लेख - तुमुल कोलाहल में आलोचना की आवाज - स्वप्निल श्रीवास्तव

प्रतिष्ठित कवि-कथाकार। शिक्षा : गोरखपुर विश्वविद्यालय, गोरखपुर कृतियाँ : ईश्वर एक लाठी है, ताख पर दियासलाई, मुझे दूसरी पृथ्वी चाहिए, जिंदगी का मुकदमा, जब तक है जीवन, एक पवित्र नगर की दास्तान (कवितासंग्रह) । सम्मान : भारत भूषण अग्रवाल कविता पुरस्कार, फिराक सम्मान तथा अन्तर्राष्ट्रीय सम्मान। कविता और कहानी लेखन के अलावा समीक्षा और अनुवाद में अभिरूचि। देश-विदेश की भाषाओं में कविताओं के अनुवाद। सरकारी सेवा से निवृत्त होकर फिलहाल फैजाबाद में स्थायी निवास।


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नामवर सिंह का चेहरा किसानी था। सांवला रंग, सीधी रीढ़, जो अंत तक तनी रही। उनके भीतर आलोचनात्मक दृढ़ता थी। वे देखने में बहुत सुंदर नहीं थे लेकिन जब बोलते थे तो सुंदर दिखने लगते थे। ज्ञान की आभा से उनका चेहरा दीप्त हो उठता था। वह अभूतपूर्व वक्ता थे। आलोचना की उनके पास एक समर्थ भाषा थी। यह सब सहज सम्भव नहीं हुआ, उसे उन्होंने अपने ज्ञानार्जन और श्रम से अर्जित किया। वे भारतीय वाङ्मय और पश्चिमी समाज की गहन विचारधाराओं के अध्एता थे। उनकी आलोचना उद्धरणों से बोझिल नहीं थी। उनका लिखा और कहा हुआ कम महत्वपूर्ण नहीं था। उनके पूर्व में आचार्य रामचंद्र शुक्ल और हजारी प्रसाद द्विवेदी जैसे आलोचक भी थे। वह उन दोनों से अलग थे। उन्होंने आलोचना की मुश्किल राह को सुगम बनाया ताकि वह आम पाठकों तक पहुंच सके।


    एक आलोचक के रूप में वे स्टार थे। किसी अन्य विधा के रचनाकारों को इतनी ख्याति नहीं मिली थी, जो उन्होंने अकेले अर्जित की है। इसके पीछे उनका गहन अध्ययन और कहन की शैली थी। किसी विधा का सर्वप्रथम गुण उसकी सम्प्रेषणीयता है, वह उनकी आलोचना में साफ दिखाई देता है। वे आलोचना में उस भाषा में बात करते थे, जिसे सामान्य से सामान्य पाठक हृदयंगम कर सके।


    हिंदी में आलोचना ऐसी विधा है जिसमें पाडित्य का भाव प्रबल होता है। भाषा जितनी कठिन हो आलोचक उतना ही विद्वान माना जाता है। कुछ आलोचक तो खोज-खोज कर अपनी आलोचना में ऐसी दुरूह भाषा का वैभव दिखाते हैं कि पाठक चमकृत हो जाए। नामवर सिंह ने इस रूढ़ि को तोड़ा है और उसकी जगह पर ऐसी भाषा को जगह दी है, जिसे समझने और ग्राह्य करने में कोई बाधा न हो। हिंदी समाज में आलोचकों का एक ऐसा भी वर्ग है जिसकी आलोचना यूरोपीय चिन्तकों के उद्धरणों से बोझिल होती हैवे अपनी परम्परा की जड़ों की खोज अन्यत्र करते हैं। इस तरह वे अपने उद्गम स्थल से दूर हो जाते है। जब यूरोप या अन्य देशों में आलोचना की अवधारणाएं निरर्थक होने लगती हैं तो उसे हिंदी के आलोचक खींचतान कर उसे अपनी आलोचना में जगह देते हैं। उत्तर आधुनिकता कुछ इसी तरह की धारणा है। हम अभी पूरी तरह से आधुनिक ही नहीं हुए हैलेकिन बात उत्तर आधुनिकता की करते हैं। हमारी आलोचना में इस तरह के कई अंतर्विरोध देखने को मिलते हैं।


