संस्मरण - “दूसरों की कहानियाँ लिखने वाले लेखकों को यह ज्ञात नहीं होता कि कोई उनकी भी कहानी लिख रहा है।' - लूकरगंज में लेखकों के साथ बचपन की स्मृतियां - प्रतुल जोशी

इलाहाबाद विश्वविद्यालय से अर्थशास्त्र में स्नातकोत्तर। पिछले तीस वर्षों से आकाशवाणी से सम्बद्ध। वर्तमान में आकाशवाणी लखनऊ में कार्यक्रम अधिशासी के पद पर कार्यरत। संस्मरण, कविता, यात्रावृतान्त, व्यंग्य, अनुवाद, कहानी सभी विधाओं में लेखन। आजकल आप उत्तर-पूर्व भारत के विभिन्न इलाकों के बारे में यात्रा वृतान्त लेखन।


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इलाहाबाद छोड़े पूरे तीस बरस हो गए। तीस वर्ष पूर्व १९८८ में आकाशवाणी की नौकरी के चलते इलाहाबाद छोड़ दिया था। लेकिन पिता जी, माता जी इलाहाबाद में ही रहते थे। इसलिए बीच-बीच में इलाहाबाद आना-जाना लगातार बना रहता था। वर्ष २०१२ में माताजी के निधन के पश्चात् जो इलाहाबाद छूटा, तो पिछले कुछ वर्षों में पूरी तरह छूट गया। पिछले छब्बीस वर्षों से लखनऊ में रहने के कारण अब इलाहाबादी कम और लखनौआ ज्यादा हो गए हैं।


     अब इलाहबाद जाने का मन भी नहीं करता। कारण कि पिछले वर्षों में इलाहाबाद के भीतर, देश के अन्य शहरों की तरह व्यापक बदलाव आए हैं। जनसंख्या के दबाव और गांवों से शहरों की तरफ पलायन के कारण शहर में बड़े पैमाने पर आवासीय भवनों का निर्माण हुआ हैशहर जहां पहले दो नदियों के बीच सीमाबद्ध था, अब उसका विस्तार गंगा और यमुना नदी के तटबंधों को लांघकर नए क्षेत्रों में हो गया।


     लेकिन मेरी स्मृतियों से उसी इलाहाबाद की स्थाई छवि अंकित है जो एक लम्बे समय तक अपरिवर्तनशील था। बीसवीं सदी के आखिरी वर्षों तक हम लोग आपस में यह कहते हुए ठहाके भी लगाते थे कि चाहे सारी दुनिया बदल जाए लेकिन अपना इलाहाबाद नहीं बदलने वाला। लेकिन इक्कीसवीं सदी की आहट को जैसे इलाहाबाद शहर ने बड़ी तीव्रता से सुना। सिविल लाइंस से लेकर हम लोगों का मुहल्ला लूकरगंज तक ऐसे बदलने लगे कि लगा जैसे पुराना शहर हमारे हाथों से तेजी से फिसल रहा है।


    नॉस्टेलजिया का अपना आकर्षण है। हजारों साल के मानव समाज की स्मृतियाँ सहेज कर मनुष्य जाति पूरा जीवन गुजार देती है। मेरे पास तो निकट अतीत की स्मृतियाँ हैं। उन स्मृतियों को उसी रूप में देखने की इच्छा के चलते ही बदले हुए इलाहाबाद (अब प्रयागराज) को देखने की इच्छा नहीं होती।


    इलाहाबाद में मेरा बचपन कई मायनों में विशिष्ट था। हम लोग लूकरगंज में रहते थे। लूकरगंज इलाहाबाद पश्चिम विधानसभा क्षेत्र के अन्तर्गत एक मुहल्ला है। यह किन्हीं अंग्रेज लूकर साहब के नाम पर रखा गया है।


    पिछली सदी के साठ के दशक में यहाँ बड़े पैमाने पर बंगाली परिवारों (जो ब्रिटिश राज में चाकरी के लिए बंगाल से आकर यहाँ बसे थे) और सिंधी परिवारों (जो विभाजन के पश्चात् शरणार्थी के रूप में यहाँ आए थे) के मकान थे। इसी लूकरगंज की एक अहातेनुमा रिहाईश में (जो टंडन जी का अहाता के नाम से प्रसिद्ध था) हमारा परिवार रहा करता था।


    हमारे घर से लगभग एक फर्लाग पर भैरव प्रसाद गुप्त जी का मकान था। भैरव जी के मकान से थोड़ा आगे नरेश मेहता जी का मकान था। भैरव जी और नरेश जी के मकानों लगभग समान दूरी पर लूकरगंज से सीमाबद्ध खुसरोबाग रोड पर उपेन्द्रनाथ “अश्क' जी का बड़ा सा बंगला था। अगर लूकरगंज के पूर्वी छोर पर ‘‘अश्क' जी का बंगला थातो एकदम पश्चिमी छोर पर ज्ञानरंजन जी का बंगला था। दोनों के बंगलों के मध्य लगभग डेढ़-दो किलोमीटर की दूरी थी।


