संस्मरण - तुम्हारी याद के जब जख्म भरने लगते हैं.. सुधीर सिंह

जन्म : बाँदा, उत्तर प्रदेश इलाहाबाद विश्वविद्यालय से एम.ए. छात्र राजनीति में सक्रिय भूमिका निभाने के बावजूद साहित्य में गहरी रुचि। सम्प्रति : जिला सहकारी संघ के अध्यक्ष। वामपंथी राजनीति के पूरावक्ती कार्यकर्ता।


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जिस बरस हमने इंटरमीडिएट की परीक्षा पास की और आगे की पढ़ाई के लिए जाना था, ऐसे में हमारे बुजुर्ग- पड़ोसी और हिंदी के ख्यात कवि केदारनाथ अग्रवाल ने जिन्हें हम सब ‘बाबूजी' कहते थे, मार्गदर्शन किया। उनका कहना था कि आगे की पढ़ाई के लिए इलाहाबाद विश्वविद्यालय जाओ। वही सबसे अच्छी जगह है। वे अक्सर इलाहाबाद विश्वविद्यालय के अपने विद्यार्थी-काल की चर्चा करते थे। आखिर में उन्हीं की राय निर्णायक हुई और हम इलाहाबाद विश्वविद्यालय पहुंच गए।


    बी.ए. में प्रवेश लेने के बाद जब मैं साजो-सामान के साथ इलाहाबाद जा रहा था और बाबू जी से विदा लेने गया तो उन्होंने इलाहाबाद के लिए दो नाम दिए। पहला महादेवी वर्मा का जिन्हें वे हमेशा ‘देवी जी' ही कहते और दूसरा नाम बताया - दूधनाथ सिंह। साथ में यह भी जोड़ा ‘बड़ा जीनियस लड़का है, हिंदी विभाग में पढ़ाता है। उन्होंने कहा- इन दोनों से मेरा नाम बता कर जरूर मिल लेनादेवी जी के तो महीने भर के भीतर ही दर्शन कर लिए। अशोक नगर में उनसे मिलना एक अलग कथा है जिसकी चर्चा फिर कभी। फिलहाल यहां दूधनाथ जी की चर्चा।


    बी.ए. में हिंदी विषय लेने के पीछे दूधनाथ जी का उस विभाग में होना ही वजह थी लेकिन बावजूद इसके बी.ए. के २ वर्षों में उनसे मुलाकात करके बाबूजी का रेफरेंस देने का अवसर ही नही मिला। वह एम.ए. की कक्षाओं को पढ़ाते और जब उनका क्लास छूटता तो उनके पीछे छात्रों का एक छोटा-मोटा हुजूम हमेशा होता जो साइकिल स्टैंड तक उनके साथ जाता। वहाँ से वह अपना बड़ा सा लैंब्रेटा स्कूटर उठाकर जैसे उड़ जातेएक सुअवसर दूधनाथ जी से मिलने का आया जब मैं विश्वविद्यालय हिंदी परिषद में प्रधानमंत्री का चुनाव जीत गया और उसके बाद एक कार्यक्रम के सिलसिले में उनसे मिलने सीधे उनके घर पहुंच गया। मुलाकात तो हुई लेकिन यहां भी गेट से ही बातचीत करके उन्होंने टरका दिया। यह बताने का मौका भी न मिला कि हमें केदार जी ने आपसे मिलने के लिए बोला था।


