लेख - नामवर सिंह : अर्थगर्भी आलोचना का नया दिगंत - सेवाराम त्रिपाठी

22 जुलाई 1951 को ग्राम जमुनिहाई जिला सतना मध्य प्रदेश में जन्म। 1972 से मध्य प्रदेश शासन उच्च शिक्षा विभाग में प्राध्यापक। अब अवकाश प्राप्त। दो वर्ष तक मध्य प्रदेश हिन्दी ग्रन्थ अकादमी, भोपाल में संचालक और संयुक्त संचालक के दायित्वों का निर्वहन। कविता और आलोचना की कई पुस्तके प्रकाशित।


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१. “हमें एक शिक्षित मध्यावर्ग मिला है जो हमारे लोकतंत्र की बड़ी ताकत है। मैं माक्र्सवादी जरूर हूँ, पर कई प्रश्नों पर बार-बार सोचता भी रहता हूँ। आज बदले हुए दौर में ऐसे कई प्रश्न हैं, जिनका जवाब नहीं मिल पाता। पिछले कई वर्षों में मैं देश में जा-जाकर संवाद कर रहा हूँजब मैं बोलता हूँ तो बस मैं नहीं, हमारे समय की बौद्धिक उपस्थिति बोलती है, जिसमें आप सब शामिल हैं जो सुनते हैं, जो पढ़ते हैं। वे धन्य हैं जो अमर होने के लिखते हैं, पर मैं मर-मर के बोलना चाहता हूँ।''


                                                                                                      (नामवर जी का कोलकत्ता में दिया गया भाषण)


२. “निस्संदेह किसी कविता का सिरजा हुआ संसार ही उसका मूल्य है, किन्तु उस मूल्य की प्रासंगिकता इस स्थिति पर निर्भर है कि वह सिरजा हुआ संसार कितना वास्तविक है अथवा वास्तविकता के बारे में हमारी समझ को कितना गहरा और कितना समृद्ध करता है, हमारे आस-पास के संसार को अर्थ प्रदान करने में किसी कविता के अपने संसार की सार्थकता है।''


                                                                                                      (नामवर सिंह वाद-विवाद-संवाद, पृष्ठ-३८)


३. “बातें-बातें-बातें ।।। बातें ही तो करता रहता हूँ अबतककभी इनसे बात करना, कभी उनसे बात करना। और नहीं तो आप ही आप। यह भी एक बहाना है न लिखने का और लिखने का भी। इसी व्यापार का एक अच्छाए सा नाम है-संवाद।''


                                                                                                        (नामवर सिंह की पुस्तक 'कहना न होगा' की भूमिका)


हिन्दी आलोचना ने अपने दौर की रचनात्मकता का मूल्यांकन और विश्लेषण भर नहीं किया, बल्कि उस समूचे युग की कारक शक्तियों को पहचानने और युग विशेष के द्वन्द्वों सामाजिक-सांस्कृतिक परिस्थितियों को निगाह में रखते हुए तमाम तरह की रूढ़ियों, काली ताकतों,पीछे की ओर ले जाने वाले उद्यमों और जुमलों के ख़िलाफ़ भी संघर्ष किया है। कभी-कभी तो ऐसे अवसर भी आए हैं कि अपने ही साथियों-सहयोगियों से भी निरंतर वैचारिक संघर्ष प्रगतिशील आलोचना को करना पड़ा है। मुक्तिबोध इसके अन्यतम उदाहरण रहे हैं। इस सच्चाई को स्वीकार करना जरूरी है अन्यथा हम प्रगतिशील आंदोलन की खूबियों और खामियों का तटस्थ मूल्यांकन नहीं कर सकते।


