संवेदना ही कविता को जीवंत करती है और दीघार्यु बनाती है। यह निजी और सार्वजनिक होती है। शब्द का वह स्वरूप जिसकी बुनावट में, निजी और सार्वजनिक संवेदना इस कदर मिश्रित हो कि निजी, निजी न रहकर, अपितु अपनी निजता को खोकर सार्वजनिकता में समाहित हो जाए। ऐसे समुच्य फूलक की परिणिति का नाम कविता है। पहली बार' कविता संग्रह इसी घुले-मिले रसायन का नाम है।
ज्ञानपीठ से प्रकाशित 'पहली बार' युवा कवि संतोष कुमार चतुर्वेदी का प्रथम काव्यसंग्रह है। यूं तो पहली बार सुनने और पढ़ने में बड़ा बौद्धिक और वैचारिक अंतर है। जैसे पहली बार क्या? शब्द का वितान? भावों की भंगिमा? विचारों की संम्प्रेशणीयता? या लेखनी का उदगम? ऐसे ही कुछ एकाधिक भाव मस्तिष्क में खटकते हैं। पर रचना के पास पहुँचने और गुजरने पर स्थिति बिल्कुल साफ़ हो जाती है। पहली बार' में लेखनी का कच्चापन नहीं अपितु विचारों की परिपक्वता है। शब्द संयोजन की कलात्मकता। नवीन बिम्बों और प्रतीकों का प्रयोग- जैसे 'ऋतुओं जैसा छोड़ते गएसाथ,' 'सरसों के फूल जैसा ताजा प्रेम,' 'बलात्कार से सनी लड़कियाँ,' 'अदहन और आग की तरह,' 'रीढ़ जैसे खड़ी है माँ 'आदि देखने को मिलता हैसंग्रह के भीतर कविता का फैलाव भी इतिहास से भूगोल, तंत्र से लेकर मानव तक फैला हुआ है।
'चित्र में दु:ख' से प्रारम्भ होकर चिन्ता 'पिछले मौसम में आम न खा पाने की चिन्ता के साथ समाप्त होती है। चिंता से चिंता की कड़ी कुछ बयां करे या न करे, पर कवि की संजीदगी, संवेदनशीलता और परदुःखकातरता तो बखूबी सामने आ रही है। 'चित्र में दु:ख' कविता अवसरवादी समाज, पूँजीवादी दुनिया तथा भूमण्डलीकरण के दौर में ब्राडिंग और पैकिंग बनते जा रहे मनुष्य की दारूण गाथा व्यक्त करती है। कवि, निर्देशक, धर्माचार्यों आदि विभिन्न पेशेवर लोग, किस तरह आम आदमी के दुःख को अपने-अपने हुनर का जरिया बनाते हैं। जबकि चित्र में दुखी को उसके आंतरिक रूप से दुःखी होने की चिंता अमूमन किसी को नहीं है। सिर्फ चिंता है तो गरीब, गरीबी, किसानी और किसान की ब्राडिंग कर अपनी-अपनी दुकान चलाने की। गनीमत यह है कि कवि हकीकत बयां करने में न-नुकूर नहीं करता-'और न जाने कितने संस्करणों में आया वह बूढ़ा/ अपने दु:ख और उदासी के साथ बैठा हुआ/अनुवादहीन/बूढ़े में था बिखरा संसार/और संसार में बैठा हुआ बूढ़ा/ उदास का उदास/ माथे पर रखे हुए हाथ।'