    हमारे यहां अधिकांश पाठक कविताओं और कहानियों के पाठक हैं। आलोचना के पाठक या तो आलोचक हैं या शोधार्थी। यहां सामान्य पाठकों के लिए कोई भी जगह नहीं है लेकिन सबसे ज्यादा घमासान आलोचना को लेकर होता है। इस विमर्श का स्थल विश्वविद्यालय बनते है। यह ध्यान देने योग्य प्रश्न है कि आखिर आलोचना अन्य विधाओं के मुकाबिले क्यों लोकप्रिय नहीं हो पा रही है? शायद हमने आलोचना की भाषा पर ध्यान नहीं दिया। मुक्तिबोध हिंदी के बड़े कवि है और आज पहले की अपेक्षा ज्यादा प्रसांगिक हैं। मुक्तिबोध की कविता को समझने के लिए एक नहीं कई पाठ की जरूरत है। आलोचक रचना और पाठक के बीच ऐसा सेतु बनाता है कि पाठकों की आवाजाही आसान हो जाए लेकिन दुर्भाग्य से ऐसा सम्भव नहीं हो सका। मुझे तो इस संबंध में लिखे ईशा पढे मूसा की कहावत याद आती है। आलोचना के लिए पंडिताऊ नहीं सहज भाषा की जरूरत है। हम मठ-मंदिर में नहीं हिंदी समाज में रहते हैं। हमारे आलोचक मुक्तिबोध पर विचार करते समय कठिन और अमूर्त भाषा में उलझ कर रह जाते हैं। नामवर सिंह ने आलोचना के पथ को सुगम बनाया हैं।


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    नामवर सिंह बनारस के एक गांव से निकल कर बनारस को अपनी शिक्षा और दीक्षा की भूमि बनाया। इसके पूर्व बनारस में आचार्य शुक्ल पूर्व बनारस में आचार्य शुक्ल और नददुलारे बाजपेई जैसे आलोचक सक्रिय थे। दिल्ली में डा. नगेंद्र जैसे आलोचक थे, जो अपनी रस- साधना में लगे थे। वे आलोचना से ज्यादा साहित्येतर गतिविधियों के लिए ख्यात थे। वहां हजारी प्रसाद द्विवेदी जैसे स आलोचना पुरूष थे, जिन्हें शांति निकेतन में गुरूदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर से दीक्षा मिली थी। उन्होंने कबीर जैसे कवि का नए सिरे से मूल्यांकन किया। बनारस में उन्हें हजारी प्रसाद द्विवेदी जैसा गुरू मिला। यह कुछ ऐसा था जैसे कबीर को रामानंद मिल गए हो। जिस तरह रामानंद ने कबीर का जीवन बदल दिया, ठीक उसी प्रकार की घटना नामवर सिंह के जीवन में हुई। यह परम्परा और आधुनिकता का मिलन था। नामवर सिंह अपने गुरू की लीक से हट कर अपने लिए एक नया मार्ग बनाया। बनारस उनके लिए प्रिय नगर था। उसमें साहित्य और संस्कृति की अनेक विभूतियां पैदा हुई थी। कबीर, तुलसीदास और रैदास के अलावा, शुक्ल जी और द्विवेदी इसी सरजमीन के थे। बनारस में उन्हें एक साहित्यिक मंडली भी मिली-जिसमें त्रिलोचन, केदारनाथ सिंह के साथ विष्णुचंद्र शर्मा, विश्वनाथ त्रिपाठी प्रमुख थे। बनारस एक नगर नहीं परम्परा और आधुनिकता का शहर था। बनारस में बनारस हिंदू विश्वविद्यालय जैसी अंतरराष्ट्रीय संस्था थीलेकिन राजनीति भी कम नहीं थी। वहां पर बहुत दिन तक टिके नहीं। वहां से वह सागर और फिर जोधपुर पहुंचे। वहां उन्होंने राही मासूम रजा के उपन्यास - आधा गांव, जैसे ही कार्यक्रम में लगाया, उस उपन्यास को लेकर सम्प्रदायिकता की चर्चा होने लगी। उपन्यास में अश्लील स्थल को लेकर हाहाकार उठने लगा। विवाद नामवर सिंह के जीवन का पर्याय होने लगा। बाद में वाद-विवाद और संवाद में उनकी आलोचना को विलय किया जाने लगा। उनकी स्थापनाएं विवाद का विषय बनती रहेलेकिन वह आलोचना हीं क्या, जो विवाद का कारण न बने। जो लीक से हट कर काम करते हैं, उन्हें इस संकट का सामना तो करना ही पड़ता है।


