जन्म : 1 जुलाई 1976 लेखक 'प्रयोग पथ' नामक चर्चित पत्रिका के संपादक और रेलवे विभाग में स्टेशन मास्टर हैं। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में लगातार लेखन कार्य कर रहे हैं। हिन्दी में एम.ए. की शिक्षा।
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कृष्णा सोबती के जाने से हिन्दी गद्य साहित्य ने स्त्री के अस्तित्व के लिए प्रभावी आवाज उठाने वाली एक महत्वपूर्ण लेखिका को खो दिया। उनके उपन्यास और कहानियों ने नारी अस्मिता की सुरक्षा करते हुए जिस तरह से अपने समय का अतिक्रमण किया है, उससे जब तक उनका साहित्य जीवित रहेगा, तब तक उनकी प्रासंगिकता बनी रहेगी। हिन्दी साहित्य में जिन दिनों स्त्री-स्वातंत्र्य या स्त्री-विमर्श का कोई नाम लेने वाला नहीं था,उन्हीं दिनों कृष्णा सोबती ने अपने पराक्रम और प्रखरता से अपनी रचनाओं में नारीवाद की अलख जगाई।
कृष्णा सोबती का जन्म १८ फरवरी १९२५ ई. को स्वतंत्रता के पहले वाले गुजरात में हुआ था, जो कि अब पाकिस्तान में स्थित है। इसी को लेकर उन्होंने एक पुस्तक भी लिखी- 'गुजरात पाकिस्तान से गुजरात हिन्दुस्तान'। यह पुस्तक उनके आत्मकथ्य का औपन्यासिक विस्तार है। कृष्णा सोबती द्वारा अर्जित किए गए विभिन्न अनुभव बड़ी व्यापकता एवं गहराई के साथ इस पुस्तक में दिखाई देते हैं।
कृष्णा सोबती सर्वप्रथम १९५५ ई. में अपने कहानी-संग्रह 'बादलों के घेरे' से चर्चा में आईं। उनकी कहानियां एक निश्चित रूढ़ि या परम्परा से बँधी हुई नहीं हैं बल्कि वह अपने पाठकों के लिए एक स्वच्छ एवं समृद्ध भूमि तैयार करने वाली हैं। लेखिका के स्वभाव से भी यही परिलक्षित होता है। बादलों के घेरे' कहानीसंग्रह कृष्णा सोबती की चौबीस कहानियों का संचयन है। इस संग्रह में संभवतः सन् १९९८ से १९५५ के बीच की कहानियों को स्थान दिया गया है। नि:संदेह यह समय देश-विभाजन का था। अतः विभाजन से जुड़ी हुई कई समस्याओं को इस कहानी-संग्रह में स्थान दिया गया है। इसके अलावा उस समय असाध्य रोगों से साफ हो रहे गाँवों की दुर्दशा, ग्रामीण डकैतों से भयाक्रांत समाज तथा स्त्रियों को प्रेम में मिल रही आजादी को कृष्णा सोबती ने अपनी कहानियों का विषयवस्तु बनाया। 'बादलों के घेरे' भी एक प्रेम कहानी ही है जिसमें एक स्वस्थ युवा तपेदिक की बीमारी से ग्रस्त युवती से प्रेम करता है, बिछुड़ता है और धीरे-धीरे मृत्यु को गले लगा लेता है। कृष्णा सोबती की इस कहानी का प्रेम जिन-जिन प्रश्नों को अंकित करता है वे आज भी प्रासंगिक हैं। इसके बाद उन्होंने 'यारों के यार' जैसी बेबाक कहानी लिखकर स्त्री- विमर्श को एक धरातल पर प्रस्तुत किया। यह कहानी अपने समय में काफी विवादास्पद रही क्योंकि इसमें बोल्ड देशज शब्दों का प्रयोग किया गया है।
