संस्मरण - इलाहाबाद की आत्मा में है रंगकर्म -अनिल रंजन भौमिक

उत्तर प्रदेश संगीत नाटक अकादमी से नाट्य निर्देशन हेतु अकादमी सम्मान 2003 से सम्मानित वरिष्ठ रंगनिर्देशक। जन्म: 22 जनवरी 1958 विगत चार दशक से रंगकर्म में अभिनेता/ निर्देशक के रूप में सक्रिय। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में कई कहानियाँ एवं नाटक प्रकाशित। बादल सरकार के कई नाटकों का हिदी में अनुवाद एवं प्रकाशन।


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सृजन सरोकार के इलाहाबाद विशेषांक के लिए गोपाल रंजन जी का जब फोन आया कि आपको इलाहाबाद में बिताए इन पैंतीस वर्षों पर एक संस्मरण लिखकर भेजना है तो मुझे लगा अभी तो मैं रिटायर हुआ हूँ क्या अभी से संस्मरणों की दुनिया में चला जाऊ? अतीतजीवी क्यों बनूं। वर्तमानजीवी क्यों नहीं? भाई, रिटायर हुआ हूँ टायर्ड नहीं हुआ हूँ। नौकरी में रहते हुए रंगकर्म में जो कुछ कर पाया वह तो सबको मालूम है, लेकिन मन के किसी कोने में तो बहुत सी योजनाएँ हैं। कुछ कर पाया और कुछ अब करना हैइसी कारण रिटायरमेन्ट के करीब एक वर्ष पूर्व से ही गाड़ी की गियर को थर्ड, फोर्थ गियर में कर दिया और एक के बाद एक योजनाएं और क्रियान्वयन साथ-साथ करता रहा ताकि रिटायरमेंट के बाद यही सक्रियता बनी रहे।


    गोपाल रंजन जी की बातें कहीं जेहन में थीं और परिस्थितियों ने इतना ज्यादा व्यस्त कर दिया कि रिटायर्ड हुए एक वर्ष होने को आ रहा है और ऐसा लग रहा है जैसे कल ही तो रिटायर हुआ हूँ। खैर, आज २१ दिसम्बर है जो तारीख मेरे लिए बहुत महत्वपूर्ण है। आज से ठीक ३५ वर्ष पहले इलाहाबाद विश्वविद्यालय में मेरे निर्देशन में हुए ‘घेरा' नाटक में बहुत विभूतियों से पहली बार मुलाकात २१ दिसम्बर १९८३ के दिन ही हुई थी जो बहुत महत्वपूर्ण थी उनका जिक्र आगे संस्मरणों में आता जाएगा।


    संस्मरण लिखने का आग्रह है सो, मैं रंगकर्म और इलाहाबाद के सुनहरे दिनों में बिताए उन मीठे अनुभवों को याद करने की कोशिश करूंगा। बात सन् १९८३ से ही क्यों न शुरू की जाए। ‘संस्पर्श से जीवंत प्रवाह नाट्य समारोह १९८३' समानांतर आज़मगढ़, लक्रीस, लखनऊ एवं समानांतर इलाहाबाद द्वारा आजमगढ़, लखनऊ और इलाहाबाद में आयोजित एक अद्भुत संगम' था नए तरह के रंगकर्म के निर्देशकों का। इस अवसर पर पद्मश्री बादल सरकार, प्रोबीर गुहा, शशांक बहुगुणा एवं मेरी टीम (समानांतर आज़मगढ़) द्वारा नाट्य प्रस्तुतियाँ नार्दन रेलवे इन्स्टीट्यूट प्रेक्षागृह में अंतरंग शैली में आयोजित थीं। दर्शकों से खचाखच भरे माहौल में भोमा, स्पार्टाकस, मानुषे मानुषे, समुद्र अस्थिर, अब्दुल हन्नान की मृत्यु, बाकी इतिहास, जुलूस की प्रस्तुतियाँ हुई। अंतरंग शैली में ऐसी समर्थ एवं समृद्ध प्रस्तुतियाँ देख दर्शक तथा इलाहाबादी मंत्रमुग्ध थे, इलाहाबाद विश्वविद्यालय के प्रोफेसर, अध्यापक तथा छात्रों की एक बड़ी जमात इस आयोजन से अपने को जोड़े थी। उनमें मुखिया थे डॉ. प्रभात कुमार मंडल, डॉ. सचिन तिवारी एवं उन दिनों की सबसे सशक्त छात्रदल पी.एस.ओ. (प्रोग्रेसिव स्टूडेण्ट आर्गनाइजेशन) की नुक्कड़ नाट्य इकाई दस्ता का। विश्वविद्यालय में ही नहीं वरन् शहर में भी बड़ा जलवा था इसके मुखिया में थे उदय यादव, प्रमोद सिंह, इरफान (गुफ्तगू, राज्यसभा वाले) आदि। कमल कृष्ण रॉय, आज़मगढ़ से इलाहाबाद आ गए थे और पढ़ाई-लिखाई के साथ-साथ छात्र राजनीति में भी सक्रिय भूमिका निभा रहे थे। संस्पर्श से जीवंत प्रवाह नाट्य समारोह के नाट्य मंचनों से परे शहर का साहित्यिक एवं सांस्कृतिक माहौल आह्लादित था। तीसरे रंगमंच का बीजारोपण हो चुका था। दर्शक एक जैसी प्रस्तुतियाँ देखते-देखते अचानक नए तरह के काम को देख अभिभूत थे। डॉ. मंडल चाहते थे कुछ ऐसा ही इलाहाबाद में भी विश्वविद्यालय द्वारा किया जाए। बादल सरकार से बातचीत की गई तो उन्होंने मेरा नाम सुझाया। बात आगे बढ़ चुकी थी दस्ता एवं कमल कृष्ण राय के गर्मजोशी अन्दाज़ के आगे डॉ. मंडल नतमस्तक थे, उन्होंने मुझसे सम्पर्क किया कि ‘क्या मैं एक माह के एक कार्यशाला का निर्देशक इलाहाबाद विश्वविद्यालय के छात्रों के लिए कर सकता हूँ।' सेन्ट्रल कल्चरल कमेटी, इलाहाबाद विश्वविद्यालय के पैड पर जब मुझे यह न्यौता डॉ. पी.के, मण्डल के हस्ताक्षरयुक्त पत्र द्वारा प्राप्त हुआ तो यकीन मानिए उसी तरह की खुशी हुई। १९८३ के शुरू के दिनों में प्रख्यात् रंग निर्देशक ब.व. कारंत जी के हस्ताक्षर युक्त पत्र ‘भोपाल में भारत भवन द्वारा आयोजित नुक्कड़ रंगमेला' में मुझे शरीक होने के लिए मिला था। उन दोनों चिट्ठियों को मैंने आज तक सहेज कर रखा है। ना करने का कोई सवाल ही नहीं था। बस छुट्टी किस तरह ली जाए उसी के जुगत में था और बिना कुछ कहे बैंक से एक सप्ताह की छुट्टी लेकर इलाहाबाद आ गया। चित्रकार अशोक भौमिक पहलेही आ चुके थे, गेस्ट हाउस में न रहकर अशोक दा के साथ ११२, रानी मंडी वाले मकान में आ गया और सुबह से शाम तक होने वाले नाट्य शिविर का संचालन करने लगा। पहले दिन डॉ. पी.के, मंडल, डॉ. सचिन तिवारी, डॉ. बाल कृष्ण मालवीय, सरनवली श्रीवास्तव, डॉ. एस.सी. चट्टोपाध्याय जी के साथ मुलाकात हुई और छात्र ड्रामेटिक हॉल में चयन के लिए इकट्ठा हुए। ड्रामेटिक हॉल में शुरुआती परिचयात्मक बातचीत के बाद मैंने दो बातों पर जोर दिया। एक तो मुझे एक ऐसी जगह चाहिए जो बड़ा सा हॉल हो और दूसरी बात की पूरे एक महीने तक कोई भी इस कार्यशाला में आब्जर्वर नहीं होगा। जो भी होंगे वे सब परफॉमर ही होंगे। मेरी बातों का वरिष्ठों को बुरा जरूर लगा होगा। वे चाहते थे कि इस शैली में कार्य करते हुए इस शैली को देखे-समझे और मेरा मत था कि इस तरह का रंगमंच प्रयोगशाला है जिसका परिणाम आपको ३० दिनों बाद ही देखने को मिलेगा। दूसरे दिन कर्मचारी कल्याण के लिए बन रही बिल्डिंग में कार्यशाला आयोजित की गई जो ठीक ड्रामेटिक हॉल के बगल में थी। लम्बा सा हॉल मेरे काम के लिए एकदम मुफीद। विजयदेव नारायण साही जी की बेटी सुष्मिता से लेकर कई संभ्रान्त घरों के बेटे, बेटियों ने पहले दिन साक्षात्कार दिए थे, परंतु दूसरे दिन रह गए मात्र ३० विद्यार्थी क्योंकि कुछ कड़े नियमों को मैंने पहले दिन आयोजित नाट्य कार्यशाला के पूर्व घोषित कर दिया था। एक कठोर अनुशासन के बिना परिणाम कभी भी अच्छा नहीं निकलेगा। तब भी यह सोच थी आज भी है। इसका परिणाम जो मैं जानता था वही हुआदूसरे दिन से प्रो. सचिन तिवारी जी से लेकर इलाहाबाद के वरिष्ठ रंग निर्देशक फिर कभी नहीं आए। बस संयोजक डॉ. पी.के. मंडल साहब रोज़ अपनी स्कूटर से आते और कार्यशाला के सम्बंध में जानकारी प्राप्त करके चले जाते थे‘दस्ता' की पूरी टीम इस कार्यशाला में अपनी बौद्धिकता लिए हुए कार्य कर रही थी। हर स्तर पर बातचीत होती थी। बहसें होती थी। पूर्वाभ्यास प्रयोगशाला में खिड़कियों से तांकझांक अक्सर लोग करते थे। मेरी कार्यशाला में करीब १० लड़कियाँ और २० लड़के थे। अन्ततः नाट्य प्रस्तुति की जब बात आई तो सबको ध्यान में रखकर ब्रेश्ट के कॉकेशियन चॉक सर्किल का बादल सरकार द्वारा किया गया नाट्यरूप ‘घेरा' अनुवाद श्रीमती प्रतिभा अग्रवाल को मंचन के लिए चुना गया। बादल बाबू का तीसरा रंगमंच' इलाहाबाद पर अपनी छाप छोड़ चुका था। कार्यशाला के दौरान डॉ. प्रभात मंडल ने बताया कि बादल बाबू राजी हो गए हैं। एक सप्ताह के लिए इलाहाबादियों को तीसरे रंगमंच में प्रशिक्षण देने के लिए आएंगे जिसमें विश्वविद्यालय के छात्रों साथ-साथ इलाहाबाद के रंगकर्मी भी शामिल हो सकते हैं। मेरे उत्साह में इस ख़बर ने एक नई ऊर्जा का संचार किया। इलाहाबाद के रंगदलों में भी उत्सुकता थी और यहाँ पढ़ रहे या इलाहाबाद के सक्रिय उत्साही युवा भी प्रयोगशाला में हो रहे मेरे कामों को बहुत उत्साह से देखने का किसी न किसी रूप में प्रयास करते रहते थे। उन दिनों में एक कड़क निर्देशक के रूप में अपने को प्रशिक्षित कर रहा था, समय की पाबंदी मेरी पहली शर्त होती थी जिसका पालन आज भी बरकरार है। मेरा मानना है कि दुनियाँ में हर चीज़ दुबारा पाई जा सकती है, सिवाय समय के। इसलिए समय का हर क्षण इस्तेमाल क्रिएटिव रूप में करना चाहिए। हाथ में सदा रहने वाले डंडे की ठसक के आगे उनकी एक न चलती थी। उन्हीं में बाद में मालूम चला कि प्रदीप सौरभ (पत्रकार/चित्रकार/छायाकार) भी रहे हैं जो मेरे इस अनुशासन का बाहर प्रचार कुछ इस तरह करते रहे थे कि ‘बड़ा कड़क निर्देशक है भाई, जो डंडा लेकर सबको हाँकताहै, अब कभी नहीं जाऊँगा।'


