जन्म जनवरी 1957 में उत्तर प्रदेश के जनपद मऊ के गांव बड़ागांव में। आगरा विश्वविद्यालय के प्रसिद्ध साहित्य संस्थान के.एम.आई. से हिंदी भाषा और साहित्य में स्नातकोत्तर पी-एच.डी.। अमृत प्रभात, आज, अमर उजाला, डीएलए, डीएनए जैसे प्रतिष्ठित दैनिक समाचारपत्रों में शीर्ष जिम्मेदारियां संभालने के बाद इस समय लखनऊ में जनसंदेश टाइम्स के प्रधान संपादक के रूप में कार्यरत।
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तब इलाहाबाद आज की तरह कंक्रीट के जंगल में नहीं बदला था। बंद दरवाजों और सँकरी खिड़कियों की घुटन से मुक्त शहर खुली हवा में अपने फेफड़े पूरी तरह भरने को आजाद था। किसी भी सड़क पर खड़ा होकर कोई भी अजनबी पेड़ों की पत्तियों के बीच से झरती सफेद धूप में नहा सकता था। घनी बस्तियां और ऊंची अट्टालिकाएं न होने से सबके पास अपना पूरा आकाश था। पुराने इलाहाबाद में प्रमुख सड़कों के किनारे होटल या कोठियां नहीं थीं। जो बंगले थे. वे इस तरह बनाए गए थे कि सड़कें बगैर किसी मुश्किल के एक स्वस्थ दिल की तरह धड़कती रहें। यह शहर एक शहर से ज्यादा बहस के लिए खुले विचार की तरह लगता था, जो जहां से चाहे अपने रास्ते पर मुड़ जाए। इसी नाते छोटी से छोटी जगह से आया अजनबी आदमी भी इस शहर में आकर कुछ ही दिनों में अफलातून हो जाता था। भाषा, दर्शन और साहित्य पर बातें करने लगता। यह सपनों का शहर था। छोटे या मध्यम परिवारों के बच्चे पढ़ने के लिए जैसे ही इस शहर में दाखिल होते, उनके चाहने वाले, उनके परिजन उनके आलीशान भविष्य के सपनों में डूबने-उतराने लगते । एक न एक दिन बच्चा कलक्टर बनेगा और बग्घी में चलेगा, तब घर-परिवार के सारे दुख-दर्द दूर हो जाएंगे। बच्चों के हृदयाकाश में भी यहां आकर बड़े-बड़े सपने उड़ान भरने लगते । सपने ही नहीं उन्हें पा लेने का जुनून भी अपने आप पैदा हो जाता। खुली और बीहड़ प्रतिस्पर्धा का माहौल थाप्यार भरी प्रतिस्पर्धा। नए विद्यार्थियों को अपने वरिष्ठों से पूरी मदद मिलती थी। हर छात्रावास में कई वर्षों से सपनों का महाभारत लड़ रहे, सिर्फ एक और अंतिम जीत के लिए बार-बार पराजित हो रहे योद्धा मिल जाते थे। उन्हें नए छात्र गुरूजी का सम्बोधन देते और उनसे समर में डटे रहने का मंत्र लेते। हर साल इनमें से कुछ कलक्टर, कुछ डिप्टी कलक्टर, कुछ कप्तान, कुछ कमांडर बन ही जाते। जो बड़े बाबू नहीं बन पाते, वे छोटी सरकारी कुर्सियों पर पहुंच कर जीवन के परम अर्थद्वन्द्व से मुक्त हो जाते।
इलाहाबाद विश्वविद्यालय देश के, खासकर उत्तर भारत के विद्यार्थियों के लिए नालन्दा, तक्षशिला से कम नहीं था। हर तरह की शिक्षा, हर तरह के रास्ते। राजनीति, दर्शन और साहित्य का तो गढ़ ही था। प्रो. राजेंद्र सिंह, डा. मुरली मनोहर जोशी और छोटे लोहिया जनेश्वर मिश्र चाहे जिस ऊंचाई पर पहुंच गए हों, पर हमेशा इसी शहर के नाम रहे। देश के प्रधानमंत्री बनने वाले चन्द्रशेखर इसी विश्वविद्यालय के छात्र रहे। ऐसे