    वर्ष १९७४ में उन्होंने जे.एन.यू. के भारतीय भाषा केंद्र के संस्थापक और प्रोफेसर का ओहदा संभाला और अंत तक इसी पद पर कायम रहे। इसके बाद उनके जीवन और आलोचना का महत्वपूर्ण समय शुरू होता हैदिल्ली जैसे आधुनिक नगर में अपने ठेठ बनारसीपन । के साथ आए थे। उन्होंने अपने रहन-सहन और मिजाज में इस बनारसीपन को बचाए रखा। मुंह में पान और खैनी का सेवन उनका व्यसन था। दिल्ली एक आला शहर है। वहां आकर लोग बदल जाते हैं - जो नहीं बदलना चाहते, उन्हें दिल्ली बदल देती है। वह लोगों को कॉमेडी में नहीं ट्रेजिड़ी में बदलती है। जो इस नगर का चरित्र जानते है, वे इस शहर के मारे हुए लोगों को जरूर जानते होंगे। बनारस की एक और खासियत है, वह है उसका बांकपन। जो बनारस के माटी-पानी से बने हैं, वे अपना बांकपन नहीं छोड़तेजहां यह बांकपन बढ़ जाता है, वही उसकी जगह कुटिलता ले लेती है। यह अजीब सी बात है कि जिस बनारस में नामवर सिंह का मन रमता था, उससे वे जीवन भर दूर रहे। कबीर भी बनारस को त्यागना नहीं चाहते थे लेकिन उनका अंत समय मगहर में बीता। हम सब अपने जीवन में किसी न किसी बिडम्बना का शिकार बनते हैं। नामवर सिंह इसके अपवाद नहीं थे। दिल्ली उनके जीवन का अंतिम शरण स्थल बना। लेकिन ख्याति भी इसी शहर से मिली। सोचिए अगर वे बनारस में होते तो उनकी प्रतिभा सीमित हो जाती। दिल्ली ने उन्हें खुला आकाश और काम करने की सहूलियते दी। वहां उनके समर्पित अनुयाई मिले, जिन्होंने उनका नेतृत्व स्वीकार किया। बाकी तो सब इतिहास है।


चित्र: विजय अग्रवाल


      दिल्ली में ठीहा जरूर जरूर मिला लेकिन वह उनका घर नहीं बन सका। शिवालिक उनके लिए खुटा था, घर नहींवह आजीवन बनारस के लिए तड़पते रहे। काशीनाथ सिंह से बातचीत में उन्होंने कहा था-लोलार्क कुंड वाला पुराना घर जिसमें किसी समय सभी अपने साथ थे! वैसे सचमुच का घर अब भी सपना है और सपना ही रहेगा।


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    नामवर सिंह के जीवन में १९७४ के पहले का समय मानसिक उद्वेलन और निर्मिति का समय था। आलोचक के पहले उन्होंने निबंधकार और कवि के रूप में अपनी उपस्थितिदर्ज कराई। उनका निबंध संग्रह - बकलम खुद १९५१ में प्रकाशित हुआ। नीम के पत्ते और उदिता नाम से कविता संग्रह का उल्लेख मिलता है लेकिन संगह उदिता ही प्रकाशित हुआ। इसके साथ वे गद्य लेखन में भी सक्रिय थे। हिंदी विकास में अपभ्रंश का योगदान, उनका शोध प्रबंध था। पृथ्वीराज रासो पुस्तक का सम्पादन किया। तुलसीदास पर लिखे उनके लेख को पढ़कर शमशेर ने भैरव प्रसाद गुप्त से कहा था कि हिंदी आलोचना क्षेत्र में एक नई प्रतिभा का पदार्पण हुआ हैआगे चल कर यह भविष्यबाणी सच हुई।