      अन्ततः प्रयोगशाला की कृति लगातार ४-४ घण्टे के कार्यशाला के बाद तैयार होकर सामने आई और मंचन का दिन मुकर्रर किया गया २१-२३ दिसम्बर १९८३, मंचन स्थल सीनेट हॉल। आज की तरह सीनेट हॉल में तब कुर्सियां नहीं लगी थीं, खाली विशाल हॉल होता था जो अपनी कलात्मकता के लिए आज भी ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय का प्रतीक बना है। इस हॉल में मंचन कैसे होगा? इतना विशाल हॉल आवाजें गूंजेंगी। तय हुआ नार्थ हॉल की तरफ ऊपर शामियाना लगाकर आवाज़ को रोका जाएगा और साधारण लाइटें ही लगाई जाएंगी उस समय शादियों में इस्तेमाल होने वाले लाइटों को ही हम लोग मंच पर इस्तेमाल करते थे जो अब हेलोजन का रूप ले चुका है। डॉ. मण्डल एक दिन एक सज्जन को लेकर आए जो प्रकाश के लिए इलाहाबाद में विख्यात थे। लम्बे कद गौर वर्ण के। उस दिन वे एक ब्लेज़र पहनकर आए थे। गर्मजोशी से उन्होंने हाथ मिलाया और अपना परिचय दिया ‘मुझे मुरारी भट्टाचार्या कहते हैं' रिहर्सल स्थल से सीनेट हॉल की थोड़ी दूरी थी। हम तीनों पैदल चल रहे थे। मुझे वैसा ही लग रहा था जैसे मैच से पूर्व इम्पायर पिच का अवलोकन करने जा रहे हों। पता नहीं क्यों सारी स्थिति समझने के बाद भी उन्होंने उस नाटक में प्रकाश नहीं दिया और प्रकाश की व्यवस्था चार हेलोजन नुमा उन दिनों शादियों में फोकस की तरह इस्तेमाल होने वाले लाइटों द्वारा किया गया।


    २१ दिसम्बर से पूर्व २० दिसम्बर को 'नटरंग' पत्रिका के सम्पादक नेमिचन्द्र जैन, अशोक भौमिक द्वारा बनाए गए मुक्तिबोध के चित्रों का उद्घाटन करने आए थे। सीनेट हॉल की दीवारों को सफेद चादरों से ढंक दिया गया था और उसमें चारों ओर मुक्तिबोध की कविताओं पर आधारित चित्र लगे थे। भाई राम जी राय ने उद्घाटन के अवसर पर मुक्तिबोध पर जो अपना वक्तव्य दिया था, वह अब तक मुक्तिबोध पर उनके शोध का ही परिणाम था। बहुत सधा और सारगर्भित। आनंद आ गया था, उस दिन भाई रामजी राय को सुनकर। चारों ओर मुक्तिबोध के चित्र बीच में अंतरंग शैली में ‘घेरा' नाटक का मंचन। नेमिचन्द्र जैन जी ने २० दिसम्बर १९८३ को पूर्वाभ्यास देखा था बहुत तन्मयता से। अब आज इतने दिनों बाद डॉ. सचिन तिवारी जी भी आए, नाटक का पूर्वाभ्यास भी देखा। कई स्थानों पर उनके मुंह से वाह! वाह! क्या दृश्य संयोजन है? की आवाजों को मैंने सुना। नेमि जी को उसी रात दिल्ली जाना था सो वे पूर्वाभ्यास देख कर चले गए। नेमि जी से यह मेरी दूसरी मुलाकात थी। पहली गोरखपुर विश्वविद्यालय में १९८० में हुई थी ।


      २० दिसम्बर जैसे कत्ल की रात थी। २० दिसम्बर की रात मैं सो सका और न साथी कलाकार। सबको डर था। नेमिजी बिना कुछ बोले चले गए थे। सुबह पूर्वाभ्यास हुआ और शाम को मंचन। इलाहाबाद विश्वविद्यालय के अब तक के इतिहास में पहली बार किसी बाहरी निर्देशक का नाटक छात्रों के साथ हो रहा था। नगर के सभी प्रबुद्ध साहित्यकार, रंगकर्मी, रंग निर्देशक आ चुके थे। सबमें उत्सुकता थी माहौल अशोक भौमिक ने पहले दिन ही बना रखा था अब मेरी बारी थी।


      सुनो सुनो सुनो, एक कथा सुनो


      ये कथा है बहुत पुरानी


      बहुत पुरानी बहुत पुरानी। गीत के साथ नाटक शुरू होता है और अन्त


      तुम सब जिन जिन नै सुनी कहानी ए


      बस गाँठ बाँध लो जो मतलब है इसका


      उसी को मिलेगा वह सब जो उसकी कद्र करता हो।


      उसी को मिलेगा वह सब जो उसकी कद्र करता हो।


       बच्चे उनको जिनकी छातियों में दूध के सैलाब उफन आते हैं


      गाडियाँ उनको, जिनके हाथ पैर खुद पहिए बन जाते हैं


      और धरती उनको


       जौ परती तोड़कर, पसीने से सींचकर उसे हरी भरी धरती बनाते हैं


        जो करे मशक्कत चीज़ होगी उसकी ही


        यही है फैसला यही है विचार


        इस खड़िए के घेरे का


        इस खड़िए के घेरे का .....


       जिस तरह कलाकारों ने पहले दृश्य में प्रवेश किया था। ठीक उसी तरह अंतिम गीत, गाते हुए वे मंच से बाहर (एरिना) चले गए। तालियों की गड़गड़ाहट से पूरा सीनेट हॉल गुंजायमान हो गया। ऊपर बैठे कबूतर भी इधर से उधर उड़ते दिखे, उनकी भी सहमति हमें मिल गई थी कि शो अच्छा हुआ है।


     शो के बाद एक बच्चे के साथ एक व्यक्ति मुझसे मिलने आए। ‘मेरा नाम दूधनाथ सिंह है। तुम्हारी इस प्रस्तुति ने मुझे इतना आनंदित किया कि मैं तुमसे मिलने के लिए ही रुका हूँ।' मुझे याद आया कि कवि श्रीराम वर्मा अक्सर दूधनाथ सिंह और निर्मला ठाकुर का जिक्र करते थे। निर्मला जी के मामा थे श्रीराम वर्मा। मलयज जी से तो आजमगढ़ में मुलाकात हुई थी। निर्मला जी और दूधनाथ जी से इसी सीनेट हॉल में पहली मुलाकात हुई। पहली मुलाकात से जो सम्बंध बना वह अंतिम मुलाकात १२ जनवरी २०१८ रसूलाबाद घाट तक बना रहा। इस मंचन ने मुझे इलाहाबाद में स्थापित कर दिया। २२ और २३ दिसम्बर को भी मंचन हुआ। अंतरंगशैली में प्रस्तुति होने के कारण तीन प्रस्तुतियाँ हुई थी। कुछ रंगकर्मी, दर्शक तो लगातार तीनों दिन आए, उनमें डॉ. अनुपम आनंद और उनका परिवार भी एक था।


      इलाहाबाद मुझे भा गया। इसी वातावरण की तो मुझे तलाश थी जो आज़मगढ़ में नहीं मिल पा रही थी। इलाहाबाद विश्वविद्यालय में उन दिनों कई स्टडी सर्किलों में शिरकत करने का मौका मिला। पेड़ों पर पाश, राजेश जोशी जैसे प्रगतिशील जनवादी कवियों की कविताओं वाली पोस्टरों को पहली बार पढ़ने का मौका मिला। इलाहाबाद विश्वविद्यालय के खुले वातावरण को मेरा मन आत्मसात् कर चुका था सो मन बनाया कि बस अब इसी शहर में ही आना है। यहीं अपनी कर्मभूमि बनाऊँगा। एक माह के बाद अब ख्याल आया कि नौकरी में आज़मगढ़ भी जाना है। घर में बैंक से दो टेलीग्राम आ चुके थे। घर वाले परेशान थे। शादी की बात भी चल रही थी। चित्रा को देख आया था, भदेश्वर (कोलकाता) में, लेकिन अपनी व्यस्तताओं के चलते हाँ ना का जवाब नहीं दे पाया। एक दिन सीनेट हॉल में पूर्वाभ्यास के समय मेरे मझले भाई सुबोध रंजन भौमिक और कानन भाभी आ धमके। 'भाईबैंक से लगातार टेलीग्राम आ रहे हैं और लड़की वालों के घर से भी। तुम्हारा तो कोई अता-पता नहीं क्या जवाब दें उन्हें ‘बैंक में कहिए मैं बीमार हूँ और लड़की वालों से कहिएइलाहाबाद ट्रान्सफर होने के बाद शादी करूंगा।' वे मेरे इस जवाब से सन्तुष्ट होकर चले गए लेकिन मैं बीमार होने का सर्टीफिकेट कहाँ से लाऊँ? मंडल दा को बताया तो उन्होंने मेरे इस समस्या का हल तुरंत निकाला 'अरे भाई तुम्हारे नाटक में अमरेश मिश्र हैं, उनके माता-पिता दोनों डाक्टर है। उनसे सर्टीफिकेट बनवा दूंगा और मुझे वह बीमारी का सर्टीफिकेट मिल गया जिससे नौकरी भी बच गई।