    भैरव प्रसाद गुप्त जी, श्री नरेश मेहता और अश्क जी का त्रिकोण ऐसा था कि यह तीनों ही पूर्णकालिक लेखक थे, आधे किलोमीटर के दायरे में रहते थे और तीनों के मध्य आपस में संवाद नहीं था। यह सत्तर के दशक के प्रारंभिक वर्षों की बात थी। हमारी माताजी बताती थीं कि शुरू में ऐसी स्थिति नहीं थी। हमारे माता-पिता का विवाह वर्ष 1960 में हुआ था। माता (स्वर्गीय श्रीमती चन्द्रकला जोशी) एवं पिता (श्री शेखर जोशी) । माताजी का कहना था कि साठ के दशक में अश्क जी और भैरव जी की गाढी छनती थी। फिर किसी बात पर दोनों में ऐसी ठनी कि आपसी संवाद के तार टूट गए। भैरव जी और अश्क जी दोनों के संबंध नरेश मेहता जी से भी प्रारंभ में काफी मधुर थे। लेकिन मेरे होश संभालने तक नरेश जी ने इन दोनों से अपनी दूरी बना ली थी।


    सन् १९६२ के आस-पास भैरव जी ‘‘नई कहानियाँ'' पत्रिका का संपादन करने के सिलसिले में दिल्ली चले गएथे। उस वक्त हम लोगों का परिवार करेलाबाग कॉलोनी में रहता था। भैरव जी के आग्रह पर पापा, करेलाबाग कालोनी से लूकरगंज उनके मकान में रहने आ गए। भैरव जी का मन दिल्ली में ज्यादा दिन नहीं लगा। वह वापस इलाहाबाद लौट आए। उनके लौटने के चलते हमारे परिवार को अब एक नए मकान की ज़रूरत थी। हम लोगों को भैरव जी के पड़ोस में ही १०० लूकरगंज में एक मकान मिल गया था। चूंकि पिता जी का शुमार, भैरव जी के करीबी लोगों में होता था, इसके चलते अश्क जी' का हमारे घर भी आना बंद था। जब मैं हाईस्कूल में पहुंचा तो मैंने महसूस किया कि घर में शहर के बहुत सारे लेखक आते हैं लेकिन अश्क जी कभी नहीं आतेएक दिन मेरा मन हुआ कि अश्क जी से मिलना चाहिए। मैं गवर्नमेन्ट स्कूल से लौटते हुए, सीधे सिविल लाइंस में कॉफी हाउस के बगल में स्थित उनकी दुकान ‘‘नीलाभ प्रकाशन'' पहुंच गया। दुकान में एक सज्जन खड़े हुए थे। मैंने कहा कि मुझे अश्कजी से मिलना है। उन सज्जन ने पूछा कि आप क्यों मिलना चाहते हैं? साथ ही उन्होंने मेरा परिचय पूछा। मैंने कहा कि मैं श्री शेखर जोशी का ज्येष्ठ पुत्र हूँ और आज तक मैं कभी अश्क जी से नहीं मिला। इसलिए मुझे उनसे मिलना हैं। मेरी बात सुन कर वह सज्जन बहुत बहुत खुश हुएउन्होंने कहा कि मैं ही उपेन्द्र नाथ अश्क हूँ। फिर उन्होंने कहा कि, “अरे, तुम तो बहुत बड़े हो गए हो'' मुझे उन्होंने अपनी एक पुस्तक ‘‘चेहरे अनेक भाग-३'' भी भेंट की। कहा, इसे पढ़ कर अपनी राय देना। “अश्क जी'' की किताब मैंने पढ़ी। पुस्तक में 'अश्क' जी ने अपनी सितमजुरीफ़ी का विस्तार से वर्णन किया था। कि किस तरह इलाहाबाद में वहां के स्थापित लेखकों ने उन्हें सताया था। और फिर अश्क जी को भी जब मौका मिला तो उन्होंने भी उन सब को सताने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी। किताब पढ़ने के पश्चात् मैं एक दिन बाद फिर अश्क जी के “नीलाभ प्रकाशन'' पहुँचा। अश्क जी ने उत्सुकता से पूछा ‘‘किताब पढ़ी?''


