समीक्षा - वैचारिक गद्य की प्रभा बिखेरता, जाग मछन्दर जाग - राजेन्द्र वर्मा

जाग मछन्दर जाग, सुपरिचित कवि-लेखक, पत्रकार और संपादक सुभाष राय की नवीनतम पुस्तक है जिसमें ४७ समकालीन राजनीतिक, सामजिक और सांस्कृतिक आलेख संगृहीत हैं जो समय-समय पर दैनिक अमर उजाला और जनसंदेश टाइम्स में पूर्व प्रकाशित हैं। इनमें वर्तमान समाज की तस्वीर है जहाँ मनुष्यता कराह रही है, तो सत्ता का अशोभनीय एवं अनुत्तरदायी चरित्र-चित्रण है और नैतिक वर्जनाओं की वास्तविकता के साथ धर्म-पाखण्ड़ पर प्रहार है, वहीं प्रेम की शक्ति के प्रेरक व संवेदनात्मक चित्र हैं, प्रकृति-पर्यावरण के महत्व एवं उसके सम्मान-संरक्षण पर बल है और इतिहास रचते व्यक्ति के दृढ़ संकल्प व साहस की प्रेरक कथाएँ हैं। वर्तमान दुरावस्था से ऊबा लेखक यथास्थिति को परिवर्तित करने का स्वप्न संजोए है और अपने स्वप्न को साकार करने के उद्देश्य से अपने विशिष्ट और प्रायः काव्यमय गद्य के माध्यम से मनुष्यता को बचाने के लिए पाठकों से नया रास्ता अपनाने और नई चुनौतियों का सामना करने का आह्वान करता है। उसके स्वप्न में पलते समाज में मनुष्य बराबरी का दर्जा पाने का हकदार है, धन की लोलुपता का त्याग है, स्वस्थ परंपरा और सत्ता का पालन है, अप्प दीपो भव के भाव-प्रकाश में अस्मिताबोध, दायित्वबोध और प्रगतिशील होने का अर्थ-प्राकट्य है। सृजन की आवश्यकता पर बल और उसके स्वरूप पर मनन-चिंतन है। भाषा-संस्कृति के प्रश्नों पर सुचिंतित मत है, मनुष्यता को बचाए रखने का उपक्रम है। आम जन की शक्ति और मीडिया पर लाख पूंजीवादी बादल छाए हों, पर उसे अभी भी उससे लोककल्याणकारी वर्षा की आशा है। लेखक को आशा है कि जब शब्दों से बाहर आकर रचनाकार सामजिक एक्टिविस्ट की भूमिका निभाना शुरू करेंगे, तो बीमार लोकतंत्र को स्वस्थ होने में अधिक समय नहीं लगेगा। उसका मानना है कि अदालतों में अभी भी न्याय की ज्योति बुझी नहीं है, इसलिए सत्ता कितना ही प्रपंच रच ले, एक दिन जागरण अवश्य होगा और हमें दूसरी आजादी के अघोषित युद्ध का सुखद परिणाम मिलकर ही रहेगा।


      विचार के स्फुलिंग शीर्षाकित भूमिका में लेखक के विचार जहाँ पुस्तक के सृजन के उद्देश्य को स्पष्ट करते हैं, वहीं वे पाठक के मनोमंथन का आमंत्रण भी देते हैं- सभी चाहते हैं कि दुनिया बेहतर हो, ज्यादा मानवीय हो, सहिष्णु हो, सभी हो। कोई ऊँच-नीच न हो। सबको बराबरी के अवसर हों। आदमी केवल आदमी हो, वह जातियों से, सम्प्रदाय से, वर्ण से न पहचाना जाए। और कठिन समय में भी वह आदमी बने रहने की कुवत रखता हो। परन्तु व्यावहारिक दुनिया में जब ऐसा होता नहीं दीखता है, तब भीतर कहीं गहरे एक वेदना जन्म लेती है, एक क्षोभ पैदा होता है और वही किसी भी असंतुलन के खिलाफ संघर्ष के लिए प्रेरित करता है। बदलाव के लिए सड़क पर आन्दोलन एक बड़ी बात है, लेकिन किसी भी अन्याय, हकमारी या बुराई के खिलाफ विरोध दर्ज कराना भी कोई छोटी बात नहीं है। यह चुप रह जाने से बेहतर है। अपनी सृजन-प्रक्रिया के बारे में लेखक कहता है कि उसे जब आस-पास जहाँ कहीं भी अवरोध-असंतुलन दिखाई पड़ता है तो उसे स्वीकार कर पाना उसके लिए कठिन हो जाता हैऔर उसके प्रति क्षोभ, वेदना, असहमति और प्रतिरोध को दर्ज करने की प्रबल बेचैनी भौतिक लड़ाई के साथ ही लिखने को भी मजबूर करती है। विचार का एक स्फुलिंग कौंधता हैऔर फिर वह अपना तार्किक विस्तार ग्रहण करता हुआ आगे बढ़ लेता है।