     आज का समय होता तो फेस बुक, व्हाट्सअप से मेरी यह बात छुप न पाती। धन्यवाद फेस बुक जी जो आप उस वक्त नहीं आए थे। बैंक वापस गया तो मालूम चला मेरा ट्रान्सफर आर्डर जो मैंने रिक्वेस्ट लखनऊ के लिए लगाई थी, मंजूर हो गया और फौरन लखनऊ जोनल आडिट सेल ज्वाइन करना है। आज़मगढ़ छोड़ते वक्त दोस्तों के बीच खूब रोया। पाँच साल आज़मगढ़ में खूब उत्पात किया। समानांतर की स्थापना की। बादल बाबू को बुलवाया और भी बहुत कुछ। आज़मगढ़ से लखनऊ चला तो गया लेकिन मन तो इलाहाबाद में ही लगा था। २५ दिसम्बर १९८३ को बादल बाबू इलाहाबाद आ गए थे। २५ दिसम्बर १९८३ से उन्हें कार्यशाला करनी थी। मैं भी आ गया उनके डिमास्ट्रेशन वाले शो में। शो इलाहाबाद विश्वविद्यालय के आज के वित्त अधिकारी के ऊपर वाले हॉल में हुआ थाउस कार्यशाला में प्रदीप भटनागर, अनुपम आनंद, सतीश चित्रवंशी, मीना उरांव, रतिनाथ योगेश्वर, विश्वजीत प्रधान जैसे उस वक्त के युवा रंगकर्मियों ने भाग लिया था। डिमास्ट्रेशन शो के बाद बादल बाबू के साथ गेस्ट रूम में रात में रुका। रात में बादल बाबू से मैंने पूछा ‘एक असमंजस की स्थिति से आजकल मैं गुजर रहा हूँ, मेरा स्थानांतरण आजमगढ़ से लखनऊ हो गया है और मुझे इलाहाबाद म्यूचुअल भी मिल रहा है। मेरे लिए क्या उचित होगा? इलाहाबाद या लखनऊ? क्योंकि लखनऊ में भी समानांतर ने अपनी प्रस्तुतियों के माध्यम से राष्ट्रीय ख्याति भोमा, स्पार्टकस के मंचनों से प्राप्त कर ली थी और शशांक बहुगुणा जी के मनोवैज्ञानिक रंगमंच का भी मैं समर्थक था, छात्र भी था। बादल बाबू वही बोले जो मैं चाह रहा था। ‘देखो करो हमेशा मन की' और मैंने मन की बात सुनी और इलाहाबाद आ गया।


     ममफोर्डगंज में एक मकान भी किराए पर ले लिया। लखनऊ से थोड़े से सामान लेकर रिक्शे में बैठकर इलाहाबाद यूनिवर्सिटी होता हुआ ए.एन. झा की ओर से जा ही रहा था कि सामने से वरिष्ठ रंगकर्मी परिमल दत्ता जी (रूपकथा) अपने स्कूटर पर आते दिखे।


      क्यों अनिल? क्या बात है ये सामान-आमान लेकर कहाँ?


       दादा मैंने इलाहाबाद ट्रान्सफर ले लिया हैअब यहीं रंगकर्म करूंगा।


       इस जवाब से उनके चेहरे पर मैंने एक शिकन देखी। रिक्शा आगे बढ़ चुका था। मैं रास्ते भर यही सोचता रहा कि परिमल दत्त जी को क्या हो गयाउन्होंने तो घेरा' नाटक देखा भी था, प्रशंसा भी की थी लेकिन मेरे इलाहाबाद आने की बातें सुन चेहरे में यह भाव क्यों?


      समझने में कई वर्ष लगे। अशोक भौमिक जो एक मेडिकल रिप्रेजेन्टेटिव थे, उन दिनों वे मुझे पहली बार परिमल दत्त जी के एलेनगंज वाले मकान में ले गए। घर और आंगन में रंगकर्मियों का जमावड़ा। रिहर्सल चल रही थी उत्पल दत्त जी कृत 'टीनेर तलवार' की। क्या दल है, सभी मैच्योर्ड परिपक्व कलाकार। बाबला घोष जैसे समर्थ अभिनेता को उनके घर में टीनेर तलवार के पूर्वाभ्यास में ही देखा। ऐसा दल उस समय उत्तर भारत में था तो बस मेघदूत लखनऊ और दूसरी रूपकथा इलाहाबाद। मैं तो शुरू से ही युवाओं के साथ ही काम करता आ रहा था तो मुझे परिपक्व कलाकारों का यह दल बहुत भाया। बातों ही बातों में मैंने परिमल दा से कहा, 'परिमल दा, आप इतनी मेहनत से एक प्रस्तुति तैयार करते हैं और उसके मात्र एक-दो शो। क्यों नहीं आप मेरी ही तरहबंगला नाटकों को हिन्दी में अनुवाद करवा कर हिन्दी में करें ताकि ज्यादा लोगों तक रूपकथा पहुँच सके। परिमल दा को शायद यह बात समझ में आ गई थी जब मैंने देखा उन्होंने जगन्नाथ, दो कौड़ी का खेल, जैसे नाटकों को बंगला और हिन्दी में करना प्रारंभ किया और शहर से बाहर भी मंचनों के आमंत्रण मिलने लगे। परिमल दा की ख्याति अब इलाहाबाद से कहीं अधिक अन्य शहरों में भी होने लगी। उनकी हिन्दी सुकेश सान्याल दा की ही तरह थी। सुकेश दा तो यहीं पले बढे लेकिन परिमल दा तो कोलकाता से चलकर बरेली होकर औषधि कम्पनी साराभाई में कार्य करने इलाहाबाद आए थे।


     इन्हीं दिनों हम लोगों ने समानांतर को समानांतर इंटीमेट थिएटर बनाया और शुरू हो गया रंगकर्म। सन् १९८४ में मेरी शादी १८ फरवरी को हुई। निवास अल्लापुर। अशोक भौमिक भी रानी मंडी से अल्लापुर आ गए। मैंने भी उनके घर के बगल में एक कमरे का एक सुंदर सा मकान किराए पर ले लिया। उन्हीं दिनों वहाँ टहलते हुए गले में मफलर डाले डॉ. राजेन्द्र जी भी मिल जाते थे। आगे हरिश्चन्द्र अग्रवाल का ‘तथागत' था और उसमें अशोक सिद्धार्थ भी रहने आ गए। खूब जमती थी हम लोगों की मंडली। स्वाति भाभी और अशोक दा का घर तो समानांतर और दस्ता के कलाकारों से भरा रहता था। कमल कृष्ण राय चुनाव की तैयारी में लगे थे। मुझे आज भी याद है कमलकृष्ण राय के चुनाव प्रचार में मशाल रैली में भाग लिया था। मशाल का बहता तेल शादी के कोट को कब काला कर गया, पता ही नहीं चला। बाद में कमल ने मुझे बताया। एक जोश था कि अपना साथी जीतेअन्ततः जीते भी। कमल कृष्ण राय इलाहाबाद विश्वविद्यालय के अध्यक्ष भी बने।


     चित्रा को हिन्दी नहीं आती थी। स्वाति भाभी जमशेदपुर की थीं तो उन्हें थोड़ी-थोड़ी हिन्दी आती थी। मेरा रंगकर्म परवान चढ़ रहा था। अक्सर रिहर्सलों में देर हो जाती थी। चित्रा अकेली घर में बोर होती थी। एक दो बार रिहर्सलों में गई भी। ‘भोमा' का उन दिनों हम लोग इलाहाबाद के कलाकारों के साथ मंचन कर रहे थे। पूर्ण ज्योति मुखर्जी, सुभाष श्रीवास्तव, आनंद श्रीवास्तव, विश्वजीत प्रधान और मेरे द्वारा पूर्वाभ्यास डॉ. अनुपम आनंद द्वारा दिए गए पूर्वाभ्यास स्थल पर हो रहा था।


     एक दिन का वाकया याद आता है। अनुपम आनंद और आनंद श्रीवास्तव मेरे अल्लापुर वाले घर पर आए और उन्होंने मुझे ‘प्रयाग रंगमंच' ज्वाइन करने का ऑफर दियामैंने उन्हें एक ही जवाब दिया, “भाई मेरा एक बच्चा है समानांतर, उसे छोड़ कर मैं दूसरा ग्रुप ज्वाईन नहीं कर सकता। हाँ, प्रयाग रंगमंच मुझे आमंत्रित करें तो मैं नाटक या कार्यशाला जरूर निर्देशित कर सकता हूँ।' जो आजतक फलीभूत नहीं हुआ


