कविता-खराब मौसम में एक कविता -गंभीर सिंह पालनी

गंभीर सिंह पालनी-कहानी संग्रह 'मेंढक', चाँदनी चन्दन सदृश हम क्यों लिखें', 'मेंढक तथा अन्य कहानियाँ तथा कविता संग्रह 'नागकन्या के किले में' में प्रकाशित। एक जमाने में साहित्य की लगभग सभी पत्र पत्रिकाओं में कवितायें व कहानियाँ प्रकाशित तथा आकाशवाणी व दूरदर्शन से प्रसारित । साहित्य की दुनिया से लगभग १५ वर्ष दूर रहने के बाद अब दूसरी पारी खेलने के लिए पुनः सक्रिय हुए हैं। 


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खराब मौसम में एक कविता


 


ये कैसी हवा चल रही है


जिस में उड़ कर आए साँप


लोगों के मन के गुलमोहरों पर


लिपट गए हैं


और जो दहकने वाले टेसुओं का


रंग उड़ा कर ले जा रही है।


सीमेंट के इन जंगलों में टहल रही हैं


साँपों की टोलियाँ


दरख्त खोने लगे हैं


हरापन।


कल तक


जिन खेतों में


हरी फसलें लहराती थीं


वे सब के सब


रेत से भर गए हैं


और जाने कब


छुपा गए अंडे उनमें


टिट्टियों के दल।


विषखोपरे विचर रहे हैं


सड़कों पर


बढ़ते ही जा रहे हैं


घोंघे और कछुए।


हथेलियों से किसी बिल को


ढाँपने का प्रयास करते ही


वहाँ से धुंध के साथ लावा


फूट पड़ता है।


पता नहीं कितने ज्वालामुखी


दबे हुए हैं यहाँ।


सारे के सारे लोग


बौरा गए हैं।


कौन घोल गया भांग


चुपके से


यहाँ के कुओं में!


चारों ओर


पंखों वाले सर्प


उड़ रहे हैं।


घुल गया है जहर हवा में


फिर भी


जहर जमा करने के लिए


लोग साँप पाल रहे हैं घरों में


और


लाद कर उनकी पेटियाँ कांवरों में


ढो रहे हैं।


अमरबेलें जकड़ती जा रही हैं


वनों और उपवनों को।


बाबियां ले रही हैं आकार


और बता रही हैं


इस जमीन में


नमी नहीं बची है।


यूकेलिप्टसों का साम्राज्य फैल रहा है


और लेंटाना


उनके रक्षा - कवच बनते जा रहे हैं।


जिधर भी जाता हूँ


गोखरू के कांटे बिखरे हुए पाता हूँ


संभल कर पाँव रखना भी


कुछ कम जोखिम भरा नहीं है।


ये कैसी जगह है


जहां कब कौन केचुआ


सर उठाने लगे


और साँप में बदल जाए


कुछ अनुमान नहीं होता।


लोग प्यासे हैं और


जलकुंभियां निगल गई हैं


सारे जोहड़ों को


प्यासी नदी में


बस्तियाँ बसा ली हैं बहुत से लोगों ने


और किसी खतरे की कल्पना भी


उनके जेहन में नहीं है।


ये कैसी जगह है


जहां कैसे भी पुकारो


नहीं कोई ध्यान देता।


क्या यहाँ


लोगों ने सुनना छोड़ दिया है


या फिर सभी लोग


बहरे हो गए हैं।


और उनके कानों में


कनखजूरों ने बसा ली हैं बस्तियाँ।


मानता हूँ


बारूद की गंध से


सब कुछ सहमा हुआ है


यहां तक कि हवा भी


और


किसी भी क्षण


कहीं से भी आ कर


बरस सकता है


बारूद का बादल


पर मैं यह नहीं मान सकता


केवल इसलिए


ये कविता करने के लिए उपयुक्त मौसम नहीं है।


ये ठीक है कि रंग-रूप बदलते जा रहे हैं


वनों-उपवनों के


और जलकुंभियां भर गई हैं


सारे जोहड़ों में


लेकिन मैं ये कैसे मान लँ कि


मधुमक्खियों ने शहद बनाना छोड़ दिया है,


बंद कर दिया है पक्षियों ने चहचहाना


और सारी मछलियाँ मर गई हैं।


हाँ; इतना जरूर है


जोहड़


जलकुंभियों के बूटों से पट गए हैं


बगुले कर रहे हैं कलरव


और जैसे सब कुछ थमा हुआ है।


लेकिन इससे क्या होता है


मुझे विश्वास है


फिर ऐसी घड़ियाँ आएंगी


जब कंधों पर बंसुरियाँ लटकाए


शुद्ध हवा में


जहां मन चाहे वहाँ घूमेंगे मछुआरे


और तुरवट बतलाएंगे


पोखरों में हैं मछलियाँ।


हालांकि कभी-कभी


विश्वास जितना बड़ा धोखा दे देता है।


उतना तो अंधविश्वास तक नहीं देता।


फिर भी खत्म थोड़े ही हो जाती हैं आस्थाएं:


ये जो मन है न!


विश्वास की जड़ों में


दीमके नहीं लगने देता


और याद दिलाता है


जहां रेतीली धूल का समंदर है सहारा का


वहाँ रेगिस्तान से बहुत नीचे गहराइयों में भी


बहती हैं निरंतर


मीठे पानी की नदियां


और उन में तैरती हैं मछलियाँ।


                                                                                                                                           सम्पर्क: मो.नं.: 9012710777