिलक) खींचने और दैर (बुतख़ाना) में बैठने पर मजबूर करती हैं और गालिब दूसरे शब्दों में यह कहते हैं-


  जानता हूँ सवाबों-ताअतो-जोहद


  पर तबीयत उधर नहीं आती


  या 


  काबा किस मुंह से जाओगे 'ग़ालिब'


  शर्म तुम को मगर नहीं आती


  जब शायर अपनी धरती से गहरा रिश्ता जोड़ लेता है और इस रिश्ते में जजबात के साथ-साथ नज़रियात भी शामिल हो जाते हैं तो फिर गोश्त-पोस्त का महबूब रूख़सत हो जाता है। जमीन महबूबा हो जाती है और जमीन के वासी या आम इंसान उसके जिगर के टुकड़े, और अगर टुकड़ों पर मुसीबत आई हो, या आग लगी हो तो शायर का दर्दमन्द दिल तड़प उठता है और कह उठता है-


    कैसी लगी है आग इधर भी व उधर भी


    पगलाए लोग बाग इधर भी व उधर भी


    कुछ सिरफ़िरे, दोनों-धर्म मजहब के नाम को


    करते हैं दाग-दाग़ इधर भी व उधर भी


    हम वास्ता देते रहे इंसानियत का पर


    फुफकारते हैं नाग इधर भी व उधर भी


    ये कौन है उजाड़ के जो दिल की बस्तियाँ


     होता है बाग़-बारा, इधर भी व उधर भी


    इन शेरों में शायर का दर्द व ग़म ग़ौर कीजिए, जब जमीन पर आग लगी हो तो दिल में मोहब्बत के काग़ज़ी फूल नहीं खिलते।


    बल्कि आत्मा पिघलती है और शेरों में ढल जाती है। ग़ज़ल की नाजुक-मिज़ाजी, इस आग को आसानी से बर्दाश्त नहीं कर पाती, लेकिन एहसास की नजाकत, भाषा की लताफ़त, दिल के दर्द के साथ जुड़ जाती है तो अशआर ज्ञान-ध्यान की सरहदों को छूने लगते हैं। लोग बाग़', 'दाग़- दाग़' और 'बाग़-बाग़' की लय व धुन शेर में हुस्न तो पैदा करती ही है, लेकिन उससे ज्यादा दर्द को ज़ाहिर करती है। इसलिए कि दर्द अगर सच्चा हो तो उसमें इंसानी सुन्दरता की पूँज दूर तक सफ़र करती है। देखना यही है कि शायर का दर्द जाती है या कायनाती। और जब शायर कायनात की सरहद को छूने लगता है, तो दर्द में एक आहंग पैदा कर देता है। ग़म में ख़ुशी और अश्क में क़हक़हा तलाश करने लगता है। अगर इसके सिलसिले इंसानी और अवामी हों। शायर जब इस मंजिल पर पहुँचता है, तो फिर ऐसी ग़ज़ल जन्म लेती हैं-


    अश्क होता या किसी का क़हक़हा होना


    जो भी होता आदमी का आसरा होना


और फिर यह तेवर और लहजा भी सामने आता है-


    मुंह, हक़ीक़त से चुरा कर बैठना कैसा


    तय है आख़िर इक न इकदिन सामना होना


और ज्ञान-ध्यान की यह मंजिल भी-


    सैकड़ों पदों में हो तो भी झलक उद्वे


    खुद बखुद सच जिसमें, ऎसा आइना होना


    इन शेरों में ज्ञान-ध्यान, जमीन-आसमान और सबसे बढ़कर इंसान, सभी कुछ सिमट आए हैं। इनमें कुछ राजेन्द्र जी का अपना है, कुछ इलाहाबाद के सूफ़ियाना कल्चर का हैऔर कुछ वतन और उसके माहौल का है। एक अच्छी और अर्थपूर्ण ग़ज़ल ऐसे ही तत्वों से जन्म लेती है।


    इस मिली-जुली तहज़ीब के भी राजेन्द्र जी अब अकेले नजर आते हैं। राजेन्द्र जी केवल इसी के ही नहीं बहुत सारी परम्पराओं, साझी संस्कृति और सूफ़ी परम्परा के भी आख़िरी निशानी से लगते हैं। बाजारवाद ने जिस तरह पूरे समाज को जकड़ लिया है कि इस जकड़न में शायर-अदीब भी आ गए हैं। सियासत का शोर जारी है। नगाडे या ख़ामोश किनारे हो गए हैं। ऐसे में राजेन्द्र जी इलाहाबाद के एक कोने में बैठे सोते-जागते इस चिन्ता में है कि -


    दुनिया असीरे-हिरसौ-हवस और हम महफ़िक्र


    इंसाँ के बीच रिश्त-ए-जाँ किस तरह बनें


    जैसा कि सब जानते हैं कि इलाहाबाद शायरों व अदीबों का केन्द्र रहा है। बुजुर्गों के चले जाने से आज यह केन्द्र लड़खड़ा सा गया है। शेखर जोशी, ममता कालिया, लाल बहादुर वर्मा, वी.एन. राय आदि के शहर से बाहर चले जाने के बाद ख़ास तौर से। ऐसे गुम होते हुए माहौल में एक राजेन्द्र जी हैं, जिनके दम से ज़िन्दगी है, रोशनी है। खुदा करे यह रौशनी देर तक, दूर तक बाक़ी रहे, यही मेरी कामना है, दुआ है, बक़ौल फ़ैज़-


    हलक़ा किए बैठे रहो इक शमा को यारो।


    कुछ रोशनी बाक़ी तो है हर चन्द कि कम है।।