     सन् १९८५-२ मार्च भोमा का पहला शो इलाहाबाद के नार्दर्न रेलवे इन्स्टीट्यूट हॉल में। टिकट मात्र दो रुपए। ठीक ६.३० बजे नाटक शुरू हुआ। एरिना में भोमा। उस वक्त दर्शक थे मात्र बीस लेकिन समानांतर के समय की पाबन्दी से सबको अवगत कराना था सो ठीक समय पर नाटक शुरू किया गया। इस नाटक को देखने शन्ताराम वी. कशालकर सपरिवार आए थे। उनकी पोती तब उनके गोद में थी। मात्र कुछ महीने की ही थी।४ मार्च को दूसरा शो थापता नहीं क्यों हम लोगों ने २ मार्च और ४ मार्च को ही शो रखा ए तो याद नहीं लेकिन इसका लाभ यह हुआ कि तीन मार्च रविवार को मुझे ३ बजकर ३३ मिनट पर पुत्रीरत्न की खुशियाँ मिलीं। परिवार में उस वक्त माँ और चित्रा थीं। ४ मार्च को दूसरा शो था। शो मस्ट गो ऑन। मेरे उस वक्त के समानांतर साथियों ने मुझे ढाढ़स दिया कि आप बेफिक्र रहें और शो तक आ जाएं बाकी हम सब लोग देख लेंगे। ४ मार्च ६ बजकर १५ मिनट पर मैं नार्दर्न रेलवे इन्स्टीट्यूट हॉल पहुँच चुका था। बाहर बहुत गाड़ियाँ और अन्दर दर्शक खचाखच भरे थे। पहले दिन समय से शुरू करने का परिणाम यह हुआ कि दूसरे दिन दर्शक सवा छह बजे से ही आकर बैठ गए थेठीक साढे छह बजे थर्ड बेल के साथ नाटक शुरू हुआ। एक स्थान ऐसा आता है जब मैं हिरोशिमा से पीड़ित विकलांग बच्चे को रोल करता हूँ धीरे-धीरे झुककर विकलांग बनता हूँ। उस वक्त पता नहीं मुझे क्या हुआ कि मेरा सारा ध्यान कमला नेहरू हॉस्पिटल के कमरे पर था जहाँ पत्नी, माँ और बच्ची थी। मेरा मन वहाँ अचानक चला गया कि अगर बच्ची को कुछ हो जाता है तो न माँ कुछ कुछ समझा पाएगी और न ही पत्नी चित्रा, क्योंकि दोनों को ही हिन्दी उस वक्त नहीं आती थी। क्या होगा? यह दृश्य जेहन में जितनी जल्दी आया, उतनी ही जल्दी मैंने अपने आप को संभाला कि मैं तो मंच पर हूँ और ध्यान कहीं भटकना नहीं चाहिए, तुरंत अपने को एकाग्र किया और शो पूरा कर समानांतर इंटीमेट थिएटर की इलाहाबाद इकाई से सबको पहली बार परिचित करवाया। दर्शकों ने पूरे गर्मजोशी के साथ हमारा स्वागत किया।


     समानांतर एक सांस्कृतिक, सामाजिक संस्था है और जब हम इन्टीमेट थिएटर में प्रस्तुतियाँ देते हैं तो समानांतर इंटीमेट थिएटर, जब व्यावसायिक स्तर पर प्रस्तुतियाँ देतेहैं तो समानांतर रंगमंडल और जब नए लोगों को प्रस्तुति निर्देशन का भार देते हैं तो समानांतर की प्रयोगात्मक इकाई भूमिका के द्वारा ही अपने दर्शकों के समक्ष आते हैं।


     पत्नी चित्रा को किस प्रकार थिएटर से जोड़ा जाए?


      संयोग से उन्हीं दिनों बादल सरकार हमारे निमंत्रण पर पुनः एक बार एक सप्ताह के लिए नए पुराने रंगकर्मियों को प्रशिक्षित करने आने वाले थे मुझे यह अवसर बिल्कुल उपयुक्त लगा और क्यों न चित्रा को बादल दा की कार्यशाला में भागीदार बनवा दिया जाए। बादल दा, बंगला, हिन्दी एवं अंग्रेजी बोलते थे सो चित्रा को भी कोई असुविधा नहीं होगी। अन्ततः खूब मन लगाकर रंगकर्म सीखने लगी। बच्ची खुशबू एक किनारे लगे बिस्तर पर रहती थी और तरह-तरह के हो रहे हरकतों को गौर से देखती थी, खुश होती थी। बीच-बीच में अन्तराल पर चित्रा जाकर दूध पिला देती थी। चाय पीने की आदत भी अब चित्रा को इस वर्कशाप से लग गई थी। वर्कशाप खत्म होने के बाद सभी बादल दा के साथ चाय पी रहे थे तो मैंने चित्रा से कहा, चलो तुम्हें घर छोड़ आता हूँ। वर्कशाप तो ख़त्म हो गई है।


     “अरे अभी कहाँ जाऊँगी, अभी तो चाय पिऊंगी। बादल दा से ढेरों वर्कशाप सम्बंधित बातें करूंगी और सबके साथ तो गप-शप हो ही नहीं पाता है। अभी नहीं कम से कम एक डेढ़ घण्टे बाद ही जाऊँगी।'' यह कहकर वह तो चली गई लेकिन मेरा मकसद अब पूरा होता दिख रहा था। रंगमंच में उसे मज़ा आने लगा था। मैंने उस दिन उसे बातों ही बातों में कहा, ‘अब समझ में आया तुम जो हमेशा परेशान रहती थी कि एक घण्टे का नाटक है ‘भोमा', आप तीन घण्टे के बाद घर क्यों आते हैं? जवाब मिल गया? वह मुस्कुराकर रह गई और मुझसे सहमत हो गई। दोस्तों आज जो कुछ भी कर पा रहा हूँ उसमें चित्रा का बहुत बड़ा योगदान है। अगर मैंने बादल दा की वह वर्कशाप उसे न करवाई होती तो शायद वह कभी भी नहीं समझ पाती कि नाटकों के पूर्वाभ्यास में इतनी देर कहाँ लग जाती है। मेरा मानना है कि आप जिस कर्म को कर रहे हों, उसमें घर वालों का सहयोग अति आवश्यक है। मैंने जैसे चित्रा को जोड़ा आप भी किसी न किसी रूप में अपनों को जरूर जोड़ें तभी आप कुछ कर पाएंगे। वरना.....! अब गोष्ठियों में भी चित्रा आने जाने लगी। हिन्दुस्तानी अकादमी में, दरी और सफेद चादर पर बैठना कितना सुखकर था। आज वह व्यक्ति नहीं समझ पाएगा जिसने इस माहौल का आनंद न लिया हो। हिन्दुस्तानी एकेडेमी के इसी लम्बे बड़े हॉल में हम लोग महादेवी वर्मा, उपेन्द्रनाथ ‘अश्क', जगदीश गुप्त, रघुवंश, राम स्वरूप चतुर्वेदी, अमृत राय, एकांकी सम्राट डॉ. राम कुमार वर्मा, लक्ष्मी कांत वर्मा, नरेश मेहता...... जैसे साहित्यकारों को देख सुन कर बड़े होते गए और अपने को समृद्ध करते रहे। कभी कभी हम लोग नाट्य गोष्ठियाँ भी आयोजित कर लेते थे। तब मात्र किराया होता था रुपए ५०एक बार का वाक्या याद आ रहा है सरनबली श्रीवास्तव जी का देहांत हो गया था। हम लोगों ने समानांतर की ओर से हिन्दुस्तानी एकेडेमी में श्रद्धांजलि गोष्ठी रखी थी। जगदीश गुप्त उन दिनों अध्यक्ष थे। उन्हें प्रार्थना पत्र दिया और उन्होंने स्वीकृति भी दे दी लेकिन दफ्तर के दरबारी साहब पचास रुपए की रसीद कटवाने पर अड़े थे। जब जगदीश गुप्त जी को यह बात मालूम चली तो उन्होंने डाँटते हुए कहा, 'यह काम तो ऐकेडेमी का था जो आपने नहीं किया और हाँ, आज से किसी भी श्रद्धांजलि गोष्ठी का कोई भी पैसा एकेडेमी द्वारा नहीं लिया जाएगा।' ऐसे होते थे तब के हमारे मार्गदर्शक साहित्यकार। क्या अब यह संभव है? इसी एकेडेमी हॉल में संगोष्ठियों में माइक पर खड़े होकर बोलने वाले अपने को धन्य मानते थे। आज जो हैं और अपने को बहुत बड़े साहित्यकार, लेखक, कवि, कहानीकार, नाटककार मानते हैं, उस समय इन दिग्गजों के आगे माइक पर बोलना तो दूर माइक छूने तक का अवसर नहीं मिलता था।


      इन साहित्यिक गोष्ठियों ने मुझे भी एक दुष्टि दीइलाहाबाद और इलाहाबाद के साहित्यकारों से परिचय धीरे-धीरे बढ़ने लगा। कुछ के तो घर आने-जाने भी लगा। लेकिन जो गोष्ठी या यूँ कहें सम्मान समारोह आज भी जेहन में है, वह है कथाकार शेखर जोशी जी का पहल सम्मान समारोह। हिन्दुस्तानी एकेडेमी में तिल रखने की जगह नहीं थी, जितने लोग अन्दर उतने ही बाहर। ऐसा भव्य और सुन्दर आयोजन ज्ञानरंजन जी ही कर सकते थे। उस समय सब वादों को एकाकार किया था उन्होंने। कौन नहीं था, उस सम्मान समारोह में?


     जब सम्मान समारोह की बात उठ ही गई तो समानांतर सम्मान की भी थोड़ी चर्चा हो जाए। नेमिचन्द्र जैन से १९८० में गोरखपुर विश्वविद्यालय में रंगमंच विभाग हो' पर आयोजित डॉ. गिरीश रस्तोगी द्वारा संकल्पित सेमिनार में मैं भी आज़मगढ़ से आमंत्रित थावहीं पहली बार नेमिजी से मुलाकात हुई। दिन था ८ मई १९८०। उस दिन मेरा जन्मदिन भी था। गोष्ठी में सिर्फ मेरा पर्चा ही ऐसा था जिसमें मैंने मांग की थी कि रंगमंच विभाग विश्वविद्यालय से पहले प्राथमिक कक्षाओं में हो। नेमिजी मेरी बातों से सहमत हुए और उस दिन से जो एक रिश्ता उनसे जुड़ा, मरते दम तक पत्राचार, मुलाकातें होती ही रहीं। जब प्रथम ‘समानांतर सम्मान देने की बात उठी तो डॉ. मंडल एवं मैंने एक स्वर में नेमिचन्द्र जैन जी का ही नाम प्रस्तावित किया। नेमिजी इस सम्मान के लिए इलाहाबाद आए भी। हम लोगों की इतनी हैसियत नहीं थी कि उन्हें आने-जाने रहने का प्रबन्ध कर सकते। सत्य प्रकाश मिश्र, मंडल दा के शुभचिंतकों में थे, उन्होंने संग्रहालय द्वारा नेमिजी एवं रेखा जैन को इलाहाबाद का परिवेश' पर बोलने के लिए आमंत्रित किया और उसी दौरान समानांतर समारोह भी हमने आयोजित किया। सुबह नेमिजी ने संग्रहालय में और दूसरे दिन निराला सभागार में समानांतर सम्मान समारोह' में भाग लिया। दूधनाथ सिंह जी को नेमिजी पर बोलना था। समारोह शुरू होने में कुछ ही पल था और दूधनाथ जी का कहीं अता-पता नहीं। सत्यप्रकाश जी हम आयोजकों की स्थिति समझ गए और उन्होंने नेमिजी का इतना सुंदर सारगर्भित परिचय दिया कि क्या बताऊँ। तब सहयोग की भावना से हमारे वरिष्ठ, हमारा मार्गदर्शन करते थे। सम्मान देने के लिए लक्ष्मीकांत वर्मा को आमंत्रित किया थासम्मानित होने के बाद नेमिजी ने मुझसे कहा, 'सम्मानित होकर गर्व महसूस कर रहा हूँ, परंतु लक्ष्मीकांत मुझसे दो वर्ष छोटे हैं।' आशय हम लोग समझ गए। लक्ष्मीकांत जी की सक्रियता से हम लोग उनकी उम्र का पता नहीं लगा पाते थे। रेखाजी ने अपने उद्बोधन में कहा, 'इलाहाबाद आकर गौरवांवित महसूस कर रही हैं। हमारे ज़माने में इलाहाबाद में एक भी महिला कलाकार मिलना दूभर था लेकिन आज यहाँ समानांतर मेंइतनी महिला कलाकारों को देखकर मन में संतोष हुआ।' इस कार्यक्रम में राम स्वरूप चतुर्वेदी, रघुवंश जी की गरिमामई उपस्थिति हमारे लिए प्रेरणादायक रही।