   मैने कहा “हाँ, पढ़ी।''


   अश्कजी ने फिर पूछा “कैसी लगी?'' मैंने बिना लाग-लपेट के कहा “अश्क जी कुछ समझ में नहीं आया। आखिर आपकी इस किताब में है ही क्या? कुछ लेखकों ने आपको परेशान किया। फिर आपने उनसे बदला लियाइसी का तो वर्णन है।


    एक किशोर के मुँह से अपनी किताब की ऐसी निर्मम आलोचना से अश्क जी को बुरा तो ज़रूर लगा होगालेकिन उन्होंने चेहरे पर कोई शिकन आए बिना कहा “अच्छा यह बताओ, महाभारत में क्या है? उसमें भी तो इसी तरह की चीजें हैं।'' अश्कजी के जवाब से मैं निरूत्तर हो गया। इन दो मुलाकातों के बाद अश्क जी का हमारे घर फिर से आनाजाना शुरू हो गया। एक लंबे अरसे के बाद अश्क जी ने जब हमारे घर आना जाना शुरू किया तो फिर वह खूब आते। उस समय तक भैरव जी भी लूकरगंज के किराए के मकान को छोड़कर बेनीगंज के अपने नवनिर्मित मकान में शिफ्ट हो गए थे। सुबह-सुबह लगभग सात बजे अश्क जी की आवाज़ सुनाई पड़ जाती। तब तक पिताजी भी भारत सरकार के रक्षा मंत्रालय की नौकरी से स्वैच्छिक अवकाश ले चुके थे।


    ‘‘शेखर-शेखर'' अश्क जी की आवाज़ जब हम लोगों के कानों में पड़ती, उस समय तक हम लोग प्रातः बिस्तर में ही होते। पिताजी बड़े आदरपूर्वक अश्क जी का सम्मान करते हुए, उन्हें बैठक में बिठाते । प्रायः अश्क जी पिछली रात लिखी हुई अपनी कोई ताजा तरीन कविता के साथ उपस्थित होते।


    अश्क जी का ५, खुसरो बाग रोड वाला बंगला काफी बड़ा था। कभी -कभी मैं अपने किसी मित्र को लेकर उनके बंगले पर पहुँच जाता। अश्क जी के साथ कौशल्या जी भी मिल जातीं। अश्क जी कुर्ता पैजामा के साथ टोपी पहनते तो कौशल्या जी सलवार कमीज़ में रहतीं। मेरे लिए थोड़े असमंजस की स्थिति रहती जब अश्क जी एक बात बारबार कहते,


     “बेटे, ऐसे नहीं मरूंगा।''


     मेरा मन धृष्टता करने के लिए व्याकुल हो उठता। पूछने का मन करता “अश्क जी, आप कैसे मरेंगे?'' लेकिन मैं अपने ऊपर नियंत्रण रख लेता।


    ‘‘बेटे ऐसे नहीं मरूंगा'' की अगली लाइन होती, " जब तक गिरती दीवारें के एक हजार पेज और नहीं लिख लूंगा। चेहरे अनेक के चार खंड और नहीं लिख लूंगा।''


     नीलाभ का घर का नाम गुड़ा था। अश्क जी की बातों में कभी-कभी नीलाभ का भी जिक्र होता। नीलाभ कुछ वर्ष बी.बी.सी. हिन्दी सर्विस की सेवा में काम कर चुके थे। उन दिनों की याद करते हुए अश्क जी कहते, ‘‘मैंने गुड़ा की बीबी से कहा, इसको बी.बी.सी. लंदन से बुला लो। वहां किसी फिरंगन के चक्कर में आ जाएगा।''


     संभवतः उन्होंने नीलाभ के महिला प्रेम को काफी पहले भांप लिया था। मेरी दुबली पतली काया को देखकर कहते तुम कुछ व्यायाम किया करो। गुड़ा तो काफी एक्सरसाइज़ करता है।'' उनके कुछ जुमले आज भी याद आते हैं। जैसे ‘‘पैसा कमाना इतना आसान नहीं है, मेरी जान'' आदि आदि।


