संस्मरण - छात्र जीवन और इलाहाबाद - अवनीश यादव

जन्म : 10 अगस्त 1995 शिक्षा : प्राथमिक शिक्षा गाँव के विद्यालय से हुई, तत्पश्चात आजमगढ़ जिले के एस. एस. जे. गवर्नमेंट इंटर कालेज पुष्पनगर से हाई स्कूल और इंटरमीडिएट, इलाहाबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय से स्नातक व हिंदी साहित्य से परास्नातक। इसी वर्ष यू.जी.सी. (नेट) व जनवरी 2018 में जे.आर.एफ. उत्तीर्ण। ‘साहित्य विकल्प, सृजन सरोकार, परिकथा पत्रिका व दो लेख संकलनो में लेख/समीक्षा व लघु टिप्पणी प्रकाशित।


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शुरू कहाँ से करूं? यहाँ से कि वहाँ से? या कहाँ से? चलिए यहीं से कर देता हूँ। अगर कहूँ कि इलाहाबाद शहर नहीं; जीवन हैऐसा अकारण नहीं। ग्रामीण अंचल में शिशु के जन्मते ही ‘सोहर' की गूंज तो आपने सुनी ही होगी। ठीक मैंने अपने अंचलों में इस पूँज के साथ-साथ, माताओं या दादी माओं द्वारा शिशु को ‘उबटन' लगाते समय उनके रोने की आवाज को यह कहकर शांत कराते देखा है, ‘चुप-चुप-चुप..., चुप होइ जा लाला, लाला हमार बड़ा होइ के इलाहाबाद पढिहय, लाला हमार कलट्टर बनिहय...' फिर उसी अंदाज में मानो कबूलवाती भी हों, ‘लाला कलट्टर बनबा नय, इलाहाबाद पढ़बा नय...।' अब यह दूसरी बात हैकि शिशु के रुदन को किलकारी में तब्दीली के लिए, माताओं की अपनी संतान के प्रति यह पुचकार/ दुलार/ मनुहार समय के साथ न जाने कितनों की साकार हो पाती है। न जाने कितनों की यह जिज्ञासा, ‘सड़े घूर की गोबर की बदबू से दबकर/ महकजिंदगी के गुलाब की मर जाती है।' अर्थाभाव के कारण केदारनाथ अग्रवाल की पंक्तियाँ आज भी होनहार प्रतिभाओं के सन्दर्भ में चरितार्थ हो रही हैं। और कितने तो पढ़ाई कर रहे हैं वहीं अपने-आस-पास, पर यहाँ आकर उनकी पढ़ने की लालसा धराऊँ कपड़े की भाँति चमक, भीतर-ही-भीतर हुलस कर रह जाती हैं।


    बहरहाल इसे भी स्वीकार करना होगा कि तालीमी महत्व को समझने वाला परिवार अपना पेट काटकर, संतानों को पढ़ने के लिए भेजता है। जहाँ तक बात इस शहर में आने की रही, वैसे दूसरे प्रदेशों या उत्तर-प्रदेश के दूर-दराज जिलों के अधिकतम छात्र इंटरमीडिएट पास कर आते हैं। पर ऐसे भी छात्र हैं जिनके घर की दूरियां कम हैं, या साधन सर्वसुलभ है या परिवार का कोई सदस्य पहले से रह रहा हो, तो ८वीं पास कर या १०वीं पास कर ही इस नगर में आ जाते हैं। जी.आई.सी., सी.आई.सी., बी.एच.एस., सेंट जोसेफ आदि में दाखिला लेना पहली प्राथमिकता होती है।


    इंटरमीडिएट उत्तीर्ण कर आने वाले अधिकतर छात्रों का सीधा प्रयोजन यूनिवर्सिटी में दाखिले से होता है। या यूँ कहें कि उनके शिद्दत से इंतजार का यही प्रवेश द्वार होता है। इंटेंस परीक्षा के उपरांत, बालक अपने गार्जियन या परिचय के किसी व्यक्ति जिसके यहाँ ठहरा रहता है जब वह छोड़ने बस अड्डे या स्टेशन को लिवा जाता है, तो रिक्शे पर से ही दिखाता है, ‘देखो! यही यूनिवर्सिटी है, इसी में पढ़ना है। ये फला गेट है, ये फला गेट है और देखो! ये रहा ‘गुम्बद उसी में घड़ी लगी हुई है। मानो बालक में एक सिहरन पैदा कर जाती है। जो उसे रास्ते भर कचोटती रहती है, ‘कैसे चलती होगीक्लास? कैसे पढ़ाते होंगे प्रोफेसर? बैठने की व्यवस्था कैसी होती होगी? और-और वो गुम्बद पर लगी घड़ी कैसे...?