     भाई नीलाभ जी का ऐसे ही किसी वक्त इलाहाबाद आगमन हुआ। वे बी.बी.सी. की नौकरी छोड़ इलाहाबाद रहने आ गए थे। हुआ यूं कि हम ‘स्पार्टाकस' नाटक का पूर्वाभ्यास कर रहे थे, ड्रामेट्रिक हॉल, इलाहाबाद विश्वविद्यालय में। अचानक लड़कों को कहीं से मालूम चला कि बी.बी.सी. वाले नीलाभ इलाहाबाद विश्वविद्यालय के कैम्पस में आए हुए हैं। रिहर्सल छोड़ सभी भागकर नीलाभ जी को देखना सुनना चाहते थे। मैं भी उनमें एक था। क्या पर्सनालिटी, क्या व्यक्तित्व और क्या ओजपूर्ण भाषा? मुरीद हो गए उस दिन उन्हें देखकर। फिर तो नीलाभ जी, नीलाभ प्रकाशन हम सबका करीब करीब, रोज मिलने जुलने का अट्टा बन गया। बड़ी-बड़ी योजनाएँ वहाँ बनने लगीजन संस्कृति मंच, दस्ता, समानांतर की नियमित बैठके वहीं होने लगीं। सिविल लाइन्स स्थित यूनियन बैंक से जब भी थोड़ा वक्त मिलता नीलाभ प्रकाशन, कॉफी हाउस और कॉफी हाउस के बाहर पेड़ के नीचे सुकेश दा के अड्डे, अब हमारी रंगचर्चा की मुफीद जगहें हो गई। नीलाभ प्रकाशन से ही शुरू हुआ मैं और मेरा रंगकर्म' व्याख्यानमाला। नांदीकार कोलकाता के निर्देशक रुद्रप्रसाद सेनगुप्ता, ब.व. कारंत, स्वदेश दीपक, देवेन्द्र राज अंकुर जैसे प्रतिष्ठित रंगनिर्देशकों ने यहीं अपनी रंगयात्रा साझा की इलाहाबादियों से। चारों ओर पुस्तके और बीच में रंगसंवाद। अद्भुत दृश्य रंग संवाद के बाद कॉफी हाउस में फिर बैठकी यानी आपके पास चार पाँच घंटे होना ही चाहिए ऐसी गोष्ठियों का असली मजा लेने के लिए।


       नीलाभ जी के नेतृत्व में उ.म. क्षेत्र सांस्कृतिक केन्द्र में व्याप्त अनियमितताओं के लिए सिविल लाइन्स से सांस्कृतिक केन्द्र तक की कई प्रतिरोध मार्च और नजीर-निराला कार्यक्रम मंसूर पार्क में आयोजित की गई। दस्ता नियमित विश्वविद्यालय कैम्पस छोड़ सिविल लाइन्स में अपनी सशक्त प्रस्तुतियों ‘राजा का बाजा, इतिहास गवाह के साथ नुक्कड़ प्रस्तुतियाँ करती थीं जिसका नेतृत्व नीलाभ, अशोक भौमिक करते थे। मेरी भी उपस्थिति इन नाटकों को आयोजित करने में होने लगी। एक रचनात्मक माहौल बन गया था। प्रतिरोध की शक्ति अपने परवान पर थी।


     आज भले ही नीलाभ प्रकाशन में ताला लगा हो परंतु गर्मागर्म बहसें, आज भी दरवाजे में दस्तक देती हैं। कभी कान लगाकर सुनिए तो आपको सुनाई देगी नीलाभ और देवी प्रसाद मिश्र की तकरार, नीलाभ और दिनेश ग्रोवर जी की चुहलबाजियाँ और और और भी बहुत कुछकभी समय निकाल कर उस जगह जाएं तो... आप।


     नीलाभ जी के भाई उमेश जी का हमेशा एक ही तकिया कलाम होता था कि ‘ईश्वर ने हम दोनों भाइयों को कितना विपरीत बनाया है। सब कुछ नीलाभ को दिया, मेरे हिस्से तो कुछ भी नहीं आया।' उमेश उर्दू के बहुत जानकार थे। हमेशा किताबों में लीन या प्रकाशन में व्यस्त ही दिखे।


       महादेवी वर्मा का निधन सुन हम और अशोक भौमिक उन्हें श्रद्धांजलि देने प्रयाग विद्यापीठ गए। लौटे तो उमेश जी ने पूछा कितनी भीड़ थी?' मन उदास हो गया। ‘खुद तो गए नहीं और कितनी भीड़ थी, उसका जायजा ले रहे हैं?'' खैर, नीलाभ जी से पहली भेट, निरंतर चर्चाएं और रचनात्मक उनका लेखन ने मुझे उनका मुरीद बना दिया। उन जैसा पढ़ा-लिखा विरला ही था कोई उन दिनों इलाहाबाद में। वे अंग्रेजी साहित्य भी खूब पढ़ते थे। आप जिस विषय पर भी उनसे पूछे वे टालते नहीं थे तुरंत आपकी जिज्ञासा का शमन करते थे। ‘यम' नाटक के अनुवाद का जब मैं प्रस्ताव लेकर उनके पास गया तो उन्होंने बस शर्त रखी कि मैं रोज़ उन्हें एक घंटा दें। वे बोलते जाएंगे और मैं लिखता जाऊँगा। शर्त मंजूर। मैं रोज़ पाँच बजे बैंक से निकलकर उनके खुसरो बाग स्थित मकान में जाता और रोज़ चार पाँच पन्ने लिखकर आता। यर्मा के मंचन में नीलाभ जी, विवेक प्रियदर्शन, एस.के. यादव एवं सरोज ढिंगरा की महत्वपूर्ण भूमिकाएं रही हैं। नीलाभजी की आर्थिक स्थिति जैसी भी रही हो लेकिन कभी भी उन्होंने मुझसे अनुवाद या गीतों के लिए किसी तरह की राशि की डिमांड नहीं की। एक बार बातों ही बातों में मैंने 'मदर' नाटक को भारतीय परिवेश में रचने की बात कही तो लगभग उखड़ते हुए बोले, 'अनिलजी पेट को भी कुछ मिलेगा या बस सब सूखा सूखा?' बात मेरे जेहन में थीदेवेन्द्रराज अंकुर 'मैं और मेरा रंगकर्म' में व्याख्यान देने आए थे। रवीन्द्र कालिया मुख्य अतिथि थे। व्याख्यान के बाद मैंने अंकुर जी से निवेदन किया कि क्यों न एक नाट्य कार्यशाला राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय द्वारा इलाहाबाद के नई पौध के लिए आयोजित हो और नाटककार भी इलाहाबाद का ही हो। अंकुरजी को प्रस्ताव जंच गया और नीलाभ जी को नाटककार के रूप में और ब.व. कारंत जी को कार्यशाला प्रमुख चुना गया। नीलाभ जी अब असमंजस में। क्या हो, कोई नाटक तो है ही नहीं। और इतनी जल्दी लिखा भी नहीं जा सकता। मैंने उन्हें सुझाया कि आपने जो मृच्छकटिकम् का रूपांतरण किया हैतख्ता पलट दो के नाम से, उसी को झाड़ पोंछ कर निकालिए ना? नीलाभ जी को बात जंच गई। अंकुर जी ने उ.म. क्षेत्र सांस्कृतिक केन्द्र और राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय की ओर से एक महीने की कार्यशाला इलाहाबाद में आयोजित करवाई और मुझे कार्यशाला शिविर सह निर्देशक बनाया गया।


     कारंत जी के साथ सत्यव्रत राउत, विधु खरे की लम्बी टीम बनीं जो सुबह से रात तक काम करती थीप्रारंभिक बैठकों के बाद साक्षात्कार, अभिनेता-अभिनेत्रियों का चुनाव हुआ। कारंत जी का भी आगमन हुआ और समानांतर ने इसी अवसर पर नीलाभ प्रकाशन में 'मैं और मेरा रंगकर्म' पर रंग संवाद आयोजित किया। कारंत जी को सुनने कौन नहीं था उस रंग संवाद में। परिचय मैंने दिया कि अब आप रंग सवांद में सुनने जा रहे हैं जिस शख्स को उनका नाम है बाबूकोड़ी वेंकटरमन कारंत (ब.व. कारंत) अपना पूरा नाम बहुत दिनों बाद सुनकर उन्होंने मुझे प्रसन्नता से देखा। क्योंकि सभी उन्हें बावा, या कारंत जी कहकर ही बुलाते थे बाद में उन्होंने मुझे बताया कि आज बहुत दिनों बाद अपना पूरा नाम सुनकर बहुत अच्छा लगा। पूरे जोरों शोरों से कार्यशाला चल रही थी। नाटक में पात्रों का चयन भी करीब करीब हो गया था। नाटक के नाम को लेकर थोड़ी असहमति दिखी। नाटक शुरू में एक गीत से शुरू होता है।