कहने की आवश्यकता नहीं, बुढा आज भी माथे पर शिकन लिए यथास्थिति में ही है। उसकी हालत की दुहाई सुनाने वाले कचनार लता के मानिंद फैल कर 'दुधो नहा और पुतो फलों' की उक्ति को चरितार्थ कर रहे हैं। यह विडम्बना राजनीति के क्षेत्र में कुछ अधिक गझिन है। चुनावी सावन में हमारे नेताओं के लिए गरीब, गरीबी, किसान, खेती, भुखमरी, भयावहता घटाओं वाले मेघ साबित होते हैं। सत्ता का विपक्ष को घेरने तथा विपक्ष का सत्ता से प्रश्र करने, इन दोनों आवाजों की तीव्रता के श्रृंग और गर्त के घेरे में उलझा 'रामबाण राजनैतिक एजेण्डा' बना हुआ है। सत्ता हो या प्रतिपक्ष दोनों इन्हें अपने-अपने तवे पर पड़ी कच्ची रोटी समझता है कि जब उभरी हुई आंत डकार के उपरांत सिकुड़ना शुरू हो जाएंगी, इससे पहले की पेट में चूहा कूदने की नौबत आए, भूख खुलने को हो, कि सेंक कर खा लेंगे। यहां सवाल यह नहीं कि कवि का दायित्व सिर्फ यथास्थिति से अवगत कराना, बल्कि यह कि दूषित और दोषारोपण की राजनीति में किसान नीतियों और योजनाओं की लक्ष्मण रेखा से अब तक बाहर क्यों नहीं नहीं निकल रहा है? क्या मजदूर अपनी तय सीमा रेखा की मजदूरी पा रहा है? क्या किसान की आत्महत्याएं बन्द हुई? किसानों की फसलों का भुगतान उचित दर और समय पर होने लगा? उर्वरकों का आसमान छूता दाम क्या कुछ अपनी गर्दन झुका सका? सिंचाई के समुचित संसाधन उपलब्ध कराए गए? नहरों माइनरों में समय पर अपेक्षाकृत क्यूसेक पानी उपलब्ध हो रहा है? यह वाजिब प्रश्न दीवार की भांति खड़ा ठोस, गम्भीर और मूक भी है।
पैकिंग और ब्रांडिग के इस खेल में हम कैसे मानवता को भी पीस दे रहे हैं, इसकी चर्चा समय-समय पर कई कवियों ने किया है। कवि संतोष अपनी ही एक कविता में कहते है- “जहाँ नाम की जगह हावी हो गया है नम्बर/ मसलन घर का नम्बर/बस का नम्बर/कम्पनी का हमारा नम्बर/हम नहीं हमारा मोबाइल नम्बर' इसका कैनवस कविता बातें ऐसी जोड़ती है' में और स्पष्ट है। मसर्रत की बात यह है कि उर्ध्वगामी यांत्रिक युग में अभी बहुत कुछ जिंदा है, जो मानवता और इंसानियत को पल्लवित करना चाहती हैइसके लिए कवि किसी दूर की मीनार का हवाला नहीं देता। किसी मंदिर-मस्जिद, चर्च आदि स्थलों पर बंट रहे शब्द ज्ञान को सुनने के लिए बाध्य नहीं करता है। और न ही किसी धर्मशास्त्र को रटने की नसीहत देता है, बल्कि बिल्कुल पास की सर्वसुलभ वस्तुओं के बीच से ही रास्ता निकालता है। वह है- अलार्म घड़ी, बल्ब, संगीत, कूलर आदि वस्तुओं और-सुकुमार प्रकृति हवाएँ और लताएँ। इस सन्दर्भ में कवि केदारनाथ सिंह भी लिखते हैं।
'पर बगल के घर में अगर पकता है भात/तो उसकी खुशबू घुस आती हैमेरे किचन में'
व्यक्ति को व्यक्ति से, पड़ोसी को पड़ोसी से निर्द्वद्व भाव से जुड़ने की सीख के लिए संतोष चतुर्वेदी भी प्रकृति की ओर ही इशारा करते हैं-'हमारे आंगन की लौकी की लता की कुछ बेलें/फल-फूल रही हैं पड़ोसी की छत पर निद्वंद्व भाव से'
