शहरनामा'- ‘लोक' की सहजता से दूर होता शहर - डॉ. जूही शुक्ला

एसोसिएट प्रोफेसर एवं अध्यक्ष चित्रकला विभाग, प्रयाग महिला विद्यापीठ डिग्री कालेज, इलाहाबाद चित्रकला एवं अन्य विषयों पर कई पुस्तकें प्रकाशित, विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में लेख एवं शोध पत्र प्रकाशित। कविता एवं कहानी लेखन में भी रूचि।


                                                                         -----------------------------


किसी भी शहर की एक पहचान होती है जो हमारे दिलो दिमाग पर ताजी हो जाती है। शहर की पहचान को बरकरार रखता है शहर का ‘लोक' यानी नगरवासी या उस शहर के बाशिन्दे, जिन्होंने शहर को बनते-गुनते दौड़ते, प्रेम करते जवान होता देखा होता है। शहर बूढ़ा भी होता है लेकिन अपनी बुजुर्गियत के आईने में वह फिर-फिर जन्म लेता है, जवान होता है और यह सिलसिला चलता ही जाता है एक परम्परा संस्कृति के रूप में साकार होती है। एक अविरल धारा बहती हैंजिसमें सब गोते लगाते हैं और बात इलाहाबाद की हो तो फिर कहने की क्या, यह शहर बहुत सादा है और इसकी सादगी में इसकी विशिष्टता छिपी हुई है। इसकी सादगी का झिंगोला पहने देश की तमाम विशिष्ट विभूतियाँ सांसें लिया करती थीं- जीवन के हर क्षेत्र में सादगी और सहजता के वाहक पं. मदनमोहन मालवीय, महादेवी वर्मा, पं. नेहरू, इंदिरा, निराला, क्षितीन्द्र नाथ मजूमदार न जाने कितनी विभूतियाँ यहाँ टहलते हुए अपनी-अपनी विशिष्टता को बचाते हुए देश की सांस्कृतिक, साहित्यिक, आध्यात्मिक तरक्की में शामिल हुईं।


    यह शहर लाई चने बेचने वाले भुडभुजों का भी है और अमरूद की फेरी लगाने वाले हॉकरों का भी। यह शहर हर नमकीन के मसालों और नन्हें-नन्हें समोसों की तरह बहुत दूर-दूर तक घूम आता है। यह शहर मातादीन की गजक में रचे बसे तिल और गुड़ की तरह हिन्दू मुस्लिम संस्कृति को आत्मसात् किए हुए है।


     मौजूदा समय में कुम्भ की कशिश सर चढ़ के बोल रही है। हर तरफ भगवा रंग में रंगा शहर मानों अध्यात्म का ही ठिकाना बना है। यूं तो वर्षों से यहाँ पीर, पैगम्बर, साधु-सन्त गंगा जमुना सरस्वती के जल में स्नान करके स्वयं को कामना करते चले आ रहे हैं और प्रयागवासी की अपने भाग्य पर इतराते हैं कि उन्हीं ऋषि-मुनियों के प्रवचनों से सिंचित इस देवभूमि में जन्म लिया। इसी आध्यात्मिक पक्ष से अलग इलाहाबाद का कुम्भ हजारों लाखों लोगों की जीविका का प्रमुख साधन बनता है। सरकार भी इस दिशा में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेती है। प्रशासन की पूरी कोशिश होती है कि दुनिया के एक-एक व्यक्ति को जो प्रयाग आए उसे एक डुबकी तो लगवा ही दी जाए।


     इधर कई सालों से चित्रकार शिविर, नाटक, नौटंकी विभिन्न सरकारी संस्थाओं द्वारा करवाई जाती है। कलाकारों और हुनरमंद लोगों को अपने फन दुनिया के सामने रख देने का एक बहुत बड़ा अवसर होता है। यह कुम्भ पर्व पर इस बार शहर को पेन्ट माई सिटी के बैनर तले रंगने का एक अभियान भी चला जिसके तहत पूरा शहर विभिन्न प्रकार की कलाकृतियों और चित्रों से सज गया तो देखने वालों को अपनी तरफ बरबस आकर्षित कर रहा है। परन्तु इस प्रकार के आयोजनों में बाहर से आए कलाकारों ने शहर की कुछ इमारतों को ऐसा पोत दिया कि उनकी पहचान ही बदल गई। उदाहरण के लिए इलाहाबाद विश्वविद्यालय के सर सुन्दर लाल छात्रावास के सामने की दीवार पर दो नागा साधुओं का चित्र बनाया गया और सामने यूनियन गेट की दीवारों पर राधा कृष्ण का चित्र जिसमें न लोक ही सहजता है और न ही याइकल एंजेलो के चित्रों की भांति कसा हुआ सुगठित समायोजन। इन दोनों के बीच का कुछ ऐसा बन गया जो हमें अध्यात्म की ओर भी नहीं ले जाता। प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी में लगे हुए विद्यार्थियों के आशियानों पर यह रंग रोगन क्या संदेश देता है समझ से परे है।