    नरेश मेहता जी के घर का नंबर ९९ लूकरगंज था और हमारे घर का नम्बर १०० लूकरगंज। लेकिन नरेश जी के घर से हमारे घर की दूरी लगभग आधे किलोमीटर की थी। नरेश जी अपने नाम के आगे श्री जरूर लगाते थे। इसलिए उनके घर के बाहर उनकी नेम प्लेट में श्री नरेश मेहता लिखा रहता। नरेश जी का पुत्र ईशान मेरा मित्र था और फुटबाल का अच्छा खिलाड़ी था। दुर्भाग्यवश शादी के एक वर्ष बाद ही उसकी मृत्यु भोपाल इंदौर राजमार्ग पर एक सड़क दुर्घटना में हो गई थी। नरेश जी की एक पुत्री भी है, वान्या। वान्या का घर का नाम बुलबुल था। संभवतः आजकल वह दुबई में रहती है। नरेश जी, अश्क जी की तरह पूर्ण कालिक लेखक थे और उनकी पत्नी महिमा जी लूकरगंज के पड़ोस में हिम्मतगंज में किदवई मेमोरियल गर्ल्स इंटर कालेज में पढ़ाती थीं। उसी कॉलेज में उर्दू के प्रख्यात् आलोचक शम्सुर्रहमान फ़ारूकी की पत्नी प्रधानाध्यापिका थी। नरेश जी वर्ष में एक बार होली के अवसर पर ज़रूर हमारे घर आते। कलफ़ लगी धोती, उसके ऊपर चमकदार कुर्ता। साथ में महिमा जी। दोनों की जोड़ी बहुत आकर्षक लगती। लम्बे चौड़े और खूबसूरत दोनों पति पत्नी। नरेश जी का आना-जाना हमारे घर ही था। वह न तो भैरव जी के घर जाते, न अश्क जी के यहाँप्रायः हर शाम वह लूकरगंज और उससे सटे मुहल्ले खुल्दाबाद के संधि-स्थल पर, खुल्दाबाद की सब्जी मंडी के आढ़तियों और स्थानीय व्यापारियों के साथ बैठकी ज़रूर करते। दरअसल खुल्दाबाद, मुगलों के समय से सराय खुल्दाबाद के नाम से जाना जाने वाला इलाका हैसंभवतः वहां कोई सराय थी, जिसमें देश दुनिया के लोग टिका करते होंगे। यहाँ एक बड़ी सब्जी मंडी हैहम लोग घर की सब्जियाँ, थोक भाव में यहीं से खरीद कर लाते थे। खुल्दाबाद, एक बेहद चलती-फिरती सड़क के दोनों ओर विविध किस्म की दुकानों से आबाद था। खासकर परचून और हलवाइयों की दुकानें वहां की शोभा बढ़ाती थीं। किसी दुकान में गेहूँ और चावल के बोरे सजे रहते तो कहीं स्कूल कॉलेज की कॉपी किताबें मिलती। कहीं मिठाइयां सजी दिखतीं तो किसी दुकान की ख्याति शुद्ध किस्म के कड़वे तेल के चलते थी। इन्हीं दुकानों के मध्य में एक छोटी सी देशी शराब की दुकान शोभा बढ़ाती। जो ‘‘हौली'' के नाम से जानी जाती और जिसके भीतर से निकलते, झूलते और लड़खड़ाते शराबियों के समूह, शाम के समय खुल्दाबाद की सड़कों पर विचरण करते। सब्जी मंडी खुल्दाबाद की शोहरत पूरे इलाहाबाद शहर में थी। इसलिए इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ के चुनाव के दौरान कभी-कभी छात्र मज़ाक में नारा लगाते


    *‘इन्कलाब जिंदाबाद


      सब्जीमंडी खुल्दाबाद।''


      अश्कजी का बंगला खुसरोबाग की मुगलकालीन दीवार के ठीक सामने था। उनके बंगले के गेट के सामने पीठ करके खड़े होने पर खुसरोबाग की दीवार दांई तरफ जहां खत्म होती थी, उस दीवार के बाद ही खुल्दाबाद शुरू होता था। यहां नाई, बकरे के गोश्त, साइकिल और रिक्शे की मरम्मत वाली कुछ दुकानों की लाइन थी जो आगे बांई तरफ मुड़ती थी और खुल्दाबाद वाली मुख्य सड़क का एक किनारा बनाती थी। यह लूकरगंज, खुसरोबाग रोड और खुल्दाबाद का संधि- स्थल था। यहीं शाम को नरेश जी की बैठक मुहल्ले के लोगों के साथ जमती थी। यहां नरेश जी का स्वरूप एक वैष्णवी कवि से बिल्कुल अलग दिखता। अश्क जी का घर नरेश जी की इस बैठकी से मात्र दो सौ मीटर दूर था। लेकिन अश्क जी और नरेश जी के मध्य चुकि संवादहीनता की स्थिति थी, इसलिए नरेश जी की बैठक में अश्क जी के मकान की दूरी कोई मायने नहीं रखती थी। एक बार नरेश जी की इस बैठकी का फायदा मुझे भी मिला। हुआ कुछ यूं कि पिता जी की फैक्ट्री का एक मुस्लिम कर्मचारी एक दिन अपनी चमचमाती साइकिल के साथ हमारे घर हाज़िर हुआ। उस दिन मुस्लिम समुदाय का कोई त्यौहार था। वह महाशय जब हमारे घर से वापस लौटे तो खुल्दाबाद में ताजिए निकल रहे थे। उन्होंने एक जगह साइकिल खड़ी की और आगे बढ़ कर ताजिए छूने चल दिए। इसी बीच किसी ने उनकी साइकिल गायब कर दी। अब वह रूआंसे पुनः हमारे घर तशरीफ़ लाए। पिताजी ने कहा कि तुम इनके साथ जाकर थाने में रिपोर्ट दर्ज करवा दो। मैं उस जगह को देखना चाहता था जहां से साइकिल चुराई गईथी। संयोगवश वह जगह उस स्थान के पास थी, जहां नरेश जी की बैठक जमती थी। वहीं नरेश जी मुझे बैठे दिख भी गए। मैंने कहा कि चाचाजी, यह सज्जन पापा की वर्कशॉप में काम करते है। इनकी साइकिल यहां से किसी ने चुरा ली। नरेश जी ने कहा बेहतर हो तुम इनकी साइकिल की चोरी की रिपोर्ट संबंधित थाने में करवा दो' (उनके हाव-भाव से मुझे यह संदेह हो रहा था कि भाई मैं इसमें क्या कर सकता हूँ)। मैंने सहमति से सिर हिलाया और खुल्दाबाद थाने की तरफ रुख किया। लौटते समय मैं उसी रास्ते से लौटा। जब नरेश जी की बैठकी के समीप से गुजरा तो देखता क्या हूँ कि वर्कशॉप के मैकेनिक साहब की वह चमचमाती साइकिल नरेश जी की बैठकी के पास खड़ी हैमैंने अपनी साइकिल रोकी और नरेश जी के पास पहुँचा। नरेश जी ने चेहरे पर बनावटी रोष के साथ कहा कि वह हज़रत साइकिल पास में ही खड़ी कर, जगह भूल गए थे। और हल्ला मचा रहे थे कि उनकी साइकिल चोरी हो गई। मैं कुछ नहीं बोला और मिस्त्री साहब की साइकिल किसी तरह संतुलन बनाते घर ले आया।


