कहानी - और डायन मर गई - डॉ. पूरन सिंह

जन्म : 10 जुलाई 1964 (मैनपुरी, उत्तर प्रदेश) शिक्षा : एम.ए. (अंग्रेजी-हिन्दी) 'सत्तरोत्तरी हिन्दी कहानियों में नारी' विषय पर पी.-एच.डी कृतियां : लगभग सभी छोटी, बड़ी और स्तरीय पत्र-पत्रिकाओं में कहानियां, लघुकथाएं, कविताएं, लेख आदि प्रकाशित। पुरस्कार/सम्मान : विभिन्न प्रतिष्ठित साहित्यिक संस्थाओं द्वारा अनेक सम्मान और पुरस्कार। सम्प्रति : भारत सरकार में प्रथम श्रेणी अधिकारी।


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बीरबती बुरी औरत नहीं थी। सुन्दर थी। गुणवान थी। बोलचाल में भी अच्छी थी। इतना ही नहीं, कोख की भी धनी थी लेकिन बलबीरा को अच्छी नहीं लगती थी। बलबीर नीयत का सच्चा नहीं थी। चरित्र का दोगला था।


    बीरवती जब अपने अतीत में झांकती तो सिहर जाती थीबापू गरीब था उसका लेकिन था मेहनती और कर्तव्यपरायण। मेहनत मजदूरी करता और अपने बच्चों का पेट भरता। बीरबती अपने सभी भाई बहिनों में सबसे छोटी थीलाडू, प्यार भी खूब दिया था बापू और अम्मा ने उसे लेकिन लिखे को कौन टाल सका है सो बीरबती के नसीब को टाल पाता। बापू एक दिन भट्टे पर भट्टा झौंक रहा था न जाने कैसे उसका पैर फिसला गया। समा गया था पूरे का पूरा ही भट्टे में। अम्मा रोती रही थी और बीरबती भी अम्मा के साथ ही बिलखती रही, ...बापू तुम लौट आओ लेकिन क्या कभी मरे हुए लौटे हैं जो बीरवती का बापू लौटता।


    घर में कमाने वाले के चले जाने से फांके पड़ने लगेतब क्या करती बीरबती। मां के साथ ही जाने लगी थी भट्टे पर काम करनेबड़े दोनों भाई अपनी-अपनी पत्नियों के साथ दूसरी दुनिया में लीन थे। बड़ी बहिन भट्टे पर ही काम करने वाले के साथ न जाने कहां चली गई थी, हां लौटकर नहीं आई थी आज तक। विधवा मां का कौन सहारा बनता सो बीरवती ने मां का साथ देने की ठान ली थी।


    दोनों मां-बेटी मेहनत करतीं और अपने पेट का आयतन भरतीं लेकिन बीरबती की मां को अंदर ही अंदर कुछ काटता सा रहता। बार-बार यही सोचती रहती, आखिर उसकी बीरो का क्या होगा। मां थी ममता से सराबोर। रात-दिन दोनों ने काम करके कुछ पैसे जोड़ लिए। थे। वैसे तो बीरबती ने जिद पकड़ ली थी कि अपनी अम्मा को छोड़कर पराए घर नहीं जाएगी लेकिन बेटियां किसकी, अपने मायके बैठी रही हैं उन्हें तो पराए देश जाना ही होता है सो एक दिन बीरबती के भी पराए घर जाने की बात आ ही गई थी। उसने बलबीरा के साथ बीरबती को भेजने की ठान ली थी।


  बलबीरा शरीर से हृष्ट-पुष्ट था। पांच-सात लोगों को काम पर लगाकर भट्ट पर ही ईटें पाथता था। ठीक-ठाक आमदनी हो जाती थी। असल में, हुआ यह था कि बलबीरा ने ही बीरबती को मांगा था उसकी अम्मा से, 'बीरो मुझे बहुत अच्छी लगती है....चाची, इसे मुझे दे दो। फूलों से तौलकर रखूगा।' यही कहा था बलबीरा ने बीरबती की मां से।


    बीरबती की मां को मनमांगी मुराद मिल गई थी। 'बेटी के हाथ पीले हो जाएं तो गंगा मैया में डुबकी लगाऊंगी।' मन में यही साध-साध ली थी।


