कविता - आवरण - सत्या शर्मा कीर्ति'

सत्या शर्मा कीर्ति' - विद्या : लघु कथा, कविता, लेख आदि सम्प्रति : स्वतंत्र लेखन


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आवरण


 


पवित्र चंदन सा मन लिए


वो उतरने देती है


अपने वस्त्रों को


और तब वो शरीर नहीं


वस्त्र बन जाती है


जो उतरती जाती है


परत दर परत


नीम अंधेरी रातों की


लिजलिजे रौशनी में


ना जाने कितने


मुखौटों के संग


बन कठपुतली होती


है बेपर्दा


फिर खिड़की के पल्ले पर टॅगी


अपनी आत्मसम्मान की चुन्नी को


पुन: बन जाती है शरीर


हाँ, वस्त्र बनना तब अच्छा


नहीं लगता है


जब ताखे में रखे ईश्वर


अपने पूजे जाने की आस लिए


गुहार लगाते हैं


उनकी भी आँखें


होती है उदास / अपने ही


सृजन को वस्त्र में


बदलते देख कर


तब वो माँ बन दुलारती है


नन्हे बाल - गोपाल की मूर्ति


करती है आरती, चढ़ाती है फूल


वस्त्र के पवित्र आँचल


से पोंछ करती है श्रृंगार गोपाल का


और करती है


तृप्त अपने अंदर की


अधूरी सी माँ को


पुनः रातों के गहराने पर


रख देती है माँ को


उसी पूजा की थाली में


क्योंकि रात के पुजारी को


माँ होना स्वीकार नहीं


और इसी वस्त्र और शरीर


के अनवरत खेल


जी लेती है एक पूरी उम्र


बिना जाने की एक


स्त्री होना क्या होता है।


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