पुस्तक के पहले आलेख, मुक्ति के मायने में लेखक ने अध्यात्म जैसे विषय को काल्पनिक मान्यताओं से निकालकर उसे पूर्ण भौतिक ज्ञान, वैज्ञानिकता और तार्किकता से प्रस्तुत किया है- मुक्ति व्यक्ति की चेतना का अनन्य सहजता की देशा में रूपांतरण है। यह व्यक्ति का महत्तम महामुन है जो अपनी प्रचंड चुप्पी में अप्रतिहत अनहद गरजता रहता है। यह चेतना की सर्वाधिक सकारात्मक सक्रियता का बिंदु है। लेखक मुक्ति जैसे जटिल विषय को सरलता से व्याख्यायित करता है। वह ज्ञान और तर्क के आधार पर अपनी बात रखता है- सामान्यतया शास्त्रीय मानकों से संचालित हमारे समाज में मृत्यु के बाद मुक्ति की अवधारण का प्रचलन है। वह निहायत पोगापंथी विश्लेषण है। सारा जीवन किसी ऐसी उपलब्धि के लिए प्रयासरत रहना जो मृत्योपरांत संभव होगी, जीवन में एक अज्ञानमय अदृश्यलोक रचने के अलावा कुछ और नहीं हो सकता। प्रकृति ने मनुष्य को चेतना दी, तो विवेक और तर्क भी दिया। यह विवेक ही आधे सफर में काम आता है, यही मनुष्य की वेदना, उसके कष्ट को समझने की ताकत देता है और यह उसके निवारण के लिए ताड़ने और लड़ते रहने का तर्क भी रचता है।xxx ज्ञान मुक्ति की पहली सीढ़ी है। मनुष्य की पीड़ा का चरम बोध ज्ञान के दरवाजे खोलता है। ज्ञान ही समाज के लिए अपने जीवन और अपनी ऊर्जा के सम्पूर्ण उपयोग का विवेक पैदा करता है और जो इस रास्ते पर बढ़ जाते हैं, केवल वे ही मुक्ति के सच्चे अधिकारी हैं।


      लेखक सामयिक विषयों पर अपनी लेखनी चलाता है, लेकिन उसमें तात्कालिकता का कोई दबाव नहीं द्रष्टव्य हैआज का महाभारत नामक लेख में चुनावी युद्ध का रूपक देखिए-महाभारत की भूमिका तैयार है। सेनाएँ आमनेसामने हैं। सभी अपने-अपने घात में। अपने-अपने हथियारों से लैस। किसी के पास जाति का अग्निवाण है, तो किसी के पॉस बाहुबल का ब्रह्मास्त्र। किसी के पास धनबल का फरसा है तो किसी के पास सम्प्रदाय की ढाल। कोई अपनी अधम लालसा को हृदय के भीतर दबाए ग्राम-ग्राम परम गुटवादी महाथिरों से विजय का प्रणति निवेदन कर रहा है, तो कोई संकर बर्बरीक अनात्मसंभव शक्तियों की सहायता के संकल्प से संचालित सम्पूर्ण परिदृश्य पर दृष्टि गडाए भविष्य को देख रहा है। लेख का समापन इन पंक्तियों से होता है-क्या होगा इस महाभारत का? वे (व्यास) समझना चाहते हैं कि इस दृश्य परिवर्तन की दिशा क्या हो सकती है, इसमें उनकी भूमिका क्या हो सकती है? कहीं यह मोहग्रस्तता व्यास के मनन कक्षा तक तो नहीं जा पहुंची? क्या व्यास समझ पाएंगे कि महाभारत के पुनर्पाठ की जरूरत है, क्या वे स्वयं धनुष संभालेंगे, मैदान में उतरेंगे? यहाँ व्यास कौन है? यह जानना गूढ़ नहीं हैं। लेखक की चिंता के मूल में जनता और मीडिया है, जिन्हें अपनी भूमिका समझनी होगी।