    'देखो रे भइया, सत्ता का खेल निराला'। मैंने नीलाभ जी को सुझाव दिया कि क्यों न नाटक का नाम 'सत्ता का खेल' ही रखा जाए? नीलाभ जी कारंत जी इस बात से सहमत दिखे। रिहर्सलें अपने चरम पर थीं सत्यव्रत राऊत को सब सत्या बुलाते हैं और हम लोग उन्हें 'सत्या का खेल' से सम्बोधित करते थे। देखना ‘सत्या का खेल' बहुत शानदार होगा। निमंत्रण पत्र छपकर आ चुके थे लेकिन उसमें शूद्रक का नाम कहीं नहीं था। नीलाभ जी भयंकर नाराज्। अपनी नाराज़गी दर्ज कराते हुए वे घर चले गए। कारंत जी चुप थे। थोड़ी देर में मुझसे बोले ‘मुझे नीलाभ के घर ले चलो। ‘जी, मेरे पास तो स्कूटर है।' 'चलो उसी से चलते हैं' रंगमंच के शीर्ष को लेकर मैं नीलाभ जी के घर पर। पहली बार दो विभूतियों को आमने सामने एक दूसरे के चरण छूते मैं देख रहा था, किंकर्तव्यविमूढ़ होकर। कारंत जी माफी मांगने आए थे। मैं इस नाटक का सर्वेसर्वा, भूल मुझसे हुई है, नीलाभ मुझे माफ करो। मुझे पूफ देखना चाहिए था।' नीलाभ जितनी जल्दी गुस्सा होते थे, उतनी ही जल्दी शांत भी। कॉफी, चाय चली और साथ में माफीनामा भी।


     मंचन से एक दिन पूर्व कारंत जी मेरे घर खाने पर आए। फ्लैट नया ही लिया था मैंने। कारंत जी ने उस दिन उद्घाटन किया। साधारण खाना। चित्रा ने मन से बनाया था। बातों ही बातों में कारंत जी ने कहा, बेटे मुझे तुम पहले क्यों नहीं मिले?


     ‘मिला था कारंत जी १९८३ में भारत भवन में आपके ही निमंत्रण पर नुक्कड़ रंग मेला में। लेकिन आपसे मिलना बहुत दुष्कर था, कड़ी घेरा बन्दी थी। प्रसन्ना, बंसी कौल, त्रिपुरारी शर्मा के घेरे तक तो हम पहुंच जाते थे, लेकिन आपसे व्यक्तिगत मुलाकात करना आसान न था। आपने मेरा नाटक रामबाण देखा था। कन्हाई लाल द्वारा निर्देशित पेवे तेतू में मुझे आपने अभिनय करते देखा लेकिन व्यक्तिगत पहचान उस भीड़ में संभव नहीं थीआपके मकान में कई बार गया, बता दिया जाता था, आप सो रहे हैं। मुझे प्रसन्ना जी ने ही आपकी जगह हस्ताक्षर करके सम्मिलित होने वाला प्रमाण पत्र दिया जो मेरे बैंक में मुझे लगाना था अवकाश के लिए कारंत जी कुछ सोचने लगे। भोजन उन्हें प्रिय लगा। बोले- ‘एक महीने से इसी तरह के भोजन की ही तो मैं मांग कर रहा था जो आज नसीब हुआ।' कारंत जी का मेरे फ्लैट में आना एक अविस्मरणीय यादगार पल रहेगा हमेशा।


     दूसरे दिन मंचन से पूर्व उन्होंने मुझे अपनी पुस्तक ब.व. कारंत यह लिखकर दी। मैं तो धन्य हो गया।' कारंत जी का यह अंतिम काम था। कुछ दिनों बाद दु:खद सूचना आई, कारंत जी नहीं रहे। अफ़सोस करता रह गया कि एक माह साथ वे रहे क्यों नहीं एक ड्राक्यूमेन्टी शूट करवाया? कैसे वे सुबह-सुबह हारमोनियम पर रियाज करते थे, कैसे समय से कार्यशाला में पहुँचने के लिए अधीर रहते थे? कैसे गाड़ी न पहुँचने पर पैदल, इके में या किसी की स्कूटर में लिफ्ट लेकर समय से पूर्व आ धमकते थे। उनका एक ही कथन था। अगर शिक्षक ही देर से आएगा तो छात्र का तो सर्वनाश होना ही है।''


    कारंत जी जैसे भी रहे हो, जो भी रहे हैं दिल के बहुत साफ़, नेकदिल इंसान थे। उन्होंने इलाहाबाद में एक माह के प्रवास में यह सब तो जता दिया था कि रंग संगीत क्या होता है, एक नाटक को निर्देशित करते वक्त किन-किन बातों का ध्यान रखना चाहिए और अपने से बड़ों का किस तरह सम्मान और अपने से छोटों को किस तरह स्नेह देना चाहिए। ऐसी ही बहुत सी छोटी-छोटी बातें वे हमें सिखा गए।


    छोड़ते जिन दिनों आजमगढ़ में था। दिनमान में नाटकों की समीक्षा में एक व्यक्ति का नाम अक्सर दिख पढ़ता रहता था। के.च.व. (केशवचन्द्र वर्मा)। एक बार टैगोर टाउन उनके घर ढूँढते, ढूँढते पहुँचा। संगीत की उन्हें बहुत जानकारी थी। प्रबोधन संस्था के माध्यम से वर्ष में एक आयोजन सरोजनी वर्मा (पत्नी) की स्मृति में वे ज़रूर करते थे। उनसे लगातार मिलना-जुलना जारी रहा, उनकी किताबों की लाइब्रेरी बहुत समृद्ध थी। कई पुस्तके उन्होंने पढ़ने को भी दी जिसमें इलाहाबाद और रंग संगीत पर सार्थक एवं समृद्ध लेख थेआप नाटक देखने बहुत कम आते हैं? जबकि मैं नटरंग, दिनमान में आपके लेखों का मुरीद हूँ।'


     दिनमान ‘देखो भाई एक तो समय नहीं मिलतादूसरे, यहाँ के रंगकर्मी कार्ड भिजवा देते हैं किसी के हाथों। अरे, कम से कम निर्देशक या संस्था प्रमुख को तो कार्ड लेकर आनाचाहिए?


      रंगकर्म जो कर रहा हो वह जानता है कि किन-किन परेशानियों से गुजरते हुए नाटक मंचन तक पहुँचता है और अगर फिर भी आपको सूचना या निमंत्रण पत्र पहुँच गया तो मुखिया का ही होना क्यों आवश्यक है। मैं इसे तब भी नहीं समझ पाया और आज भी नहीं। आप फ़िल्म देखने जाते हैंतो क्या यही फार्मूला आप सब अपनाते हैं? यह मन में तब भी था और आज भी है।


     अब रंगसमीक्षा की बात चल ही पड़ी है तो इलाहाबाद में उस समय के रंग समीक्षाओं पर भी थोड़ी बहुत बातें हो ही जाएं। अमृत प्रभात व नार्दन इंडिया पत्रिका उन दिनों इलाहाबाद के मुख्य अखबार होते थे। हर बृहस्पतिवार अमृत प्रभात में एवं हर रविवार नार्दन इंडिया पत्रिका में सांस्कृतिक कार्यक्रमों की समीक्षाएं छपती थीं। वी.एस. दत्ता और बाद में श्रीमती लुसिन्डा धवन नार्दर्न इंडिया पत्रिका में अंग्रेजी में और गोपाल रंजन, हिमांशु रंजन अमृत प्रभात में लगातार नाट्य समीक्षाएं लिखा करते थे। सभी को बृहस्पतिवार एवं रविवार का इंतज़ार रहता था कि इस बार किस आयोजन की समीक्षा पढ़ने को मिलेगीश्रीमती लुसिन्डा धवन जी बहुत शांत स्वभाव की और चुपचाप एक कोने में बैठकर सारी गतिविधियाँ देखती रहती थीं और कार्यक्रम के बाद तुरंत चली जाती थीं। गोपाल रंजन जी और हिमांशु रंजन जी निर्देशक तथा अभिनेताओं से अगर मन किया तो बात कर लिया करते थे और कभी कभी तो किसी के यहाँ धमक भी पड़ते थेइन दोनों की लेखनी के सभी कायल थे। छोड़ते किसी को नहीं थे, जो लगा और जो होना चाहिए उसकी ओर इंगित भी करते थे। अपने लेखों के माध्यम से मैंने भी समीक्षाएं गोपाल जी के कहने पर ही अमृत प्रभात में कन्ट्रीब्यूट करनी शुरू की। एक बार तो ऐसा हुआ कि अमृत प्रभात के सांस्कृतिक पृष्ठ पर सबसे ऊपर गोपाल रंजन, उसके बाद हिमांशु रंजन और अंत में अनिल रंजन की समीक्षाएं छपीं। न जानने वालों को लग सकता था कि तीनों भाई हैं। हाँ, तीनों भाई ही हैं आज भी यह रिश्ता भाई से भी बढ़कर है। हम लोगों ने इस रिश्ते का बराबर सम्मान किया है और मुझे इस पर गर्व भी है। परिमल दा भी शुरू शुरू में नार्दर्न इंडिया पत्रिका में नाटकों की समीक्षाएं लिखा करते थे जिसका अक्सर सुकेश सान्याल विरोध करते थे और कभी-कभी तो सुकेश दा दल-बल के साथ एन.आई.पी. (नार्दर्न इंडिया पत्रिका) के दफ्तर अपनी शिकायत दर्ज कराने पहुँच भी जाते थेफलस्वरूप परिमल दा ने नाटक की समीक्षाएं लिखना बंद कर दीं।


     सुकेश दा की मृत्यु ने हमें झकझोर दिया था। एक विशालकाय शरीर किस तरह कैंसर से ढांचे में परिवर्तित हो गया। उनका अंत में देखकर दु:ख लगा। अपनी स्मृतियों को जब पीछे ले जाता हूँ तो याद आता है कि कैसे उन्होंने बादल सरकार की गोष्ठी के आयोजन में घर-घर साइकिल से जाकर लोगों को आमंत्रित किया था। श्री नरेश मेहता को पहली बार इसी गोष्ठी में देखा था। हिन्दुस्तानी अकादमी का हॉल पूरा भर दिया था उन्होंने। हम लोग तब नए-नए आए थे और समानांतर की इस गोष्ठी में बादल दा का साक्षात्कार इलाहाबादियों से करवा रहे थे। बादल दा को देखने सुनने सिर्फ रंगकर्मी ही नहीं वरन् बड़ी संख्या में साहित्यकार भीआए थे। विषय हम लोगों ने जो भी दिया हो लेकिन बादल दा का यह कथन आज भी कानों में गूंजता है कि 'आप विषय चाहें जो दें बोलूंगा मैं वही जो मुझे बोलना है।' समानांतर की नाट्य गोष्ठियों में बंगाल से पधारे रुद्र प्रसाद सेन गुप्ता, उषा गांगुली, श्रीमती प्रतिभा अग्रवाल, शमीक बन्दोपाध्याय जी, प्रोबीर गुहा ने भी बराबर शिरकत की। एक माहौल निर्मित होता था हिन्दुस्तानी अकादमी में दरी में बैठकर, उस समय जो आनंद और अपनत्व बोध होता था वह आज की कुर्सियों में बैठकर नहीं आएगा। अब तो पता ही नहीं चलता है कि कौन कौन आया है? क्योंकि सब का मुंह मंच की ओर पीछे मुड़कर देखने में आपकी गर्दन टेढ़ी हो सकती है। काश पुनः हिन्दुस्तानी अकादमी अपने उसी स्वरूप में आ जाए।