में यहां आने वाले मेधावी विद्यार्थियों में से कुछ अनायास ही राजनीतिक पाठशालाओं की ओर मुड़ जाते थे। छात्रहित और छात्र संघ की लड़ाई उनका प्रमुख उद्देश्य होती। खद्दर के कपड़े पहने, झोला लटकाए, हल्की दाढ़ी में दिखना इनकी पहचान थी। यह सर्वविदित था कि जो एक बार इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्र संघ का अध्यक्ष बन जाएगा, वह भविष्य की राजनीति में अपना स्थान पक्का कर लेगा। यह कई मामलों में सच भी था। कुछ इसी वेश में ऐसे नवजवान भी दिखाई पड़ते थे, जिनकी रुचि साहित्य में होती। साहित्य और राजनीति विश्वविद्यालय के मंच पर कुछ इस तरह घुले मिले थे कि उन्हें आसानी से अलग कर पाना कठिन था। वह आपातकाल के बाद का समय था। देश ने आपातकाल की बंदिशों को तो उखाड़कर फेंक दिया था पर राष्ट्रीय राजनीति की प्रयोगशाला में जनता के लिए सिंहासन खाली कराने का जे पी का महान प्रयोग विफल हो चुका था। एक ताकतवर प्रतिरोध की कोख से जन्मी जनता पार्टी अपने नेताओं की महत्वाकांक्षाओं के भीतर से उपजे अंतविरोध के कारण सत्ता में पहुंचते ही बिखर गई औरएक बार फिर उन्हीं ताकतों को जनता ने रास्ता दे दिया, जिन्हें कुछ समय पूर्व तक जनविरोधी, तानाशाही और न जाने क्या-क्या कहा, समझा गया था। परंतु इस परिवर्तन ने राजनीतिक चेतना की ऐसी आग पैदा की कि युवा पीढ़ी बदलाव के वैकल्पिक और स्थाई ३ तौर-तरीकों पर चिंतन-मनन करने लगी थी।
वह ७८-७९ का समय था। आपातकाल के विरोध में आवाज उठाने और जेल जाने के कारण मेरी पढ़ाई-लिखाई का क्रम भंग हुआ, तो फिर कई वर्षों तक पटरी पर नहीं आ सका। घर के लोगों ने प्रायः भगोड़ा घोषित कर दिया था और जिस राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का सिपाही होने के नाते मैं जेल गया था, उसके नेताओं से भी तमाम असहमतियां मेरे भीतर उभर आईं थीं। दरअसल आपातकाल खत्म होने के बाद जिस तरह तमाम कायर और फरार लोग बिलों से निकल आए और अपने संघर्ष और शहादत की झूठी कहानियों के साथ मंच पर छा गए, वह न केवल जनता के साथ बल्कि देश के साथ भी धोखा था और आश्चर्य, वे लोग पुरस्कृत किए जाने के लिए चुने गए। कई तो बड़े-बड़े पदों पर पहुंचे। जिन युवाओं ने असली लड़ाई लड़ी, उनमें से कई राजनीति से अलग हटकर मीडिया में आ गए। बाद में वे बड़े पत्रकार और लेखक बने। अग्रज राम बहादुर राय, प्रबाल मैत्र और मित्र जय शंकर गुप्त तथा मिथिलेश सिंह का नाम लेने में मुझे किचित संकोच नहीं। बेशक देश में ऐसे और युवा भी रहे होंगे। अनिश्चित भविष्य के साथ भटकता हुआ मैं नई कविता के सशक्त हस्ताक्षर और सच्चिदानन्द हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय की कविता धारा के प्रतिनिधि कवि श्री राम वर्मा के सम्पर्क में आया, उनका विद्यार्थी रहा। उन्होंने ही आजमगढ़ की छोटी दुनिया छोड़कर इलाहाबाद जाने की सलाह दी। मैं जब अपने सपनों के साथ इस शहर में दाखिल हुआ तो एकदम अजनबी था। केवल एक नाम