    इसी के साथ नए साल की पार्टी में विभिन्न लोगों द्वारा न्यू ईयर पार्टी के साथ की शामें, पूरी रात चलती हैं। ३१ दिसम्बर से १ जनवरी तक सड़कों पर बेहताशा चीखते चिल्लाते युवा देशी गाली, अंग्रेजी शराब और मोबाइल पर अश्लील संदेश भेजते अपने आस-पड़ोस के लोगों की नीदों को खराब करते, न जाने किस संस्कृति को जी रहे हैं पता ही नहीं चलता। यह बहशीपन हमें अकर्मण्यता की ऐसी दहलीज पर लाकर खड़ा कर रहा है जहां से निकलना बहुत मुश्किल है। जो घरों में हैं, वे मोबाइल संदेशों में लिप्त हैं। परिवार कट रहे हैं। आलीशान बंगलों में किस्सा गोई, दास्तान गोई या काव्य गोष्ठियाँ नहीं, किटी पार्टी और विभिन्न पार्टियों ने स्थान ले लिया है। शहर या तो अध्यात्म में लिप्त दिखता है या आधुनिकता में, बीच का लोक कहीं खो गया है ..... जहाँ इंसानियत पनपती है। पान की दुकानों पर अब ‘कस में' कस हाल या फिर ‘अमें यार चलबो मेला देखे' जैसे जुमले कुछ निष्ठावान शहरी ही दुहराते हैं वर्ना तो मोबाइल चलता है-पुराने शहर में अभी कुछ सादगी और अल्हड़पन है भी लेकिन सिविल लाइंस तो आधुनिकता का अनाचार है। मॉल और मल्टीप्लेक्स स्क्रीन पर जिम्मेदारी से भटका युवा है जिसे न घर से मतलब है न विद्यालय से, बस पैसा कैसे कमाएं, और कई तकनीकों का मोबाइल कैसे हासिल करें ..... यही धुन है।


    फाइन आर्ट के विद्यार्थी एक दो पेन्टिंग बनाकर खुद को सिद्धहस्त मान ले रहे हैं, यहाँ हम जैसे लोगों की रूह गुरूजनों के समक्ष काँप जाती है। कथावाचन, लेखन गुजरे जमाने की बात है अब तो सीरियल की नागिने, आदर्श बहुत बन रही हैं....शादी होते ही मां-बाप से अलग हो जाने की जल्दी फिर पति-पत्नी का भी निभ न पाना एक शगल बनता जा रहा है। कम्पनी बाग अपने नाम करने के बाद चन्द्रशेखर आजाद जरूर हो गया लेकिन हमारे युवाओं में देश भक्ति का जज्बा जगाने के बजाय प्रेमलाप का अड्डा बना है। प्रेम भी ठीक है लेकिन अक्सर प्रेम में आहत युवतियाँ रोते-बिलखते दिख जाती है तब बड़ी तकलीफ होती है। हमारा सीधा-सादा शहर नए शहरवासियों की सोहबत में बिगड़ गया हैबनावटी पन का एक मुलम्मा ऐसा चढ़ गया है कि लोक की सहजता खो रही है। इसे सचमुच बचाने की जरूरी है। कहीं ऐसा न हो कि हम अध्यात्म और स्मार्टनेस में तो अव्वल हो जाएं लेकिन शहर की जो उसकी सादगी और सहजता में है आत्मा हमसे दूर हो जाए और हमारा साँस लेना भी दूभर हो जाए।


    इस शहर को चापलूसों और सरकारी बंदरबाट से हटकर अगर कोई पहचान दे सकता है तो वह है इसका लोक। इसे सहेजने की जरूरत है। हमारी संरचनाएँ भटक रही हैं। लेकिन फिर भी हमारी साहित्यिक विरासत इतनी जबरदस्त है कि यदि किसी ने कवि कैलाश गौतम जी की ‘अमवसा का मेला' कविता पढ़ी होगी या निराला की ‘तोड़ती पत्थर' को जिया होगा तो वह बनावट से तो दूर ही होगा।


    जीवन के आठ दशक देख चुके यूपी टेक के निदेशक प्रो. के.के. भूटानी की आँखों में नमी तैर जाती है। जब वे कहते हैं ‘‘इस शहर से मुझे बेपनाह मोहब्बत है क्योंकि इस शहर ने मुझे देश के बंटवारे के वक्त पनाह दी; तब लगता है वाकई हम अकबर के बसाए इस इलाहाबाद में अभी भी महफूज हैं-


     अंत में


      तुम्हारी तहजीब अपने खंजर से आप ही खुदकशी करेगी


      जो शाखे-नाजुक पे आशियाना बनेगा, नापायदार होगा।


     इलाहाबादियों के लिए उनका इलाहाबादीपन उनकी जान है इस सन्दर्भ में ‘बाले-जिबरील' से लाइनें बहुत सटीक बैठती है


     वो फाकाकश की मौत से डरता नहीं जरा।


     रूहे मुहम्मद उसके बदन से निकाल दो।


     बुतखाने के दरवाजें पै सोता है बरहमन,


     तकदीर को रोता है, मुसलमाँ तहे-मेहराब ।। ।