    सुकेश दा फोर्ट में काम करते थे। साइकिल आजीवन उन्होंने चलाया। फोर्ट से सीधे कॉफी हाउस। दास दोसे वाले के सामने एक बड़ा सा पेड़ था, उसी पेड़ के नीचे उनका रंग अड्डा जमता था। वे सबके मुखिया थे। सब उनकी बंगला- हिन्दी में मिली जुली बातों को गौर से सुनते थे। उनके पास करीब-करीब शहर की सभी सूचनाएं होती थीं जो वे धीरे- धीरे खोलते थे। पेट में जो भी घुमड़ता रहता था। वे उसे उसी दिन साफगोई के साथ बुलंद आवाज में उगल ज़रूर देते थे। घर कुछ भी नहीं ले जाते थे। मन के साफ और रंगकर्म के प्रति अपार श्रद्धा थी उनकी। एक दिन मेरे बैंक आ गए और सामने की सीट पर बैठ गए और लगभग रोते हुए बोले ‘अनिल मैं आज तुम्हारे सामने अपनी 'मन की बात' कहकर हल्का हो जाना चाहता हूँ। तीन दिनों से नींद नहीं आ रही है। तुम्हारी भाभी ने कहा ‘जाइए अनिल के पास और सारी बातें कहकर हल्के हो आइए।' मैं घबरा गया। क्या बात हो गईक्या मुझसे कोई गल्ती हो गई? मैंने तो उन्हें कभी अपशब्द भी नहीं कहा और न ही उनकी कहीं भी आलोचना की। अपनी बेटी की शादी का कार्ड बनवाने पहली बार इसी बैंक में आए थे। मैंने वह काम भी कॉफी सुन्दरता से किया था। कहाँ चूक हो गई मन में तमाम-प्रश्न उमड़ते घुमड़ते रहे। पानी पिलवाया। चाय के लिए बोला तो मना कर दिया कि आज नहीं, यहाँ से तो सीधे कॉफी हाउस ही जाऊँगा। वहीं कॉफी साथ-साथ पिएंगे। तो दादा।


     "देखो अनिल मुझे जो संगीत नाटक अकादमी का अवार्ड मिला है ना वह मुझे नहीं तुझे मिलना चाहिए था, मैंने किया ही क्या है? मैंने तेरा हक छीना है। मैंने जुगाड़ से इसे हासिल किया है। जब तक नहीं मिला था तब तक तो ललक थी और सारे हथकंडे भी अपनाए। रतन थियम से लेकर दया प्रकाश सिन्हा तक लेकिन डिजर्ब तुम करते हो। तुम इस समय उत्तर प्रदेश में सबसे ज्यादा रंगकर्म कर रहे हो, बाहर कहीं भी जाता हूँ तो इलाहाबाद के एक ही व्यक्ति के बारे में पूछा जाता है और वह तुम ही हो। इसलिए उस पर तुम्हारा ही हक है।''


     ‘दादा, आप भी कैसी बातें करते हैं। आप वरिष्ठ है। बंगला और हिन्दी रंगमंच निरंतर करते आ रहे हैं आपका ही हक है इसमें। फिर मैं रंगकर्म अवार्ड के लिए तो कर ही नहीं रहा हूँ। ए मेरा पैशन (जुनून) है। अगर मिलना होगा तो मिलेगा ही, अभी कहाँ उम्र निकली जा रही है।'


      'नहीं, अनिल मैं तीन रातों से सो नहीं पा रहा हूँ। ‘दादा, अब आप अपनी मन की बात कहकर हल्के हो गए ना? चलिए कॉफी हाउस कॉफी पीते हैं।'


     क्या इतनी साफगोई आज या कभी किसी रंगकर्मी में आपको देखने-सुनने को मिला? तो ऐसे थे हम सबके सुकेश दा।


      लखनऊ में मेरे मित्रों की इलाहाबाद से ज्यादा संख्या लखनऊ में मेरे मित्रों की इलाहाबाद से ज्यादा संख्या है। उन दिनों लखनऊ आर्टिस्ट फोरम बन चुका था और नियमित रंगकर्म पर कार्य कर रहा था। सोचा, इलाहाबाद में भी क्यों न इलाहाबाद आर्टिस्ट फोरम बनाया जाए? मीटिंग मैंने अपने अल्लापुर वाले आवास पर रखीएक कमरे का मकान, उसी में थोड़ी सी खाली जगह पर दरी चादर बिछाकर अनौपचारिक पहल। बैठक बुलाई। बालकृष्ण मालवीय, परिमल दत्त, असीम मुखर्जी, डॉ. वी.के. मित्तल जैसे वरिष्ठ तक सभी रंगदलों के प्रमुख इस मीटिंग में आए।


    मैंने प्रस्तावना रखा और फोरम के उद्देश्यों से सबको अवगत करायातय हुआ नाम ‘इलाहाबाद आर्टिस्ट फोरम', अध्यक्ष डॉ. बालकृष्ण मालवीय बनाए गए और महासचिव मुझे। उन दिनों समानांतर इंटीमेट थिएटर के सचिव के.के. पाण्डेय थे जो समानांतर आजमगढ़ से जुड़ने की कोशिश कर रहे थे और इलाहाबाद आने पर हम लोगों ने नए खून को सचिव बनाया ताकि कार्य में गति आए सक्रियता नौजवानों के हाथों सौंपी गई। फोरम में कुछ बिन्दुओं पर बातें सार्थक रहीं जैसे सभी दल मिलकर साल भर होने वाले नाटकों के मंचन में नेपथ्य का कार्य (जैसे प्रचार-प्रसार, टिकट की बिक्री, आदि) करेंगे। वर्ष में एक बार नाट्य समारोह होगा, जिसमें सभी दलों की भागीदारी रहेगी। १२ टीमें चुनी जाएंगी। हर महीने एक संस्था को फोरम के बैनर तले नाटक करना होगाजब जो टीम मंचन करेगी तब बाकी ११ टीमें उसके लिए अन्य सभी नेपथ्य का कार्य करेंगी आदि-आदि। चित्रकार अशोक भौमिक ने तुरंत फोरम का एक मोनोग्राम (लोगो) भी बना दिया। कार्य को गति मिल गई। कुछ कार्यक्रम भी हुए और एक नाट्य समारोह भी, जो नार्दन रेलवे इन्स्टीट्यूट हॉल में आयोजित किया गया। समारोह में वादा करके भी कुछ टीमें भाग न ले सकीं। जैसे प्रायः होता है कुछ संस्थाएं धीरे-धीरे कटने लगीं। तब तक उ.म. क्षेत्र सांस्कृतिक केन्द्र का आगमन हो चुका था। हमारे वरिष्ठ साथियों के प्रयास से यह केन्द्र लखनऊ जाने से बच गया। पता नहीं कहाँ से नए रंगकर्मियों में यह बात घर कर गई थी कि यह फोरम उ.म. क्षेत्र सांस्कृतिक केन्द्र का प्रतिद्वन्द्वी संस्थान के रूप में है। यह केवल निष्क्रिय रंगकर्मियों की ही देन थी। धीरे-धीरे कनिष्ठ रंगकर्मी फोरम से कटने लगे। वरिष्ठ एवं उस समय सक्रिय रंगकर्मी परिमल दत्ता जी ने मुझे सलाह दी जानते हो यह बहुभाषीय लघु नाट्य प्रतियोगिता क्यों लगातार अब तक आयोजित होती आ रही है? क्योंकि मास्टरमाइंड एवं कर्ताधर्ता एक ही व्यक्ति हैं। वीरेन्द्र शर्मा। खिचड़ी सरकार न चली है और न ही चलेगी। इसलिए अब अपना सारा श्रम समानांतर में लगाओ जो भी करना है अपनी संस्था समानांतर से करो, अन्यथा तुम्हारा सारा श्रम व्यर्थ जाएगा।'' मुझे परिमल दा की यह बात जंच गई और समानांतर के माध्यम से अपनी योजनाओं को साकार रूप देने लगासमानांतर के अध्यक्ष एवं इ.वि.वि. के जन्तु विभाग के डॉ. पी.के. मंडल की आत्महत्या ने बहुत सारे अनुत्तरित प्रश्न हम सबके सामने छोड़ गए। जिसका उत्तर शायद ही कभी कोई दे पाएगा। लेकिन जो दोषी हैं वे आत्मग्लानि से जरूर अपनी रात की नींद हराम कर चुके होंगे। उनके सपनों में आज भी मंडल दा ज़रूर आते होंगे। एक लम्बे अंतराल बाद हम सबके जेहन में समानांतर के अध्यक्ष पद के लिए जो नाम बार बार आया वह था प्रो. अनीता गोपेश काएक दर्शक एवं शुभचिंतक की भांति अनीता जी समानांतर के साथ हमेशा खड़ी दिखती थीं। कुछ शर्तों के साथ उन्होंने समानांतर का अध्यक्ष पद स्वीकारा और समानांतर को एक नई ऊर्जा देने में सहायक हुई और मेरे साथ कदम से कदम मिला कर आज भी चल रही हैं। हमें तथा सारे शहर को हमारे अध्यक्ष पर गर्व है।


      शहर में रामकपूर ऐसे शख्स थे जिनकी मृत्यु पर शान्ताराम विष्णु कशालकर जी ने बड़े आत्मविश्वास के साथ कहा था, ‘खाना तो सब जानते हैं लेकिन खिलाना कोई अगर जानता था तो वे राम कपूर ही थे।'