    इन्हीं सब उहापोह के बीच परिणाम की बेसब्री से प्रतीक्षा कर रहे छात्रों को अच्छी रैंक की सूचना, उन्हें जहाँ खुशी प्रदान करती है, तो साथ-ही-साथ उनके संघर्ष के डगर का बैरियर भी खोलती है। प्रवेश भवन में हजारों की तादात में उपस्थित छात्रों के बीच पसीने से तरबतर कपड़े, चुहचुहाते बदन लिए लाईन में लग, घड़घड़ाते माईक से अपने नाम की पुकार की प्रतीक्षा करना चातक द्वारा स्वाति नक्षत्र के बूंद की प्रतीक्षा के समान होती है। जो उन्हें आगे तालीमी संघर्ष का भरपूर एहसास कराती है। छात्र अपने नाम की पुकार जैसे ही सुनता है, काऊंटर पर फीस अदा कर, मुस्कुराता हुआ एडमिशन कार्ड लहराते हुए, बाहर निकल, फोन पर परिजनों को सूचित किया नहीं कि इलाहाबादी संघर्ष देवता' धीरे से छात्रों के पीछे हो लेते हैं। अब चिंता उसे एडमिशन की नहीं, ठहरने की पड़ती है। एकाएक उसे सूझता है, आस-पास के छात्रों से पूछा जाए–“भाई यहाँ पर रूम किधर मिलता है? प्रतिक्रिया-‘हूँ। किधर की बात पूछते हो, अभी नएहो क्या?' देखो! यहाँ एडमिशन प्राप्त करना, आई.ए.एस. बनना आसान है, पर कमरा पाना बड़ा कठिन' एकबारगी तो उसे यकीन नहीं होता पर दस-बीस दरवाजे खटखटाने और सुसज्जित अक्षरों में टंकित लटकी ताख्तियों 'यहाँ कमरा खाली नहीं है कृपया पूछकर अपना समय नष्ट न करें उसे इस शहर के महत्व और छात्रों की उपस्थिति का एहसास कराता है। जिन छात्रों की मेरिट अच्छी है हास्टलों की ओर रुख करना लाजमी है, पर यहाँ भी स्थिति अच्छी नहीं। २० हजार नए एडमिशन पर सिर्फ ३००० सींटे। वो भी मिलतेमिलते साल का अंत आ जाता है। लेकिन अपना फर्ज तो निभाना ही है। जरा पता क्या करने निकले की सुपरिटेंडेट, वार्डेन से पहले सुपर सीनियर, सीनियर छात्र, नए छात्रों को आँखों नाकों से संघ पहचानने में देर नहीं करते। पूछ बैठते हैं नाम, पूरा नाम, जिला। फिर बड़े गंभीर तरीके से कहते हैं, 'देखो आए दिन यहाँ बवाल, चुनाव यदि तुम्हें पढ़ाई करनी है, कुछ बनना है तो डेलीगेसी सबसे उपयुक्त।' कुछ को यह बात जंचती है, कुछ तो हॉस्टल ही लेते हैंमेरिट, परिचय, जुआ-तिकड़म जिस भी योग्यता से जहाँ भी कमरा मिलता है, अपने नाम का ताला लटकाने में देरी नहीं करते।


     मसलन अब यहाँ पहुँच ही गए हैं, यहाँ के वासी हो ही गए हैं, तो आइए इलाहाबादी जीवन जी ही लिया जाए--


