'संस्मरण - इलाहाबाद एक इतिहास है तो एक संभावना भी - प्रो. राजेन्द्र कुमार

प्रतिष्ठित कवि-आलोचक, पूर्व विभागाध्यक्ष हिन्दी विभाग, इलाहाबाद केन्द्रीय विश्वविद्यालय शिक्षा : एम.एस.सी., एम.ए. (हिन्दी) कृतियाँ : ‘ऋण गुणा ऋण', 'हर कोशिश है एक बगावत' तथा 'लोहा-लक्कड़ (कविता संग्रह), ‘अनंतर तथा अन्य कहानियां' (कहानी संग्रह), 'साहित्य में सृजन के आयाम और विज्ञानवादी दृष्टि', ‘प्रतिबद्धता के बावजूद', 'शब्द-घड़ी में समय', 'कविता का समय-असमय', ‘कथार्थ और यथार्थ'। संप्रति : स्वतंत्र लेखन


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यह समय वास्तविकताओं से आँखें मिलाने का है, कोरे सपने देखते रहने का नहीं। वास्तविकता यह है कि हम पीछे नहीं लौट सकते। अपने 'इलाहाबादी' होने की कल्पना हम अब अतीत-मुग्ध होकर नहीं कर सकतेपरिवर्तन की अपनी गति है। उसे तो स्वीकार करना ही होगा, लेकिन इस विवेक के साथ कि जिस परिवर्तन को 'विकास' कहकर मनवाया जा रहा है, कहीं वह ‘विकृति' तो नहीं है। आज यह विवेक ही संकट में है। इलाहाबाद में कई ऐसी संस्थाएं हैं, जिन्हें स्थापित करने वाले हमारे पूर्व-पुरुषों के कुछ सपने थे। संस्थाएँ अभी भी हैं, पर उनके पीछे के स्वप्न ध्वस्त हैं। इनमें फिर से प्राण प्रतिष्ठा के लिए आवष्यक है कि कुछ समर्पणशील व्यक्ति इनमें हों, केवल कमाने खाने की नीयत से जुड़ने वाले व्यक्ति नहीं।


    कभी वे दिन थे जब इलाहाबाद सिर्फ एक शहर नहीं था, बल्कि जब भी किसी को साहित्य, संस्कृति और राजनीति की रचनात्मक छवियाँ देखनी होती थीं तो वह इलाहाबाद की आँखों से देखता था। अब इलाहाबाद उन आँखों का रोना क्या रोए? आँखें हो भी तो सवाल उस अंधेरे का है जो चारों तरफ छा रहा है। जूझना पड़ेगा अंधेरे से भी। चिंता करनी पड़ेगी रोशनी की भीऔर तब इलाहाबाद के वजूद को पूरे देश की स्थितियों से जोड़कर देखना होगा।


    इलाहाबाद की बौद्धिकता का गुण यह रहा है कि वह मत -स्वतंत्रता का आदर करना भी सिखाती थी और आत्मीयता का मूल्य पहचानना भी। यह सिर्फ बौद्धिकों का शहर नहीं, बौद्धिकों का ‘एक परिवार' हुआ करता था। अगर हमें सचमुच 'इलाहाबादियत' की चिन्ता है तो उस ‘आत्मीयतापूर्ण परिवार - भावना को अपने में जीवित रखना होगा। भाषा और साहित्य के संदर्भ में हिन्दी और उर्दू दोनों की अंतरंग दोस्ती को बनाए रखना होगा।


   इलाहाबाद का महत्व सिर्फ धार्मिक दृष्टि से नहीं था, बल्कि शिक्षा, साहित्य, कला, राजनीति का भी यह जाना माना केन्द्र था। यह जो आज की सत्ता प्रेरित मुहिम चली है, इलाहाबाद का नाम ‘प्रयागराज' कर देने की - इसके पीछे धर्म की राजनीति के अपने प्रलोभन हैं। इलाहाबाद को ‘प्रयागराज' कर देना इस शहर की व्यापक छवि को संकीर्ण कर देना है। जिस साझा संस्कृति को सजीव बनाए रखने वाली छवि इसकी रही, उसको एक धर्म विशेष से जोड़कर संकीर्ण किया जाना विवेकपूर्ण नहीं लगता।