    बहुत बड़ा आयोजन नहीं हुआ था बीरबती की शादी के समय। भट्ठा मालिक का करिंदा और भट्टे पर ही काम करने वाले लोग जिनमें बीरबती की अम्मा की कुछ कामगार सहेलियां थीं, बलबीरा के आठ-दस पथरे और कुछ लोग और, रहे होंगे जिनके सामने ही बीरबती को बलबीरा ने एक साड़ी और पेटीकोट लाकर दे दिया था। न पंडित आया था न कोई मंडप सजा था। बस चली आई थी बीरबती, बलबीरा के घर। बलबीरा का घर भट्टे के पास में ही था। दो तीन कमरों का। कच्ची ईटों का। इसी में आकर रहने लगी थी बीरबतीबलबीरा का अपना कोई नहीं था- न मां, न पिता, न भाई और न सगा संबंधी। अगर कोई सगा था तो सुंदरी थी


    सुंदरी नाम की ही सुंदरी थी। देखने में काली, मोटी। वैसे तो शरीर की सुंदरता कोई मायने नहीं रखती लेकिन सुंदरी का तो मन भी सुंदर नहीं था। झगड़ालू और अपने ऊपर गुमान करने वाली सुंदरी का पति उसे कब को छोड़कर चला गया था, यह तो सुंदरी भी नहीं जानती थी। सुंदरी अब जवान नहीं थी लेकिन अधेड़ भी नहीं थी रंगरूप ही नहीं दिया था भगवान ने उसे बाकी किसी को भी मोहित करने में जादूगरनी थी। लोग तो यह कहते है कि संदरी का पति उसके कुलक्षणों के कारण ही उसे छोड़कर चला गया था। सुंदरी में सबसे बड़ा कुलक्षण था तो वह था, उसकी सूनी कोख। कोख पत्थर हो गई थी उसकी। ऐसे ही नहीं हो गई थी कोख पत्थर उसकी। दरअसल हुआ यह था कि पहले तो वह बच्चा चाहती ही नहीं थी। उसका मानना था कि औरत के बच्चा हो जाने से पुरुष का उसके प्रति आकर्षण समाप्त हो जाता है। और सुन्दरी ठहरी रोज पति बदलने वाली इसीलिए वह न जाने कितनी बार बच्चा गिरवा चुकी थी और अब.....अब वह बांझ थी, ऊसर भूमि, बंजर। लेकिन उसे इसका रंज नहीं था। आज भी उसके चाहनेवालों की लाइन लगी थी और इसी लाइन में लगा था-बलबीर। बलबीरा तो उसे न जाने कब का अपनी औरत बना लेता लेकिन डरता था कि इसके बच्चा सचमुच नहीं हुआ तो उसकी वंशबेल का क्या होगा। तभी तो उसने बीरबती से शादी की थी। मन तो उसका सुन्दरी में ही रमा हुआ था।


    बीरबती ब्याह कर आ गई थी बलबीरा के घर। अब वह बलबीरा की ब्याहता थीबलबीरा के सुख-दुख की सांझी। उसके साथ जीवन-मृत्यु की साथी लेकिन बलबीरा इसे मानता तब न।


    बीरबती पतिव्रता की तरह बलबीरा का घर संवारती। उसके साथ भट्टे पर जाती और उसकी सेवा में ही अपना सर्वस्व समझती थी। अब वह बच्ची नहीं रह गई थी। समझ थी उसमें। अपना बिराना जानती थी वह। अब समझ तो समझ ठहरी सो जल्दी ही सुन्दरी के साथ अपने पति का यथार्थ जान गई थी वहरोना भी चाहा होगा लेकिन आवाज थी कि गले में ही रूग्ध गई थी शायद। मन नहीं माना था, 'सुन्दरी में ऐसा क्या है जो मुझमें नहीं।' सिरे से नकार गया था बलबीरा, 'कोई बात नहीं है। '


  सिरे से नकार गया था बलबीरा, 'कोई बात नहीं है सुन्दी भाभी के साथ। वह तो भाभी है। मां समान।'


