'संस्मरण - स्मृतियों में महादेवी जी - प्रो. विजय अग्रवाल

जन्म : 11 नवम्बर 1957 प्रारंभिक शिक्षा राजकीय इंटर कॉलेज इलाहाबाद से। इलाहाबाद विश्वविद्यालय से रसायनशास्त्र में परास्नातक एवं डी.फिल. की उपाधि। साहित्य विकल्प पत्रिका के सम्पादक। कवि, लेखक।अनेक पत्र-पत्रिकाओं में महत्त्वपूर्ण विषयों पर लेख प्रकाशितकविता की दो पुस्तकें प्रकाशित। एन.आई.टी.टी.टी.आर., भोपाल के पूर्व निदेशक। सम्प्रति : अवधेश प्रताप सिंह विश्वविद्यालय, रीवा में रसायनशास्त्र के विभागाध्यक्ष।


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इलाहाबाद के अशोक नगर में महादेवी जी का घर अपनी हरीतिया और उनके पालतू पशु-पक्षियों की वजह से अलग से पहचान में आता थाश्वेत साड़ी में उनकी आंखों में विशेष प्रकार की चमक रहती थी। उनके सानिध्य में बैठकर उनके खट्टे-मीठे अनुभव सुनने को मिलते।


    मैंने उन्हें पहली बार एक कार्यक्रम में देखा था। बचपन में उनके व्याख्यान को सुनकर उनके प्रति श्रद्धा का भाव उमड़ा था। उन्होंने चार पंक्तियों की एक कविता सुनाई जो उन्होंने शायद ९ या १० वर्ष की आयु में लिखी थी। उसका अर्थ था कि ठाकुर जी कितने भोले हैंउन्हें भोग लगाया जाता है और भोग वे नहीं खाते, दूसरे लोग चट कर जाते हैं। दरअसल उनका पूरा जीवन एक विभिन्न कारुणिक घटनाओं से भरा पड़ा है। बाल विवाह के उपरांत वे कभी विदा होकर ससुराल नहीं गईं और लगभग एकाकी जीवन ही व्यतीत करती रहीं। हालांकि उनके अंदर असीम करुणा थी जिसका अनुभव उनसे जुड़ा हर व्यक्ति करता था। उनके रेखाचित्रों में उसको देखा जा सकता है।


     निराला तो उनसे राखीबंद भाई ही थे। उन्होंने महाकवि की बीमारी और उनकी देखभाल की जिम्मेदारी बखूबी निभाई। उनके ही मुख से संस्मरण सुना-एक बार महादेवी जी के घर निराला जी रिक्शे पर सवार होकर पहुंचे और २ रुपये मांगे। बोला एक रुपया रिक्शेवाले के लिए और एक रुपया तुम्हें दूगा। निराला जी की चर्चा करते-करते उनकी आंखों से अश्रुधार बहने लगती थी।


     होली का त्योहार वे बड़ी धूम-धाम से मनाती थीं। उनके घर पर होली जलाई जातीउपलियों से होलिका बनाई जाती और फिर रात ८-९ बजे महादेवी जी उसकी पूजा करतीं। अग्नि प्रज्वलित होती और वे सभी उपस्थित लोगों का टीकाकर गुजिया खिलाती। मुझे सन् १९७७ से उनके घर पर होली का त्योहार मनाने का अवसर मिलता रहा है।


     'भारत' समाचार पत्र में छायाकार के रूप में काम करते हुए मुझे बसन्त कुमार बिरला जी के साथ फोटोग्राफी का अवसर मिला। इलाहाबाद में वे महादेवी जी से मिलने उनके घर पर गए और छायाकार के रूप में वे साथ में था


     महादेवी जी को अपनी फोटो उतरवाना अच्छा नहीं लगता था। वे छायाकार को देखते ही असहज हो जाती थीं। मुंह में पल्ला रख लेतींऔर उनका चित्र बिगड़ जाता। उनकी भाव भंगिमा भी कृत्रिम हो जाती। इस असहजता के कारण कई बार छायाकारों को निराश होना पड़ता।


मेरे लिए चित्र उन्हें बहुत पसंद थे। इसीलिए वे होलिका दहन के अवसर पर मेरे ऊपर से नजर उतारने के साथ-साथ मेरे कैमरे की भी नजर उतारती थीं। उनके लगभग २००० चित्र मैंने विभिन्न अवसरों पर लिए।