इस यर्थाथ को और हम विस्तार दें तो विकास और निर्वंद्व के बीच आज के ज़माने में तीखी नोक-झोक है। विकास तो दिख जाता है, पर द्वंद्व के साथ। गौरतलब बिना द्वंद्व विकास ही समाज के लिए ग्रहणीय और संदेशात्मक होते हैं। यही सच्चाई जो आगे 'सच्चाई' कविता में परोसी गई है। आज सच्चाई अपने आयतन से दिन-प्रतिदिन ठिठुरती नज़र आ रही है। उसका स्थान झूठ फ़रेब लेता जा रहा है। उसके साफ़-सुथरे फ़लक को बार-बार धूल-मिट्टी डाल कर, वास्तविक रंग को धूसरित करने का प्रयास चल रहा है। 'सच बोलना अब बिल्कुल मना है, जो बोलेगा वह ठिठुरेगा/ सड़क के किनारे पागलों की तरह/लोग चिढ़ाएंगे उसे/फेकेंगे पत्थर।' पूरी शिद्धत के साथ उदय प्रकाश की कहानी 'तिरिछ' और मार्कण्डेय की कहानी 'हलयोग' की संवेदना के पास ले जाती है जिसमें नायक अपनी सच्चाई को हाथ धोकर पीछे पड़ने वाले लोगों को बताना तो चाहते हैं, पर सच्चाई को कोई सुनना नहीं चाहता। जो अंततोगत्वा शरीर के खून के रिसाव के रंध्रों से प्रवेश करती हुई पूरे शरीर को ठण्डा करके ही मानती है। अपराध की शब्दावली में आज यही मॉब लिंचिंग है।
गोया साहित्य का इतिहास और दर्शन से घनिष्ठ संबंध है। 'शांति' और 'सुकून' शब्द धर्म और दर्शन से गहरे स्तर पर ज्वांइट हैं। जिसके खोज में प्राणी खराब को सही तथ्य बेहतर को और बेहतर बनाने की दिशा में हरसम्भव इश्तियाक दिखाई पड़ता है। इसी चाल-चलन की कविता 'पूरा होने का अधूरा पन' है- 'अब महीने के जितने दिन /उतने हजार की तनखाह वाली नौकरी /इन सबके बाद भी पाता हूँ खुद को कम आसान /ज्यादा परेशान।'
देश की स्वतंत्रता के साथ लोकतंत्र अपनी प्रतिबद्धताओं, स्वतंत्रता, समानता और बंधुता के आचरण के साथ अवतरित हुआ। यद्यपि भाषावाद, क्षेत्रवाद, जातिवाद, धर्मवाद की गिरफ्त में आकर जल्द ही अपने आचरण से पथभ्रष्ट होने लगा और मोहभंग की स्थिति में आ गया। इसी लोकतंत्र की विडम्बना और अपराधीकरण का प्रतिकार करती कविता 'अपील' है। लोकतंत्र में 'वंशवाद' जो आज चरम पर है। ध्यातव्य है कि लोकतंत्र' को परिभाषित करते हुए अब्राहम लिंकन ने स्पष्ट किया -'लोकतंत्र जनता का, जनता के लिए और जनता द्वारा शासित तंत्र का नाम है।' पर दीगर बात यह सिर्फ 'जनता द्वारा' का ही मायने बचा हुआ है बाकी 'अपना' और 'अपने के लिए' सिद्ध होता चला जा रहा है। सारी विपक्षी राजनैतिक सत्ताएँ केन्द्र आने के लिए वंशवाद को कोसती हैं पर काविज़ होने पर खुद इसी धुन को अलापने लगती हैं। आप भी देखिए-'लगातार सात बार से चुनाव जीतकर/बनते रहे हैं विधायक अपने नेताजी/अबकी बार पूरी हुई है उनकी साध/ सूबे का मंत्री बनने की /हमारे गाँव के प्रधान /निर्विरोध चुने जाते रहे हैं एक अरसे से /नेताजी के पिता/ने जाने कब से क्षेत्र की प्रमुख हैंनेताजी की माता जी / कम उमर के बावजूद नेताजी का बड़ा लड़का /चुना गया है जिला परिषद का अध्यक्ष ---- पिछले