    पुस्तक के सभी आलेख हमें मनोमंथन के लिए विवश करते हैं। यदि उद्धरण दिये जाएँ तो यहाँ स्थान कम पड़ जाएगा। लेखक संस्कृत के श्लोकांश और सूक्तियों के सन्दर्भ के साथ-साथ कबीर, सूर, तुलसी, रैदास, दादू जैसे सन्त कवियों की प्रचलित काव्य-पंक्तियों के माध्यम से अपनी बात स्पष्ट करता चलता है। आधुनिक कवियों में भी वह पन्त, महादेवी, दिनकर, नागार्जुन, रघुबीर सहाय, धूमिल, दुष्यंत आदि की मार्मिक और दिशावाही पंक्तियों को उद्धृत करता है। दुष्यंत कुमार के अनेक शेर कथ्य का हिस्सा बने हैं। आज की राजनीति और समाज को आईना दिखाने का काम जो दुष्यंत ने किया था, हिन्दी-कविता में आज भी उसका अनन्य स्थान है और कोई भी चिन्तक-विचारक उसकी अनदेखी नहीं कर सकता, प्रत्युत उसे अपने विचारों को धार देने के लिए उनका आश्रय लेना पड़ता है। कुछ शेर जो जनता की जुबान पर चढ़ चुके हैं, उनको अपने आलेखों की आत्मा में बिठाकर लेखक ने पाठक का काम आसान कर दिया है। उदाहरण के लिएहो गई है पीर पर्वत-सी, पिघलनी चाहिए/इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए; कैसे आकाश में सूराख नहीं हो सकता/एक पत्थर तो तबियत से उछालो यारो!


     


ये आलेख सामयिक अवश्य हैं, पर तात्कालिकता का दबाव तनिक भी विचलित नहीं करता। इसके अलावा, आलेखों की भाषा इतनी मॅजी हुई है कि प्रभावोत्पकता में ये किसी लम्बी कविता को पढ़ने का आनंद देते हैं । कविता को अनेक प्रकार से व्याख्यायित किया गया है जिसमें से एक यह भी है कि मॅजा हुआ गद्य ही कविता है। भाषा की तरलता और बिम्ब-छबियाँ अन्तस को छूती हुई अनूठा आस्वाद देती हैं। कुछ लेख तो ललित निबंध बन पड़े हैं, जैसे—पृथिव्याम् पुत्रास्ते, समय के आगे शब्द, समय की शिला पर, मैं नाच्यो बहुत गोपाल, विक्षोभ का एक पल, उजाले चुनती स्त्रियाँ रास्ते बनाते हैं जो1   


        कुछ आलेख विस्तार चाहते थे ताकि विषयवस्तु के सभी पहलू पूरी तरह से न केवल पाठकों के सम्मुख आ सके,बल्कि उनके विवेचना भी तुष्टि के बिंदु तक पहुँचे, जैसे मुक्ति के माइने में कबीर और बुद्ध के दर्शन का हवाला है, लेकिन उस बहाने विषय की जटिलता को सहजता के साथ और खोला जा सकता था। लेकिन कुल मिलाकर पुस्तक में जो वैचारिक सम्पदा है, वह बार-बार पठनीय है और उसकी प्रभा गहन अंधेरे में सूर्य की लालिमा समेटे हुए लगती है। नि:संदेह लेखक और प्रकाशक बधाई के पात्र हैं।


        पुस्तक का नाम : जाग मछन्दर जाग (आलेख), लेखक : सुभाष राय, प्रकाशक : अमन प्रकाशन, १०४ए/८० सी, रामबाग, कानपुर-२०८०१२, संस्करण : प्रथम, पृष्ठ संख्या : १४४, मूल्य : ३२५ (जिल्द सहित)


      संख्या : १४४, मूल्य : ३२५ (जिल्द सहित)


                                       सम्पर्क : 3/29, विकास नगर, लखनऊ-226022, उत्तर प्रदेश, मो.नं.: 8009696696