लेख - नाम तो कई हैं पर नामवर तो एक ही रहेंगे - राजेन्द्र कुमार

प्रतिष्ठित कवि-आलोचक, पूर्व विभागाध्यक्ष हिन्दी विभाग, इलाहाबाद केन्द्रीय विश्वविद्यालय शिक्षा : एम.एस.-सी., एम.ए. (हिन्दी) कृतियाँ : 'ऋण गुणा ऋण', 'हर कोशिश है एक बगावत' तथा 'लोहा-लक्कड़ (कविता संग्रह), 'अनंतर तथा अन्य कहानियां' (कहानी संग्रह), 'साहित्य में सृजन के आयाम और विज्ञानवादी दृष्टि', 'प्रतिबद्धता के बावजूद', 'शब्द-घड़ी में समय', 'कविता का समय-असमय', 'कथार्थ और यथार्थ'। संप्रति : स्वतंत्र लेखन


                                                                           ----------------------


कुछ अंदेशे ऐसे होते हैं, जिनके बारे में यह आभास रहता है कि कभी भी सच हो सकते हैं। लेकिन जब वे वाकई सच होते हैं तो सहसा विश्वास करने का मन नहीं होता। नामवर जी को जिस दिन 'अमर उजाला' का 'आकाशदीप' सम्मान दिया जाना था, संयोग से मैं उस दिन (३१ जनवरी २०१९) दिल्ली में ही था। सम्मान समारोह में जाने का मन बना लिया था। लेकिन विश्वनाथ त्रिपाठी जी से फोन पर बात हुई तो पता चला, नामवर जी तो एक अस्पताल के आई.सी.यू. में भर्ती हैं। मैं उन्हें देखने वहाँ चला गया। दूर से ही, जो देखने को मिला, वह अप्रत्याशित था। कहाँ नामवर जी की वह छवि, जो उनको देखते हुए सालों-साल बनी रही, और कहाँ यह, जिसने एक क्षण में हृदय को हिलाकर रख दिया। जिस शरीर और जिस चेतना ने कभी झुकना गवारा नहीं किया, वह आज इस हाल में ! सोच ही नहीं सका मैं कुछ। अंदेशे से काँप गया कि पता नहीं, कब क्या खबर सुनने को मिल जाए। और अततः वही हुआ।


    हिंदी आलोचकों के बीच नामवर जी के होने का अर्थ, खुद-ब-खुद खोलता था उनका लंबा कद- 'एक लंबी काया उन्मुक्त'। बोलते थे मंच पर, तो एकदम सीधे-तनकर खड़े हुए। स्वर सधा हुआ, चौंकना कि किस विचार को किस तरतीब और किन तर्को से होकर गुजरने देना है। बिना किसी अतिरिक्त आयास के, जिस बिंदु पर जहाँ जितना जोर देना है, बस उतना ही। चश्मे के लेंस के पीछे, आँखें आत्मविश्वास से दीपित। श्रोताओं पर अपने असर को तोलती हुई। यही थी, वह छवि जो बरसों-बरस अपने को यों ही संभाले हुए, हिंदी का गौरव बनी रही।


    यह सच है कि नामवर जी ने, शुरू में जो कुछ लिखा, उससे ही उन्हें पर्याप्त प्रसिद्धि मिलने लगी थी। लेकिन धीरे-धीरे वे लिखने से ऊपर होते गए और बोलने में ही प्रवृन्त होते गए। लेकिन उनका बोला हुआ सारा का सारा, लिख लिए जाने का जैसा प्रलोभन पैदा करता रहा, इसका प्रमाण हैं युवा आलोचक आशीष त्रिपाठी द्वारा संकलित संपादित अनेक खंडों में आती गई पुस्तके।


    आलोचना की वाचिक परंपरा के, न केवल हिंदी में बल्कि संभवतः समस्त भारतीय भाषाओं में अपने ढंग के सबसे अनूठे और सबसे ज्यादा लोकप्रिय आलोचक नामवर जी ही थे।