  तो उस दिन अंधेरे कमरे मेंतुम उसके साथ क्या कर रहे थे जब मैं उसके घर आग मांगने गई थी तो तुम सकपका कर अपना घुटन्ना बांधते हुए कैसे निकले थे। और वह अपना पेटीकोट उल्टा बांधकर कैसे खड़ी थी.... बताओ.....बोलो तो सही।' एक टी ही सांस में बोलती चली गई थी बीरबती।।


  कोई जवाब नहीं था बलबीरा के पास बीरबती के सवालों का। हाथ जोड़कर माफी मांग ली थी बलबीरा ने।


    माफ कर दिया था बीरबती ने बलबीरा को।


    लेकिन बलबीरा ने जाकर सारी बात बता दी थी सुन्दरी को। सुन्दरी को गुस्सा भी आया था लेकिन करे तो क्या करे आखिर बीरबती ब्याहता थी और वह स्वयं.....


  तभी एक दिन बीरबती ने बलबीरा को बताया था कि वह बाप बनने वाला है। बलबीरा खुशी से पागल हुआ जाता थाउसने पहली बार बीरबती को अपनी दोनों बाहों में ......मुझे कभी धोखा तो न दोगी।' पंडित जी ब्राह्मण होने के साथ अब बनिया भी बन गए थे।


  पंडित जी चले गए थे अपने घर।।


  फागुन का महीना था। दशों दिशाएं महक रही थीं। बसंत अपने शिखर पर था। लोगों में उत्साह था। उमंग थी। गांव की भलाई के लिए ही गांव में हवन करवाया जा रहा था


  हवनकुंड सजा था। रोली, चंदन, फूल मालाएं, मेवा, मिष्ठान्न रख थे। चारों तरफ बाल बच्चे सजे धजे खड़े थे। स्त्रियां रंग बिरंगे कपड़ों में तितलियां सरीखी चहक रही थीं और इन्हीं में बीरबती भी थी। वनकन्या सी। गहने तो थे ही नहीं सो फूलों का हार और फूलों का जूड़ा बना लिया था। एक बच्चा ही तो हुआ था सो छाती हिलोरें मार रही थी। पंडित जी को याद आ गया था। छुआ ही तो था कि ये तो अद्धा लेकर भागी थी। आज......आज देखता हूं। अभी सोच ही रहे थे कि सामने सुन्दरी दिखाई दे गई थीखुली केशराशि, मदमस्त हाथिनी के मानिंद उनके सामने, उन्हें घूर रही थी मानो उनका वचन याद रही थी मानो उनका वचन याद दिला रही हो और यह भी कि अगर कुछ नहीं किया पंडित जी, आपने तो पूरे समाज के आगे तुम्हारा जनेऊ नोंच लंगी। पंडित जी सकपका गए थे। मंत्रों का उच्चारण भूलने से लगे थे कि......कि.....अचानक उन पर महामाई........महाकाली.....की सवारी आ गई थी। बाल बिखरे थे उनके। यज्ञ से उठती लपटों का भय नहीं था। सिर उठा-उठाकर जमीन पर मार रहे थे। लोग समझ गए थे कि पंडित जी पर महामाया की सवारी आ गई है। स्त्री-पुरुष और बालक, 'जय मां काली...... जय मां काली' बोल रहे थे। दशों दिशाएं मां के जय-जयकार से गुंजायमान थीं तभी कोई बोला था, 'मां क्या चाहिए।'


    'मूर्ख, मां के पास क्या नहीं है।' पंडित जी की घुर्र–घुर सी आवाज थी।


    पूछने वाला सकपका गया था फिर भी हिम्मत की थी, क्या चाहती हो मां।'


    'गांव पर भयानक विपत्ति आने वाली है।'


    'कैसी।'


    'गांव के बाल बच्चे एक-एक करके मरेंगे।'


    पंडित जी पर आई महामाया की इस चेतावनी से सभी मांओ ने अपने-अपने बच्चों को अपनी छाती से चिपका लिया था। बीरबती ने भी अपने मखना को कसकर पकड़ लिया था।


    'कोई उपाय तो होगा मां.......मां तु तो जीवनदायिनी है....मां उपाय बताओ।' पूछने वाला भी बाल बच्चेदार था।


