लेख - साहस और संघर्ष की महागाथा-‘भला मैं कैसे मरती’ -जयप्रकाश कर्दम

जन्म : 17 फरवरी 1967, गाजियाबाद के इंदरगढ़ी गांव में। प्रख्यात् दलित साहित्यकार जिनका नाम बहुत आदर के साथ लिया जाता है। 2017 में महापंडित राहुल सांकृतयन पुरस्कार से सम्मानित। अनेक पुस्तकों के रचयिता। दलित साहित्य वार्षिकी के सम्पादक।


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निरंतर सृजनशील और सक्रिय रहने वाली रमणिका गुप्ता के जीवन की शब्दावली में 'आराम' नाम का शब्द नहीं है। जब देखो तब वह काम में व्यस्त दिखाई देती हैं। स्वास्थ्य की समस्याओं के कारण कई बार अधिक दिक्कत होने पर उनको अस्पताल में भर्ती होना पड़ता है। लेकिन अस्पताल से घर आते ही फिर से काम में लग लग जाती हैं। हर समय उनको काम करते देखकर कई बार मस्तिष्क में यह प्रश्न उठता है कि वह अस्पताल के बिस्तर पर बिना काम किए कैसे रहती होंगी? जब घर पर उनका कमरा ही अस्पताल बन जाता है तब भी वह बिस्तर पर बैठे या अधलेटे काम करती रहती हैंकाम, काम और अनवरत काम्। निरंतर काम की व्यस्तताइसके अलावा न कोई रूचि, न कोई बात। रमणिका जी का जीवन क्रियाशीलता का ज्वलंत उदाहरण है। उनकी कविता के ये शब्द उनकी क्रियाशीलता की सही व्याख्या करते हैं-'बहुत काम बाकी हैं। फुर्सत नहीं मरने की' (पृष्ठ-२)।


    जिसमें कुछ न कुछ करने की भूख और उस न किए गए को करने के लिए जीने की चाह हो वह कभी नहीं मरता। यह कुछ बाकी रह गए को करने की भूख ही है जो कई वर्ष से गम्भीर बीमारी के उपरांत रमणिका जी को जीवित रखे हुए है। रमणिका जी के ये शब्द उनकी जिजीविषा को अभिव्यक्त करते हैं, 'भला अधूरी लड़ाई छोड़ कर/कैसे जाती मैं तेरे साथ/ अन्याय के खिलाफ लड़ाइयाँढेर सारी बाकी थीं/क्रांति की योजनाएँ अभी/सारी की सारी बाकी थ' (पृष्ठ-४६) । रमणिका जी को देखकर नहीं लगता कि वह कभी जीवन या मृत्यु के विषय में सोचती होंगी। अस्पताल और बीमारी को अपनी जीवनचर्या के अंग की तरह मानने वाली रमणिका गुप्ता का जीवन अदम्य संघर्ष, जिजीविषा और जीवंतता का एक अद्भुत मिश्रण है। मनुष्य को जीवन की अंतिम साँस तक सक्रिय रहना चाहिए, उसे थकना या हारना नहीं चाहिए, रमणिका जी का जीवन इस विचार का संवाहक है।


    ट्रेड यूनियन कार्यकर्ता से साहित्य लेखन में सक्रिय हुई रमणिका गुप्ता ने उपन्यास, कहानी, आत्मकथा, आलोचना सहित कई विधाओं में प्रचुर लेखन किया है। किंतु उनकी सर्वाधिक पुस्तके कविता में हैं। भला मैं कैसे मरती' रमणिका जी का महत्वपूर्ण कविता संग्रह है। यह उनके आरम्भिक कविता संग्रहों में से एक है। बाइस कविताओं से युक्त उनका यह कविता संग्रह वास्तव में एक कविता कोलाज अथवा बाइस भागों में विभाजित एक लम्बी कविता है, इसमें रमणिका गुप्ता का मृत्यु से लम्बे संघर्ष का संवाद हैं, जिसके सूत्र एक तरह से रमणिका गुप्ता की जिजीविषा की गाथा कहते हैं। इन कविताओं को जिन्दगी के उत्सव की कविता भी कह सकते हैं।