    चित्र : विजय अग्रवाल


      प्रगतिशील साहित्य मूल्यों ने साम्राज्यवाद, पूंजीवाद, व्यक्तिवाद, साम्प्रदायिकता, अवसरवाद और कलावाद को समझते हुए माक्र्सवादी स्थापनाओं के परिप्रेक्ष्य में जनपक्षधरता, मूल्यपरकता और मानवीयश्रम की रचनात्मकता को हमेशा रेखांकित किया है। प्रगतिशील आलोचना दरअसल अपने युग की ऐतिहासिक सांस्कृतिक परिस्थितियों के व्यापक संदर्भो में अपने युग की जटिलताओं की 'सोशियो- साइको' एनालिसिस भी पेश करती है और मार्क्सवाद के व्यापक स्वरूपों के माध्यम से समाज को समझने और उसे बदलने के निरंतर विकसित होते सरोकारों का विज्ञान भी है। उसकी वैचारिकी के विभिन्न पहलुओं को गहराई से देखने समझने और विचार करने के नए-नए सोपान हैं। हिन्दी के कद्दावर, कर्मठ एवं अपने मूल्यों के लिए सतत् संघर्ष करने वाले आलोचना के शिखर, अर्थगर्भी आलोचना के अद्भुत ज्ञाता, इस दौर के बहुज्ञात, बहुपठित और मिशनरी आलोचक आचार्य प्रो. नामवर सिंह का अवसान हमें बहुत सूना कर गया। वे साहित्येतर और जीवन की दूरी को पाटने वाले आलोचक रहे हैं। उनसे मेरी कई मुलाकातें हुई हैं। कई बार उनको सुनने-समझने का अवसर मिला है। कुछ याद रहा कुछ भूल गया। कह नहीं सकता कि कितना जाना और कितना छूट गया। वे अपने जीते जी किवदंती बन गए थे। इसे अतिशयोक्ति न माना जाए। रचनाएं उनके सामने सहम सी जाती थीं। अनेक विषयों के ज्ञाता नामवर जी जब बोलते थे तो समां बंध जाता था, लगता था कि केवल उनको सुनते रहें और सुनने का आनंद लेते रहें और दुनिया को जानते रहें। यह बतरस धीरे-धीरे हमारे जीवन में खत्म होने के कगार पर है। हर लेखक अपनी रचना के बारे में उनसे कुछ राय की उम्मीद करता था। यह भी कि नामवर जी कुछ लिखें या कहें। यानी हर लेखक के लिए वे 'मनोवांछित आलोचक' थे। उनका लिखा, कहा और पढ़ा हमें जीवंत रखेगा और दुनिया को समझने में हमारी मदद करेगा। यह देखा जाए कि कौन उनके प्रिय रचनाकारों में से रहे हैं तो आश्चर्य होगा-संस्कृत, उर्दू, हिन्दी, फारसी, भारतीय भाषाएं और अंग्रेजी के अनेक लोगों के वे प्रशंसक रहे हैंकेवल दो नामों का उल्लेख करना चाहूँगा। एफ.आर.लिविस के प्रति उनकी प्रीति को लेकर सवाल उठते रहे हैं। नामवर जी का कहना है ''शायद मुझे साहित्य के प्रति लिविस की एकनिष्ठ गंभीरता ने आकृष्ट किया जिसमें गहरा नैतिक बोध है, ठोस कृतियों पर सतत् एकाग्र दृष्टि है, किसी प्रलोभन से भ्रष्ट न होने वाली अविचल निष्ठा हैऔर चौतरफा विरोधी वातावरण के बीच निरंतर संघर्ष करने वाला एक व्यक्तित्व।'' (पूर्वग्रह-४४, ४५, पृष्ठ ११) उसी तरह दूसरे हैं निर्मल वर्मा - उनकी कहानियों के प्रति उनका आकषर्ण प्रायः हिन्दी संसार में विदित है। तमाम विरोधों के बावजूद निर्मल जी के बारे में उनका प्रेम बना रहा।