    एक सीनियर छात्र ने बताया कि वे आजकल एक नाटक पर काम कर रहे हैं इसलिए लोगों से कम मिलते हैं। एक दो बरस बाद यह नाटक प्रकाशित हुआ- ‘यमगाथा', जिसकी खूब चर्चा हुई। हिंदुस्तानी एकेडमी में उसका विमोचन हुआ। मार्कण्डेय जी की पत्रिका 'कथा' के बैनर तले यह आयोजन था। इसमें अन्य लोगों के अलावा अशोक वाजपेई और रामस्वरूप चतुर्वेदी भी थे। अपने अध्यक्षीय वक्तव्य में चतुर्वेदी जी ने अपने अंदाज में यह भी कहा था कि इस नाटक के प्रकाशित होने से मुझे दोहरी खुशी है कि हिंदी साहित्य को एक महत्वपूर्ण नाटक मिला और दूधनाथ जी नाटक की व्यस्तता से मुक्त होकर अब छात्रों को पढ़ाएंगे भी। यह तो उनका कटाक्ष था लेकिन वास्तव में दूधनाथ जी के पढ़ाने का आलम यह था कि जिस दिन उनके पढ़ाने की पूर्व सूचना होती, विद्यार्थी अपने अन्य सारे क्लास छोड़ कर उनकी क्लास में ही जमा होते। बड़े वाले लेक़र थिएटर में एक छोटी मोटी सभा की तरह छात्र-छात्राओं की भीड़ वहाँ जुटती। वहां फर्श पर भी बैठने की जगह नहीं मिलती। वह दो-तीन घंटे तक लगातार पढ़ाते। वैसा लोकप्रिय अध्यापक उस दौर में और संभवत उसके बाद भी नहीं दिखा। वे अपने विद्यार्थियों को पाठ्य सामग्री से अधिक पढ़ने का नजरिया देते थे। हमें एम ए के अंतिम वर्ष में जब वह निराला का विशेष प्रश्न पत्र पढ़ा रहे थे तो मैंने उनके सारे लेकर एक टेप रिकॉर्डर में रिकॉर्ड कर लिए थे जो आज भी मेरे पास सुरक्षित है।


    इस बीच पता नहीं कब और कैसे केदार जी का हवाला दिया या नहीं, अब याद नहीं। बहरहाल उनसे जुड़ता चला गया और १९९२-९३ के बाद तो जैसे उनकी संगति जीवनविधि ही बन गई। यह वह समय था जब ८० के दशक में अपने लेखन का एक लंबा अंतराल पारकर वह ‘यमगाथा' और उसके बाद ‘माई का शोकगीत' जैसी कहानियां लिख रहे थे। यह उनकी कहानियों के बदलाव का भी दौर था, जब वह रीछ, रक्तपात, सम्बन्ध, आइसबर्ग जैसी ‘संज्ञाविहीन' कहानियों से, एक अमूर्तन से, वास्तविक जीवन-चरित्रों के सृजन की कहानियों की ओर प्रवृत्त हो रहे थे। वह अपनी ही कथाभूमि को तोड़कर जन-सरोकारों की भावभूमि की कहानियां रच रहे थे। ‘जॉर्ज मेकवान' और 'गुप्तदान' जैसी कहानियां उस समय आईं तो चरित्रों को केंद्र में रखने वाली ‘हुंड़ार' जैसी कहानी भी आई। लेकिन अमूर्तन से वे पूरी तरह मुक्त नहीं थे। उसी समय ‘लौटना' जैसी कहानी भी उन्होंने लिखी।


    ठीक उसी समय विश्वविद्यालय में हमारे जैसे कुछ नौजवानों की एक 'गोल' भी दूधनाथ जी के करीब आई और वह टोली एक खास तरह की आवारागर्दी में उतर रही थी, जहां लेखन और वामपंथी छात्र-राजनीति का सांचा बुना जा रहा था। उस गोल में मेरे अलावा बाकी सब कवि-लेखक ही थे। मैं उस नए रचनाकारों की टीम में जैसे 'नॉन प्लेइंग मेंबर' ही था। ऐसा लगता है कि शायद उन्होंने मेरी ‘बंजरता' को लक्ष्य कर मुझे एस एफ आई की ओर धकेला। इस तरह जाने अनजाने में वामपंथी विचार और राजनीति की ओर चला। अब लगता है कि हमारी समझ विचार और सरोकार वास्तव में दूधनाथ जी की सचेत निर्मिति थी। जब वह विश्वविद्यालय से सेवानिवृत्त हुए तो उन्होंने कम्युनिस्ट पार्टी का सदस्य बनने की इच्छा जाहिर कीउन्हें बाकायदे सीपीआईएम का प्रारंभिक सदस्य बनाया और बरस भर बाद वे पार्टी के पूर्ण सदस्य बने। अंतिम समय तक वे पार्टी के सदस्य रहे।