    ये कविताएँ भूख के खिलाफ तथा भूख बाँटने और भूख फैलाने वालों के खिलाफ भूखों के संघर्ष का दस्तावेज़ हैं। यह भूख केवल पेट की नहीं है, यह भूख पेट के साथ- साथ, बल्कि पेट की भूख से भी कहीं अधिक सम्मान, स्वाभिमान तथा मानवीय अस्मिता, गरिमा और अधिकारों की भूख है। भूख और सम्मान का संघर्ष व्यक्ति को मरना और मरने के लिए तैयार होना सिखाता है। यूनियन की शुरुआत' कविता में तीजमति का यह कथन इसकी पुष्टि करता है, यथा- 'जो मीटिंग में आएगा/ जिंदा लौटकर नहीं जाएगा–कहा है ठेकेदार ने/ एही से 'बचवन' के ले आए हैं साथ/ मारेंगे सब एके साथ/ हम मरे के तैयार होयके आये हैं' (पृष्ठ-२७) साधारण खान मज़दूर तीजमति का यह कथन इस बात प्रमाण है कि आदिवासी मजदूर वर्ग को मौत से भय नहीं है। उनमें अपने अधिकारों के लिए मौत का सामना करने का साहस और मरने रमाणका का जज्बा है।


    तीजमति की तरह ही 'मोला' नामक मजदूर के अंदर भी किसी भी कठिन से कठिन चुनौती का सामना करने का जज्बा है। यह उसका जज्बा ही है कि यह जानते हुए भी कि यूनियन का सदस्य बनना और अपने झोंपड़े पर यूनियन का झंडा लगाना उत्पीड़न को निमंत्रण देना है, केवला' यूनियन ऑफिस में छिप-छिप कर आधी रात को हुई मीटिंग में 'मोला' यह कसम खाकर लौटती है कि 'झंडा अपने झोंपड़े पर फहराऊँगी। कोई छुऐगा तो देला चलाऊँगी।' (पृष्ठ-३०) तीजमति और मोला के जज्बे को सलाम।


    वामपंथी आंदोलन की सक्रिय सदस्य रही और वामपंथी विचारों में पूरी तरह रची-बसी रमणिका गुप्ता अपनी मेहनत और क्षमता पर विश्वास करती हैं। उन्होंने इस बात की कभी परवाह नहीं की कि उनकी हथेलियों में कितनी रेखाएँ हैं। उनका ध्यान इस बात पर रहा है कि उनका लक्ष्य क्या है और उसे पाना कैसे है। इसीलिए उन्होंने 'हथेलियों के कटाव को कभी नहीं माना/ न ही पहचाना' (पृष्ठ-११) । वामपंथी आंदोलन का लक्ष्य वर्गविहीन समाज की स्थापना है। वर्गविहीन समाज के सपने को मूर्त रूप देते हुए उन्होंने अपनी सजातीय की अपेक्षा विजातीय व्यक्ति से विवाह किया। फिर अपने उच्च-मध्यवर्गीय सुविधापूर्ण जीवन से बाहर निकल अपना जीवन मजदूरों के बीच उनके संघर्ष में लगाया और कई प्रकार के जोखिम उठाए। रमणिका गुप्ता के ही शब्दों में, 'वर्गहीन समाज बनाने को वर्गविहीन बनी। जोखिम झेलती मैं।' (पृष्ठ-१२)