      प्रो. नामवर सिंह की आलोचना कलाकार की उत्कट ईमानदारी का मुक्तिबोध के बाद सबसे बड़ा उदाहरण है। वाद-विवाद और संवाद के लिए विख्यात रहे हैं। वे अर्थमीमांसा के विश्वसनीय आलोचक के रूप में पहचाने जाते हैं। वे पाठों के सक्षम व्याख्याकार आलोचक रहे हैं। रचना की गुणवत्ता और शक्ति के अत्यंत जानकार और रचना की कमियों को भरपूर देखने वाले। उनकी आलोचना जनपक्षधरता और वर्गीय दृष्टि के मान-मूल्यों के लिए भी जानी पहचानी जाती है। वे तब तक किसी को अच्छा या बुरा नहीं कहते थे, जब तक कि उसके लिए अपना सब कुछ दांव पर लगाने को तैयार न हों। उनका एक कथन फिर याद आया- ''लोकजीवन ऐसी शक्ति है जो सामाजिक गतिरोध को तोड़ने के साथ ही साहित्यिक गतिरोध को समाप्त करती है।'' नामवर जी स्वाभिमान की जलती हुई निष्कंप मशाल की तरह याद किए जाएंगे। उनकी आलोचना हर प्रकार की संकीर्णता, रुग्णता, साम्प्रदायिकता और जनविरोधी शक्तियों के खिलाफ लगातार संघर्ष करती रही है। उनके लक्ष्य स्पष्ट रहे हैं। उनकी आलोचना बुनियादी तौर पर हर प्रकार की सत्ताओं (राजनीतिक सत्ता, धर्मसत्ता, अर्थसत्ता और समाजसत्ता) के खिलाफ संघर्षरत रही है। अंधराष्ट्रवाद, साम्राज्यवाद, पूंजीवाद, बाज़ारवाद के ख़िलाफ़ लगातार मुहिम की तरहयाद की जाती रहेगी। वे धर्मनिरपेक्ष और मानवीय मूल्यों के पक्षधर, शोषितों, पीड़ितों, चितों की आवाज़ के रूप में पहचानी जाने वाली शख्सियत भी रहे हैंनामवर जी ने जितना लिखा है उससे कहीं ज्यादा कहा है। उनके लिखने और पढ़ने में समानता रही है। उसको कोई छोटा-बड़ा नहीं कह सकता। तुलसी दास जी ने कहा-को बड़ छोट कहत अपराधू'। यह कहा सुनी भी एक मोर्चे की तरह रही है और लोक से जुड़ाव भी। वे साहित्य और समाज के मध्य अंतःसंबंधों पर भी जोर देते रहे हैं। नामवर जी साहित्य विवेक के आलोचक रहे हैं। उनकी तर्क शक्ति, उनकी विश्लेषण क्षमता, उनका 'विट', उनकी सूक्ष्म दृष्टि और विचार का पैनापन हमें निरंतर आकर्षित करता है। वे अपनी स्थापनाएं यूं ही हवा में नहीं छोड़ते बल्कि उनके समर्थन में विचारकों-चिंतकों के मत भी उद्धत करते हैं और उनके संदर्भ प्रसंग भी सामने लाते हैं, यही नहीं उनकी टीका टिप्णणी भी करते हैं। उनकी आलोचना पाठक से धैर्य और साहस की मांग करती है। मैं उन्हें मेधा का कारीगर भी कहता हूँ। उनकी आलोचना में विषय की विविधता, जानकारी का अक्षयस्रोत और निर्धान्तताका आवश्यक गुण पाया जाता है, इसलिए उनकी आलोचना में विश्वसनीयता और तर्कशीलता में एक प्रभावी गुण रहा है। यही नहीं नामवर जी की आलोचना अपने समय, समाज और परिवेश के उन सवालों से टकराती है जहां धुंध है, धुआं है, कृत्रिमता और मूल्यविहीनता है। जैसे मुक्तिबोध हर प्रकार के दुर्गम पहाड़ों, गढ़ों और मठों को ढहाने की बात करते हैं उसी तरह आलोचना में नामवर जी रचनाओं से गंभीर मुठभेड़ के लिए जाने जाते हैं। नामवर जी एक योद्धा की तरह समूचे पतनशील मूल्यों के विरुद्ध लामबंद रहे हैं। आलोचना उनके लिए इतिहास, संस्कृति, मनुष्य और युग का समग्र साक्षात्कार है। नामवर जी जितना ही लिखने में उस्ताद रहे हैं, उतना ही बोलने में हाजिर जवाब, प्रत्युत्पन्नमति और अकाट्य नजीरें देने वाले। वहां संदर्भ के अनुसार ही वे ज्यादा बातें करते हैं। वे यहां-वहां नहीं जाते और न फालतू बातें करते। वे अपनी बातें दो टूक करते हैं। उनके बोलने का कोई जवाब नहीं। उनके अलावा कोई दूसरा नहीं संभवतः इसलिए लोग और मीडिया उनके दीवाने रहे हैंमैंने उन्हें जब भी सुना 'टू द प्वाइंट' बोलते सुना है। वह बोलते वक्त भूमिका नहीं बनाते, सीधे विषय पर आते हैं। उनका अंदाज़ एक किस्सागोई की तरह होता है और जो भी बोलते हैं पूरी तैयारी के साथ। उन्होंने एक जगह जिक्र किया है- “मैं बिना चुनौती के लिख नहीं सकता। जब तक मेरे सामने कोई चुनौती खड़ी नहीं होती तब तक मैं लिखने के लिए तैयार नहीं हो पाता। चाहे तात्कालिक दबाव कितने हों। जीवन और साहित्य में जिस दिन यह चुनौती समाप्त हो जाएगी, उस दिन मेरा लिखना खत्म हो जाएगा।'' वे अपने तई जिन्दगी के महासमर में इन सबसे जूझते हुए देखे जते रहे हैं। प्रगतिशील, माक्र्सवादी वैचारिकी के वे सक्षम व्याख्याकार के साथ उसके मान-मूल्यों की सैद्धान्तिकी एवं व्यवहारिकता के पथ प्रदर्शक भी हैंउनकी आलोचना माक्र्सवादी, द्वंद्वात्मतकता का खुला आकाश और अपूर्व संसार है। वे अपने को समीक्षक की बजाय आलोचक के रूप में देखना-सुनना ज्यादा पसंद करते रहे हैं। उनका एक कथन मुझे बरबस याद आ रहा है- “साहित्यकार की गहराई इस बात में है कि वह सतह को तोड़ता है और इस तरह वह भ्रमों को हटाकर वास्तविकता का सही रूप उद्घाटित करता है। उद्घाटन कार्य ही साहित्यकार का रचनाकार्य हैवास्तविकता का निर्माण वह उद्घाटन से ही करता है। भौतिक कारीगरों की तरह वह सचमुच ही कोई चीज नहीं बनाता। ऐसे भी लेखक हैं, जो अपने मन के माध्यम से उस मन के साथ जुड़े हुए सैकड़ों दूसरे मनों का उद्घाटन करते हैं। इस तरह वे अपने मन के द्वंद्व का उद्घाटन करते-करते उस युग के पूरे समाज के संघर्ष को खोल कर रख देते हैं।'' (व्यापकता और गहराई निबंध)