    'बीरो.....बीरबती.......बलबीरा की जोरू......वह... वह डायन हैकुछ ही दिनों में वह एक-एक कर गांव के बच्चों को निगला जाएगी। पंडित जी पर सवारी जरूरी थी लेकिन उनकी आंखें बार-बार बीरबती की हिलोरें मार रही छाती को निहार लेती थीं।


    बीरबती ने जब अपना नाम सुना तो बेहोश होकर गिर पड़ी थी। बेटा मां-मां पुकारे जा रहा था। बलबीरा भी अपने साथियों को छोड़कर बीरबती के पास ही आ गया।


    कोई उपाय तो होगा महामाई ।' किसी ने पूछा था।


    'उपाय है....उपाय यह है कि बीरबती को गांव से निकाल दिया जाए। उसे पत्थर मार-मारकर मार डाला जाए।' अभी पंडित जी पूरा उपाए बता भी नहीं पाए थे कि सामने खड़ी सुन्दरी ने आंखों ही आंखों न जाने क्या इशारे किए थे। दरअसल सुन्दरी बीरबती को मारना डालना नहीं चाहती थी। आखिर वह भी तो औरत थी। वह चाहती थी कि बलबीरा उसके घर आता रहेअगर बीरबती मर गई तो वह स्थाई रूप से उसके साथ बंध जाना चाहेगा फिर उसके और चहेतों का क्या होगा। वह एक आदमी से बंधकर नहीं रहेगी बस। पंडित जी शायद समझ गए थे।


    पूरा गांव बीरबती की नेकनीयती, प्रेम और अपनेपन का कायल था तभी तो कोई बोला था, 'मां........महामाई......अगर बीरो को गांव से बाहर कर दिया जाए तो कुछ......हो सकता है।'


    'दुष्ट जबान लड़ाता है.....लेकिन तू मां का भक्त है। तेरी बात मान लेती हूं। बीरबती को गांव के किनारे निकलने वाली रेल की पटरी के उस पार रखवा दे.....लेकिन वह गांव में कभी न आए नहीं तो अपने बच्चों की हत्या के लिए तुम खुद....।' इसके आगे नहीं बोले थे पंडित जी। धीरे-धीरे पंडित जी पर आई मां की सवारी शांत होने लगी थी।


    बेहोश बीरबती को उसके बेटे की मां-मां करती आवाज ने जगा दिया था। बलबीरा उसके मुंह पर छीटें मार रहा था। उठ खड़ी हुई थी बीरबती।


    तभी पूरा गांव 'डायन... डायन' कहकर उसकी ओर झपट पड़ा था।


    बीरबती अपने बेटे को अपनी गोद में संभाले भीड़ से दबी जा रही थी। बलबीरा अपनी पत्नी को संभालने की कोशिश कर रहा था। भीड़ ने उसे एक ओर धकेल दिया था। तभी कोई बोला था, 'महामाई ने बीरबती को बाहर भगाने के लिए कहा है। उसे आज....अभी.....गांव से बाहर ढकेल दो नहीं तो वह बच्चों को खा जाएगी।'


    Tगा था। बस फिर क्या था। फूलों से सजी बीरबती को गांव से बाहर भगा दिया गया था। उसका बेटा मां-मां किए जा रहा था। बलबीरा को दुख था लेकिन अब कुछ नहीं हो सकता था। बलबीरा अपने बेटे को अपनी गोद में उठाए हारे हुए जुआरी की तरह अपने घर की ओर लौटने लगा था।


    गांव वाले अपने-अपने घरों को लौट रहे थे। हवनकुंड शांत था। सुन्दरी अपनी विजय पर मन ही मन खुश थी और पंडित जी की धूर्तता के आगे नतमस्तक थी।


    बीरबती ने झाड़फूस से अपनी एक छोटी सी झोपड़ीबना ली थी। उसी में रहती थी। गांव वाले उसे कुछ खाने को दे आते। उसी से उसकी गुजर-बसर हो रही थी।


  वह रोज सुबह अपनी झोपड़ी से बाहर निकल कर बैठ जाती जब बच्चे पढ़ने जाते थे। प्राइमरी स्कूल भी रेल की पटरी के उसपार ही था। वह बच्चों को देख-देखकर मन हीमन खुश होती रहती क्योंकि इन्हीं बच्चों में उसका मखना भी जाता था। मखना ने एक दिन बलबीरा से पूछा भी था, 'बापू अम्मा को गांव के बाहर क्यों रखा गया है।'