    स्वयं को डिक्लास करती, अपने मजबूत इरादों से निरंतर आगे बढ़ती, सर्वहारा के हितों के लिए जुनून की हद तक सचेत एवं सक्रिय, अपने जुनून के कारण कर्पूरी ठाकुर जैसे वरिष्ठ एवं दिग्गज नेता से जैसे वरिष्ठ एवं दिग्गज नेता से 'पागल औरत' का खिताब पाती, जोश और जज्बे के साथ अंजाम मजदर आंदोलन में निरंतर सक्रिय तक पहुँचने का संकल्प लिए लिए उनके अधिकारों के लिए संघर्ष करते हुए हुआ। वह मृत्यु से बार-बार लड़ी, लहूलुहान हुई, किंतु, अपने जोश, जज्बे और हौसले के चलते हर बार मौत को परास्त कर वह आगे बढ़ींमौत जब-जब भी रास्ता रोककर उनके सामने आकर खड़ी हुई, उन्होंने तरह-तरह की चोट खाकर भी, हर बार मौत को लताड़कर, दुत्कार कर स्वयं से दूर भगाया, क्योंकि वह मरना नहीं चाहती थी, अधूरी लड़ाई छोड़कर मरने के लिए तैयार नहीं थी। 'कलाई की हड्डी चूर-चूर/औप्रेशन ज़रूरी/शरीर पर लाठियों के इक्कीस निशान/ माथे पर घाव/ गले की हड्डी भी थी टूटी पर मैं मरने से मजबूर/ तू बार-बार आती। मैं बार-बार तुझे खदेड़ती/ दुत्कारती!/ अधूरी लड़ाई छोड़ कर भला मैं कैसे मरती अभी तो अन्याय के विरोध में जंग होनी बाकी थी। अभी तो व्यवस्था के जुल्म पर/ चोट करनी बाकी थी। अभी तो बादल के सिर पर लगी लाठी का/हिसाब लेना बाकी था/ अभी तो माथे पर भाले की चोट का निशान भरना बाकी था/ अठन्नी मेंहफ्ता खटाने का मालिक ठेकेदार से जवाब लेना बाकी था/ भला मैं कैसे मरती?' (पृष्ठ-४८-४९) मौत से भी नहीं डरने वाली और साहस से प्रत्येक परिस्थिति का सामना करने वाली रमणिका गुप्ता ने अपने आंदोलन के साथियों के साथ मिलकर विभिन्न स्लोगनों के माध्यम से जंगल के आदिवासी-वनवासी को एक बड़ा सपना दिया था। किसी को ऐसे सपने देना उसके जीवन में बहुत बड़ी क्रांति के बीज बो देना है, जो उसे बेचैन करें और निरंतर बेचैन रखें। आदिवासी-वनवासी समाज को दिए गए उनके वे नारे, सूत्र और मंत्र थे- 'घूस नहीं अब घूसा देंगे', 'लाठा छावन और जलावन, मुफ्त में सबको देना होगा' और 'जो जोते है जंगल-जमीन, उनको कब्ज़ा देना होगा' (पृष्ठ-२०)। कोयला खान और खदान मालिकों, ज़मींदारों से लेकर पुलिस तक की लाठियाँ और गोलियाँ खाकर भी हिम्मत न हारने वाले तथा जोंडरा और दररा(मकई और दलिया) खा-खाकर अपने अधिकारों के लिए संघर्ष करने वाले आदिवासियों के जज्बे को देखते हुए यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि उनकी आँखों में जो सपने भरे हैं, एक न एक दिन उनके वे सपने अवश्य साकार होंगे।


    मजदुर आंदोलनों की कमर तोड़ने के लिए, न्याय और अधिकारों के लिए संघर्ष करने वाले मजदूर और मज़दूर नेताओं को हिरासत में लेकर जेल भेज देना और फिर लम्बे समय तक जमानत के लिए लटकाना पुलिस और प्रशासन का सामान्य कदम है। ताकि लम्बे समय तक जेल में रहने के बाद जेल से रिहाई ही उनकी बहुत बड़ी जीत बन जाए और उनके असली आंदोलन की धार कमजोर हो जाए। किंतु, मजदूर वर्ग अब यह समझने लगा है कि ज़मानत मिल जाना जीत नहीं है। जुमानत का उत्सव मनाने के बजाए न्याय के लिए संघर्ष करना अधिक महत्वपूर्ण है। रमणिका गुप्ता यही करती हैं। हजारीबाग जेल से अपनी जुमानत से इनकार करके न्याय के लिए संघर्ष करती हैं, यथा- 'डकैतों को जमानत तुरंत/ हम लोगों को जेल? नहीं लँगी जुमानत/ लँगी न्याय।' (पृष्ठ-३७)


    मजदूर केवल मालिक और ठेकेदारों के ही शोषण के शिकार नहीं थे, अपितु कोयला खानों का सरकारीकरण हो जाने के पश्चात अफ़सरशाही शोषण का शिकार भी उनको होना पड़ा। किंतु शोषित जब जागता है और एकजुट होकर शोषण का प्रतिकार करता है तो बड़े से बड़े शक्तिशाली और शूरमा उसके आगे नहीं टिक पाते। 'मजदूर पहले से ही कुढाचिढ़ा/ लाठी का जवाब पत्थर से/भाले का जवाब कोयले से देने लगा। घायल छत्तीस पहलवान/ मारे गए तीन ठेकेदार।' (पृष्ठ-५३)