'डार से बिछुड़ी', 'मित्रो मरजानी', 'तीन पहाड़' और 'ऐ लड़की' जैसी कृतियां लिखकर उन्होंने यह सिद्ध कर दिया कि वह वास्तव में नारी अस्मिता को सुरक्षित रखते हुए स्त्री-विमर्श का पाठ पढ़ाने वाली हिन्दी की पहली लेखिका हैं। 'डार से बिछड़ी' कृष्णा सोबती का १९५८ ई. में छपने वाला पहला उपन्यास है। इस उपन्यास में सिखों और ईस्ट इंडिया कंपनी के बीच १८४० ई. के दशक में छिड़े युद्ध और उसके मुख्य पात्र पाशों की त्रासदी की मार्मिक कथा है। २१ फरवरी १८४९ ई. में अंग्रेजी फौजों ने सिखों को चिल्लियां वाले मैदान, गुजरात के तीसरे संग्राम में परास्त किया और सिख पंजाब हार गए। कृष्णा सोबती अपने जन्म से पहले की इस कारूणिक कथा को जिस तरह से प्रस्तुत करती हैं, उससे लगता है यह कथानक कहीं न कहीं उनके आस-पास ही घटित हुआ होगा। 'डार से बिछुड़ी' की पाशो अपनी आन्तरिक दुनिया में जीवन के अनसुलझे हुए सवालों को हल करती है और हल करते हुए ही अपने जीवन का वास्तविक पड़ाव पा लेती है। पाशो अपनी सुन्दरता को हथियार बनाकर जिस तरह से पितृसत्ता के सारे आक्रमण को झेलती है और उन्हें धीरे-धीरे पराजित करती है, वह यथार्थ आज भी दिखाई देता है। एक सजग एवं स्वाभिमानी साहित्यकार के रूप में कृष्णा सोबती का कोई मुकाबला नहीं था।
उनकी प्रसिद्ध कृति 'मित्रो मरजानी' जो सन् १९६८ ई. में प्रकाशित हुई थी कि 'मित्रो' एक महान पात्र हैं। अपने एक साक्षात्कार में कृष्णा सोबती ने कहा था कि 'मित्रो' एक लड़की है जिसका कोई संबंध पंजाब से नहीं था, बल्कि चौदह-पन्द्रह साल की एक ऐसी लड़की से था जो गुजरात के एक दौरे पर अपने संर्बोधियों से बहस करती हुई मिली थी। 'मित्रो' का झगड़ालू स्वभाव कृष्णा सोबती को इतना अच्छा लगा कि वह उनके अन्तस में बैठ गई और बाद में उनकी कृतियों में दिखाई देने लगी। इसी प्रकार 'ऐ लड़की' कहानी में लड़की की बूढ़ी और बीमार मां का संस्मरण जिसमें कोलकता जाने और समुद्र के विस्तार को पहली बार देखने का सुख, जिस तरह से वह प्रस्तुत करती हैं, उससे यही ज्ञात होता है कि स्त्री को एक संकुचित दुनिया में जीने के लिए बाध्य करना उसके प्रति हिंसा का द्योतकहै। पितृसत्तात्मक समाज जिस तरह से स्त्री को विवश करता है, वह अमानवीय है। उस लड़की का भविष्य उसकी माँ के संस्मरण में छिपा हुआ है।
कृष्णा सोबती कभी किसी धारा या संगठन से नहीं बंधीं। उनके साहित्य ने नारी के अबला या सुन्दरी तक ही समझे जाने का बड़ी कठोरता से प्रतिरोध किया। उन्होंने कई ऐसे स्त्री-पात्रों का निर्माण किया जो अपने समय के पुरुष-पात्रों की भाँति स्वाधीन तथा संघर्षरत रहीं। उनका एक उपन्यास 'चन्ना' जो विभाजन के उपरान्त लिखा गया था को भगवती चरण वर्मा के कहने पर इलाहाबाद के प्रकाशक भारती-भंडार को प्रकाशन हेतु भेजा गया। उपन्यास छपना शुरू हुआ। पूफ देख रहे थे नागरी प्रचारिणी सभा के श्री लल्लू लाल जी। लल्लू लाल जी को लेखक की अहिन्दी प्रदेशी भाषा को सुधारना आवश्यक लगा। मसीत को मस्जिद, पौड़ियों को सीढ़ियां और इसी तरह के देशज शब्दों के कुछ और भी बदलाव किए गए। जाहिर था इस मुद्दे पर कृष्णा सोबती को अपनी प्रतिक्रिया देनी ही थी। फलस्वरूप कृष्णा सोबती ने प्रकाशक को टेलीग्राम- “कृप्या छपाई रोक दें। इलाहाबाद पहुँच