      नामवर सिंह कविता और निबंध की दुनिया से आलोचना के लोक में आए थे। हम यह भी जानते है कि कवि का गद्य अलग होता है। उसमें सहजता होती है। नामवर सिंह की आलोचना में हम इस सहजता को देखते है। कविता के संस्कार ने उनकी आलोचना की भाषा को पठनीय बनाया। इस बात को उनके दुश्मन भी स्वीकार करते है। नामवर सिंह ने बिपुल लेखन नहीं किया है। उनकी मुख्य किताबों को ऊंगलियों पर गिना जा सकता है। छायावाद, इतिहास और आलोचना, कविता के नए प्रतिमान और दूसरी परम्परा की खोज, उनके मुख्य ग्रंथ है। उन्हें सबसे ज्यादा मान्यता उनकी किताब - नई कविता के प्रतिमान से मिली। इस किताब के जरिए उन्होंने मुक्तिबोध को स्थापित किया था। मुक्तिबोध के अतिरिक्त रघुवीर सहाय, श्रीकांत वर्मा और विजयदेव नारायण साही की कविताओं पर विचार किया गया था। इस पुस्तक के माध्यम से नई कविता को स्वीकृति मिलीलेकिन विवाद भी कम नहीं हुए। रामविलास शर्मा के लिए मुक्तिबोध मनोरोगी थे। नामवर सिंह की स्थापनाओं को खारिज करने का काम रामविलास शर्मा अंत तक करते रहे। इन दो महारथी आलोचकों के बीच जो वाद-विवाद-संवाद घटित हुआ, उसे पढ़ना दिलचस्प नहीं, उत्तेजक हैयह आलोचना की स्वस्थ परम्परा है जो साहित्य के इतिहास में दर्ज हो चुका है। इस विवाद में उनके व्यक्तिगत संबंध बाधित नहीं हुए।


    आज आलोचना लगभग समाप्त प्राय है लेकिन आलोचकों के अपने दम्भ है। उनकी अपनी सेनाएं एक-दूसरे से लड़ती रहती हैं - जैसे वे एक-दूसरे के शत्रु हों। आलोचक सेनापति की भूमिका में हैं।


    नामवर सिंह अपनी स्थापनाओं के लिए जाने जाते है। उन्होंने निर्मल वर्मा की कहानी परिंदे को पहली नई कहानी घोषित किया। इसमें कोई संदेह नहीं कि निर्मल वर्मा की यह कहानी अपनी भाषा और कथ्य के आधार पर विलक्षण कहानी है। लेकिन एक अप्रगतिशील लेखक की कहानी का चुनाव एक जोखिम जरूर था। आलोचक और कहानीकार की विचारधारा में कोई साम्यता की विचारधारा में कोई साम्यता नहीं थी। इसी बिंदु पर नामवर मवर सिंह अलग दिखाई देते हैं। यहां विचारधारा प्रमुख नहीं होती कहानी प्रमुख हो जाती है। उषा प्रियम्वदा की कहानी वापसी की वह सांस्कृतिक व्याख्या करते है। रत हैयह कहानी बदलते हुए समाज और उसके यथार्थ की कहानी है। हिंदी की पहली नई कहानी पर कम विवाद नहीं है। कतिपय आलोचक भुवनेश्वर की कहानी भेड़िए को इस जगह पर रखते है। यह विवाद सम्वाद के एक रूप है। इससे सोचने की गति मिलती है। सम्वादहीनता से हम मौन समय में पहुंच जाते हैं।


      आज के समय में वह गर्मजोशी कहां? संवाद की सारी आज के समय में वह गर्मजोशी कहां? संवाद की सारी स्थितियां विदा हो चुकी हैं, बस शोर भर रह गया है। इस तुमुल कोलाहल में आलोचना की आवाज़ गुम हो चुकी है। आलोचना या तो प्रशंसा है या निंदा का तरल प्रवाह। ऐसा भी कुछ लिखा जा रहा है कि यह तय ही न हो पाए कि पक्ष में लिखा है या विपक्ष में। कुछ आलोचक तो डमरू की तरह होते हैं - दोनों ओर से बजते हैं।