    इलाहाबाद को अपने विश्वविद्यालय पर बड़ा नाजू रहा। पर अब वह केन्द्रीय होकर भी सच्चे अर्थ में अपना विश्वविद्यालय होना' प्रमाणित नहीं कर पा रहा है। महत्वाकांक्षाएं ज्यादा हैं, संघर्ष में आस्था कम। बकौल फ़िराक - ‘जिसे कहती है दुनिया कामयाबी वाए नादानी/उसे किन कीमतों पर कामयाब इंसान लेते हैं। लेकिन फिर भी मैं आशावादी हूँ। भरोसा है, अपने इलाहाबाद पर। इलाहाबाद एक इतिहास है तो एक संभावना भी। इलाहाबाद की जलवायु में अब भी कुछ है, जो रचनात्मक सक्रियता को जीवन देता है। महानगरों की होड़ में इसे अपनी रचनात्मक जलवायु को प्रदूषित नहीं होने देना चाहिए। एक वक्त था जब शमशेर ने लिखा था - 'यह इलाहाबाद हैदास, नागर, देव से / मेरे लिए इसकी फिजा आबाद है। आज भी नए से नया लेखक और संस्कृतकर्मी, इलाहाबाद में आते बदलाओं के बावजूद, इलाहाबाद में कुछ न कुछ ऐसा जरूर विद्यमान पाता हैकि कह सके -'मेरे लिए इसकी फ़िज़ा आबाद है।' इलाहाबाद में में संगम है तो सिर्फ गंगा-जमुना का नहीं। तहजीबों का संस्कृतियों का भी संगम है। यह संगम बना रहेइसलिए किसी धर्म या मजहब की संकीर्णता को आड़े न आने दिया जाए, यह ध्यान रखना जरूरी है।


   यों तो मुझ जैसों की पीढ़ी के मित्रों के लिए यह एक आम अनुभव है कि शहर अपने चेहरे बदल रहे हैं। इतनी तेजी से, कि कई तो पहचान में भी अब नहीं आते। पर यह इलाहाबाद है। कितना भी बदल गया हो, लेकिन इतना नहीं कि अपनी पहचान एकदम ही खो बैठा हो। मानो, कह रहा है, ‘कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी!'


    लेकिन फिर भी कुछ तो है, जो मिटा है। कुछ पहचानें तो हैं, जो गुम हुई हैं। जब मैं अपने गृहनगर कानपुर से इलाहाबाद आया था, आज से लगभग इक्यावन बरस पहले, तब कोई मकान यहाँ ऐसा नहीं दिखता था, जिसपर खपल की छतें न हों। अब हम उन खपलों से इलाहाबाद को पहचानने की कोशिश करें, तो हमें वह इलाहाबाद अब सिर्फ कहीं- कहीं ही मिलेगा, बहुत सिमटा-सिकुड़ा सा! क्षैतिज विस्तार वाले बंगलों का सिविल लाइंस, अब ऊध्र्वोन्मुख बहुमंजिला इमारतों में जाने कहाँ खो गया! कहाँ ढूढ़ेगे आप उसे ? पहले सिविल लांइस वह जगह होती थी, जहाँ सड़कों पर ज़िदगी धीरे-धीरे चलती थी और सड़क से थोड़ा भीतर घुसने पर काफ़ीहाउस में बहसें जोर -जोर चलती थीं। अब वहाँ कॉफी हाउस में गर्म कॉफ़ी तो आपको मिल जाएगी लेकिन वो गर्मागर्म बहसें कहाँ? अब यहाँ 'मॉल' हैं 'बिग बाज़ार' हैं। अब आपका सामाजिक स्तर (सोशल स्टेटस) तय करने का अधिकार इन्हीं सबको है, उस बौद्धिकता और सहृदयता को नहीं, जिस पर आपको बड़ा नाज़ होता था और जिसके बल पर आप साइकिल से सड़क नापते फिरते थे और कार-कोठी वालों को भी अपने आगे कुछ नहीं समझते थे। तब इलाहाबाद की सड़कें इतनी सादा दिल होती थीं कि खुदब-खुद चौड़ी दिखती थी। ट्रैफ़िक जाम' जैसा कुछ होता नहीं था। लोगों की निजी सवारी ज्यादातर साइकिल होती थी, सार्वजनिक सवारी ज्यादातर तांगा-इक्का या रिक्सा।