चुनाव में क्षेत्र के सांसद चुने गए हैं। नेता जी के बड़े भाई नेताजी के सारे दामाद /सूबे के निगमों की सदारत कर रहे हैं।' कहना अतिरेक न होगा कि हमारे राजनेता इस लोकतंत्र में बस पांच साल क्षेत्र की जनता की सेवा करने की इच्छा की दुहाई देकर हाज़िर-नाज़िर होते हैं। पर सेवा करना उन्हें इतना मुनासिब लगने लगता है वे इसमें सपरिवार सम्मिलित होकर सिर्फ पाँच साल क्षेत्र की जनता की सेवा करने की इच्छा की दुहाई देकर हाज़िर-नाज़िर होते हैं। पर सेवा करना उन्हें इतना मुनासिब लगने लगता है वे इसमें सपरिवार सम्मिलित होकर सिर्फ पाँच साल नहीं, अपितु पाँच का पहाड़ा पढ़ने के क्रम में सेवा की भावना जारी रखना चाहते हैं।
लोकतंत्र में परिवारवाद को इंगित करती यह कविता तब और सार्थक हो जाती है जब कवि कह उठता है “हमने आजकल एक अपील डाली है/अपना जनता होने की।' अभिप्रायः मूल व्यक्ति वहीं का वहीं रह जाता है। इस 'लोकतंत्र' में 'लोक' का ही अस्तित्व खतरे में है। कविता 'हमारा चुनाव' भी इसी क्रम में हमारे ज़माने के नेता और लोकतंत्र की मूलभूत विशेषताओं को इंगित करती है- 'राजनीति और धर्म का घालमेल आरम्भ किया था चुनाव लड़ाने से पहले देखते थे दल/ प्रत्याशी की जाति- धरम/खरचने की आदत/ क्षेत्र में रोब-दाब /बूथ लूटने की ताकत / चाहने पर दंगा करवा सकने /और यथा संभव रुकवा सकने का महारत।'
उत्तरआधुनिकता वाद की उन तमाम घोषणाओं जैसे विचारधारा का अंत (डेनियल वेल) लेखक की मृत्यु (रोलाबार्थ) लेखक का अंत (लायन ट्रिलिंग) उपन्यास का अंत (इलियट) आदि विचारधाराओं की छाया कहीं न कहीं हिंदी साहित्य पर पड़ी'कविता का अंत' की आवाज उड़ी। धर्मवीर भारती ने 'कविता की मौत' नामक कविता भी लिखी। देखना यह कि क्या इसके घेरे में संवेदना के समाप्त की बात नहीं छुपी है? आखिर संवेदना हो तो कविता का प्राण है। जद्दोजहद की इस परिपाटी में, 'और वह आज भी जिंदा है/मृत्यु की सारी घोषणाओं के बाद उक्त पंक्ति कवि केदारनाथ सिंह कहते हैं अपितु 'चींटी' से लेकर हिमालय तक की संवेदना को पिरोकर कविता बनाते हैं। कहना न होगा कि चीटियां' 'रास्ते' 'माचिस' 'बरगद' कविताओं के माध्यम से कवि संतोष संवेदना विस्तार की इसी कड़ी से जुड़ते नज़र आते है। चींटियों' की रुलाई में कवि केदारनाथ सिंह एक गर्भवती चींटी को उसके अण्डे रखने के मुनासिब स्थान के लिए चिंतित हैं, तो कवि संतोष भी उनके अदम्य साहस को इंगित करते है' - 'चींटियों के लिए नहीं होता कोई रास्ता/ जहाँ जाती है वे खुद- ब- खुद बनता चला जाता है जाता है रास्ता।' निचोड़ इन्हें कर्मों पर विश्वास है। बनी-बनाई परिपाटी पर नहीं। अर्थात 'लीक पर वे चले जिनके चरण दुर्बल हारे है' (सर्वेसर दयाल सक्सेना) सूक्ष्म दृष्टि और सहृदय के कारण रास्ते की मार्मिक संवेदना को गहरे तक महसूसते हैं तभी तो कहते हैं- 'पता न कब सोते है रास्ते कब जगते हैंकब कराहते हैं।'
