लेख - हिन्दी आलोचना की एक बेबाक आवाज - गिरीश पंकज

साहित्य और पत्रकारिता में विगत चालीस वर्षों से सक्रिय। तेईस व्यंग्य संग्रह, नौ उपन्यास, दो कथा संग्रह, पाँच गज़ल संग्रह सहित अनेक कुल अस्सी पुस्तके। व्यंग्यश्री और अट्टहास सम्मान जैसे अनेक सम्मान। 8 उपन्यास, 20 व्यंग्य-संग्रह, 2 कहानीसंग्रह, 5 गज़ल-संग्रह सहित 75 पुस्तके व्यंग्यश्री, 2018, हिंदी भवन, नई दिल्ली, पूर्व सदस्य, साहित्य अकादमी, नई दिल्ली (2008-2012) प्रांतीय अध्यक्ष, छत्तीसगढ़ राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, सदस्य, हिंदी सलाहकार समिति, राष्ट्रीय पुस्तक न्यास, भारत।


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हिंदी साहित्य की दुनिया के शीर्ष पुरुष नामवर सिंह जी का न रहना, घर के एक बड़े बुजुर्ग का सहसा चला जाना है। उनके न रहने से बिल्कुल वैसी ही अनुभूति हो रही है। लग रहा है, आंगन में खड़ा एक छायादार वृक्ष सहसा उखड़ गया हैमेरा सौभाग्य रहा कि पच्चीस साल पहले रायपुर आकाशवाणी के लिए उनसे साहित्य से जुड़े कुछ महत्वपूर्ण सवालों पर बातचीत की थी। उनको सुनना हर बार एक नया अनुभव रहता था। एक बार भारती बंधु के साथ दिल्ली में उनके घर जाकर भी उनसे मिलने का सौभाग्य मिला। उनकी सहजता-सरलता आज भी मेरी स्मृति में बसी हुई है। मैं बिना निमंत्रण के कहीं जाना ठीक नहीं समझता, लेकिन जब कभी नामवर सिंह का व्याख्यान हुआ, तो बिना निमंत्रण ही मैं उन्हें सुनने पहुंचता रहा क्योंकि उनको सुनकर हर बार मैं खुद को समृद्ध महसूस करता रहा हूं। साहित्य के जो नए नए वर्ग उभरते रहते थे, उन पर नामवर सिंह की टिप्पणियां बड़ी काम की हुआ करती थी।


    दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में हिंदी के प्राध्यापक के रूप में उनकी ख्याति देशव्यापी हुई। उनके पढ़ाए गए शिष्य देश भर में फैले हुए हैं। और अध्यापक, आलोचक या साहित्यकार के रूप में उनकी अपनी पहचान भी है। साठ साल के लेखकीय जीवन में नामवर सिंह ने बहुत अधिक लेखन नहीं किया हैलेकिन जितना भी उन्होंने लिखा है वह विमर्श के लिए पर्याप्त हैउनके दो शोध ग्रंथ आज भी याद किए जाते हैं, जिसमें हिंदी के विकास में अपभ्रंश का योगदान' और 'पृथ्वीराज रासो की भाषा'। इसके अलावा आलोचना पर केंद्रित उनकी कृतियां भी बेहद चर्चित रहीं। जैसे 'आधुनिक साहित्य की प्रवृत्तियां', 'इतिहास और आलोचना', 'छायावाद', 'कविता के नए प्रतिमान', 'कहानी : नई कहानी', 'दूसरी परंपरा की खोज' और 'वाद विवाद संवाद'। किसी भी पुस्तक में कोई दोहराव नहीं है। सभी में उनकी अपनी मौलिक दृष्टि नजर आती है। 'आलोचना और संवाद', 'पूर्वरंग', 'रामविलास शर्मा आदि कृतियां बाद में प्रकाशित हुई, जिनमें उनके साहित्यिक लेखों का संग्रह है। इसके अतिरिक्त उन्होंने कुछ संपादन कार्य किया हैहजारी प्रसाद द्विवेदी के साथ मिलकर उन्होंने 'पृथ्वीराज रासो' किताब संपादित की। इसके अलावा 'कार्ल मार्क्स : कला और साहित्य चिंतन', 'नागार्जुन : प्रतिनिधि कहानियां', मलयज की डायरी, रामचंद्र शुक्ल रचनावली, आधुनिक हिंदी उपन्यास, चिंतामणि आदि भी उनके बेहतर संपादन कर्म के नमूने हैं। इन सब कृतियों के कारण नामवर सिंह एक प्रख्यात् आलोचक के रूप में स्थापित होते चले गए। लेकिन उनकी एक विशेष पहचान विशिष्ट वक्ता के रूप में भी अधिक रही। वह जितना अच्छा लिखते थे, उतना अच्छा बोलते भी थे।