रही हूँ।'' प्रकाशक के साथ उनकी दो-तीन बैठकें हुईं। उनका कहना था कि मैं इन शब्दों के इन बदलावों के साथ उपन्यास को देख नहीं सकती। मूल पाण्डुलिपि के अनुसार इसे छपना चाहिए। प्रकाशक, लीडर प्रेस से लगभग तीन सौ से अधिक पृष्ठ छपवा चुके थेप्रकाशक का यह कहना था कि कागज और छपाई खर्च बेकार करने में हम असमर्थ हैं। कृष्णा सोबती को यह निर्णय स्वीकार नहीं हुआ और उन्होंने लीडर प्रेस को छपाई खर्च और कागज का दाम चुका देने के प्रस्ताव के साथ उपन्यास वापस लेने का निर्णय लिया। ऐसा केवल कृष्णा सोबती जैसी निडर लेखिका ही कर सकती थीं।
कृष्णा सोबती के अन्य उपन्यासों में 'सूरजमुखी अंधेरे के', 'जिन्दगीनामा', 'दिलोदानिश' और 'समय सरगम' काफी प्रसिद्ध रहे। ये उपन्यास हमारी संस्कृति और सामाजिकता के बड़े दस्तावेज है। इन कृतियों में उपन्यास के प्रचलित स्वरूप से पृथक स्वतंत्र गल्प दिखाई देता हैउनके लेखन में सामाजिक और सांस्कृतिक जरूरतों की नारेबाजी नहीं दिखाई देती बल्कि अपने समय और समाज को समझने की कला दिखाई देती है।
'सूरजमुखी अंधेरे के उपन्यास सन् १९७२ ई. में प्रकाशित हो चुका था। इस उपन्यास में एक ऐसी स्त्री की कहानी है जिसका बचपन में बलात्कार होता है और वह बिल्कुल टूट जाती है। वह भाव-शून्य, क्रूर और असंवेदनशील हो जाती है। बाद में वह एक ऐसे पुरुष के सम्पर्क में आती है, जिसके प्रभाव से इन झंझावातों से मुक्त होकर वह पुनः एक सामान्य महिला का रूप धारण कर लेती है।
'ज़िन्दगीनामा' उपन्यास के लिए कृष्णा सोबती को सन् १९८० ई. में साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला। 'ज़िन्दगीनामा' शब्द को लेकर कृष्णा सोबती ने ज्ञानपीठ पुरस्कार विजेता और पंजाबी कवयित्री अमृता प्रीतम के साथमुकदमा लड़ा क्योंकि अमृता प्रीतम ने अपनी एक पुस्तक के शीर्षक में 'ज़िन्दगीनामा' शब्द का प्रयोग किया था। उनका यह उपन्यास काफी विवाद के बाद स्वीकार्य हुआ। यह उपन्यास कृष्णा सोबती के जीवन का एक ऐसा प्रमाण-पत्र है जो यह सिद्ध करता है कि लेखिका ने बिना कोई समझौता किए अपनी शर्तों पर लेखनी चलाई और वैसा ही जीवन भी जिया। उन्होंने अपने सृजन, साहस और मानव-मूल्यों के अतिरिक्त कोई भी गैर साहित्यिक उद्यम कभी नहीं किया।
'दिलो-दानिश' उपन्यास स्त्री-पुरूष, विभिन्न वर्गों, विभिन्न पीढ़ियों अथवा विभिन्न धर्मों के पारस्परिक सम्बन्धों को जिस तरह से रेखांकित करती है, वह बहुत ही काबिले- तारीफ है। इस उपन्यास में निर्णायक क्षण तब आता है, जब वकील साहब की मनाही के बावजूद बेटी की शादी में महक बानो बड़े धूमधाम से उपस्थित होती है और वहीं सबकेसमक्ष उसे उसकी नानी, नसीम बानो के गहने भेंट करती है। पितृसत्तात्मक समाज के प्रतीक वकील साहब को जिस तरह से वह किनारे लगाती हैं, उससे लगता है कि लेखिका पितृसत्ता को चुनौती देती है।