    'बेटा तेरी मां डायन हो गई है।' बोला था बलबीरा।


    'क्या मां भी डायन होती है। अपने बेटे के इस सवाल पर बलबीरा मुंह बाए खड़ा रह गया था।


    जो बलबीरा सुन्दरी पर अपनी जान छिड़कता था कभी उसने बीरबती को ढंग से प्यार नहीं किया था उसने सुन्दरी के पास जाना छोड़ दिया था। सुन्दरी ने न जाने क्या-क्या स्त्रियाचरित्र किए लेकिन सब बेकार चले गए थे। बलबीरा हमेशा यही कहता, 'बीरबती डायन नहीं हो सकती।'


    सुन्दरी हार गई थी। बलबीरा नहीं तो, कोई नहींन जाने उसे क्या हो गया था।


    एक दिन गए थे पंडित जी उसके पास अपने किए के बदले का हक मांगने तो उसने साफ कह दिया था, 'पंडित जी मैंने सबकुछ बलबीरा को पाने के लिए किया था जब वही मेरा नहीं हो पा रहा तो तुम पर क्या आग डालूंगीचले जाओ यहां से और फिर कभी मत आना। और ज्यादा जिद की तो पूरे गांव को बता दूंगी तुम्हारा असली चरित्तर।' पंडित जी धोती उठाकर भागे थे तो पीछे मुंडकर नहीं देखा था।


    पंडित जी तो आखिर पंडित जी ठहरे, कहां रुकने वाले थे। एक दिन घनी रात में रेल की पटरी पार करके बीरबती की झोपड़ी में घुस गए थे। बीरबती के लिए रात-दिन में कोई फर्क नहीं था। झोपड़ी में किसी को आया देख चौकन्नी हो गई थी। बलबीरा भी आता था उसके पास दबे-छिपे लेकिन उसके कदमों की आहट में, और पंडित जी के कदमों में फर्क था, 'कौन है?'


    'मैं हूं...मैं पंडित जी'


    'क्या चाहते हो। क्यों आए हो।'


    'तुझ पर लगे कलंक को हटवा सकता हूँ मैं....बस एक बार.......एक बार........मान जाओ..। बीरो.. मैं ही हूँ जो तुम्हारे सारे दुख....' कहते हुए बीरबती को भींचने की कोशिश करने लगे थे पंडित जी। बस फिर क्या था। बीरबती पास और तो कुछ था नहीं। उसने अपनी झोपड़ी के अंदर रखी ईंट उठा ली थी और धर दी थी पंडित जी की पीठ पर। पंडित जी भागे थे तो फिर कभी पलटकर नहीं देखा था बीरबती को झोपडी की ओर।।


    बीरबती जीवन से जूझती रही। जीतना तो क्या था हारती ही रही थी। समय भागने लगा था कि कि एक दिन, सुबह बच्चे रेल की पटरी पार कर रहे थे। रेल के गेटकीपर ने फाटक बंद नहीं किया था। शायद ड्यूटी पर ही सो गया था। रेल आ रही थी। बच्चे बातों में मस्त थे। बीरबती ने आती हुई रेल को देख लिया था। वह जानती थी कि बच्चों को न रोका गया तो सभी बच्चे रेल से कट जाएंगे। जिधर से बच्चे आ रहे थे उनके ठीक सामने से अपने बिखरे बाल और हाथ में ईंट उठाए उनकी ओर भागी जा रही थी मानो उन्हें खा जाएगी। एक तरफ बच्चे, दूसरी तरफ बीरबती बीच में पटरी। बच्चों ने डायन को अपनी तरफ आते देखा तो डायन डायन चीखते हुए उल्टे पैरों भागने लगे थे। डायन को न जाने क्या हो गया था उनकी तरफ ही दौड़ा चली जा रही थीवह तो यह भी भूल गई थी कि बच्चे जब भाग गए हैं और सुरक्षित हैं फिर भी उन्हें और दूर भगाना चाह रही थी कि पटरी के बीचों बीच पहुंच गई थी कि...कि सामने से तेजी से आ रही रेल ने उसे तीन हिस्सों में बांट दिया था....और डायन मर गई थी। ।


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