    नामवर सिंह की आलोचना के आगे यदि नया शब्द जोड़ा जाए तो यह अनुचित नहीं होगा। नई कहानी हो या नई कविता, उन्होंने इस पद को नए अर्थ दिए। उन्होंने आलोचना को माक्र्सवादी धारा से जोड़ा और रचना को उसकी कसौटी पर कसने का काम किया। उनके सामने केवल रचना नहीं रचना के समय का समाज था। उनका माक्र्सवाद कट्टर माक्र्सवाद नहीं था, व्यवहारिक माक्र्सवाद था। आजादी के बाद समाज में जिस तरह के सामाजिक और आर्थिक परिवर्तन हो रहे थे, उस पर उनकी दृष्टि थी। आजादी के बाद समाज में नए-नए परिवर्तन हो रहे थे। नया मुल्क था। आजादी की जंग से निकले हुए राजनीतिज्ञ थे, उनके सपने थे। धीरे-धीरे मोहभंग का समय भी आया। सबसे ज्यादा परिवर्तन मध्यवर्गीय समाज में देखे गए। गांव के लोग रोजी-रोटी की खोज में शहर की पनाह में आने लगे। इस संदर्भ में चीफ की दावत (भीष्म साहनी) दोपहर का भोजन (अमरकांत) मलबे का मालिक (मोहन राकेश) जहां लक्ष्मी कैद है (राजेंद्र यादव) गुल्की बन्नो (धर्मवीर भारती) की प्रतिनिधि कहानियों की सहज याद आती हैनई कहानी में महत्वपूर्ण कथाकारों की आमद हुई। इसे साठोत्तरी पीढ़ी ने आगे बढ़ाया।


    नामवर सिंह ने आजादी के बाद के लेखकों की कहानियों को लेकर, कहानी और नई कहानी पत्रिका में कॉलम लिखे। वे आलोचना की बहमुल्य धरोहर है। एक अर्थ में वे आजादी के बाद के समय के नए आलोचक हैंहरिशंकर परसाई ने लिखा है- नामवर सिंह क्यों महत्वपूर्ण है, नामवर सिंह उसमें प्रमुख हैं। जिन्होने आजादी के बाद साहित्य को जिस दलदल में फंसा दिया गया था, उससे उन्होंने निकाला है।


    आलोचना पत्रिका के उल्लेख के बिना उनका आलोचना कर्म अधूरा होगा। वे लम्बे समय तक आलोचना के सम्पादक थे और अंत तक बने रहे। आलोचना पत्रिका ने आलोचना में सार्थक हस्ताक्षेप किया हैउसके सम्पादकीय अनूठे होते थे, विवादास्पद कम नहींनंदकिशोर नवल और परमानंद श्रीवास्तव जैसे आलोचकों ने इस पत्रिका में सह सम्पादक के रूप में काम किया और उनके काम को आगे बढ़ाया। नवल जी ने अपनी पहचान अलग बनाई। महत्वपूर्ण लिखने जाने के बावजूद परमानंद श्रीवास्तव नामवर सिंह के अनुयायी के रूप में ही जाने जाते रहे। इस रोल में मॉडल बनाने के अपने खतरे थे। आलोचना की दुनिया में जरूर मैंनेजर पांडेय की आवाज जुदा है। उनकी आलोचना का मार्ग अलग है। उनकी आलोचना पढ़ते हुए हम इस बात को लक्ष्य कर सकते हैं। वह आलोचना में पहले की भांति सक्रिय नहीं रह गए हैं।


    नामवर सिंह १९७४ से लेकर १९९२ तक जे.एन.यू. जैसी संस्था के नागरिक रहे। यह उनके जीवन का यादगार समय था। इस बीच उन्होंने रचनात्मक कार्य किए। कई शिष्यों को दीक्षित किया तो कई लोग उनकी उपेक्षा के शिकार हुए। आज भी उनका नाम लेकर कई लोग कोसते रहते हैं।