    नामवर जी हमें लगातार आन्दोलित करते रहेंगे। उनकी वैचारिकता की धमक शताब्दियों तक गूंजती रहेगी। उनके न रहने पर भी उनके रहने का एक अतीव आकर्षण हममें बना रहेगा। यह एक प्रीतिकर अहसास है। नामवर सिंह का जीवन संघर्ष भी काफी तीखा और मारक है। काशीनाथ सिंह ने अपने संस्मरण 'गरबीली गरीबी वह' में इसे विस्तार से रेखांकित किया है। उनके कृतित्व की बहुआयामिता लोगों को आश्चर्यचकित करती है। हम धारणाएं बनाने में लगे रहते हैं। आलोचना की परिधि बहुत व्यापक होती है। वह सभ्यता समीक्षा भी है और बौद्धिक सहमति-असहमति का विशाल दायरा भी। वह आलोचक की जनतांत्रिक हिस्सेदारी भी है। उसकी सामाजिकता की पड़ताल अंतः और बाहरी क्षेत्रों तक जाती है। लोगों को रचनाकार की पीड़ा समझ में आती है, लेकिन आलोचक का विंधा हुआ मन उसके उत्तरदायित्वों की तरफ के आकाश की ओर हमारा ध्यान शायद नहीं जाता। आलोचना रचना के आस्वाद तक सीमित नहीं है। वहां आत्मावलोकन, समाजालोचन और विवेक का विस्तार भी है। शंभुनाथ ने लिखा है- “आलोचना मेडिकल रिपोर्ट या वजन कांटा नहीं है। वह स्प्रिंग भी नहीं है कि किसी रचनाकार को उछाल दे और रचनाकार ऊपर स्थिर हो जाए। आलोचक क्रिकेट के कमेंट्री बॉक्स में बैठा आदमी नहीं है। वह एक पाठक ज़रूर है, पर वह खुद भी एक वैसा ही जीवन जीता है, जैसा खुद रचनाकार। सभ्यता समय से उसके उतने ही अंत:सक्रिय रिश्ते हैं, जितने रचनाकार के।'' (संस्कृति की उत्तरकथा, पृष्ठ १०२) नामवर जी की आलोचना को, जीवन मूल्यों को, राजनैतिक सांस्कृतिक वास्तविकताओं को ज्यादा से ज्यादा पारदर्शी ढंग से देखे जाने की ज़रूरत है ताकि उनके बहुआयामी आलोचकीय योगदान को व्यापक संदर्भ में परखा जा सके। नामवर जी के साथ अन्य प्रगतिशील आलोचकों की जटिलताओं के व्यापक परिप्रेक्ष्य और समानांतर रूपों में उनके सरोकारों, उनकी चिन्ताओं को जांचने परखने का माद्दा भी निरंतर तलाशा जाना चाहिए और प्रगतिशील आलोचना के महत्व को समझने का भी। नामवर जी की आलोचना के मान-मूल्यों के अनेक सूत्र हैं। जिन्हें देखने, भालने, पहचानने की कृबत भी हममें होनी चाहिए। उनकी आलोचना के विविध रूपों को जानने के लिए किसी संकीर्णता से नहीं बल्कि हमें खुले आकाश की विस्तृतता में देखने की जरूरत है। मात्र उनके चिन्तन का एक सिरा पकड़कर उनकी अंतरात्मा के आयतन को नहीं खोजा सकता। समूची प्रगतिशील आलोचना के 'टूल्स' पर फोकस करते हुए नामवर जी की केन्द्रीयता को मानवीय संदर्भो में परखने की भी जरूरत है। आलोचना का अपना तर्कशास्त्र और समाजशास्त्र होता है और उसके विवेक की धार भी। जिसके पास समय सभ्यता और संस्कृति के अनेक सूत्र कार्य करते हैं। आलोचना हर खोखलेपन के खिलाफ है। वह संकीर्णता, तटस्थता, यथास्थितिवाद, स्वार्थपरता और तथाकथित शुद्धतावाद का उच्छेदन करती है।