था मेरे जेहन में, मेरी पहचान में और वह था कैलाश गौतम। और कोई नहीं था दूर-दूर तकमैं पढ़ना चाहता था, मेरी यह आकांक्षा मुझे विश्वविद्यालय तक ले गई। सरकारी नौकरी के प्रति कोई मोह नहीं था, इसलिए प्रतियोगी परीक्षाओं का कोई चक्कर नहीं पाला, पर साहित्य से लगाव था, उसी क्षेत्र में कुछ करना चहता थाकछ दिन बीतते-बीतते यह लगने लगा कि बिना अच्छी पद पढ़ाई के यहां के साहित्य समाज में टिकना बहुत मुश्किल है। मैंने हिंदी साहित्य में परास्नातक करने का मन बनाया और दाखिला ले लियातब विभागाध्यक्ष थे हिंदी साहित्य में जाने-माने नाम डा रघुवंश। विभाग डा. जगदीश गुप्त, राम स्वरूप चतुर्वेदी, मोहन अवस्थी, सत्य प्रकाश मिश्र, दूधनाथ सिंह, राजेन्द्र कुमार जैसे दिग्गज साहित्यकारों से आलोकित था।
मन में बहुत उत्साह था, पर विकट समस्या थी पैर जमाने की, आवास की, भोजन कीपूरा शहर सांस्कृतिक, साहित्यिक गतिविधियों से सराबोर रहता। कहीं अंधायुग का मंचन, कहीं सितार वादन, कहीं प्रेमचंद के व्यक्तित्व का मूल्यांकन, कहीं कहानी पर चर्चा, कहीं नवगीत गोष्ठीकोई दिन ऐसा नहीं जाता, जब कोई बड़ा साहित्यिक आयोजन न होता हो। विश्वविद्यालय में अलग ढंग की सक्रियता रहती। वाम और दक्षिण चिंतन के महारथी अपने-अपने तरीके से सक्रिय थे। मध्यमार्गी समाजवादियों और भाजपा को मिलाकर किए गए खिचड़ी प्रयोग के नाकाम हो जाने के बाद पैदा हुए शून्य को भरने के लिए वाम और अति वाम विचारों के समर्थक बहुत सचेष्ट होकर अपनी आक्रामक गतिविधियों के साथ सामने आ गए थे। इलाहाबाद विश्वविद्यालय में भी वे बड़ी तादात में अपनी कार्रवाइयों में जुटे हुए थे। आर एस एस से मोहभंग के कारण मेरा झुकाव सहज ही वाम दर्शन कीओर हो गया था। जुल्म, अन्याय के प्रतिरोध की बातें अच्छी लगने लगी थीं, माक्र्स, लेनिन, माओ के क्रांतिदर्शन का परम लालित्य मन में अपनी जगह बनाने लगा था। विवेकानंद और सावरकर के साथ धीरे-धीरे मैं सामाजिक द्वन्द्व, सर्वहारा के उदय और क्रांति की सम्भावित भूमि के सिद्धांतों का पाठ करने लगा, वाम विचारकों की गोष्ठियों में जाने लगा। यहां मुझे अपने ही जैसे अर्थाभाव से परेशान, परिस्थितियों से लड़ते, टकराते हुए, हार न मानने को संकल्पित पढ़ाई-लिखाई के मामले में समर्थ तमाम दोस्त मिले। यह दोस्ती विचारों की कम अर्थाभाव की समस्या से उपजी ज्यादा थी फिर भी इलाहाबाद में छह माह बीतते-बीतते मुझे लगने लगा कि मैं अकेला नहीं हूं। अब हमारी सबकी लड़ाइयां समान थीं और हम सब मिलकर लड़ने की समवेत मन:स्थिति में थे। हमारी भूख भी सामूहिक थी, हमारी प्यास भी और हमारे चिंतन और सोच में भी धीरे-धीरे एक सामूहिकता पैदा हो गई थी।