     दूधनाथ जी के रचनाकर्म का एक बड़ा और बेहद महत्वपूर्ण हिस्सा उनकी विश्वविद्यालय की नौकरी से सेवानिवृत्ति के बाद के वर्षों का हैइन वर्षों में आखिरी कलाम, नमो अन्धकारम्, निष्कासन जैसी बड़ी कथा रचनाएं हैं तो महादेवी वर्मा पर समग्र किताब (महादेवी), 'भुवनेश्वर समग्र' का संपादन, केदारनाथ अग्रवाल की कविताओं का संचयन(ओट में खड़ा मैं बोलता हू), मुक्तिबोध पर किताब ( मुक्तिबोध : साहित्य में नई प्रवृत्तियां ) निराला की प्रार्थना परक कविताओं का संचयन ‘दो शरण' और इनके अलावा इधर अंतिम दो वर्षों में वह अपने गुरु प्रोफेसर धीरेंद्र वर्मा की संपूर्ण रचनाओं का संपादन पूरा कर चुके थे। इसके अलावा इधर के ही वर्षों में लौट आ ओ धार' जैसी संस्मरण पर अद्भुत किताब ‘धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे', 'नाम में क्या रखा है', 'जल मुर्गियों का शिकार', ‘क्या करूं साब जी' जैसी कहानियां दूधनाथ जी ने लिखी जो कि समकाल की कहानी में नया विन्यास जोड़ती हैं।


    वर्धा विश्वविद्यालय में अतिथि लेखक के रूप में प्रवास के दौरान २०१३ में लिखी गई प्रेम कविताएं तुम्हारे लिए' में जो आवेग है, वह किसी ‘टीनएजर' जैसा है।


     दूधनाथ जी के लेखन में कविताएं जैसे गद्य के अंतराल को भरती रही हैं। जिस समय वह प्रतिशोध, सपाट चेहरे वाला आदमी, दु:स्वप्न जैसी कहानियां लिख रहे थे उसी समय कविताओं की भाषा और शिल्प के स्तर पर जो विन्यास है, वह कहानी के अमूर्तन से बिल्कुल भिन्न है। अपनी शताब्दी के नाम' कविता में वे लिखते हैं-


    उनसे कहो


     कि जब उनके मरुस्थलों की नीलाम बोला जाएगा


     तो मेरी सूखी अस्थियां


      नगाड़े नहीं पीटैंगी।


     या 'कृष्णकांत की खोज में दिल्ली यात्रा' में-


     आप क्यों नहीं समझते


     दिल्ली दरअसल एक खूनी दरवाजा है


     दिल्ली वक्त की प्रेतात्मा है


     दिल्ली मृत आत्माओं की चमकती सल्तनत है।


     इधर पिछले दो दशकों की कथा यात्रा में जब माई का शोकगीत, धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे, नपनी और काशी नरेश से पूछोजैसी कहानियां और आखिरी कलाम' जैसी विराट कथा रचना आती है तो वहीं ‘शर्त' जैसी कविता उनके लेखन कीएक अंतरा की तरह है


     जब हम पार करेंगे भौसागर


     तो उस नाव का क्या होगा


      क्या हम उसे छोड़ देंगे उसे यों ही बहते जाने के लिए


      या कोई बैठकर फिर उल्टे पार जाएगा


      जीवन की ओर


      मैं शुरू में जब दूधनाथ जी से मिलना चाहता था तो जैसे एक छात्र किसी अध्यापक या शुभचिंतक से मिलना चाहता है। लेकिन धीरे-धीरे कुछ इस तरह जुड़ता चला गया कि पुत्रवत भूमिका हो गई। वे लोगों से बातचीत में यही कहते भी। आगे समय की गति में हम भी युवा-वयस्क और प्रौढ़ हो रहे थे लेकिन दूधनाथ जी अपनी उम्र को किनारे करते आगे बढ़ते जाते । बीमारी के अंतिम डेढ़ बरस को छोड़ दें तो वो हर बरस पिछले बरस से अधिक सक्रिय, अधिक रचनात्मक होते जाते।