      राम कपूर राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के प्रथम बैच के विद्यार्थी थी। उन्होंने शायद पूरी शिक्षा ग्रहण नहीं की थी, परंतु अपने को राजकपूर से कम नहीं मानते थे। सुन्दर लम्बे कद के गौर वर्ण का व्यक्तित्व था उनका। सदैव हंसमुख एवं सदा दूसरों की सहायता करना ही उनका मकसद था। हमारे बैंक के वे बहुत मूल्यवान ग्राहक थे। अक्सर बैंक आते और घंटों बैठकर रंगकर्म की बातें करते जिस बैंकिंग काम से आए थे उसे प्रायः भूल जाते और दूसरी बार फिर आते। 'अरे यार भौमिक चेक बुक लेने आया था, वह तो भूल ही गया।' इस तरह रंग संगीत और रंगकर्म की बातों में लीन रहने वाले राम कपूर जी के सहयोग की एक घटना याद आ रही हैभाई अलोपी वर्मा दुलारी बाई नाटक मंचन करने आए थे इलाहाबाद। उन दिनों की उभरती श्री विशम्भर 'मानव' जी की बेटी सुषमा शर्मा दुलारी बाई का रोल कर रही थी। मंचन से एक या दो दिन पूर्व संगीतकार महोदय ने किसी के बहकावे में आकर नाटक में संगीत देने से मना कर दिया। अब आलोपी वर्मा जाएं तो जाएं कहाँ? अपने राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के वरिष्ठ राम कपूर के पास गए और स्थिति से अवगत कराया। रामकपूर जी ने मात्र दो दिनों में दुलारी बाई का पूरा संगीत तैयार किया और मंचन तक साथ रहे। इलाहाबादियों की एक खास बात है दगा भी देंगे और दवा भी देंगे। पहले-पहल जब इलाहाबाद आया था तो एक बात से बहुत परेशान रहता था। उस समय के कुछ वरिष्ठ हो रहे रंगकर्मी सहयोग तो दूसरे की करते थे लेकिन मंचन से दोतीन दिन पूर्व अपनी शर्ते भी लाद देते थे। अगर मानी गई तो ठीक वरना अपने साथियों को खींच लेते थे। ऐसे में बाहर सा आया निर्देशक या शहर के ही किसी दल की क्या स्थिति होती होगी? आज कहाँ हैं वे सब? है किसी के पास इसका जवाब? एक कहावत और प्रसिद्ध है। 'न करब न करन देव, खेल बिगाड़ब'।


      भाई नन्दू ठाकुर और पूजा ठाकुर की सक्रियता उन दिनों धीरे-धीरे परवान चढ़ रही थी। एक पैर रंगकर्म में तो दूसरी फिल्म की ओर। एक फिल्म बनाया भी था। इलाहाबाद के वरिष्ठ रंग अभिनेत्री प्रतिभा वर्मा ने उसमें मुख्य भूमिका भी की थी। देख तो नहीं पाया लेकिन सुना बहुत था। शायद इलाहाबाद के कई वरिष्ठ रंगकर्मियों ने भी नंदू भाई का सहयोग किया था इस फिल्म को बनाने में। बंबई से जब लौटकर आए नंदू तो रंगकर्म में सक्रिय हो गए अपने घर के आंगन को ही रिहर्सल स्थल एवं घर को रंगआश्रम बना दिया। बहुतों की ट्रेनिंग उसी आंगन में होने लगी। हमें याद है शायद रात-रात भर रिहर्सलें वहां होती थीं। पूजा जी उसी तरह रंगकर्म में नन्दू भाई का सहयोग करती जिस तरह मेरी पत्नी चित्रा मेरी करती हैं। पूजा जी एक कुशल अभिनेत्री हैं और मेरी पत्नी भी लेकिन हिन्दी ठीक से बोल न पाने के कारण चित्रा मुख्य भूमिकाएं तो कभी नहीं कर पाईं, हाँ छोटे-छोटे रोलों से नाटक में जान डाल देती थीं और नेपथ्य का सारा काम आज भी उन्हीं के बदौलत चल रहा है। ‘यर्मा' में उन्होंने भूमिका बहुत ही कुशलता से अभिनीत की थी। घर की सहयात्री यदि आपके कामों को सराहे, योगदान दे तो आप सारी दुनिया से लड़ सकते हैं। नंदू भाई को पूजा जी जैसी समर्थ्यवान अभिनेत्री मिलीं जो आज तक सक्रिय हैं। नंदू भाई का नाटक लोग कम देखने जाते थे, उनके द्वारा लगाया गया सेट ज्यादा लोग देखने जाते थे। चलचित्र केन्द्र में कार्यरत होने के कारण तथा फिल्म की ओर रुझान होने के कारण उनका मंच सदा हरा-भरा एवं नए नए प्रयोगों से भरा रहता था। नंदू जी के पास फिल्म में जाने वाले युवाओं का एक जखीरा था। मैं सदा सुबह ७ बजे से पौने दस बजे तक पूर्वाभ्यास करता था। मेरे पास भी इलाहाबाद विश्वविद्यालय के लड़के-लड़कियों का एक जमावड़ा हमेशा रहता है। मेरी रिहर्सलें सुबह होने के कारण बहुत से युवा रंगकर्मी शाम को नंदू भाई के यहां भी अपने सपनों को पूरा करने जाते थे। सुबह मेरे पास विश्वविद्यालय में और शाम को नंदू भाई के पास। देर रात तक। नंदू भाई की आकस्मिक मृत्यु ने इलाहाबाद के रंगकर्म को काफी प्रभावित किया। लेकिन इलाहाबाद के सारे सक्रिय नाट्यदलों ने मिलकर पूजा जी को टूटने नहीं दिया। नंदू जी की स्मृति में स्मृति नाट्य समारोह आयोजित किया गया और करीब करीब सभी नाट्य दलों ने अपने-अपने संसाधनों से उनकी स्मृति को बनाए रखने में सहयोग दिया। इस स्मृति नाट्य समारोह से एक फायदा यह हुआ कि शहर के अब तक के दिवंगत रंगकर्मियों की स्मृतियो में भी नाट्य समारोह हुए और सभी संस्थाओं का बराबर सहयोग मिलता रहा। धीरे-धीरे पूजा जी उबरने लगीं और अपने साथियों के साथ मिलकर उन्होंने ‘नाट्यार्पण' की शुरूआत नंदू भाई की स्मृति में की। देवेन्द्रराज अंकुर, भानुभारती जी पर समग्र नाट्य समारोह भी इसी नाट्यार्पण में हुए और इलाहाबाद के रंगमंच का निरंतर सहयोग उन्हें हर दृष्टि से मिलता रहा। रंगयात्री सक्रिय होता गया।


      इलाहाबाद के रंगमंच पर हिन्दुस्तानी अकादमी का एक अंक आया लेकिन बहुतों की शिकायत रही कि इस अंक में इलाहाबाद के रंगकर्म को सही-सही प्रोजेक्ट नहीं किया गयाएक दिन कम्पनी बाग में टहलते हुए प्रो. जी.के. राय मुझे मिल गए। उनके पास हमेशा बड़ी-बड़ी योजनाएं रहती थीं। कुछ को वे साकार रूप दे पाते थे और कुछ को नहीं। लेकिन सेन्टर ऑफ प्रोफेशनल स्टडीज के मास कम्यूनिकेशन विभाग द्वारा निकाली जाने वाली ‘बरगद' अंक का प्रकाशन उनके सब कामों पर भारी एवं सदैव याद रखने वाली घटना है। रंग समीक्षक भाई धनंजय चोपड़ा (हिन्दुस्तान) अखबार छोड़ तथा भाई एस.के. यादव (अमर उजाला) छोड़कर जी.के. राय का सहयोग करने इस विभाग से जोड़ लिए गएबरगद का एक से एक विशेषांक निकलने लगा। शहर के लोगों से लेकर साहित्यकारों तक को हर अंक का इंतज़ार रहता था, विधिवत विमोचन होता था। टहलते-टहलते हुए उन्होंने मुझे भी ‘बरगद के इलाहाबाद के रंगमंच विशेषांक का उत्तरदायित्व सौंप दिया। मुझे तो इसका वर्षों से इंतजार था। उसी दिन आकर रूपरेखा बनाईं। शहर में शायद ही कोई ऐसा रंगकर्मी हो जिससे सम्पर्क न किया हो। सबने बहुत सहयोग किया। ढेरों फोटोग्राफ्स, ढेरो संस्मरण, ढेरो लेख आने लगे। 'बरगद' में सीमित स्थान था और इलाहाबाद का रंगकर्म अपने सौ से भी ज्यादा वर्ष का पूरा कर चुका था। सबको समेट पाना बहुत मुश्किल लग रहा था लेकिन जितना भी समेट पाया, वह एक यादगार अंक बन गया। आज भी इस अंक को बहुत ही प्यार के साथ खरीदा जाता है और सबसे ज्यादा माँग बरगद के इसी अंक की है‘रंगमंच और सबसे ज्यादा माँग बरगद के इसी अंक की है‘रंगमंच और इलाहाबाद' नाम से बरगद का यह अंक अपने समय के स्केच की प्रस्तुति साबित हुई। बरगद वर्ष २ अंक ३ सिर्फ इलाहाबाद ही नहीं, इलाहाबाद के बाहर के शोधार्थी भी मंगाते हैं और अपने लेखों को इस अंक से समृद्ध करते हैं।


    मुझे फख है कि मैं इस अंक का अतिथि सम्पादक हूँ तथा प्रो. जी.के. राय जी के प्रस्ताव को सही मुकाम तक लाने में कामयाब रहा। उनका मुझ पर भरोसा आखिर रंग लाया जिसमें भाई धन्नजय चोपड़ा एवं डॉ. अजय जैतली का सहयोग मुझे निरंतर मिलता रहा। आज इस अंक को पुन: देख कर लगता है, अभी बहुत कुछ इसमें शामिल होना हैबरगद का इलाहाबाद अंक पार्ट टू की परिकल्पना भी कर रहा हूँ। जो छूट गए उन्हें, जिन्हें छोड़ दिया, उन्हें भी साथ लेकर चलना हैक्योंकि वक्त की आवाज़ है, मिलकर चलो : यह जिंदगी का राज है मिलकर चलो।


                                                                                   (उ.प्र. संगीत नाटक अकादमी से सम्मानित नाट्य निर्देशक)


                                                                                                                                                   समानांतर


                                                                                                सम्पर्क : 333, कर्नलगंज, इलाहाबाद, उत्तर प्रदेश


                                                                                                                                  मो.नं.: 7355185167