मेरे दोस्तों में अधिकांश चिंतनशील, लेखक, कवि थे। खुद से टकराते हुए, लहूलुहान होते हुए, फिर भी मुस्कराते हुए। जब हम सब एक साथ जुटते तो सामाजिक अवमूल्यन, राजनीतिक अवसरवाद, शीतयुद्ध से लेकर माक्र्स, लेनिन, काफ्का, ब्रेख्त, मुक्तिबोध, धूमिल तक पर गहरी चर्चा होती। रहने का ठिकाना, पैसा, भूख, भोजन और अच्छा भोजन भी हमारी चर्चाओं में अक्सर मौजूद रहता। ऐसा इसलिए क्योंकि अधिकांश मित्र अर्थाभाव की विकट समस्या से पीड़ित थे। कई गरीब परिवारों से थे, कई घर से ठुकराए हुए। एक-दो मित्रों की सेहत ठीक-ठाक थी, वे हास्टल में रहते, उन्हें हर माह घर से खर्चा आता। पर मित्र धर्म में बंधे होने के कारण वे भी महीना शुरू होने के एक सप्ताह के भीतर ही कंगाल हो जाते। इन्हीं मित्रों के कमरों पर शाम की गोष्ठियां जमतीं, सभी इकट्टे होते और फिर भोजन के वक्त तक या तो किसी तकरार चलती या फिर लोकगीत होते। भूख की समस्या का कुछ अस्थाई हल भी मिलजुलकर हम लोगों ने खोज लिया था। शहर में बड़े और स्थापित साहित्यकारों के अलावा कुछ शिक्षकों, वकीलों और अफसरों को भी खुद के साहित्यकार होने का भ्रम था। साहित्य के खास जलसों में उनको कोई पूछता नहीं तो वे अपने घरों पर मजमा लगाते। ऐसी गोष्ठियों में प्रायः लजीज और भर पेट नाश्ता मिलता। हफ्ते में दो-तीन ऐसे बुलावे मिल ही जाते। यह जानते हुए कि वहां जाकर कुछ असाहित्यिक रचनाएं झेलनी पड़ेगी और उनकी प्रशंसा में तालियां भी पीटनी पड़ेगी, हम सभी बिना गलती के वहां पहुंचते और स्वादिष्ट नाश्ते का आनंद उठाते। जिस दिन ऐसी महफिल हाथ लग जाती, उस दिन हम भोजन की चिंता से मुक्त हो जाते।
मऊ नाथ भंजन में मेरे प्रथम काव्य गुरु रहे नवगीत के सशक्त हस्ताक्षर उमा शंकर तिवारी के कारण मेरी कैलाश गौतम से जान-पहचान हुई थी। उनसे परिचय के कारण मैं अन्य साथियों से थोड़ी बेहतर हालत में था। श्रेष्ठ कवि होने के नाते शहर में उनकी अपनी खास पहचान और प्रतिष्ठा थी। जब किसी दिन कहीं से रोटी का जुगाड़ नहीं बनता दिखता तो मैं सीधे आकाशवाणी पहुंचता। कैलाश एक कवि से पहले एक सम्वेदनशील मनुष्य थे। उन दिनों भी मनुष्य नामक जीव बहुत कम मिलते थे, इसलिए कैलाश मुझे किसी देवदूत से कम नहीं लगते थे। वे मेरा मन, मेरा इरादा बहुत सरलता के साथ पढ़ लेते। पहले समोसे खिलवाते, फिर सारे मित्रों के बारे में पूछते और जब मेरे चेहरे की थकान थोड़ी कम होती, मुझसे कहते, कुछ लिख डालो। कुछ लिखने का मतलब होता, आकाशवाणी से कुछ धन की प्राप्ति। कैलाश गौतम से एक मुलाकात के बाद कम से कम एक सप्ताह परम निश्चितता का नशा तारी रहता। सभी दोस्त प्रसन्न रहते। रचना और विमर्श के लिए अवसर मिल जाता। कैलाश के नाते ही मैं उमाकांत मालवीय, अमर नाथ श्रीवास्तव, जगन्नाथ सहाय जैसे नवगीत के उन कई बड़े नामों से परिचित हो सका था, जो बाद में शम्भुनाथ सिंह के नवगीत दशक और अर्धशती के हिस्से बने। कैलाश ने ही मुझे अपने समय के नामी-गिरामी पत्रकार और भारत दैनिक के सम्पादक डा मुकुन्द देव शर्मा से मिलवाया। शर्मा जी ने मुझसे बिना कुछ पूछ-ताछ किए प्रशिक्षु पत्रकार के रूप में भारत परिवार में शामिल कर लिया। यह आर्थिक आत्मनिर्भरता की दिशा में मेरा पहला कदम था। मुझे हर माह