चित्र  विजय अग्रवाल


      सेवामुक्त होने के बाद वे बेरोजगार नहीं रहेवे कई संस्थानों और संस्थाओं से जुड़े रहे। उनकी कीर्ति में बढ़ोतरी होती रही। जिसके सिर पर हाथ रख देते या उसका नाम लेते, वह रातो-रात मशहूर हो जाता था। धीरे-धीरे उनका यह जादू कम होता गया। वह साहित्येतर कारणों से लोगो का उपनयन संस्कार करने लगे। सत्ता के साथ बढ़ती उनकी निकटता और उद्घाटन समारोहों की अतिशयता उन्हें निष्प्रभ करने लगी। वे समारोहों के चुनाव में चूकने लगे थे।


      दूसरी परम्परा की खोज उनकी अंतिम लिखित किताब है। इस किताब में उन्होंने अपने गुरू हजारीप्रसाद दिवेदी के अवदान को रेखांकित किया। यही थी उनकी दूसरी परम्परा की खोज। यह एक तरह से गुरू ऋण से उऋण होने का समय था। यह एक आलोचक की बड़े आलोचक के लिए गुरू दक्षिणा थी। यह बात ध्यान रखने की है कि उन्होंने हजारीप्रसाद दिवेदी के आलोचकीय परम्परा को आगे बढ़ाया, उसे आधुनिकता के साथ जोड़ा। उसके बाद वे आलोचना के ओशो बन गए थे। ओशो उपाधि उनके कथाकार मित्र राजेंद्र यादव की दी हुई है। उनका यह रूपांतरण कम महत्वपूर्ण नहीं था। वे पूरी तैयारी के साथ व्याख्यान देते थे। लोग मंत्रमुग्ध होकर सुनते थे। जिन लोगों को उन्हें सुनने का अवसर मिला है, वे जानते है कि उन्हें सुननेवालों से हॉल भरा रहता था। उनके व्याख्यानों में व्यंग और विनोद कम नहीं होता था। वे निडर वक्ता थे। जो उन्हें बोलने के लिए आमंत्रित करता था, वह भी उनके तंज से नहीं बच पाता था। शहर गोरखपुर में परमानंद श्रीवास्तव का ७५वां जन्मदिवस मनाया जा रहा था। इस समारोह में नामवर सिंह मुख्य अतिथि थे। शहर के मित्रों उन पर - प्रतिमानों के पार, नाम से एक किताब सम्पादित की थीपरमानंद श्रीवास्तव आलोचना के सह-सम्पादक थे। यह अवसर उनके प्रति प्रेम और उनके अवदान को रेखांकित करने का अवसर था। लोगों ने यह रस्म निभाई। लेकिन नामवर सिंह ने तंज कसते हुए कहा-मैंने तो प्रतिमान बनाए थे लेकिन परमानंद जी प्रतिमानों के पार चले गए और आप लोग जानते ही होगे कि प्रतिमानों के पार क्या होता है - इस पार प्रिये तुम हो मधु है, उस पार न जाने क्या होगा।


    हम लोग अवाक् थे। यह आलोचना और व्यंग का अवसर नहीं था। किसी अन्य समय में यह काम किया जा सकता था। आलोचना के सह-सम्पादक के रूप में जिसने नामवर के साथ से निष्ठा से काम किया था, यह उसका प्रतिदान था। सन् २००२ में उनके ७५वें वर्ष के अवसर पर उनका अमृत महोत्सव मनाया गया था। वह ऐतिहासिक था। दिल्ली, कोलकाता, मुम्बई, भोपाल और बनारस जैसे नगरों को इस प्रयोजन के लिए चुना गया। उनके अवदान पर चर्चा की गई। यह आयोजन वर्ष भर चलता रहा। यह एक आलोचक का अश्वमेध था। उनका घोड़ा कोई नहीं थाम सका। वे अविजित रहे। ये दोनों घटनाएं हमें उनके व्यवहार का साक्ष्य देती हैं। हम इन घटना से कोई निष्कर्ष नहीं निकाल रहे हैंबड़ी प्रतिभाओं में कम अन्तर्विरोध नहीं होते। साहित्य या जीवन में यह आदर्श स्थिति नहीं होती कि आदमी बाहर भीतर से एक हो। कोई न कोई फांक रह जाती है।