    'बोलते हुए' नामवर जी के बारे में अक्सर यह भी लक्षित किया जाता रहा कि वे अपनी मान्यताओं को अवसर के अनुकूल बदलते भी रहते थे। लेकिन यह अस्थिरता भी तर्क के किसी न किसी परिवृत्त में रहती थी, इसलिए उसका अपना प्रभाव होता था। उन्हें उपने आलोचक रूप के आलोचकों से भी लोहा लेने में आनंद आता था। उन्हें यह फिक्र नहीं थी कि उनकी अस्थिरता के साथ कोई क्या सलूक करता है। स्मृति और अध्ययन-दोनों का बल था उनके पास। तब भला फिक्र कैसी? तर्क पद्धति पर अचूक अधिकर ऐसा कि कुछ पूछिए मत। नामवर जी के गुरु आचार्य हजारी प्रसाद जी ने कबीर को 'वाणी को डिक्टेटर' कहा था। उसी तर्ज पर हम नामवर को 'तर्क का डिक्टेटर' कह सकते हैं। तर्क सीधे-सीधे काम कर जाए तो ठीक, नहीं तो नामवर तर्क को ऐसा 'दरेरा' देते कि तर्क को उनके काम आना ही पड़ता।


चित्र: विजय अग्रवाल


अध्ययन का रेंज इतना विस्तृत था कि उनकी चेतना के काल में, पुराने से पुराना हो, या नए से नया, दोनों के बीच के फ़ासले से निपटने में कोई मुश्किल आड़े नहीं आती थी। नामवर जी की आलोचना दृष्टि किसी भी प्रबुद्ध पाठक को इस बात की समझ देती है कि कृतियों के रचना काल के अंतर के बावजूद वह जान ले कि किस कृति या किस कृतिकार को हमारे अपने काल में खुलने का कितना अवकाश प्राप्त है। नामवर जी ने हमें यह देखना सिखाया कि आलोचक किसी भी काल की रचना में अपने काल को कैसे आविष्कृत करता हैं और यह भी कि नई से नई कृति अगर अपना खरा आलोचक पा जाए तो कई अनखोजी परंपराएँ कैसे हमारी चेतना में उजागर हो उठती हैं। इसी उद्देश्य से नामवर जी रचना के नए पुराने होने की जाँच के सवाल से पहले प्रतिमानों के नए पुराने होने की जाँच के सवाल उठाते रहे। नामवर जी ने अपने शोध संबंधी कार्य की जमीन के रूप में हिंदी के आदिकालीन साहित्य और भाषारूपों को चुना था। इसके पीछे उनके गुरु द्विवेदी जी की प्रेरणा रही होगी। लेकिन नामवर ने अपने गुरु की तरह अपने अध्ययन को केवल आदिकाल और भक्तिकाल की सरहदों से ही घिरा नहीं रहने दिया। बल्कि नामवर जी की आलोचना का मूल क्षेत्र हिंदी का आधुनिक साहित्य रहा। इस तरह उन्होंने अपने गुरु से मिली दृष्टि को खुद अपने समय की अपेक्षाओं के अनुरूप विस्तार दिया। नामवर जी के बारे में यह भी कहा जाता रहा कि वे स्वभाव से काव्य-प्रेमी ही रहे, इसलिए काव्यालोचक के रूप में ही ज्यादा सफल हो सके। लेकिन इस धारणा को तोड़ने में उन्होंने 'कहानी नई कहानी' नामक अपनी पुस्तक के निबंध लिखकर कहानी-आलोचना के क्षेत्र में जिस तरह अपनी उपस्थिति दर्ज कराई, उसका ऐतिहासिक महत्व असंदिग्ध है।


      प्रभावशाली और बहुअघीत वक्ता के रूप में भी उनका यह वैशिष्ट्य प्रायः सर्व-स्वीकार्य है कि वे केवल साहित्य में ही नहीं, अन्य ज्ञानानुशासनों से संबंधित विषयों पर भी पूर्ण अधिकार से बोलने वाले हिंदी के एक मात्र आलोचक सिद्ध हुए। समाजशास्त्र, हतिहास, दर्शन राजनीति-यहाँ तक कि विज्ञान के अद्यतन चिंतकों के विचारों तक उनकी पहुँच अद्भुत रूप से उनके व्याख्यानों में पहचानी जाती थी।


    नामवर जी ने एक स्थल पर बाबा नागार्जुन की कविता पर बोलते हुए कहा था कि कविता में वाचिक परंपरा का गुणगान करने वाले और हैं, जबकि नागार्जुन से वह वाचिकता पुनर्जीवित हुई। लेकिन इसी तरह से खुद नामवर जी के बारे में हम यह निस्संकोच कह सकते हैं कि आलोचना जैसी विधा जिसका जन्म ही हिंदी में लिखित रूप में हुआ था, उसके वाचिक रूप को प्रतिष्ठा दिलाने का श्रेय यदि किसी एक आलोचक को देना हो तो निश्चित ही सबके ध्यान में सबसे पहला नाम नामवर जी का ही आएगा।