     देर रात तक आँखें फाड़-फाड़ कर पढ़ने वाला यह शहर, ठीक भोर के समय अपनी लम्बी सांसे खींचता हुआ, निद्रा के विशाल सागर में डूबा मिलता हैसुदूर पेड़ की शाख से उठने वाली कोयल की कूक, ठीक गंगा के उस पार किसी बस्ती से आने वाली मुर्गे की बांग, यहाँ तक कि तकिया के नीचे पूरे ख्याल से सेट कर रखी गई अलार्म घड़ी, न जाने कितनी बार अपने प्रारम्भिक प्रयासों में, इन शहर के असली नायकों को जगाने में असफल होती रहती हैपर यह सुबह में अलसाया सा रहने वाला शहर, जब जगता है तो कटरा की सड़कों पर भागता हुआ दही-जलेबी संग जोर की अंगडाई लेता है। अपने इष्ट-मित्रों से हाथ मिलाता, गले लगता छात्रों का यह हुजूम चाय के नुक्कड़ों पर एक हाथ में समाचार पत्रों को तो दूसरे हाथ में महकती, भाप छोड़ती कुल्हड़ की चाय का स्वाद लेता, देश-दुनिया की घटनाओं को वहीं खड़े-खड़े बूझ लेता है। इन्हीं चुस्कियों के साथ राजनैतिक, सामाजिक, साहित्यिक, समसामयिक मुद्दों के बरक्स अपनी ऊँची-ऊँची अवाजों में बहस करता यह खुला मंच, शहर की खूबसूरती का भरपूर एहसास कराता है। ऐसा खुला मंच शायद दुनिया के किसी कोने में न मिले।


    गोया यह बहस सिर्फ कटरा के मुहल्लों या चाय की दुकानों पर ही देखनों को नहीं मिलती, अपितु प्रयाग स्टेशन के प्लेटफार्म से टहलते हुए सलोरी, बघाडा ठीक गंगा के कछार से बाँध के रास्ते होते हुए महाप्राण 'निराला' के मुहल्ले दारागंज और उसके बिल्कुल समीप अल्लापुर। थोड़ा-सा और आगे निकलने पर गंगा-यमुना के विशाल मैदान से सटा चुंगी और सोहबतिया बाग आदि मुहल्लों की गर्मागर्म पकौडीचाय-समोसे, दमआलू की दुकानों पर छात्रों का बहस करता हुजूम देखा जा सकता है।


     यदि घूमने और खाने के उद्देश्य से निकले हो तो क्या कहना? लल्ला की चाय पीते हुए बैंक रोड चौराहे पर उड़ते फव्वारे को भर नजर से देखिए। जिस पर शाम के वक्त गोलाई पर बैठकर, दौड़ते शहर को देखना एक अलग अनुभूति कराता है। उसी के तीरे-तीरे चलकर पुनः आ जाइए लल्ला पर, जो अपना अद्भुत नैसर्गिक सौन्दर्य समेटे गोधूलि के बाद पी.एम. सी. बन जाता हैवही किनारा छोड़िए मत, फुटपाथ पर बिछी किताबों को घूरते-पलटते खरीदते यूनिवर्सिटी की कनखियों से निकलकर पुनः किताब बाजार से होते हुए कटरा में गुम हो जाइएकिताबें खरीदते, मनचाही मुहर बनवाते यदि भूख मचल उठी हो तो ए.एन.झा हॉस्टल के गेट के मुंह पर, ठीक बायीं ओर प्याज, टमाटर, धनिया, जीरा-जवाइन के साथ फेट कर देशी दोने में अख़ुआया चना खा कर, राजू की मीठी चाय पी लीजिए। यदि इससे भी काम न चले तो हाय रे! नेतराम की गर्मागर्म कचौड़ी, या लक्ष्मी टाकीज के पास भुर्ता आलू 


     


का समोसा खा लीजिए। बाजार की हलचल को सँघते हुए, अपनी सुंदरता समेटे खामोश खड़े 'आनंदभवन' में आ जाइए। ग्रहों-नक्षत्रों को समझना हो तो आधे घंटे अंधेरे में बैठकर कुर्सिया तोड़ लीजिए। नेहरू की विरासत को देखकर जैसे ही बाहर निकलिए नाना प्रकार के ठंडाई जूस, आलू की टिक्की अपनी ओर खीचने लगेंगे। यदि वहाँ से निकलिए तो अपनी गोद में पनाह देते हजारों आंदोलनों वाले ‘बालसन चौराहे' को भर आँखों से देखना न भूलिए। पौराणिक धार्मिक लगाव हो तो वहीं शीर्ष पर विराजमान 'भारद्वाज आश्रम' कीसीढियाँ चढ़ जाइए। वहाँ से उतरते समय हाशिमपुर रोड के ठीक नाक के नीचे षटरंगी छतरी तले मिलने वाली ‘फूट आइसक्रीम' या बिल्कुल सामने पैराडाइज के यहाँ भी जायका ले सकते हैं। वहाँ से लाल-नीली बत्ती को देखते हुए दबे पांव निकलकर सदियों का इतिहास समेटे ‘कंपनी बाग', जो शहर का दिल बनके धड़कता है जिसमें खासकर सर्दी के मौसम में किताबें दबाए गुनगुनी धूप का भरपूर स्वाद ले सकते हैं। पर अब संकट है, जो टिकट लग गया। खैर! वहीं गेट के बगल में रोड किनारे, दही-बड़ा का ठेला, फुल्की-टिक्की भी गटक सकते हैं। वैसे इस मामले में जे.टी. के पास का स्थान मशहूर है। प्राचीन सभ्यता, संस्कृति, इतिहास, दर्शन को समझना हो तो संग्रहालय में घुसने से हिचकिए मतवहाँ से ऊब चुके हों तो बाहर निकलिए, एड़ी उठाकर बड़ी आसानी से फोकट में हाथी पार्क में झांक सकते हैं।