    मुझे यह समझ में आ गया कि नरेश जी से मुलाकात के बाद क्या घटना घटी होगी? दरअसल जब नरेश जी ने साइकिल चोरी का वाकया वहां बैठे मुहल्ले के चौधरियों को बयान किया होगा तो उन्होंने ज़रूर उस इलाके के दागी चोरों को तलब किया होगा और बताया होगा कि वह साइकिल जो चोरी हुई है, अपने जानने वाले की ही है। चौधरी लोगों के दबाव में जिस व्यक्ति ने साइकिल पर हाथ साफ किया होगा, उसने तुरंत साइकिल लाकर वापस कर दी होगी। खैर! मुझे तो नरेश जी की बैठकी के चलते एक व्यक्ति की चोरी गई साइकिल वापस मिल गई।


    भैरव जी से मेरा रिश्ता पिता पुत्र की तरह था। वह लूकरगंज में लम्बे समय तक रहे। वहां उनका कमरा शेष घर से अलग था। भैरव जी उसी कमरे में बैठ कर लेखन में जुटे रहते। एक समय में वह चेन स्मोकर थे। उनके लेखन वाले कमरे में सिगरेट के कार्टन के कार्टन शोभा बढ़ाते । उनके घर ढेर सारे साहित्यकारों का आगमन होता रहता। कई बार, कई साहित्यकारों को लेकर मैं उनके घर पहुंचता। ऐसे साहित्यकार पहले हमारे घर आ जाते। वहां से मैं उन्हें लेकर भैरव जी के घर पहुंचता। भैरव जी विचित्र प्रकृति के स्वामी । कई बार यह हत्थे से उखड़ जाते। यह बिना लाग लपेट के सीधे तल्खु बात कह देते। कन्हैयालाल नंदन जब सारिका के संपादक बने तो वह इलाहाबाद के लेखकों से मिलने पहुंचे। संयोगवश पहले वह हमारे घर आए। हमेशा की तरह हमारे घर से भैरव जी के घर तक उनको ले जाने की ज़िम्मेदारी मुझे ही निभानी पड़ी। नंदन जी के साथ एक दो लोग और थेहम लोग जब भैरव जी के घर पहुंचे तो नंदन जी ने पूछ लिया। " भैरव जी। सारिका कैसी लग रही है ?''


   " भैरव जी। सारिका कैसी लग रही है ?''


    भैरव जी ने अपने सोंटा गुरू अंदाज़ में कहा “कूड़ा निकाल रहे हो।''


    मेरे लिए, नंदन जी के लिए और उनके साथ आए दो अन्य व्यक्तियों के लिए यह बड़ी अजीब सी स्थिति थी। लेकिन नंदन जी ने ऊपरी तौर पर भैरव जी की बात का बुरा नहीं माना और उनके उत्तर पर उनसे मार्गदर्शन देने का अनुरोध किया।


    ऐसे ही एक बार भैरव जी के सुपुत्र जयप्रकाश (जिन्हें हम लोग बाबू दद्दा कहते थे) की पत्नी के प्रसव के दौरान मैं और भैरव जी डफरिन अस्पताल में थे। वहां भैरव जी को किसी नर्स का व्यवहार पसंद नहीं आया। उन्होंने उसकी शिकायत नर्स की सुपरवाइजर से कर दी। हम लोग अस्पताल में बैठे थे कि तभी वह नर्स उपस्थित हो गई।