    ये कविता बताती है कि कारखानों में वर्षों तक काम करने के बाद भी मज़दूरों की पक्की हाजिरी नहीं लगती थी और इस कारण बहुत से मज़दूर पक्की नौकरी पाने से चित हो गए और ठेकेदारों ने अपने चहेतों को बाहर से बुलवाकर कारखानों । में पक्की नौकरी पर लगवा दिया। रिश्वत और भ्रष्टाचार का ऐसा नंगा ! नाच आज भी खूब देखा जा सकता हैमनरेगा में काम के आकांक्षी और गरीबी रेखी से नीचे रहने वाले बहुत से वास्तविक लोगों के बीपीएल कार्ड नहीं बन पाते और वे काम पाने से वंचित रह जाते हैं, जबकि दूसरे लोग रिश्वत के द्वारा बीपीएल बनवाकर काम पा जाते हैं। 'रैलीगड़ा' कविता में भ्रष्टाचार और शोषण के इसी यथार्थ का चित्रण किया गया है। '१९७० में रैलीगड़ा के बैगन लोडर मजदूरों की/हाजरी न लगती थी/ बरसों से खटते/पर नाम पते गायब थे !/बचपन से खटते जवान हो गए/ जवानी से खटते 'बुढे' हो गए/पर खाते में दर्ज किसी का नाम था न काम था/ न अता था न पता था/ न नौकरी का कोई रिकार्ड था।' (पृष्ठ-५७) एक ओर यह स्थिति थी तो दूसरी ओर 'फार्म भरो- फ़ोटो जमा करो मजदूरों में अपने-अपनों के नाम/भराने की होड़ मुशियों की होड़-नेताओं की होड़ नकली लिस्टें बनाने की होड़ नकली मज़दूर मुखर हुए! असली मज़दूर भूखा था/ लम्बी लड़ाई से टूटा था।' (पृष्ठ-९२)


    भूखे पेट की यह भी एक समस्या होती है कि रोटी के लालच में वह अपने ही भूखे भाइयों के विरूद्ध हो जाता है। मालिकों, ठेकेदारों द्वारा मजदूरों का मज़दूरों के विरूद्ध इस्तेमाल मजदूर आंदोलन के समक्ष एक बहुत बड़ी चुनौती रही है। झारखंड के कोयला कारखानों में भी पैदा हुई इस समस्या का साक्षात्कार रैलीबड़ा' कविता में सहज देखा जा सकता है- 'बैगन के पटड़े पर सो गई औरतें सौंदा के मजदूरों को हाथ जोड़-जोड़ कहती औरतें/ विनती करती औरतें- पेट पर लात मत मारो/जावो, लौट जावो,/ काम करेंगे हम-जा नहीं करेगा/पैसा मिले न मिले/खातों में नाम हमारा चढ़ेगा/ तुम हमारे भाई होतुमसे नहीं लड़ाई है। मालिक और हमारे बीच/तुम काहे ले आए हो?' (पृष्ठ ६३)


    भूखे, अभावग्रस्त व्यक्ति की यह ताकत होती है कि वह भूखे पेट रहकर भी लड़ सकता है, जबकि पेटभरा व्यक्ति अंघा जाता है। वह संघर्ष नहीं कर पाता, हां, किसी संघर्ष का वह नेतृत्व भले ही कर ले। ऐसे भूखे पेट मजदूरों के संघर्ष को रमणिका १ गुप्ता की कविता के इन शब्दों से समझा जा सकता है, 'एक पाव आटा भर ही हम पाते हैं उनको दे/ पानी में घोल-घोल कर आटा/ पी-पी जिंदा परिवार बेचारे/ फिर भी नहीं झुके हैं मज़दूर हमारे भूख से भी नहीं टूटे हैं वे।(पृष्ठ-६८) अटूट संघर्ष का ही परिणाम रहा कि अपने संघर्ष में मजदूरों को विजय मिली। 'भला मैं कैसे मरती' की कविताएँ इस तथ्य की ओर भी संकेत करती हैं कि मजदूर वर्ग में साहस और जीवटता की कमी नहीं है। उसे सही नेतृत्व मिल जाए तो वह भूखा रहकर भी बड़ी से बड़ी लड़ाई लड़ सकता है। रमणिका गुप्ता ने झारखंड के कोयला मजदूरों को नेतृत्व प्रदान कर उनके संघर्ष को ताकत और धार दीउसी का यह परिणाम रहा कि लड़ाई के कई मोचों पर उनको सफलता प्राप्त हुई। 'मजदूर बाजी मार गए/ ठेकेदार हार गया/ वार्ता समझौते की चालू हुई। मजदूरों की शतों पर फैसला/ सरकार और ठेकेदार ने---/ कुबूल किया !/ बी फ़ार्म बनाना/ पहचान-पत्र बनाना/ बोनस और वेतन भी वेज-बोर्ड से देना मंजूर किया।' (पृष्ठ-८०)