     यदि यहाँ तक के सफर से दिल न भर हो तो, पाँव को मत रोकिए। बढ़ चलिए ‘लोकसेवा आयोग' को चूमते, मनौती करते। समर्पण की मिसाल देखना हो तो एकलव्य के पास आ जाइए। थोड़ा और आगे बढ़कर हाईकोर्ट के पास फुटपाथ किनारे लिट्टी-बाटी खा सकते हैं। जो स्वाद के मामले में फाइव स्टार को भी टक्कर देती नजर आती है। वहीं से कुछ दूर पर सिविल लाइंस झिलमिलाता नजर आता है। काफी के साथ साहित्यिक गरमा-गर्म बहसे सुनना हो तो ऐतिहासिक ‘काफी हाउस' में जरूर बैठ जाइए। साहित्यिक किताबों को देखने, पढ्ने, खरीदने की रुचि हो तो बगल में दरबारी बिल्डिंग की सीढ़ियाँ चढ़ जाइए। आगे निकलकर सुभाष चंद्र बोस को नमन कर शहर की केन्द्रीयता का अंदाजा लगा सकते हैं। मूवी देखना हो तो मित्र मण्डली के साथ पी.वी.आर. में पॉपकॉर्न खरीद, कोई सेफ्टी कार्नर पकड़ बैठ जाइए। कम बजट हो तो ‘राज करन' से भी स्वाद लिया जा सकता हैपर वहाँ से निकलकर ‘लक्ष्मी बुक स्टाल' से पत्रिका खरीदकर पढ़ने का अपना अलग स्वाद होता है। बिग बाजार, पी.वी.आर. आदि बड़े-बड़े मॉल में देख-टहल कर आँखें थक गई हो तो, शहर की प्राचीनता को देखने की ओर मुड़ जाइए। ठीक जानसेनगंज की भीड़-भाड़ को चीरते हुए, चौक की तंग गलियों का सफर, घंटाघर की भव्यता, वहीं रास्ते में मौजूद ऐतिहासिक नीम का पेड़, जिसकी कहानियां सुनहरे शब्दों में दुर्ज हैंनकासकोना से गुजरते हुए सुलाकी की दुकान तक की जद्दोजहद, वहीं रसमलाई से अगर मन उबने लगे तो साहित्य की भरभूर सामग्री समेटे ‘साहित्य भंडार' प्रकाशन के यहाँ आ बैठिए। यदि अब भी मन न भरा हो तो वहाँ से सेफ्टी कार्नर पकड़े, सीधे मेडिकल चौराहे का डोसा खाना कतई मत भूलिए। थोड़ा और आगे निकलकर सी.एम.पी. कालेज के पास का देहाती रसगुल्ला' हाय रे! अगर अब शहर की ची-चा-चू से मन उचटने लगे तो बिल्कुल हैरान न हो। बढ़े चले आइए प्रकृति की गोद की ओर। ‘सरस्वती घाट' या ‘अकबर के किले' के विशाल मैदान में आकर एक चुरमुरे' का देशज कोन लेकर, गंगा की स्वर्णता, यमुना की श्यामलता और सरस्वती की अदृश्यता को निहारते हुए, घाटों पर बैठकर फॉकते रहिए। यदि दिल अविरल धारा को स्पर्श करने या साइबेरियन पक्षी को दाना चुगाने का कहे, तो चाचा-भईया-दादा कहकर, अपने जेब के वजन के हिसाब से, किसी मल्लाह को पटा लीजिए। जब चित्त शांत हो जाए तो बढ़ चलिए कमरे की ओर, जहाँ किताबें बेसब्री से इंतजार कर रही हैं।