कृष्णा सोबती का वैवाहिक जीवन डोगरी साहित्यकार शिवनाथ जी के साथ बीता। शिवनाथ जी शिष्टाचार की मूर्ति थे। आयु में वह कृष्णा सोबती से अवश्य छोटे थे। किन्तु स्वभाव में उनसे काफी गम्भीर। शिवनाथ जी कृष्णा सोबती से काफी पहले काल के गाल में समा गए। इसके बाद कृष्णा सोबती अकेली ही रहीं। 'समय सरगम' उन्हीं दिनों की रचना है।
अपनी भाषा-शैली के कारण कृष्णा सोबती का कथा- संसार अपने पाठकों के आकर्षण का केन्द्र है। उनकी भाषा प्रखर है। कोई भी शब्द जब उनकी भाषा का रूप ग्रहण करता है तो दीप्तमान होने लगता है। शब्दों पर उनकी इतनी अच्छी पकड़ थी कि वे उसे गेंद की भाँति ऊपर या नीचे उछाल सकती थीं। उनकी भाषा में पंजाबी, हिन्दी और उर्दू के शब्द इस तरह से प्रवेश करते हैं कि जिस पात्र द्वारा उन शब्दों का प्रयोग कराया जाता है, वे उस भाव को सम्भव, सुगम और स्वीकार्य बना देते हैं। कृष्णा सोबती की भाषा पाठकों को अपने साहित्य की ओर आकर्षित करने का चुम्बक रखती हैजो किसी भी स्थापित रचनाकार के लिए अति आवश्यक है।
हिन्दी साहित्य में ऐसे लेखकों की संख्या बहुत कम हैं जिनका व्यक्तित्व उनके लेखन से साम्य रखता हो, किन्तु कृष्णा सोबती ऐसी रचनाकारों में थीं। उनका व्यक्तित्व सहृदय, संवेदनशील और साम्राज्यवाद विरोधी था। लेखनविद्या में वास्तविक यश केवल सम्मानपुरस्कार पाने या अधिक पुस्तकों को प्रकाशित करवाने से नहीं मिलता बल्कि वह लेखनानुसार जीवन जीने से मिलता है और कृष्णा सोबती में वह खूबी थी। हिन्दी समाज ने उन्हें कभी भी लोभ-लालच या अवसरवाद से ग्रस्त नहीं पाया।
सन् २०१७ ई. में जब कृष्णा सोबती को भारतीय साहित्य का सर्वोच्च सम्मान 'ज्ञानपीठ पुरस्कार' मिला तो उन्हें यह लगा कि यह पुरस्कार उन्हें विलम्ब से मिला। भारत विभाजन, सन् १९८४ का सिख नरसंहार तथा सन् २००२ का गोधरा कांड में हुई हिंसा और पाशविकता को उन्होंने बड़ी नजदीक से देखा और भोगा थादूसरों को हुए गहरे घावों की पीड़ा को उन्होंने महसूस किया था। यही कारण है कि किसी भी तरह की साम्प्रदायिकता एवं कट्टरता का वह तीखा प्रतिरोध करती थीं।
संभवतः कृष्णा सोबती पहली ऐसी साहित्यकार हैं। जिन्होंने अपनी कमाई और ज्ञानपीठ पुरस्कार से प्राप्त धन को मिलाकर एक करोड़ ग्यारह लाख रुपये साहित्य और भाषा के संवर्द्धन के लिए एक फाउंडेशन को दिया। वे पहली लेखक हैं जिन्होंने अपने मृत्योपरांत अपने मकान को लेखकों के आवास के रूप में प्रयोग करने के लिए अपनी वसीयत में दर्ज की। भारतीय संविधान और लोकतंत्र में कृष्णा सोबती का पूर्ण विश्वास था। वे लेखक को धर्म, जाति, गोत्र तथा क्षेत्रवाद से परे मानती थीं। उनके अनुसार लेखक को किसी भी सीमा में नहीं बाँधा जा सकता और न ही लेखक को किसी भी सीमा में बँधना चाहिए। लेखक को किसी भी व्यक्ति, जाति या धर्म के प्रति घृणा, हिंसा या उत्पीड़न के विरूद्ध आवाज अवश्य उठानी चाहिए।
कृष्णा सोबती ने पद्म विभूषण, शलाका सम्मान आदि जैसे कई बड़े पुरसकार स्वीकार नहीं किएराजसत्ता के समक्ष कैसा निडर और तेजस्वी आचरण किया जाना चाहिए, यह कृष्णा सोबती से सीखा जा सकता है।
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