    किसी का जीवन एक सा नहीं होता। उसमें कभी न कभी दारूण समय आता है। लेकिन एक कवि या लेखक के जीवन के त्रासद विवरण उनके संस्मरणों में मिल जाते है और उसे अतिरिक्त रंग भी दे दिए जाते हैंहर एक व्यक्ति को अपने हिस्से का दुख झेलना पड़ता है। कवि-लेखक इस पीड़ा को महिमामंडित करते रहते हैं जबकि आम आदमी को इसे प्रकट करने का मंच नहीं मिल पाता है। उसे वह अपने अंतरंग मित्रों के बीच जरूर बांटता है। कुछ लेखकों को इस दुख को भुनाने की कला आती है। कुछेक तो इसका बाकायदा धंधा करते है।


    नामवर सिंह के जीवन के कठिन समय का विवरण काशीनाथ सिंह को लिखे गए पत्रों में मिलता है लेकिन तफ्सील से उनकी लिखी किताब- घर का जोगी जोगड़ा में, मिलता। इस किताब को जरूर पढ़ा जाना चाहिए। यह एक आलोचक के जीवन की कथा है। देखे -


    ... आज पहली बार आंखों में आंसू आए, तुम्हारे पत्र को पढ़ते समए अब जी कुछ हल्का हो रहा है। तुलसीदास ने ठीक ही लिखा है-पितु हित भरत कीन्ह जसि करनी / सो मुख लाख जाइ न बरनी।


      भरत राम से अधिक भाग्यशाली थे और महान् भी क्योंकि पिता के दाह-संस्कार का गौरव उन्हीं को प्राप्त हुआ। राम उम्र में बड़े हुआ करें लेकिन रहे वंचित ही ....


    तुलसीदास उनके प्रिय कवि थे। उनकी चौपाइयां अक्सर दोहराते रहते थे। अभी उन्होंने एक इन्टरव्यू में कहा था कि उनके तकिए के पास मानस का गुटका रखा रहता है। मानस उनके लिए धार्मिक नहीं, एक स्वतंत्र ग्रंथ था।


    इतने बड़े आलोचक होने के बावजूद उनका दाम्पत्य जीवन सुखी नहीं था। बेटी-बेटे से भी वांछित सुख नहीं मिला। अनुज काशीनाथ सिंह से बात करते हुए टालस्टाय की कहानी - इवान इलिच की मृत्यु, में उस दृश्य का जिक्र करते हैं जिसमें बीमार इवान के सामने पत्नी, बेटी-बेटा सज-धज कर निकलते हैं। नामवर सिंह के जीवन में दाम्पत्य जीवन की कम बिडम्बनाएं नहीं थीउनके जीवन को देख कर टालस्टाय का यह कथन याद आता है -


    सभी सुखी परिवार एक दसरे से मिलते-जलते हैंहर एक दुखी परिवार अपने ही किसी कारण से दुखी है।


    जीवन की इन विफलताओं से बचने और इनके रचनात्मक उपयोग के लिए उन्होंने अध्ययन और अध्यापन को अपना अभीष्ट बनाया। यह एक लेखक के जीवन का रूपांतरण था जिसका लाभ हिंदी संसार के भाग्य में लिखा था।


    वे हमारे बीच नहीं हैंउनके लिखे हुए के साथ उनका बोला हुआ साहित्य प्रकाशित हो चुका है। इस मामले में उनका भक्त सम्प्रदाय निश्चित ही साधुवाद का पात्र है। उनके जीवन काल में उनका मूल्यांकन नहीं हुआ है। उनके मूल्यांकन के लिए साहस और कद की जरूरत होती है। हिंदी में यह दोनों गुण किसी के पास नहीं है। हां उनकी मृत्यु के बाद कुछ लोगों ने उनके बारे में भला-बुरा कह कर अपनी रजिशें जरूर निकाल ली है। हाथी जिस रास्ते से जाता है तो भूकनेवाले श्वानों की कमी नहीं होतीवे दूर से भूकते हैंलेकिन उसके जाने के बाद जोर-शोर से भूकते हैं। यह साहस नहीं कायरता है।


                                                                                 सम्पर्कः 510-अवधपुरी कालोनी, अमानीगंज, फैजाबाद-224001,


                                                                                                                        उत्तर प्रदेश, मो.नं.: 9415332326