     कमरा से याद आया इलाहाबादी छात्रों का कमरा हास्टल का हो या डेलीगेसी, बहुत बड़े की अपेक्षा मत पालिए। एक तख्त, कुर्सी, मेज अंट जाए वही बहुत है। ऊपर से पार्टनर अलग। कभी आकर देखिए तो सही, साहब! चौकी ही आधार है, जिस पर आलमारी, टेबल और बिस्तर से अधिक किताबें अटी पड़ी रहती हैं। सो लेटना अलग। सच मानिए! चौकी ही यहाँ के छात्रों की आबरू है। जो अपने नीचे चुपचाप बिना किसी विरोध के कई महीनों तक का सीधा-पानी, मर-मसाला, जीरा-जवाइन, यहाँ तक कि जूते-चप्पल को भी समेटे छिपाए रहती है। इसी चौकी पर बिछने वाली दरी या पतला गद्दा, हाय राम! क्या कहने? ऐसा सुख देता है कि किसी फाइव स्टार होटल में लगा डनलप का गद्दा भी लजा जाए। ‘कुंभकर्ण की नींद' और 'घोड़ा बेचकर सोने' की कहावत भी झेंप जाए। और-और गर्मियों के दिनों में मौसम के भयंकर ताप को कूलर की घासों और पानी से छनकर आनेवाली गीली हवाओं के साथ, दिन में खाने के बाद दो से पाँच एकमुश्त नींद खींचकर, इस ताप को भी इसी चौकी पर काट लेते हैं।


    खाने से याद आया। दिन में दाल-चावल या तहरी छात्रों का प्रिय भोजन हैवह भी अलग-अलग नहीं, बल्कि कुकर में दाल के साथ ही लोटे में चावल पकाने की कला और अनिवार्यता, मानो संविधान के मौलिक कर्तव्य में दर्ज हो। कोई इष्ट-मित्र आ धमका तो, उसी कुकर में दाल-चावल के साथ आलू-उबाल कर चोखा बना लेते हैं। फिर जो व्यंजन तैयार होता है उसे डी.बी.सी. अर्थात ‘दाल-भात-चोखा' कहते हैं। फिर तो इसे चखकर कौन न मुरीद हो जाए। पर रात के भोजन में कोई अनिवार्यता नहींरोज ताजी सब्जियों को, पौने नौ बजे का समाचार सुनते हुए, पार्टनर से समसामयिक मुद्दों पर बात करते हुए, जो प्याज-मसाला पकता है तो फिर पूछिए मत, सिर्फ खाते हुए वाह! वाह! करिएएक नगद बात यह भी प्रायः शादियों के मौसम में मनमाफिक गेस्ट हाउसों पर नजर गढ़ाए रहते हैं। कोट, टाई पहन लजीज व्यंजनों को चखने से पीछे नहीं हटते। कई वाकए ऐसे भी हैं कि खबर पक्की न होने से अन्य समारोह में भी बराती बन बैठे तो पकड़े भी गए। ऐसा सिर्फ इसलिए करते हैं कि कौन कुकर धोने और बनाने का जहमत उठाए।


    अब पढ़ने की बारी, जब सारे लोग सोते हैं तो यहाँ के छात्र जागते हैं। यकीन मानिए! यही इनके पढ़ने का क्रीम टाईम है। जिन छात्रों की यूनिवर्सिटी में क्लास या कोचिंग सुबह है, वो मध्य रात तक ही चलते हैं। जिनकी दोपहर या शाम में है वो दस से चार बजे भोर तक खींचते हैं। यदि सामने कोई परीक्षा लगी हो तो पूछिए मत, सारी नींद, सुख त्याग दिन-रात एक कर, परीक्षा मंथन को समुद्र मंथन की भाँति मथते हैं।