    समकालीन साहित्य में जो कुछ भी घटित हो रहा है, उस पर उनकी चौकस निगाहें रहा करती थीं। और पिछले बीस पच्चीस सालों में तो वह एक ऐसे महानायक के रूप में उभरे कि जिस नए लेखक पर उन्होंने हाथ रख दिया, वह रातोरात साहित्य में स्टार बन गया। उनकी इसी प्रतिभा का दोहन दिल्ली के एक-दो प्रकाशकों ने भी खूब किया। नामवर सिंह ने जिसकी अनुशंसा कर दी, उन लोगों को प्रकाशकों ने आंख मूंदकर प्रकाशित किया। लेकिन ऐसा नहीं है कि नामवर सिंह ने किसी कमजोर लेखक की अनुशंसा की हो। उन्होंने हमेशा ही गुणवत्ता पर ध्यान दिया। इक्का-दुक्का अपवाद हो सकते हैं।


    मेरे हाथ में अभी उनकी कृति 'दूसरी परंपरा की खोज है। उसे ही पलट रहा हूं। यह कृति आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी पर केंद्रित है। लेकिन द्विवेदी जी के बहाने उन्होंने जगह-जगह अपना चिंतन भी पेश किया है। एक जगह नामवर जी लिखते हैं, 'यदि साहित्य का लक्ष्य मनुष्य है तो मनुष्य के समान साहित्य भी स्थिर नहीं बल्कि गतिशील है। यदि मनुष्य की कोई स्थिर परिभाषा नहीं हो सकती तो साहित्य की ही क्यों हो?..। साहित्य तैयार माल नहीं है तो साहित्य की कोई तैयार परिभाषा भी नहीं हो सकती। साहित्य इस दृष्टि से एक ऐतिहासिक अवधारणा है। इसलिए साहित्य के बारे में यह कहा गया है कि वह इतिहास में पलता है।'


    दूसरी परंपरा की खोज दरअसल नामवर सिंह के गुरु हजारी प्रसाद द्विवेदी पर केंद्रित है। आलोचना के क्षेत्र में उनका रुझान हजारी प्रसाद द्विवेदी जी के कारण ही हुआ। दूसरी परम्परा की खोज पढ़कर हम आसानी से हजारी प्रसाद द्विवेदी के साहित्यिक व्यक्तित्व से परिचित हो सकते हैं।


    आलोचना साहित्य से उनका गहरा लगाव था। उनका एक चर्चित लेख है, 'आलोचना की संस्कृति और संस्कृति की आलोचना'। इस लेख में उन्होंने एक सच्चे आलोचक के क्या गुण होने चाहिए, इस पर प्रकाश डाला है। वे कहते हैं, 'आलोचना अपनी कोख से ही आलोचनात्मक रही है। देखने की वह भी एक दृष्टि होती है जो सारे छद्म को तार तार कर के रख देती है। यह वही दृष्टि है जिससे बने हुए सज्य और संस्कृत जन घबराते हैं, डरते हैं, थर्राते हैं। अंग्रेजी का क्रिटिसिज्म शब्द अपने उस आलोचनात्मक अर्थ को आज भी सुरक्षित रखे हुए है। दोष-दर्शन और छिद्र अन्वेषण के अर्थ में आज भी आलोचना का व्यवहार देखा और सुना जाता


चित्र : विजय अग्रवाल


है। अंग्रेजी में मैथ्यू अर्नाल्ड से पहले साहित्यिक आलोचना का दोष-दर्शन वाला रूप प्रचलित था और शायद प्रबल भी। साहित्य के आलोचक सामाजिक आलोचना के लिए भी इस अस्त्र का उपयोग करते थे। रूस में बेलिंस्की जैसे तेजस्वी आलोचक ने साहित्य आलोचना को जिस तरह सामाजिक और राजनीतिक आलोचना के प्रखर अस्त्र के रूप में इस्तेमाल किया, वह उन्नीसवीं सदी के पूर्वार्ध के इतिहास का संभवत सबसे शानदार अध्याय है। हिंदी में भी उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध से चलकर बीसवीं सदी में महावीर प्रसाद द्विवेदी, रामचंद्र शुक्ल, हजारी प्रसाद द्विवेदी, रामविलास शर्मा से आती हुई साहित्यिक आलोचना का वह सामाजिक राजनीतिक तेवर अब भी बरकरार है।' सच बात तो यह है कि नामवर सिंह ने जितने भी नाम गिनाए, उसके बाद आलोचना के क्षितिज पर कोई एक बड़ा नाम लंबे समय तक धूम मचाता रहा, तो वह थे खुद नामवर सिंह। उनके जाने के बाद आलोचना के क्षेत्र में एक लंबा अंतराल पसरा नजर आता है। पता नहीं दूसरा नामवर कब जन्म लेगा? कौन आएगा जो आलोचना के नए सौंदर्य शास्त्र विकसित करने की कोशिश करेगा। अभी तो हमें नामवर सिंह जी के भरोसे ही आलोचना चना के इतिहास को खंगालना होगा।