   "आपने मेरी शिकायत की?'' वह गुस्से में थी।


    मुझे उम्मीद थी कि भैरव जी उसको समझाने बुझाने की कोशिश करेंगे। लेकिन भैरव जी एकदम प्रचंड हो गए।


    ‘‘हां की। तुम एक नंबर की मक्कार हो। कामचोर हो। बदमाश हो।''


    भैरव जी के इस प्रचंड रूप को देखकर उस नर्स ने वहाँ से भागने में ही भलाई समझी।


    लेकिन अपने थोड़े बहुम गर्म मिजाज के बावजूद भैरव जी हम बच्चों से बेहद स्नेह रखते थे। भैरव जी को हम बच्चे ताऊजी कहकर पुकारते थे। उनका घर, हम बच्चों के लिए दूसरा घर होता। ताऊजी, ताईजी, बाबू दादा, मुन्नी इनके इर्द- गिर्द हम लोग दिन-रात धमा चौकड़ी मनाते। भैरव जी ने अपने घरेलू जीवन में बहुत उतार-चढ़ाव देखे थे। युवावस्था में उनकी पहली पत्नी का देहावसान हो गया। फिर उन्होंने दूसरी शादी की। वह पत्नी भी कुछ दिन उनके साथ जीवन बिताने के बाद चल बसी। ताईजी, भैरव जी की तीसरी पत्नी थीं। भैरव जी उनकी बेहद देखभाल करते। कभी जब वह बीमार होती तो उन्हें चम्मच से दवा पिलाते। वह बहुत से दुश्य आज भी मेरे मन में अंकित हैं। भैरव जी के ज्येष्ठ पुत्र (प्रथम पत्नी से) प्रेमांशु दादा हैं। वह लूकरगंज के समीप लीडर रोड पर स्थित भारत' अखबार में पूफ रीडर थे। पिता-पुत्र में अनबन के चलते प्रेमांशु दादा और उनके परिवार का भैरव जी के यहां आना-जाना नहीं था। भैरव जी जब १९६२ में “नई कहानियाँ'' का संपादन करने दिल्ली गए थे और लूकरगंज वाले उनके मकान में हमारे पिताजी-माताजी और मैं (मेरी उम्र उस समय कुछ महीने की थी) रहने लगे थे, उस समय प्रेमांशु दादा भी हम लोगों के साथ रहते थे। इसलिए प्रेमांशु दादा और उनकी पत्नी, हमारे माता-पिता से बेहद प्रेमभाव रखते थे।


   प्रेमांशु दादा और भैरव जी के मध्य कोई संवाद न होने के बावजूद, प्रेमांशु दादा भैरव जी के प्रति कटुता नहीं रखते थे। उनके और उनकी पत्नी के शिकायती तेवर तो होते थे लेकिन उसमें कटुता नहीं छलकती थी। बावजूद इसके कि प्रेमांशु दादा और उनके परिवार की आर्थिक स्थिति बहुत अच्छी नहीं थी और उन्हें काफी आर्थिक दुश्वारियों का सामना करना पड़ता था। प्रेमांशु दादा की स्थिति को देखकर लगता था कि जैसे भैरव जी ने अपने ज्येष्ठ पुत्र को घर निकाला दे रखा था।


   भैरव जी के एक और पुत्र मुन्नीलाल दादा, भैरव जी की दूसरी पत्नी की संतान हैं। वह भारतीय वायुसेना में नौकरी करते थे और हमेशा से इलाहाबाद से बाहर ही रहे। बीच बीच में छुट्टियों में आते थे। हम लोगों के सामने ही उनकी शादी हुई थी।


    भैरव जी लंबे समय तक लुकरगंज में रहे। सत्तर के दशक के अंत में उन्होंने बेनीगंज में अपना निजी मकान बनवाया। जब तक वह लूकरगंज में रहे, हम बच्चे हर दूसरे तीसरे दिन उनके यहां पहुंचे रहते। इतवार का दिन तो हम लोगों के लिए विशेष आकर्षण का दिन रहताक्यूंकि उस दिन भैरव जी के यहां नियमित रूप से मटन बनता। भैरव जी के घर से चंद कदम पर खुल्दाबाद के प्रारंभ में बकरे के गोश्त की दुकान थी। संभवतः भैरव जी भी वहीं से मटन लेकर आते थे।


    भैरव जी अपनी किताबों के मामले में काफी सखुत थे। अगर आप उनके घर से कोई किताब ले आए हैं तो उसको सही समय से उसको लौटाना पड़ता था।