     बसन्त कुमार बिरला जी के साथ उनकी धर्मपत्नी भी साथ में थीउन्होंने बसन्त जी का हाथ पकड़ कर अपने पास बैठाया। बिरला परिवार के वे काफी निकट रही हैं और जैसे ही मैंने कैमरे से फोटो ली, अचानक वे संजीदा होकर बैठ गईं। उन्होंने मेरी तरफ देखा और बोलीं-अच्छा बसन्त जी आप मेरे मनपसंद छायाकार को पकड़ लाए हैं। चलो अच्छा है वे थोड़ी देर में ही सहज हो गईं। वे छायाचित्र सचमुच एक यादगार धरोहर हैं।


     जब मैं अवधेश प्रताप सिंह विश्वविद्यालय रीवा में प्राध्यापक बनकर गया तो होली के अवसर पर वे मेरे आने की प्रतीक्षा करतीं। मैं शाम ४ बजे रीवा से चलकर ७ बजे रामबाग पहुंचता और घर से स्कूटर लेकर अशोक नगर पहुंचते-पहुंचते ८ बज जाते। कभी थोड़ी देर होती तो वे भाई राम जी से कहतीं विजय आते ही होंगे थोड़ी प्रतीक्षा कर लेते हैं। उनके घर पर अमृत राय, पी.डी. टंडन, जगदीश गुप्त, लक्ष्मीकांत वर्मा, राम जी का पूरा परिवार और विद्यापीठ की अध्यापिकाएं इकट्ठा होकर एक-दूसरे को गुलाल लगाते।


    महादेवी जी ने कभी भी मंच से कविता नहीं सुनाई। कई बार जिद करने पर वे अपने घर के ड्राइंग रूम में ही कविताएं सुना देतीं लेकिन मंच पर हरगिज नहीं। वे बतातीं कि उनहोंने बापू को (महात्मा गांधी) वचन दिया है कि मंच पर काव्य पाठ नहीं करूंगी।


    उन्हें रीवा विश्वविद्यालय में सन् १९८६ में व्याख्यान के लिए आमंत्रित किया। हमारे गुरु प्रो. हीरालाल निगम वहाँ कुलपति थे तथा उनकी हार्दिक इच्छा थी कि विश्वविद्यालय के प्रतिष्ठित महाराज विश्वनाथ सिंह भाषण माला में उनका व्याख्यान हो। अपनी अस्वस्थता के बावजूद वे भाई राम जी पाण्डेय के साथ रीवा आई और ५ दिन रुकींविश्वविद्यालय के सभागार में उन्होंने लगभग २ घंटे का व्याख्यान दिया। मुझे याद है, युवा छात्रों को सम्बोधित करते हुए उन्होंने कहा था कि आज के नौजवानों की आंखों में स्वप्न नहीं दिखाई देता। उन्हें पता ही नहीं कि वे करना क्या चाहते हैं और लक्ष्य निर्धारित किए बिना सफलता अर्जित नहीं होती। इसीलिए उन्हें कुंठा और वैराग्य दिखाई देता है।


    चिकित्सकों की मनाही के बावजूद उन्होंने लंबा व्याख्यान दिया जिसकी अनुगूंज आज भी विंध्य में सुनाई देती है।


    इसी अवसर पर आकाशवाणी रीवा के लिए मैंने उनका लम्बा साक्षात्कार भी लिया जो तत्कालीन केन्द्र निदेशक उमेश दीक्षित के अनुरोध पर रिकॉर्ड करवाया गया१५ मिनट का साक्षात्कार १ घंटे तक चला तथा नेशनल आर्थाइब में गया।


    मेरे पहले काव्य संग्रह ‘सुबह कुछ-शाम कुछ' की भूमिका महादेवी जी ने लिखी है। सन् १९८० में उन्हें पुस्तक की पांडुलिपि दी तो उन्होंने पूछा, तुम्हें भी यह व्याधि लग गई। मेरी टूटी-फूटी कविताओं को दुरूस्त करते हुए उन्होंने मुझसे कहा था कि समय के प्रवाह से रचनाएं पुष्ट होंगी और ज्यादा बेहतर लिखोगे। वे नए रचनाकारों को हमेशा प्रोत्साहित करतीं