डेढ़ सौ रुपए मिलने थे और मैं खुश था कि अब मैं निश्चित होकर अपनी आगे की योजनाओं के बारे में सोच पाऊंगा पर ऐसा हुआ नहीं। मित्रों की संख्या अच्छी-खासी थी और हममें से किसी की आदत में नहीं था कि किसी की जरूरत हो और कोई पैसा दबा कर रखे रहे। ऐसे में पैसे के लिए भागते रहने का क्रम नहीं रुक सका। इसी बीच रतन दीक्षित सम्पर्क में आए। वे प्रगति मंजूषा नाम से एक प्रतियोगी पत्रिका निकालते थे। विश्वविद्यालय में उसकी बड़ी धाक थी। कहा जाता था कि अगर नियमित रूप से कोई यह पत्रिका पढ़ रहा है तो पीसीएस में तो उसका चयन तय मानिए। रतन वाकई रतन ही थे। गरीब विद्यार्थियों की मदद करना, विचार सम्पन्न और मेधावी छात्रों को पहचानकर उनसे कुछ न कुछलिखवाना, नए उभरते लेखकों, कवियों और चिंतकों को सम्मानपूर्वक बुलाकर अपने घर पर मजमा लगाना उनके प्रिय शगल में शामिल था। अब मैं भी उनकी बैठकों का हिस्सा बन गया। अक्सर छात्र साहित्यकार लिखने के एवज में उनसे अग्रिम पैसा ले जाते और फिर यह जिम्मेदारी रतन की होती कि वे उनसे लिखवाकर अपना कर्ज चुकता करा लें। अपनी इन्हीं आदतों के चलते रतन कब सड़क पर आ गए, उन्हें ही पता नहीं चला। उनकी पुरानी आदतें अब भी गई नहीं हैं।
अब तक हमारे विमर्श केंद्र के रूप में कई ठिकाने तैयार हो चुके थे। ये ठिकाने उन श्रेष्ठ साहित्यानुरागी नागरिकों के आलीशान ड्राइंग रूमों के अतिरिक्त थे, जहां कभी-कभी हम लोग अपनी विशिष्ट वक्तृता या काव्य कला के कारण गोष्ठी और स्वल्पाहार के लिए सम्मानपूर्वक बुलाए जाते थे। अमरनाथ झा छात्रावास में राजेंद्र मंगज का कमरा, ताराचंद छात्रावास में हरीश मिश्र का कमरा, रतन दीक्षित की बैठक और ममफोर्डगंज चौराहे पर स्थित ढाबानुमा रेस्तरां हमारे तीक्ष्ण चिंतन और कला प्रस्तुतियों तथा बहस- मुबाहिसों के गढ़ के रूप में विकसित हो चुके थे। राजेंद्र मंगज और हरीश मिश्र उस मेधा मंडली के अत्यंत महत्वपूर्ण सदस्य थे, जिसने इलाहाबाद के रचना और साहित्य संसार में खलबली मचा रखी थी। अन्य सदस्यों में मेरे अलावा त्रिलोकी राय, पंडित शिव शंकर मिश्र, राजकुमार, मिथिलेश सिंह, के के राय और डा सिंहेश्वर सिंह शामिल थे। उम्र के लिहाज से सिंहेश्वर सिंह हम सबमें वरिष्ठ थे, वे विश्वविद्यालय के विद्यार्थी भी नहीं थे पर वे हमारी मित्र मंडली में एकदम फिट थे। वे अत्यंत प्रतिभाशाली रचनाकार थे लेकिन मिजाज से बहुत ही अक्खड़ और लड़ाकू थे। वे हमारी टीम के कुशल, सक्षम और विवादहीन नेता थे। अग्रज और मानवाधिकार एक्टिविस्ट के तौर पर सक्रिय चितरंजन सिंह और कुशल वक्ता और सम्पादक के तौर पर स्थापित रामजी राय की निगाहें लगातार हमारी खबर लेती रहतीं।