    मैं प्रातः उनसे किताबें मांग कर ले आता और पढ़ने के बाद लौटा देता। कार्ल माक्र्स की ‘‘दास कैपिटल'' का हिन्दी अनुवाद उनके अध्ययन कक्ष की शेल्फ की शोभा बढ़ाती। सफेद रंग की कवर वाली लंबी जिल्द की ‘‘दास कैपिटल'' को भैरव जी ने बड़े स्नेह से मुझे पढ़ने के लिए दिया था, जब मैंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय में स्नातक पाठ्यक्रम के प्रथम वर्ष में प्रवेश लिया था। उस वक्त यद्यपि मैं उसके कुछ शुरूआती पन्ने ही पढ़ पाया।


   पुस्तकों के उनके भंडार से जिस एक बेहतरीन किताब को पढ़ने का मुझे अवसर प्राप्त हुआ, वह थी प्रसिद्ध अमेरिकी पत्रकार जोसफ पुलित्जर की आत्मकथा। किस तरह पुलित्ज़र ने अपने जीवन के आरंभिक वर्षों में जबर्दस्त संघर्ष किया और कैसे वह आगे बढ़े, इसकी दास्तान उस प्यारी सी किताब में थी। भैरव जी पुस्तकें पढ़ने के लिए प्रेरित तो करते थे, लेकिन उनकी यह सदिच्छा भी रहती थी कि पुस्तक ले जाने वाला समय से उनकी किताब वापस कर देइसमें किसी तरह की हीला हवाली किताब ले जाने के लिए भारी भी पड़ सकती थीएक बार ऐसी ही एक घटना का चश्मदीद होने का मुझे अवसर प्राप्त हुआ। हुआ यह कि अमरकांत जी के ज्येष्ठ पुत्र अरूण (जो बाद में अपना नाम अरूण वर्धन लिखने लगे थे), भैरव जी से कोई किताब मांग कर पढ़ने के लिए ले गए थे। उसके बाद वह काफी समय तक भैरव जी के यहाँ नहीं लौटे। उसी दौरान उनकी नौकरी दिल्ली में ‘‘सारिका'' पत्रिका में बतौर उपसंपादक लग गईजब वह अपनी नई नौकरी ज्वाइन करने के पश्चात भैरव जी से मिलने पहुंचे तो में भी साथ था। हम लोगों ने दर्वाजे पर दस्तक दीभैरव जी ने जैसे ही दर्वाजा खोला और सामने अरूण दादा को देखा तो उनके तेवर बदल गए। बजाए किसी रस्मी तौर तरीके के उन्होंने सीधा सवाल दागा, “क्यू, तुम जो किताब ले गए थे, वह वापस लाए हो या नहीं।'' भैरव जी के इस अंदाज से जहां अरूण दादा हतप्रभ थे, वहीं मैं भी उस स्थिति में काफी असहज महसूस कर रहा था।


    अपने व्यक्तित्व के बहुतेरे अन्तर्विरोधों के बावजूद भैरव जी की माक्र्सवाद और मार्क्सवादी सिद्धांतों में अटूट निष्ठा थी। इसी के चलते उन्हें जनवादी लेखक संघ का प्रथम राष्ट्रीय अध्यक्ष चुना गया। जनवादी लेखक संघ की पूरी निर्माण प्रक्रिया उनके बेनीगंज वाले आवास पर ही सम्पन्न हुई। उस दौरान उनके यहां देश के विभिन्न हिस्सों से लेखकों की आवाजाही लगी रहती। कोलकाता से कामरेड इज़रायल, आरा से चन्द्रभूषण तिवारी, बनारस से डा. चन्द्रबली सिंह, हरियाणा से डा. ओम प्रकाश ग्रेवाल, दिल्ली से चंचल चौहान प्रस्तावित संगठन की रूपरेखा तय करने के लिए प्रायः आते। इनमें से अधिकांश लेखक, भैरव जी के घर के पश्चात् हमारे यहां भी आ जाते। पिताजी चूंकि भारत सरकार के रक्षा मंत्रालय में कार्यरत थे, अतएव वह इन बैठकों से दूर ही रहते। इन लेखकों में जहां डा. ओम प्रकाश ग्रेवाल और चन्द्रभूषण तिवारी जी अच्छे डील-डौल के थे, वहीं डा. ओमप्रकाश ग्रेवाल का धीर गंभीर व्यक्तित्व प्रभावित करने वाला होता। कोलकाता में सी.पी.एम. के होलटाइमर कामरेड इज़रायल को प्रायः अपने छोटे कद के चलते भैरव जी के घर का गेट खोलने में दिक्कत होती। जनवादी लेखक संघ की निर्माण प्रक्रिया के दौरान ही सुधीश पचौरी का भी भैरव जी के घर काफी आना-जाना लगा रहता। जिस सक्रियता और उत्साह के साथ, सुधीश पचौरी जनवादी लेखक संघ के गठन की प्रक्रिया में शामिल दिखे, जलेस के गठन के थोड़े दिन पश्चात् वह फिर नज़र नहीं आए। कामरेड इजरायल दुबले पतले और औसत से छोटे कद के थे। चन्द्रभूषण तिवारी जी हमेशा धोती कुर्ता पहने रहते और बड़े सुरीले अंदाज़ में ‘‘बिहारी'' टोन वाली हिन्दी बोलते।