    इलाहाबाद विश्वविद्यालय के छात्रसंघ' का अपना अलग इतिहास है। शहीद पद्मधर के प्रांगण से जिंदाबादमुर्दाबाद के नारे लगाते हुए छात्रों का यह हुजूम शहर में, देश में, प्रदेश के विभिन्न घटनाओं के बरक्स, अपना स्टैंड लेते हुए देखा जा सकता है। यहाँ की प्राचीर से शपथ ग्रहण करने वाला छात्रनेता, दिल्ली तक आ सफर तय करता है, इतिहास गवाह है। नाम गिनाने बैठ जाऊँ तो पेज कम पड़ जाएंगे। दुसरी ओर यहाँ जूनियर और सीनियर के बीच बड़ा अदब और आदब का रिश्ता है। पर इस ग्राफ में कई बार खासकर पी.सी.एस. परीक्षा के निकटता के समय भिन्नता भी देखी जाती है। इस दौरान प्रायः सीनियर कांख में रामचन्द्र गुहा, सुभाष कश्यप की पुस्तक को दबाए, जब यूनिवर्सिटी कैंटीन या भाभी की चाय की दुकान पर चुस्की लेता है तो, जूनियर किताबें देखकर ही होपलेस हो जाता है। फिर परीक्षा बाद सब सामान्य।


    स्नातक या परास्नातक स्तर पर हिन्दी विभाग में एडमिशन लेने वालों की अच्छी खासी तादाद होती है। आखिर हो क्यों भी न, साहित्य और अदब का पूरे भारत में केन्द्र माना जाता है। यहाँ के छात्रों में साहित्य के प्रति रूचि, स्वराज भवन  के गेट के ठीक सामने ‘सबद' से 'गुनाहों का देवता' को पढ़कर जो भाव उठता है, तो सुधा और चंदर की उन गलियों को इलाहाबाद में हूँढता फिरता है। प्रेमचंद के ‘गोदान' को पढ़कर अर्थशास्त्र और हिन्दी विभाग के मध्य बने ‘मेहता पार्क में बैठकर पात्र मेहता की अनुभूतियों का एहसास करता फिरता है। अखिलेश की कहानी ‘चिट्ठी' पढ़कर अध्यापक सदानंद जी को हिन्दी विभाग के हेड की लिस्ट में निहारता रहता है। कवि राजेन्द्र कुमार की कविता ‘अमरकांत, गर तुम क्रिकेटर होते' पढ़कर साहित्य और साहित्यकारों की स्थिति पर गंभीर भी होता है। फिर अपनी वास्तविक ज्ञान वृद्धि में इजाफा के लिए विभाग से लेकर निराला सभागार, वर्धा केन्द्र, हिन्दुस्तानी एकेडेमी, संग्रहालय, साहित्य सम्मेलन, यूनिवर्सिटी गेस्ट हाउस आदि स्थलों की गोष्ठियों, संगोष्ठियों में सम्मिलित होना, इन छात्रों का एक जुनून बन जाता है।


    लेनिन के अनुसार सपने हर इंसान को देखना चाहिए। लक्ष्य सदैव बड़ा बनाकर चलना चाहिए। गोया यहाँ आने वाले हर नवआगन्तुक में इसकी कमी नहीं होती। वह अपने सीनियरों से कहने में हिचकता भी नहीं, ‘देखिए सर! मुझे यहाँ अधिक दिन तक नहीं रहना है, मुझे सिर्फ आई.ए.एस. देना है, पूरी तरह समर्पित होकर। पहले-दूसरे प्रयास में ही ले लेना है। आखिर सिलेबस में है ही क्या? जवाब में सीनियर कुछ अधिक बोलता नहीं, सिर्फ बिल्कुल कहकर, मंद-मंद मुस्कुरा कर ही रह जाता है। वाकई शुरुआती दिनों में नवआगुतक का जुनून देखते ही बनता है। मेज के आस-पास जगने से लेकर सोने तक, मिनट टू मिनट का टाईम टेबुल, विभिन्न दार्शनिकों, विद्वानों की चस्पा की गई प्रेरणादायी सूक्तियाँ, टेबुल पर करीने से सजा कर रखी गई एन.सी.आर. टी. की पुस्तकों, घटना चक्र, इंडिया टुडे आदि आदि। जल्द ही एकाध प्रिलिम्स के बाद स्थितियाँ स्पष्ट होने लगती हैं। इस समुद्र का थाह-अथाह पकड़ में आने लगता है। कई प्रतिभाएं तो दूसरे-तीसरे में ही बाजी मार लेती हैं। कुछ प्रतिभाएं मेंस, इंटरव्यू में एक-दो नंबर की घटतौली से कई दफा मार खाते रहते हैं। ऐसे में समय धीरे-धीरे अर्धकुंभ का पाल्हा छूने लगता है। कुछ पुरनिए प्रतियोगी तो पूरा महाकुंभ गटक कर भी घटनाचक्र पलटने से थकते नहीं। धैर्य और धीरज की मिसाल तो कोई यहाँ के प्रतियोगियों से ही सीखे! जो बेचारे हर वैकेंसी में अपनी एक फिक्स सीट समझकर, किताबों में आँखें गड़ाए रहते हैं। एक अद्भुत पहचान और–यदि गाँव में होली, दशहरा, दीपावली पर असमय सिर का बाल झड़ा कोई दिख जाए, तो समझिए कि लड़का इलाहाबाद से आया है।


