आरती तिवारी
सिर्फ माँ
माँ सिर्फ माँ होती है
प्रारम्भ से अंत तक
माँ की भूख, भूख कहाँ होती है
दो निवाले तोड़ने होते हैं बस
शरीर को चलाने के लिए
हमें अच्छा खिलाने के लिए
दिन भर खटती है माँ रसोई में
मसालों की गंध / ज़ायकेदार तड़के
हमारी भूख बढ़ा देते हैं
नरम / गरम फुल्के थाली में आते ही /
गायब हो जाते हैं
हमें राजकुमार / राजकुमारी बना देख
अपनी दिन भर की थकान /
पल में भुला देती है
माँ एक जादुई मुस्कान में समा जाती है।
माँ की नींद / नींद कहाँ होती है
हमारी अलार्म घड़ी है माँ
घड़ी के काँटों से मुकाबला करती /
मानो दिन को परास्त करती है।
हमारे लिए कभी -कभी तो /
उम्र भर भी जाग जाती है माँ
हमें सोया जान / माथे पर डरते डरते
फिराती हैअपने खुरदुरे -हाथ /और
वारी -वारी जाती है हमारी नींदों पे
अविरल बहती रहती है / अश्रुधार
मानो खुद के अल्पशिक्षित रह जाने का /
अफसोस / गला रही हो आंसुओं में
हमारे ऊंचे मुकाम तक पहुँचने में /
माँ चुक चुकी होती है / पूरी तरह
पर अब / एक लौ दिपदिपाती है उसकी आँखों में ।
हमारी ऊंची उड़ानें / उसे आत्मगौरव से पूर देती हैं
उसकी /आश्वस्ति अब विस्तार पाती है
पानी के पंखों पे सवार हो
लहरों से जीतना चाहती है वह /
हमारी अनवरत उड़ानें / हमें उससे
दूर ले जाती हैं
उसकी प्रतीक्षा / और हमारी प्रगति
एक -दूसरे से होड़ करते हैं। और
इस दौड़ में हम जीत जाते हैं
माँ दुसरे छोर पर / उदास बैठी रह जाती है
ठगी सी
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