    चौक के लोकनाथ मोहल्ले को तब सिर्फ हरी के समोसे, या अन्य दुकानों की मिठाई या भाँग वाली कुल्फी के लिए ही नहीं, 'भारती-भवन' पुस्तकालय के लिए भी जाना जाता था। कंपनी बाग वाली पब्लिक लाइब्रेरी के अड़ोस पड़ोस में शांति विराजती थी। ‘भारती-भवन' अपने आस-पास की भीड़-भाड़ से भी दोस्ती बनाए रखने में कुछ हर्ज नहीं मानता था। अब कंपनीबाग हो या लोकनाथ, आकर्षण के लिए वहाँ इतनी अन्य चीजें आ गई हैं, कि बुद्धिजीवियों के लिए न ‘पब्लिक लाइब्रेरी' उतने आकर्षण का केंद्र रह गई है, न ‘भारती-भवन' लाइब्रेरी!


    कर्नलगंज, पुराना कटरा, ऐलनगंज जैसे मोहल्लों को तब मानो यह ध्यान रहता था कि वे यूनिवर्सिटी के आस-पास के हैं। इसलिए ये सभी मोहल्ले, चौक जैसे मोहल्लों के बरक्स, बहुत ही शांत मोहल्लों' की अपनी छवि बनाए रखना चाहते थे। मुझे याद है, कटरा में तब सड़के ज्यादा चौड़ी न होते हुए भी सँकरी नहीं दिखती थीं। घर ज्यादा थे, दुकानें कम। दुकानें सिर्फ उतनी ही थी, जो बुनियादी जरूरत की चीजों को पास में ही उपलब्ध करा दें। मसलन इक्का-दुक्का आटा पीसने की चकियाँ कहीं दिख जाती थीं, कहीं पनसारी या, दवा की दुकानेंइससे ज्यादा की कुछ जरूरत हों, तो कम से कम ‘नेतराम चौराहे तक का फासला तो तय करना ही पड़ता था। तांगा-इका स्टैंड था कचहरी के पास। कचहरी की दोपहरी भीड़ भाड़ भरी होती थी, तब भी।


    यूनिवर्सिटी रोड पर कुछ होटल थे, ज्यादातर थीं किताबों की दुकानें। भगवतीचरण वर्मा के उपन्यास ‘तीन वर्ष' में जिस होटल का जिक्र होता है, वह ‘जगाती होटल' यूनिवर्सिटी रोड पर ही था। कटरा का जो आज का हाल है, उसे देखकर क्या कोई यह कल्पना कर सकता है कि यहाँ कभी सड़क पर दोनों तरफ गर्मियों में कई घरों के लोग अपनी चारपाइयाँ बाहर बिछाकर सोते होंगे ! कुछ पुराने रिटायर्ड लोग बाहर कुर्सी या बेंच डालकर मोहल्ले वालों के साथ बैठकी लगाते थे। इनमें से एक मेरे नाना भी थे, जिन्हें सबके द्वारा दद्दा' जैसा अपनापेभरा सम्बोधन मिलता था।


    शाम का धुंधलका होने से पहले, सड़क के किनारे अपने किसी ठीहे पर, रिक्से वाले अपने रिक्सों के हैंडिल के आगे मिट्टी के तेल का छोटा सा लैम्प (जिसे वे ‘कुप्पी' कहते थे) जलाने की तैयारी करते दिखते थे। उन दिनों शाम को रिक्सों पर लैम्प न लगाकर चलने का मतलब था- रिक्से वाले का चालान ! जी हाँ, इसे कहते थे ‘पुराना कटरा'। जो पुराना तो है ही नहीं, ‘कटरा' भी अब वह नाम का ही है। वरना चौक जैसे भीड़ वाले इलाके से वह किस माने में कम है? सड़क पर दोनों तरफ दुकानें। किसी मकान के भीतर भी घुसिए तो वहाँ भी दुकानें। ‘अब खुले में बैठने को भूलिए/घर में आँगन की जगह दूकान है!' कम्पनी बाग पहले भी सुबह की सैर की जगह थी/आज भी हैलेकिन अब आज वहाँ सिर्फ हवाखोरी ही नहीं, सुबह-सुबह दवाखोरी भी कर सकते हैं।