    न्यायालय न्याय के घर हैं और न्यायालयों के बारे में कहा जाता है कि वहाँ हर किसी को न्याय मिलता है। किंतु न्यायालयों के बारे में यह भी एक सच है कि बहुत से मामले वर्षों तक नयायालय में न्याय पाने के लिए लटके रहते हैं। न्याय का तभी महत्व है जब न्याय के आकांक्षी व्यक्ति को समय से न्याय मिले। न्याय में देरी करना एक हद तक न्याय देने से इनकार करना है। यह भी पीड़ित के प्रति एक प्रकार का अन्याय ही है। रमणिका गुप्ता 'सरकारीकरण के लिए हड़ताल नामक कविता में न्याय-व्यवस्था के इसी नकारात्मक पक्ष को अभिव्यक्त करती हैं, यथा-'देश के सर्वोच्च न्यायालय के नाम पर/ अन्याय का दमन चक्र—चलता रहा।' (पृष्ठ-८३)।


    इस संग्रह की कविताएँ इस ओर भी इंगित करती हैंकि संभ्रांत स्त्री की अपेक्षा मजदूर स्त्री अधिक साहसी होती है। संभ्रांत परिवारों की स्त्री जो नहीं कर पाती वह मज़दूर स्त्री कर दि कर दिखाती है। मजदूर स्त्री पुरुष के समान श्रम ही नहीं करती, अपितु, पुरुष के साथ कंधे से कंधा मिलाकर संघर्ष भी करती है। इतना ही नहीं, वह पुरुष से अधिक साहस रखती है। इसे सरकारीकरण के 'सरकारीकरण के लिए हड़ताल शीर्षक कविता के इन शब्दों में सहज देखा जा सकता है। दरोगा ने बाल बाल पकड़ घसीटा मुझे ट्रक आगे बढ़ाया/ ठेकेदार चिल्लाए/ खत्म कर दो इसे--- /इसने पूरे बिहार को तबाह कर ३ . /इसने पूरे बिहार को तबाह कर रक्खा है। मजदूरों को आसमान पर चढ़ा रक्खा है। कमाना हो गया है हराम/ छिटके मर्द मजदूर/ पर औरतों से न गय सहा/ उनका गुस्सा परवान चढ़ा/ वह आगे/लपकी-झपकी/ दारोगा को इक झापड़ मार/ गरियाती हुई। मुझे छुड़ाकर/जीप में आ बैठीं/उनमें से कुछ/ जीप की बोंट पर चढ़-/पुलिस को ललकारती तीजनबाई काछा बाँध--घूसा तान/मजिस्ट्रेट के धिंग पहुँची 'ठेकेदारों का दलाल'- कह थूकी मुझे पकड़ कर बैठ गईं सब/ 'चलाओ गोली गर दम है तो/ तीजुमति चिल्लाई।' (पृष्ठ-८३)।


    अपने अधिकारों की भूख रखने वाले लोगों की लड़ाई लड़ना आसान है, किंतु जो मिल जाए उसी से संतुष्ट रहने वालों के अधिकारों की लड़ाई लड़ना बहुत कठिन है। सबसे पहले अधिकार पाने की भूख जगाना, फिर उनको पाने के लिए संघर्ष को तैयार करना निस्सन्देह बहुत बड़ा काम है। झारखंड के कोयला खान और खदान मजदूरों के हित में लड़ते हुए रमणिका गुप्ता को यह कठिन काम करना पड़ा। इसे उनकी कविता के इन शब्दों में देखा जा सकता है- 'मजदूर जागृत न थे। एक न थे/ पाँच रुपया हफ्ता मज़दूरी से/ संतुष्ट उनमें जागी न थी। अपने अधिकारों की भूख/ उन्हें अभी न लगी थी। फिर भी 'तिनटंगी' लड़ाई यह हम डेढ़ बरस लड़े।' (पृष्ठ-९०)