    अज्ञेय जी स्वयं अच्छे छायाकार थे लकिन जब वे महादेवी जी से जापान की यात्रा के दौरान इलाहाबाद आने बाद मिलने गए तो मैं वहाँ उपस्थित था। महादेवी जी ने अज्ञेय जी का हाथ पकड़ा और बोली, ये चित्र तुम लो। बाद डॉ. राम कमल राय की पुस्तक के मुख पृष्ठ पर वह चित्र प्रकाशित हुआ।


        


      गर्मियों में वे अक्सर पहाड़ों पर चली जातीं और लौटने पर उसके अनुभव साझा करतीं। अनेक विश्वविद्यालयों के दीक्षांत भाषण उन्होंने दिए हैं। वे नई पीढ़ी की दुर्दशा पर हमेशा चिंतित रहतीं। हिन्दुस्तानी एकेडेमी के अनेक कार्यक्रमों में उनके व्याख्यानों को सुनकर हमेशा कुछ न कुछ नई बात मालूम पड़ती और घर जाकर उनसे उस समय अपनी जिज्ञासाओं को शांत करता।


     कभी-कभी तो उनसे कुछ बेतुकी बातें भी पूछ लेते लेकिन वे नाराज न होकर एक मीठी झिड़की भर देती।


     यश मालवीय का विवाह डॉ. राम जी पाण्डेय की बेटी के साथ तय हुआ। महादेवी जी ने गुड़िया का कन्यादान किया। इस अवसर पर सारे छायाचित्र मैंने ही लिए।


     महादेवी जी के जीवन काल में ही उन्हें तरह-तरह से परेशान करने की कोशिशें हुईं। उनके द्वारा स्थापित साहित्यकार संसद भवन से लेकर निराला की बीमारी के दौरान महादेवी जी पर घृणित आरोप लगाए गए। तब महादेवी जी ने पाई-पाई का हिसाब समाचार पत्रों में प्रकाशित कर दिया।


     कथकार दूधनाथ सिंह ने भी अपनी एक पुस्तक में महादेवी जी पर अनेक निम्नस्तरीय आरोप लगाए जिसे पढ़कर महादेवी जी से जुड़े सभी लोग बहुत दु:खी रहे।


    महादेवी जी का नेहरू जी से आत्मीय रिश्ता रहा है। वे नेहरू जी को जवाहर भाई कहती थीं। एक बार महादेवी जी बिना सूचना दिए दिल्ली त्रिमूर्ति भवन में चली गईं। वहाँ मौजूद सुरक्षाकर्मियों से उन्होंने कहा कि जाओ जवाहरलाल को बोलो कि महादेवी आई हैं, लेकिन सुरक्षाकर्मी नेहरू जी को सूचना देने ऊपर नहीं गए। परन्तु पं. नेहरू को लगा कि नीचे महादेवी जी की आवाज आ रही है तो वे तीन-तीन सीढ़ियां कूदते हुए नीचे उतरे और महादेवी जी का हाथ पकड़कर ऊपर ले गए।


    उनकी भेंट की हुई यात्रा और अन्य कई पुस्तक मेरे पास उनकी स्मृतियों के रूप में सहेज कर रखी हैं। मेरे विवाह के एक वर्ष पूर्व ही वे इस संसार से विदा हो गईं। लगभग एक सप्ताह तक वे कोमा में रहीं। डॉ. बी.एल. अग्रवाल तथा डॉ. तेलियानी की देखरेख में उन्हें वेंटिलेटर पर रखा गया था। उनके अंतिम समय में मुझे भी उनकी सेवा का अवसर मिला।


     उनकी अंतिम यात्रा में पूरा शहर उमड़ पड़ा। तत्कालीन मुख्यमंत्री वीरबहादुर सिंह उन्हें अंतिम विदाई देने के लिए विलंब से पहुंचे लेकिन महादेवी जी ने जीवनपर्यंन्त किसी शासकीय पद की इच्छा ही नहीं रखी तो अंतिम संस्कार में विलम्ब क्यों होता? उनकी पंक्तियां हमेशा याद आती है-


    मैं नीर भरी दुःख की बदली।


     परिचय इतना इतिहास यही


     उमड़ी थी कल


      मिट आज चली!