      नामवर जी का कद, उनकी आस्वादन क्षमता उन्हें बड़ा आलोचक इसलिए बनाती है, क्योंकि नामवर जी की आलोचना संवादधर्मी और अर्थगर्भी आलोचना है जिसमें अतिरंजनाओं के लिए कोई 'स्पेस' नहीं हैवे अपने समय के जलते हुए सवालों से बार-बार टकराते हैं। मानवीय विकास के सामने जितने तरह की संकीर्णताएं हैं, विरोधाभास और विसंगतियां हैं- वे उनका सामना करते हैं। आश्चर्य होता हैकि नामवर जी ने इतिहास, पुरातत्व, मनोविज्ञान, सामाजिक गतिशीलता और रचना में व्याप्त विभिन्न बिंदुओं को खोजा, तलाशा और विश्लेषण किया, इसलिए उनकी आलोचना में अर्थगर्भी मीमांसा की आत्मा का निवास है। वे धार्मिकता, साम्प्रदायिकता, अराजकता, बाजारवादिता, तानाशाहियत और सूचना संजाल के संभ्रमों को तोड़ते हुए उन मूल्यों की तलाश करते हैं जो मनुष्यता को रोशन कर सके। उनकी आत्मा को दीपित कर सके। मुझे लगता है कि उनकी आलोचना में, उनकी वैचारिकी में प्राप्त संदर्भो और मानकों को भी खोजा जाए तथा नामवर जी का समय के प्रति जो आग्रह और संधान है उसे भी। रचना की तात्कालिकता में न खोजकर उसके व्यापक आयामों में खोजा जाना चाहिए ताकि उसके उत्स , मूल्यों और उसकी वास्तविकताओं के विचार लोक को हम भली-भांति जान सकें।


