कविता - हंसते रंगों की भीड़ - प्रद्युम्न कुमार सिंह

प्रद्युम्न कुमार सिंह - जन्म : 19 जनवरी 1976 को फतेहपुर जिले की खागा तहसील के घोषी गाँव में शिक्षा : एम.ए. हिन्दी बीएड हिन्दी संस्कृत विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाशितसम्प्रति : श्री जे.पी. शर्मा इंटर कालेज बबेरु बांदा, उत्तर प्रदेश में अध्यापन कार्य


                                                        -------------------------


हंसते रंगों की भीड़


 


हंसत थे लाखों रंग


दुकानें सजी थीं


सजे थे करीने से


आलमारियों के खांचे


तलाश रहे थे लोग


रुबरू होने के बहाने


मुस्कुराहटों ने उलटे थे


अनगिनत स्वप्नों के


परत दर परत


अनदेखे पन्ने


कुछ खोए थे


किताबों के आवरणों के रंगों में


कुछ जीवन के पन्नों में


खंगाला जा रहा था


अतीत से


वर्तमान तक का सफ़र


और तलाशा जा रहा था


रुचियों का कैटेलाग


लाजमी था कुछ


उथल पुथल का होना


सिसकियों के बीच दानवी


हंसी का आना


कुछ निभा रहे थे


औपचारिकताएं


मित्रों से किए गए वादों की


कुछ खोज रहे थे


सेल्फियों के बहाने


रंगीन तितलियों के पर


यद्यपि ऐसे लोगों नहीं करते


किसी की भी परवाह


न ही रखते है किसी से


कोई रफ्त जब्त


कुछ वास्तव में देख रहे थे


पुस्तकों का मोहक संसार


और उनके आचार व्यवहार


प्रकाशक भी गिरहकट की तरह


तैयार थे


काटने को भारी भरकम जेब


चल रहा था आरोप प्रत्यारोप का


कभी न खत्म होने वाला दौर


कुछ ठहाके अनायास गूंजे थे


मानो खिल उठा हो


बिजली का फूल


जहां तहां चल रहा था


बधाइयाँ का दौर


उड़ रही थीं


कुछ रसीदी टिकट सी


कागजों की चिदियाँ


मानों दे रहीं हो गवाही


बाजार के उठने की


हाँ हाँ यह शंखनाद था


विश्व पुस्तक मेले के अवसान का


कुछ यादें पेवस्त हो रहीं थीं


दिमाग के सुरक्षित कोनों में


और तैयार कर रहीं थी


खुद को


आगामी तिथिक्रम की प्रतीक्षा के निमित्त


आज दिल्ली थोड़ी मायूस थी


किन्तु शीघ्र ही भुला देगी


सब कुछ


और खो जाएगी


एक अनाम शोर की


भीड़ में


जैसे हम सभी खो जाते हैं


हंसते रंगों की भीड़ में


                                                                                                                                   सम्पर्क: मो.नं. 8858172741