    अगर हम साहित्यिक गतिविधियों को याद करें, तो ‘परिमलियों और प्रगतिशीलों' की वह भिड़न्त अब कहाँ हैं? 'परिमल' के इतिहास का अंतिम अध्याय थे केशव चन्द्र वर्मा! वे भी नहीं रहे। कहाँ हैं, अनेक साहित्यिक आंदोलनों का इतिहास रचने वाली वे पत्रिकाएँ- 'नई कविता', 'निकष' ‘क ख ग आदि? कहाँ हैं वो विजयदेव नारायण साही, जो एक चुनौती की तरह होते थे नामवर-जैसों के सामने ? वाक्पटुता की जगह आज वाचालता ने ले ली है। अपने निराला, पंत, महादेवी, फ़िराक़, इलाचन्द जोशी, अश्क, नरेश मेहता, भैरव प्रसाद गुप्त, लक्ष्मीकान्त वर्मा, अमृतराय, एहतिशाम हुसैन, अमरकान्त, मार्कण्डेय, दूधनाथ सिंह आदि का न होना हम महसूस करें, यह स्वभाविक है। यह भी कि शेखर जोशी और अबकी नई पीढियाँ अपनी-अपनी रचनात्मकता की संपृक्तावस्था पर पहुँच रही हैं, पहुँच चुकी हैं। शेखर जी अब इलाहाबाद से बाहर अपने बेटी-बेटों के पास ज्यादा रहते हैं।


    गंभीर साहित्य के प्रकाशन- केंद्र के रूप में भी इलाहाबाद की अगुआई अविस्मरणीय है‘साहित्य भवन', ‘किताब महल’, ‘लोक भारती', 'हंस प्रकाशन', 'सरस्वती प्रेस', आदि से अपनी पुस्तके प्रकाशित होते देखना केवल इलाहाबाद में रहने वाले के लिए ही नहीं, इलाहाबाद से बाहर के राहुल सांकृत्यायन, नागार्जुन, रेणु, अज्ञेय, आदि के लिए भी गौरव की बात होती थी। कुछ ऐसे भी केंद्र थे, जो जितना अच्छी पुस्तके पाने के लिए जाने जाते थे, उतना ही उन केंद्रों के संचालकों के व्यक्तित्व और व्यवहार के लिए भी। जैसे, यूनिवर्सिटी रोड चौराहे पर एक केंद्र हुआ करता था, जहाँ हमें अच्छी पुस्तके खरीदने के लिए सुलभ थीं, तो एक अच्छा इंसान भी जिसे हम सब ‘चचा हकीमुल्ला' कहते थे।


    इलाहाबाद का अब यहाँ साहित्य की राजधानी वाला रूप भले ही न रह गया हो लेकिन फिर भी यह मान बैठना कि बाद की पीढ़ियाँ एकदम निष्क्रिय हो गई हैं, इलाहाबाद के साथ न्याय न होगा। साहित्य के क्षेत्र की कई प्रतिभाएँ अब भी हैं, जो इलाहाबाद की देन के रूप में पहचान पा रही हैंदिल्ली, बम्बई जैसी जगहों के माहौल से तुलना कीजिए तो अब भी इलाहाबाद में साहित्य के नाम पर बड़े ही ‘पारिवारिक भाव' से मिल बैठने वाले लोगों की खासी संख्या है। गोष्ठियाँपरिसंवाद होते रहते हैं। हमारा विश्वविद्यालय भी कोई ऐसी जगह नहीं, जिसके बारे में एकदम से कोई कह दे-‘वीर विहीन मही मैं जानी!' पुराने लोगों के फतवों पर न जाइए, जिज्ञासु विद्यार्थियों से पूछिए तो आपको पता चलेगा, ऐसे अध्यापक अब भी हैं, जो अपने ज्ञान और अध्यापन कर्म के प्रति अपनी निष्ठा से, कम से कम अपने विद्यार्थियो को तो आश्वस्त कर ही लेते हैं।


    इलाहाबाद जैसा भी है, अब भी भरोसे के काबिल हैरचनात्मक उर्वरता अब भी सर्वथा नि:शेष नहीं हुई है। बदलने का अर्थ बंजर होना ही क्यों लिया जाए? बदलाव का शोकगीत लिखने में अपने बीते समय का गौरव अनुभव करने वालों से कहिए कि वे कर सके तो अपनी उदासी को किसी सकारात्मक सक्रियता में परिणत करें। बदला हुआ इलाहाबाद उत्सुक है, रचनात्मक स्तर पर कुछ नए कदम उठाए जाते देखने को। नए कदमों को शिकायतों की नहीं, प्रोत्साहन की जमीन चाहिए और सक्रियता की दिशाएँ भी। ।


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