संवेदना और सहृदयता के अतिरिक्त दूसरी बात जो इनके काव्य को महत्वपूर्ण बनाती है-वह ऐतिहासिकता है। यूँ तो हर कवि की अपनी निजी अनुभूति और संवेदना होती है। पर तुलनात्मक रूप से यदि गौर करें तो 'चीटिया' 'रास्ते' 'माचिस' 'बरगद' आदि कविताओं का संवेदनात्मक पक्ष इन्हें कवि केदारनाथ सिंह के करीब लाता है, तो वहीं कविता 'गुजरात २००२, अयोध्या २००३, छोटी सी जगह' आदि कविताएं विडम्बना और ऐतिहासिकता के लहजे से कवि कुंवर नारायण की बारीक दृष्टि से जोड़ती है। अयोध्या के आख्यान को कवि कुंवरनारायण ने अयोध्या '१९९२' तथा संतोष चतुर्वेदी 'अयोध्या २००३' के माध्यम से व्यक्त करते हैं। देखना यह कि सन् १९९२ की अयोध्या, ग्यारह वर्षों के अंतराल की सन् २००३ की अयोध्या की स्थिति में क्या कुछ अंतर आ सका? इतना ही नहीं वर्तमान २०१९ की अयोध्या भी क्या पुराने नगाड़े के थाप पर ही थिरक रहीं है? पुराने स्वरों को अलाप रही है? या कुछ बुनियादी अंतर आया?
कवि कुँवर नारायण लिखते हैं 'अयोध्या इस समय तुम्हारी अयोध्या नहीं योद्धाओं की लंका है। मानस तुम्हारा चरित' नहीं / चुनाव का डंका है।' तो कवि संतोष चतुर्वेदी लिखते हैं- जैसे-जैसे मंथर गति से/सत्ता पर दखल बढ़ा पाखंड का वैसे-वैसे राजनीति की/धुरी बनती गई अयोध्या/आखिरी में यह भी कहते हैं-'बहरहाल यह रोज़ फैलती हुई खबर थी/अयोध्या मन में समा जाने वाला डर था।'
इसमें कोई दो राय नहीं, आज अयोध्या राम जन्म भूमि कम, आम नागरिक के भीतर समाया भय है। तथाकथित राजनीतिक पार्टियों के एजेंडे से लेकर मंदिर और मस्जिद की स्थापना की गाल बजाने वालों के बीच अयोध्या है। फिर भी अयोध्या 'नौ दिन चले अढाई कोस' कहावत को भी मात दिया। जस की तस है! मंदिर और मस्जिद की लड़ाई में साम्प्रदायिक हो चली है। अयोध्या जीना नहीं, अपितु भय, आतंक और राजनीति का पर्याय बन चुकी है। और न जाने कब तक अंगीठे में पड़े उपले के समान धुंधआता, सुलगता, भभकता और जलता रहेगा।
कवि का समय की नब्ज पर गहरी पकड़ होने से स्थितियों का निदान, लक्षण और उसके उपचार की समझ दिखाई पड़ती है। कविता 'रोटी की धरती' 'विडम्बना है यह 'दूरियाँ' 'सारी खूबियों के बावजूद', 'परदा' 'नाजायज़' 'जोकिसी काम के नहीं होते' 'शब्द घूम आते हैं' आदि कविताओं के हवाले से बखुबी तफ्तीश की जा सकती है- इन कविताओं की कुछ पक्तियाँ-१. 'कभी श्रम न करने वाले/ पाँच सितारा होटलों में बैठकर/ श्रमिकों की अंतहीन समस्याओं के बारे मेंविमर्श करते हैं।' २. परदे के पीछे झाड़े पोछे और चमकाएजा रहे हैं चेहरे/ दुहराए जा रहे संवाद, '३. बार-बार होता हूँ पंक्तिबद्ध/ कई बार पीछे किए जाने के बावजूद', ४. रिश्ते अब ढोए जाते हैं। जब जहाँ मन/ आँख मूंदकर पटक दिएजाते हैं/बेरहमी से।' वाकई आज का यही यथार्थ, जिसके आगे कुछ कहना व्यर्थ होगा।