     अपने व्यक्तिगत जीवन में वे हमेशा पूरी स्वतंत्रता लेते थे और कभी किसी की परवाह नहीं की। उनकी डायरियों में उनकी ए स्वतंत्रता साफ-साफ बयान हुई है (जिन्हें अभी प्रकाशित होना है)।


     वे सबसे अधिक अपने छोटे बेटे अंशुमान को प्यार करते थे लेकिन उम्मीद अपने बड़े बेटे अनिमेष जी से अधिक रखते। भरोसा सबसे अधिक बेटी अनुपमा जी का था उन्हें। यह भी कहूंगा कि उन्हें सबसे कम परवाह अपनी पत्नी निर्मला जी की थी। इन सबके बीच मैं भी करीब ३० बरस तक एक अनियोजित-सदस्य की तरह परिवार में घुसा रहा। एक कविता उन्होंने मेरे लिए लिखी जिसका शीर्षक था ‘सुधीर'-


    तुम्हारे लिए कुछ नही किया


     सिर्फ तुम्हे थोड़ा-सा शांत बनाया


     थोड़ा उदास। थोड़ा इंतजार किया मैंने


      तुम्हारे लिए


       अंतिम कालरात्रि


       और पहले सवेरे के


       पहले।


                                     (युवा खुशबू और अन्य कविताएँ)


      जितना मैं जान पाया उसके मुताबिक दूधनाथ जी कभी योजना बना कर नही लिख पाते थे। जब वे शिमला प्रवास के दौरान मुक्तिबोध पर काम करना चाहते थे तो महादेवी पर एक मुकम्मल किताब आ गई। जब वो अपना अधूरा उपन्यास ‘थाना परलकोट' पूरा करने के इरादे से एक बरस के लिए वर्धा गए तो ७१ प्रेम कविताओं का संग्रह 'तुम्हारे लिए' आ गया। वे कई वर्षों पहले से कम्युनिस्ट पार्टी के कुछ चरित्रों पर एक नाटक ‘पार्टी अफेयर' लिखना चाहते थे। इसकी चर्चा वे बंशी कौल और अनिल रंजन भौमिक से कई बार करते थे। लेकिन वह पात्र-योजना से आगे नही बढ़ पाया।


     प्रोस्टेट कैन्सर की पीड़ा उन्होंने लगभग साल भर झेली। आखिरी २ महीने बहुत तकलीफ के थे। उस समय जब वे बड़े बेटे के पास गुड़गांव में थे तब भयंकर तकलीफ के दौरान उनकी केवल एक ही जिद थी कि मुझे इलाहाबाद ले चलो। अंततः २५ दिसम्बर को वे इलाहाबाद लौट आए। वहाँ मैं, मेरा भतीजा विवेक और कुछ दिनों तक विभु प्रकाश उन्हें घुलते और मृत्यु के करीब जाते देखते रहे, एकदम असहाय! वे मुझे कई बार कहते कि जब मैं मरूं तो मुझे दाहिने करवट लिटा देना। उस ११-१२ जनवरी २०१८ की भयानक ठंढी रात में जब उन्हें वेंटिलेटर पर रखा गया था, १२ बजे के बाद डॉक्टर ने हमें बुलाकर कहा जिन्हें बुलाना चाहें, बुला लीजिएअब बिलकुल समय नहीं है। मैं कहना चाह रहा था कि उन्हें दाहिने करवट लिटाना है- बुद्ध की अंतिम मुद्रा। लेकिन डॉक्टर ने अचानक सफेद चादर सिर तक खींच दी।


     बुद्ध ने आनन्द से एक बार कहा था कि, 'मेरे मरने के बाद मुझे गुरु मान कर मत चलना'। मैं सोच रहा हूँ कि मेरे गुरु क्या कहते ऐसे वक्त में! शायद-


    सभी जानते हैं


     दुःख से कैसे बचा जा सकता है


     कैसै सुख से बचें


      सभी नही जानते।         ('तुम्हारे लिए', पृष्ठ ९३)


                                                                                                                 सम्पर्क : कवि केदार मार्ग, (डी सी डी एफ), सिविल लाइन्स,


                                                                                                                                  बाँदा 210001, उत्तर प्रदेश, मो.नं. : 941531731