    खासकर होली और दीपावली पर पूरे शहर में सन्नाटा छा जाता है। दुकानदारों की दशा ऐसी कि मानो मैय्यत पड़ी होहॉस्टल से लेकर डेलीगेसी तक सन्नाटा काट खाने को दौड़ता है। वाकई छात्रों का इस शहर में, महत्त्व के आकलन का उचित समय यही है। कसम से दुकानदार माछी मारने की स्थिति में आ जाएमकान मालिकों की सारी हेकड़ी गुम हो जाए। ए.सी. से निकलकर कारखानों में भागने पर मजबूर हो जाए।


    त्योहार के बाद सीधा-पताई, खर्चा-खोराकी के साथ पुनः अपनी संघर्ष की दुनिया में वापसी। पर एक चीज का मलाल लेकर लौटता है, माता-पिता से अधिक पड़ोसी और नात-रिश्तेदार द्वारा पूछी गई बात का, ‘का बाऊ अबहिन केतनी पढ़ाई बचल हव, नौकरी पावय में।' मानो छात्र निरुत्तर ! काटो तो खून नहीं। अब वह कैसे समझाए प्रदेशदेश में नौकरी के खस्ताहाल को? कैसे बताएं कि एक नौकरी के विज्ञापन से लेकर रिजल्ट और ज्वाइंनग तक तीन-तीन साल लग जा रहे हैं? कौन बताएं कि हर वैकेंसी के सारे सुनियोजित चरण को पूरा करने के बाद, अंतिम चरण में हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट का आ धमकना शगल बनता जा रहा है। घर-परिवार की तरफ से बढ़ते समय के साथ-साथ एक चीज और देखने को मिलती है। पहली बार में माँ द्वारा बांधी गई गठरी धीरे-धीरे अपना आकार ही नहीं, स्वरूप भी खोती जाती हैदूसरे-तीसरे साल तक आते-आते घी, नाना प्रकार के आचार, तेल सब विलुप्त से हो जाते हैं। मनीआर्डर जो पहले साल, माह पूरा होने की अवधि से पहले आ जाता था, वही अब हाँफते-डाफते दूसरे माह के दूसरे-तीसरे सप्ताह में आ जाए तो आश्चर्य नहीं।


    यद्यपि छात्र सब कुछ जानता है। जवाबदेही के डर से वह घर जाना भले ही कम कर देता है; पर सारी परिस्थितियों के बावजूद भी अपना हौसला कम नहीं करता। चट्टान की भाँति लक्ष्य पर अडिग हो सतत लगा रहता है। इन संघर्षों के बीच अपने छात्र मित्रों के साथ जब जगराम चौराहे, हीरा हलवाई, लल्ला की दुकान से देशी घी का लड्डू खरीदता, खिलाता-खाता और रात में पटाखे छोड़ता दिख जाए, तो समझ लेना किसी आयोग का रिजल्ट आया है जिसमें वह गाँव का, किसान का, कर्मचारी का, मजदूर का बेटा सफल हुआ है। ताबड़तोड़ इसी दिन खुशी उमंग और उल्लास भरे वातावरण में, हास्टलों, डेलीगेसियों में बाकी बचे रह गए छात्रों के बीच, आगे की वैकेंसी को क्लीयर करने के लिए मैराथन मटिग होती है। फिर अपनी-अपनी दुनिया में सब लीन।


                                                                                                                   सम्पर्कः 63/7/20 अल्लापुर, इलाहाबाद (प्रयागराज)-211006


                                                                                                                                                                     मो. नं.: 9598677625