एक तरफ डर और भय जहाँ व्यक्ति के दामन पर कायरता के धब्बे हैं, तो वहीं दूसरी ओर इंसान को सही मार्ग पर बने रहने और चलने के लिए सचेष्ट करने वाले कारक भी हैं-'डर ने बनाया है हमें आदमी/डर ने दिखाईहमें राहे'।
'जीवन' और 'मृत्यु' सृष्टि के दो शाश्वत पक्ष है। इन दोनों में प्रायःद्वंद्व पाया जाता है। इस परिप्रेक्ष्य में दूधनाथ सिंह का एक कथन याद आ रहा है - 'मृत्यु पर कविता करना कितना आसान है पर इसको देख पाना कितना कठिन है।'
कवि दिनेश कुशवाह अपनी कविता पिता की चिता जलाते हुए' में पीड़ा, दु:ख, संवेदना को व्यक्त करते हैं, तो वहीं कवि संतोष की 'धूप में पथरा जाने की चिंता किए बगैर' 'अकेले कहीं नही', 'धरती का लिहाफ़' किसी कविता का लिहाफ़ नहीं अपितु एक पुत्र को अपने संबल पिता के खोने की गहरी कारूणिक पीड़ा है। अंत में बचती है सिर्फ स्मृति जिसे संजोता है कवि नहीं पुत्र-पर एक बारगी कवि का साहस तो देखिए इस कारूणिक पीड़ा से भीगा पुत्र अंतिम सत्य (मृत्यु) को स्वीकार विश्लेषण के साथ करता है- 'एक डरावनी अनुभूति वाला शब्द हो तुम/किसी के मरने से नहीं मरता उसका नाम।' पर पिता की दुनियादारी की कही गई अंतिम समय की बात को टोंगे गाँठ बाध लेता है-
'संभालो अपने आप को
यही दुनिया का दस्तूर है।
इस तरह प्रस्तुत संग्रह की अधिकांश कविताओं की अपनी ठोस जमीन है, विचारों से उर्वर है। गझिन संवेदनाओं से बिथी और गुंथी हुई है, पर कुछ कविताएँ जैसे-'खेल' 'पता नहीं' 'जमीन में सेंध लगाकर' आदि में विचार कुछ तरल है। ऐसा भी नहीं कि विचार नहीं है, हाँ! बाकी अन्य कविताओं की तरह ठोस जमीन और यर्थाथ के बहाव के उस स्तर के पकड़ में नहीं आती जिस यर्थाथ की आज दरकार है। इतना जरूर कहूँगा कि नवीन बिम्बों और प्रतीकों का भरपूर प्रयोग काव्य संवेदना को और उर्वर कर शब्द चयनात्मक शिल्प के क्षेत्र में एक नया प्रस्थान है। जो कविता की सम्वेदना के साथ न्याय कर पाठक के समझ पठनीयता की असीम सम्भावनाएँ खोलती हैआखिर ये सम्भावनाएँ ही तो हैं-
अंधेरे की मौत के लिए
काफ़ी होता है दीये का उजाला ही
सपने देखते हुए मरना बेहतर होता है
बनिस्बत खाली मरने से।
समीक्षित पुस्तक : 'पहली बार', कवि : संतोष कुमार चतुर्वेदी, प्रकाशक : 'भारतीय ज्ञानपीठ' १८, इन्सटीट्यूशनल एरिया, लोदी रोड, नई दिल्ली-११०००३, प्रथम संस्करण : २००९, मूल्य : १२० रूपए
सम्पर्क: शोध छात्र, हिन्दी विभाग, ईवि.वि., इलाहाबाद मो.नं.: 9598677625