      नामवर जी की आलोचना को पढ़ते हुए हमारे पास असहमतियों के लिए भी जगह है और बेशक उन्हें उजागर किया जाना चाहिए, क्योंकि आलोचना हमारे लिए एक मानक भी बनाती है। वह बंद तहखानों के खिलाफ भी होती है। उनकी आलोचना से टकराकर हम समय से संजीदा मुठभेड़ कर सकते हैं। रचनाओं की वस्तुगत पड़ताल कर सकते हैं, क्योंकि मेरी नज़र में रचना कोई भजन-पूजन नहीं है, कोई आरती और फूल अक्षत, पूजा-अर्चना भी नहीं है, न कुंकुम रोली है। आलोचना हमारी आंख खोलती हैवह हमें इतिहास और सांस्कृतिक मूल्यों को पहचानने का माद्दा भी प्रदान करती है। नामवर जी को बार-बार उनकी आलोचना पद्धति और प्रणाली को लेकर कठघरे में भी खीचने के प्रयत्न हुए हैं। अपनी धारणाओं के प्रकाश के लिए वे खतरा उठाने को तैयार दिखे। वे गंभीर आलोचक भी हैं और जिंदादिल इंसान भी। उनकी आलोचना का सबसे बड़ा गुण है पारदर्शिता, इसलिए शिष्टाचार की चिंता किए बिना अपनी स्थापनाओं को उन्होंने बेहद सतर्कता के साथ प्रस्तुत किया। किसी को उनकी आलोचना अच्छी लगे या बुरी लगे। प्रायः वे इससे अलग रहे हैं।


    नामवर जी ने अपनी आलोचना की यात्रा में प्रारंभ से लेकर अंत तक सामाजिक गतिशीलता को कभी भुलाया नहीं और न ही अपने विजन को कभी प्रशंसा के अतिरेक में खत्म किया है। वे युद्ध भूमि में लड़ने वाले एक योद्धा की तरह मनुष्यता के खिलाफ लामबंद ताकतों से तमाम द्वन्द्वों को न केवल रेखांकित करते हैं, बल्कि उनसे अनवरत लोहा लेते हैं। मानवीय मूल्यों को अनवरत खोजते रहे हैं। वैचारिकी, समय और रचनात्मकता से अपने को जोड़ते रहेहैं। इसी को मैं उनकी सबसे बड़ी विश्वसनीयता मानता हूँ। ऐसा नहीं है कि इतने लंबे कालखंड में लिखी गई उनकी आलोचनाएं शिथिलता का शिकार न हुई हों, क्योंकि मानवीय कमजोरियां सब में होती हैं और आलोचक इनसे जूझने के लिए ही तो लगातार प्रयास करता है और यह प्रयास नामवर जी में अनवरत विद्यमान है। मुक्तिबोध की एक पुस्तक 'एक साहित्यिक की डायरी' (१९६४) की पड़ताल करते हुए उन्होंने 'एकालाप और संलाप' निबंध लिखा, जिसमें वे मुक्तिबोध की रचनात्मकता की बुनावट की असलियत को खोजते हैं। यही नहीं वे उनकी उत्कट ईमानदारी का रेखांकन भी करते हैं। मुझे लगता है कि यह निबंध उनके आलोचक का एक शिखर है। जाहिर है कि आलोचना एक तरह से निरंतर जांच पड़ताल का काम भी है और मानव के सामने आए संकट और छाई हुई चुनौतियों का पर्दाफाश भी। नामवर जी ने सच ही लिखा है- “साहित्य की व्याख्या करने वाली पुस्तक तो बहुत है किंतु साहित्य की धारा को बदलने वाली विचारोत्तेजक पुस्तकें एकाधिक दशक बाद आती हैं और मुझे लगता है कि मुक्तिबोध की ये डायरी एक ऐसी ही क्रांतिकारी है- विशेषतः नवलेखन के लिए।'' (नामवर संचयिता, पृष्ठ ५७)