    सुविधा संघर्ष की क्षमता, जज्बा और आग खत्म कर देती है। सुविधाभोगी व्यक्ति भूख और मौत से डरते लगता है। सुविधाप्राप्त व्यक्ति की अपनी सुविधाओं की रक्षा के प्रति सजगता बढ़ जाती है। दूसरों की में तंगहाली या बदहाली के प्रति उसकी चिंता नहीं रहती है अथवा कम हो जाती है। उसका चिंतन प्रायः अपनी सुविधाओं कीसुरक्षा तक सिमट जाता है। बहुत से मजदूरों के साथ भी ऐसा होता है। रमणिका गुप्ता को मज़दूरों की इस समस्या से भी जूझना पड़ा। 'जो एक दिन भी काम बंद करने को तैयार न थे/ जो नौकरी पाए, खुशहाल हुए/ जो नहीं पाए फटेहाल हुए। यह स्थाई मज़दूरों के जीवन की लड़ाई न थी--/ थी सुविधा कीलड़ाई। जो वह सुविधा से लड़ते !/जो जिंदगी की लड़ाई में--/मौत से न डरते थे--/वही अब मौत से डरने लगे। (पृष्ठ-९७)


    रमणिका गुप्ता ने मजदूरों को आर्थिक शोषण के विरुद्ध संघर्ष करने के लिए ही जागृत नहीं किया, अपितु धर्म और ईश्वर के नाम पर सामाजिक शोषण के विरुद्ध भी समाज को जागरूक किया। दुनिया में भगवान या ईश्वर नाम की कोई सर्वोच्च सत्ता है, इस मिथ्या प्रचार के विरुद्ध जागरूकता अभियान का भी वह हिस्सा रही हैं। सामाजिक समता और शोषण से मुक्ति का यही सर्वाधिक कारगर उपाय है। भगवान के प्रेत को अपने सिर पर ढोते हुए समाज शोषण से मुक्त नहीं हो सकता। रमणिका जी इस बात को अच्छी तरह समझती हैं और यही संदेश अपनी कविता के माध्यम से वह समाज को देना चाहती हैं। 'भगवान के प्रेत को बीच बाजार में सड़क चौराहे पर/ जनता के बीच में बेनकाब करना बाकी था।' (पृष्ठ-५०)


    संक्षेप में कहा जाए तो भला मैं कैसे मरती' रमणिका गुप्ता की मजदूर यूनियन और सक्रिय राजनीतिक जीवन की संघर्ष गाथा है। समस्त कविताओं में मजदूर आंदोलन में रमणिका गुप्ता की नेतृत्वकारी भूमिका और उनके संघर्ष का चित्रण है। इसे रमणिका गुप्ता की उस कालावधि की आत्मकथा के रूप में भी देखा जा सकता है। इन कविताओं की नायिका स्वयं मज़दूर नहीं है, मजदूरों की नेता है। किंतु, वह केवल भाषण देने वाली नेता नहीं है, अपितु मज़दूरों के साथ उनकी लड़ाई लड़ती है तथा उनके उनके कंधे से कंधा मिलाकर लिए अनेक प्रकार के कष्ट, अभाव और मार सहती है। जिंदगी की अनेक लड़ाइयाँ जीतने वाली अ रमणिका गुप्ता ने अपनी दृढ़ इच्छा शक्ति और हौसलों से मौत को भी बार-बार परास्त किया और अपने मजबूत इरादों के साथ निरंतर सक्रिय रही हैं। आज भी वह उतनी ही सक्रिय हैं। सक्रियता ही जीवन है, रमणिका गुप्ता का जीवन इसका सशक्त प्रमाण है। उनकी सक्रियता और जीवंतता को उनके इन शब्दों में सहज देखा जा सकता है, जिसमें मौत को चुनौती देते हुए वह कहती हैं- 'अभी मारने का वक्त नहीं है मेरे पास/ जा लौट जा/ मैं लड़ने को तैयार हूंतुझसे भी करूंगी साक्षात्कार।।।।।।।।हमें मौत नहीं मारती/ स्वार्थ मार सकता है। भय मार सकता हैमार सकती है निष्क्रियता/ अभी तो मैं सक्रिय हूँ।।।।।।।/ मुझे निभाने हैं प्राण बहुत आज/मुझे जाना है आगे ही आगे।।।।।।।/बस भाग! तू भाग !/ मुझे मारने से पहले मारो उन्हें--/ जो बाँटते हैंभूख/ फैलाते हैं भूख।' (पृष्ठ-११३-११४)


                                                                                             (यह लेख रमणिका गुप्ता के निधन के पूर्व लिया गया है।)