    अपनी बेबाक अभिव्यक्ति के लिए जाने जाने वाले नामवर सिंह ने कभी इस बात की परवाह नहीं की कि लोग क्या कहेंगे। वे वामपंथियों के साथ भी थे तो कभी कभी दक्षिणपंथी समझे जाने वाले लोगों के साथ भी उन्होंने मंच साझा किया। लेकिन जहां भी रहे, बेबाक हो करके अपनी बात रखी। राजनीति के बारे में उन्होंने कहा था, 'सौन्दर्य शास्त्र ने राजनीति को भी सुंदर बनाया है। राजनीति सुंदर होकर 'फासिज्म' की शक्ल में आई। सन् ७५ की इमरजेंसी भूली न होगी। हर शहर को सुंदर बनाने का अभियान चलाया गया। दिल्ली के तुर्कमान गेट को सुंदर बनाने के लिए गोलियां चलानी पड़ीं। राजनीति की सुंदरता का वह पहला स्वाद था। घूट थी खून की। सुंदर राजनीति की अद्वितीय सौंदयार्नुभूति। अफसोस उस राजनीति के सौंदर्य शास्त्र का कोई शास्त्र नहीं रचा गया। इस सौंदर्य शास्त्र में जोर रूप पर ही था। इस रूपवाद का सूत्र वाक्य था अनुशासन। ठीक कलानुशासन की तरह। शुद्ध रूप को ही देखने की शर्ते हो तो रूप का यह अभिशासन बुरा न था। कुछ कला पारखी उसे स अच्छा कहने वाले थे। फासिज्म उन्हें कहीं और दिखाई पड़ता था। वहां नहीं, जहाँ सचमुच था' नामवर सिंह ने प्रगतिशील लेखकों की भी जबरदस्त आलोचना की थी क्योंकि अनेक वामपंथियों ने आपातकाल का कालका समर्थन किया था और प्रस्ताव भीपास किया था। इसमें आज के तथाकथित बड़े लेखक भी शामिल थे। नामवर ने ऐसे पतित माक्र्सवादी लेखकों पर दुख व्यक्त करते हुए कहा था कि कुछ लोग आपातकाल में भी कला का अनुशासन देख रहे थे। 'ऐसे कलापारखियों में कुछ माक्र्सवादी भी थे। स्टालिन काल के रुपवाद से भली-भांति परिचित। अनुशासन के प्रशंसक!' व्यंग्य करते हुए नामवर सिंह आगे कहते हैं, 'इस प्रकार सौंदर्यशास्त्र कभी कभी राजनीति को भी इतना सुंदर बना देता है कि राजनीतिक आलोचना की दृष्टि धुंधली हो जाती है। धार कूद पड़ जाता है। जब राजनीति का यह हाल हाल है, तो साहित्य आलोचना के अंजाम का अंदाजा लगाया जा सकता है। कहने का आशय यह है कि ऐसे कई अवसर आए जब नामवर सिंह जी ने उन लोगों को भी नहीं छोड़ा, जो लोग नामवर सिंह का जय जयकार करते रहते थे।


    नामवर सिंह आलोचना को भी रचनात्मक लेखन माना करते थे। और सही बात भी है कि आलोचना प्रकारानन्तर से साहित्य ही है। हालांकि आलोचना में मौलिकता कम, संदर्भदृष्टि ज्यादा रहती है लेकिन उसी संदर्भ-दृष्टि से जो नए विमर्श निकल कर के आते हैं, उससे आलोचना सशक्त भी होती है। आलोचना अगर पूर्वाग्रह से मुक्त रहेगी तो वह साहित्य का भला करेगीअगर आलोचना पूर्वाग्रह से ग्रस्त होगी, तो वह साहित्य को रसातल में भी ले आ सकती है। क्योंकि तब 'अंधा बांटे रेवड़ी आप आपको देय' वाली उक्ति चरितार्थ होती है। हिंदी आलोचना पर पिछले कुछ दशकों से यह आरोप लगता रहा है कि वह मुंहदेखीवाद को प्रश्रय देती है। नामवर सिंह की भी इस बात को समझते थेआलोचना के साथ सबसे बड़ी त्रासदी यह हुई कि विचारधारा के खूटे से बांध की गई। वामपंथी-आलोचना, दक्षिणपंथी-आलोचना। इसी विभेद ने आलोचना का कबाड़ा किया। विचारधारा के अनुकूल जब आलोचनाएं होती रहीं, तो पाठक के सामने अराजक स्थिति निर्मित हुई। वह समझ नहीं पाया कि किस कृति के प्रति वह अपना लगाव बनाए या किस कृति से वह अपनी दूरी बनाए रखे। मेरा अपना मानना है कि आलोचना सम्यक-दृष्टि के साथ आगे बढ़ना चाहिए। हालांकि नामवर सिंह ने भी बहुत हद तक निष्पक्ष रहने की कोशिश की लेकिन उनका वामपंथी रुझान कहीं-कहीं आलोचना की गंगा को साफ रखने में सहायक ना बन सका। धीरे-धीरे उनका अपना एक ऐसा बड़ा मठ बना, जिसके कारण वह विवादों में भी घिरे। लेकिन नामवर सिंह तो नामवर सिंह थे। उन्होंने इसकी परवाह नहीं की। उन्हें जो बेहतर लगा, वह किया। बिना किसी दबाव के उन्होंने अपनी पारी खेली। और अंतिम सांस तक आलोचना के शिखर पुरुष बनी रहे।


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