    मेरे जीवन की दिशा बदलने में जिन कुछ लोगों का योगदान है, भैरव जी उनमें सर्वोपरि है। हम लोगों को पढ़ने जा उनम सवापार है। हम लोगों को पढ़ने के लिए बचपन से ही प्रोत्साहित करते थे। जब भी हम लोगों का स्कूल का रिजल्ट आता, रिज़ल्ट लेकर हम लोग पहले पहल ताऊजी के यहां पहुंचते। ताऊजी रिज़ल्ट बड़े गौर से देखते। उनके अध्ययन कक्षा में उनकी एक बड़ी सी राइटिंग टेबुल थी (जो उनके लूकरगंज एवं बेनीगंज दोनों मकानों में थी।) जिस पर काम करते हुए उनका अधिकांश समय गुजरता था। प्रायः वह अपना कोई उपन्यास या कहानी लिख रहे होते। या फिर माया प्रकाशन (जहां उन्होंने कुछ समय नौकरी की) की पत्रिका में छपने के लिए आई किसी स्क्रिप्ट को सुधार रहे होते थे। वह लम्बे से कागज पर बांई तरफ हाशिया डालकर छोटे छोटे अक्षरों में लिखते थे। मेरा बहुत मन था कि उनके इस दुनिया में न रहने पर उनकी राइटिंग टेबल अपने पास रख लें। किन्तु परिस्थितियों का ऐसा चक्र चला कि मैंने इलाहाबाद छोड़ा तो फिर भैरव जी की मृत्यु के पश्चात् उनके बेनीगंज वाले मकान में कई वर्षों पश्चात् ही जाना संभव हो सका।


    वर्ष १९८५ में इलाहाबाद विश्वविद्यालय से स्नातकोत्तर की पढ़ाई के दौरान ही मेरी नौकरी इलाहाबाद क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक में अधिकारी के पद पर लग गई। इस दौरान भैरव जी के यहाँ लगातार आना-जाना लगा रहता था। इन दिनों मुन्नी दीदी (भैरव जी की पुत्री) आकाशवाणी इलाहाबाद में आकस्मिक उद्घोषिका के तौर पर काम कर रही थीं। एक दिन उन्होंने बतलाया कि आकाशवाणी में प्रसारण अधिशासी के पद विज्ञापित हुए हैं। मेरा मन ग्रामीण बैंक की नौकरी में नहीं लग रहा था। मैंने उनसे हासिल जानकारी के आधार पर नौकरी के लिए आवेदन कर दियाअंततः मेरा चयन भी उपर्युक्त पद के लिए हो गयाचयन के पश्चात् एक असमंजस की स्थिति मेरे सामने प्रस्तुत थी। मुझे रेडियो की नौकरी के चलते इलाहाबाद छोड़ना पड़ सकता था। मैं अपने करियर के असमंजस को दूर करने के लिए भैरव जी के पास गया। भैरव जी ने कहा, “बैंक में क्या है? बैंक में तो सिर्फ अंकगणित का खेल चलता हैजोड़ो-घटाओ, घटाओ-जोड़ो। रेडियो में पढ़ने-लिखने का स्कोप बना रहता है।'' एक रहस्य की बात भी उन्होंने कही। ‘‘देखो, रेडियो में काम करने वाले शादी भी कर लेते हैं। कई महिलाओं और पुरूषों ने रेडियो में नौकरी करने के चलते आपस में शादी की है।''


     मैंने भैरव जी की बातों से उत्साहित होकर ग्रामीण बैंक की नौकरी छोड़ने और रेडियो की नौकरी ज्वाइन करने का निश्चय किया। यद्यपि मुझे अपनी जीवन साथी रेडियो के बाहर ही मिली।


     अब इलाहाबाद बहुत कम आना जाना होता है। जबसे उत्तर प्रदेश सरकार ने इलाहाबाद का नाम प्रयागराज कर दिया, इलाहाबाद का यह नया अवतार अपन के गले उतर नहीं रहा। हम तो आज उसी इलाहाबाद को अपने भीतर सहेजे हुए जी रहे हैं जिस इलाहाबाद में हमें फक्कड़पन, स्पष्टवादिता और एक दूसरे से खुलकर मिलने का पाठ पढ़ाया है।


                                                                                                                                                                                 मो.नं.: 9452739500