    “नामवर जी परंपरा भंजक आलोचक हैं। यूं तो उनकी आलोचना में पक्षधरता, व्यापकता, गहराई और संवदेनशीलता है, लेकिन वहां मनुष्यता के प्रति आग्रह भी है और मोर्चा भी है। ऐसा लगता है कि उनकी आलोचना में एक युद्ध लड़ा जा रहा है और हर तरह के मठ और गढ़ ढहाए जा रहे हैं। वे अपने गुरु आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के बहाने उनकी आलोचना का दूसरी परंपरा की खोज के रूप में चिह्नित करते हैं। नामवर जी अपने तथ्यों को सत्यों को तर्कपूर्ण परिप्रेक्ष्यों में उद्घाटित करते हैं। इसे हम आलोचना की दूसरी परंपरा भी कह सकते हैं।'' और यही वास्तविकता उनके आलोचक का केन्द्रीय बिन्दु है।


    नामवर जी की आलोचना बैठे-ठाले के रास्ते नहीं आई। वे रचना की तह में जाते हैं। सामाजिक, सांस्कृतिक, ऐतिहासिक और मानवज्ञान के समूचे रास्तों के बीच से अपनी बातें कहते हैं। रचना की वास्तविकता से हर संभव मुठभेड़ करते हैं। जाहिर है कि आलोचना एक असमाप्त जिरह है। उन्हें बार-बार अतिवादी, गिरोहवाद लेखकों के क्रोध का शिकार बनना पड़ा। कुछ बातें उनके विश्लेषण में रह गईं। नामवर जी आज़ादी के बाद की साहित्य के तमाम धाराओं से भलीभांति परिचित रहे हैं, इसलिए उनके मूल्यांकन और विश्लेषण में पैनापन, गहराई और स्पष्टवादिता रही है। उनकी निर्णय, क्षमता सभी को अपनी ओर आकृष्ट करती है। नामवर जी को मैंने कभी भी दु:चित्रपने में नहीं देखा। वे आर-पार देखते हैं, इसलिए आलोचना की भूमिका पर नामवर जी ने दो टूक कहा था- “यदि आलोचना निष्क्रिय रसास्वाद नहीं, बल्कि सक्रिय मूल्यांकन है तो यह भी निश्चित है कि प्रत्येक मूल्यांकन एक वैचारिक संघर्ष है।'' (वाद-विवाद और संवाद, पृष्ठ २९)


    रचना और आलोचना दोनों में अंत:संघर्ष भी है और एक-दूसरे को प्रभावित करने की ताकत भी। हमारे जीवन में जो घट रहा है, वही अंततोगत्वा रचना और आलोचना दोनों में फलीभूत होता है। सब कुछ बदल रहा है-विज्ञान के अंत:सूत्रों और बाह्यसूत्रों का निरंतर विस्तार और उसके व्यापक प्रयोग भी हो रहे हैं। इन सबके बावजूद जड़ता का घनत्व लेखक समाज में और जनता के बीच बढ़ता ही जा रहा है और उसके छीटें बार-बार आलोचना में पड़ते हैं। हमारे जनतंत्र में हत्यारे, उठाईगिरे, तुच्छ भाषा संस्कारी राजनीतिज्ञों की खोपड़ियां जनतंत्र को खा चबा रही हैं और धार्मिक पाखंडता के मूर्तमान बाबा सन्यासी और उनके आश्रमों में एक नया सत्ता बाज़ार तना हुआ है। जहां टोने-टोटके पसरे हुए हैं। कुछों के ही रहस्य उजागर हुए हैं बाकी बड़े सुभीते से फूलफल रहे हैं। दुर्भाग्य से हमारा जनतंत्र कुंठाओं और लफाजियों में से भर गया है। संभवतः इसीलिए सत्ता की पैतरेबाजियों ने हमारे मानवीय मूल्यों को लील लिया है। आम नागरिक नि:शस्त्र कर दिए गए हैं। लोकतंत्र अराजकता के साए में विकसित हुआ है और वहां तानाशाहियत का वातावरण अपने चरम पर है।


                                                                                                  सम्पर्क: रजनीगंधा 06, शिल्पी उपवन, श्रीयुत नगर, अनन्तपुर,


                                                                                                    रीवा, मध्य प्रदेश-486002, मो.नं.: 9425185272