अमरकांत, उपेन्द्र नाथ अश्क, नरेश मेहता, विजय देव नारायण साही, फ़िराक गोरखपुरी, अमृत राय जैसी शख्सियतों के आगे हमारी क्या विसात थी। पर हम सब भी चिनगारी लिए डोलते थे। हम जानते थे कि वरिष्ठ और स्थापित साहित्यकारों का प्रभामंडल भेदे बिना हम नव रचनाकारों की प्रतिभा और क्षमता को उनकी स्वीकृति मिलनी मुश्किल बात थीकेवल नमनवाची और प्रणामी मुद्राएं उन्हें आकर्षित तो करती थीं पर ऐसा करके कोई उनके इतना नजदीक कभी नहीं पहुंच पाता कि उनके साथ साहित्य पर चर्चा कर सके। हम ऐसा करके केवल साहित्यनुरागियों की जमात में शामिल होने को तैयार नहीं थे। हमारी मंडली का हर सदस्य रचनात्मक प्रतिभा से सम्पन्न था, पढ़ाई में कोई कमी नहीं थी, रचनाएं भी प्रकाशित हो रही थीं पर वे बड़े लोग अभी भी हमें साहित्यिक लफाड़ियों से ज्यादा कुछ नहीं मानते थेमैं नहीं कहूंगा कि सभी ऐसा करते थे। परम आदरणीय मार्कंडेय जी, शैलेश मटियानी जी, नीलकांत जैसे कई बड़े साहित्यकार जैसे जी, सत्यप्रकाश जी, दूधनाथ जी अपने घर खुले रखते थे, वैसे ही अपने दिमाग भी। वहां कोई कभी भी पहुंच सकता था, कोई बन्दिश नहीं। जब भी वहां पहुंचो, वे अपने नहीं थी, कोई रोक-टोक नहीं। जब भी वहां पहुंचो, वे अपने सतर्क आलोचक के साथ उपस्थित मिलते। केवल प्रशंसा नहीं, केवल निन्दा नहीं, वस्तुपरक दृष्टि के साथ स्वागत होता था। डा. सिंहेश्वर सिंह की कोई नई रचना जब भाषा या सारिका या किसी और पत्रिका में प्रकाशित होती, वे मुझे साइकिल पर लादे मार्कंडेय जी के घर पहुंच जाते। अक्सर वहां डीपीटी यानि डी पी त्रिपाठी मिल जाते। वे अब शरद पवार की पार्टी में बड़ी जिम्मेदारी सम्भाल रहे हैं। उन्हें सारा इलाहाबाद जीते -जागते विश्वकोश की तरह जानता था। उन्हें धुंधला दिखाई देता था लेकिन क्या मजाल कि कोई पत्रिका बाजार में आ गई हो और डीपीटी की नजर से बच गई हो। जैसे ही डा सिंहेश्वर सिंह और डीपीटी आमने-सामने होते, दोनों मुस्कराते। सिंहेश्वर की मुस्कान का मतलब होता कि कुछ नया है पर डी पी टी की मुस्कान के मायने होते कि उनके लिए नया नहीं क्योंकि वे पढ़ चुके हैं। सिंहेश्वर जी समझ जाते, पूछते, देखा क्या? डी पी टी का जवाब होता, सुबहे- बनारस न? हां, बहुत अच्छा लिखा है। तब तक मार्कंडेय जी आ जाते और हम लोग उनसे बतियाने लगते।
सिंहेश्वर जी के भीतर एक मुक्तिबोध छिपा हुआ था। वे बहुत कम लोगों पर भरोसा करते थे। उन्हें लगता कि शहर के बड़े स्थापित साहित्यकार उनकी प्रतिभा से आतंकित हैं, उन्हें उभरने नहीं देना चाहते। इसीलिए कभी भी वे भूलकर भी उनकी रचनाओं की चर्चा नहीं करते, उन्हें अपनी गोष्ठियों में नहीं बुलाते, उन्हें सिर्फ साहित्यिक लफाड़ियों का सरदार भर मानते हैं। कमलेश्वर जैसे सम्पादक उनकी रचनाओं को अपनी टिप्पणी के साथ प्रकाशित करते हैं, पर इलाहाबाद उसका कतई नोटिस नहीं लेता। डा साहब निश्चय ही अति प्रतिभासम्पन्न रचनाकार थे पर उनका काफी समय अपनी रोटी के जुगाड़ में चला जाता। कई बार कोशिश की पर कहींठहर कर नौकरी नहीं कर सके। बहुत अक्खड़, दो-टूक और कभी-कभी निहायत अश्लील। बड़ी शांति से गालियां बकने में उनका कोई जवाब नहीं था। अपनी इसी सोच के कारण वे शहर के किसी दिग्गज साहित्यकार से मुठभेड़ करने में तनिक संकोच नहीं करते। हम जैसे नए लोग डा साहब के करीब इसीलिए आ गए थे कि वे अपने जुनून में हमारे लिएभी हथियार की तरह साबित होते थे। ऐसे विमर्शो में, जहां बड़े लेखक, कवि, कथाकार उपस्थित होने को रहते, हम नए लिखने-पढ़ने वालों के लिए आम श्रोताओं के अतिरिक्त कहीं जगह नहीं होती। जैसे दिग्गजों को हमारी रचनाधर्मिता और साहित्यिक समझ की कोई दरकार नहीं रहती, वैसे ही हम लोगों को भी श्रोता बनकर बैठना मंजूर नहीं होता। ऐसे मौकों पर डा सिंहेश्वर सिंह या त्रिलोकी राय काम आते। तब केवल स्वीकृति की लड़ाई थी। बड़ों का मौन या उनकी हंसी अस्वीकृति का आभास देती, खिल्ली उड़ाती सी लगती। मुझे लगता है कि यह इलाहाबाद का मिजाज था, कोई अस्वीकार सहन करने को तैयार नहीं होता था। जब सारे जतन बेकार चले जाते, तब इन दोनों में से कोई एक मंच पर जा धमकता और माइक अपने हाथ में ले लेता। इस साहित्यिक उधम ने धीरे-धीरे सबको इस बात के लिए विवश कर दिया कि वे उगते हुए बच्चों की समझ पर भी ध्यान दें। सच मानिए, डा. सिंहेश्वर हों या त्रिलोकी या हरीश या शिव शंकर, हममें से कोई भी जब बोलता, तब सुनने के अलावा कोई और चारा नहीं होता। सभी गम्भीर थे, चिंतनशील थे, सबकी पढ़ाई ठीक-ठाक थी। यह चर्चा होने लगी थी कि ये बच्चे एक दिन हिंदी की दुनिया में उसी तरह छा जाएंगे, जिस तरह धर्मवीर भारती, रवीन्द्र नाथ त्यागी, कमलेश्वर की पीढ़ी छा गई थी।
मेरे मित्रों में हरीश की समझ बहुत साफ-सुथरी थी। पढ़ना, बहस करना, लिखना और अपनी धन सम्बन्धी जरूरतों के लिए कभी भी कुछ अप्रत्याशित, अटपटा कर गुजरना उसके लिए सहज धर्म जैसा था। तब दिनमान अज्ञेय जी के हाथ में था और दिनमान में छपना बहुत बड़ी उपलब्धि हुआ करती थी। हरीश दिनमान की एक आलेख प्रतियोगिता में प्रथम स्थान पर चुने गए थे और उनका वह आलेख प्रकाशित होते ही शहर का पूरा रचना संसार उन्हें पहचान गया थावे ऐसे आम ग्रामीण परिवार से आए थे, जहां साहित्य का कोई अर्थ नहीं जानता था और सबकी आकांक्षा बस बच्चे की एक छोटी सी नौकरी तक सीमित थीपर हरीश बहुत महत्वाकांक्षी थे और वे बहुत बड़े लेखक बनना चाहते थे, बहुत सारा पैसा भी जुटाना चाहते थे। इस द्वंद्व में उनका लेखक पराजित हो गया। बेशक वे मध्य प्रदेश में एक बड़े अफसर की कुर्सी सम्भालते हैं। पैसा और दारू उनके जीवन को जिस तरह रच रहे हैं, उसमें फिर रचना कर्म में वापसी की सम्भावना बहुत क्षीण है। त्रिलोकी राय का व्यक्तित्व सामान्य रूप से बहुत मृदुल और स्नेहिल था। विनम्रता और अकिंचनता उन्हें चाहे जितना झुका ले, तोड़ डाले, वे मर मिटने को तैयार रहते थे पर कोई दर्प और अभिमान से उन्हें कभी झुका पाया हो, मुझे याद नहीं। भाषा, साहित्य और क्रांति पर चर्चा के अलावा किसी तीसरी चीज पर उनका ध्यान जाता ही नहीं था। उन्हें किसी साहित्यिक मंच से बोलते देखना अपने आप में एक अनुभव होता था। जब वे पढ़ रहे थे, तभी पिता बन चुके थे, इसलिए उन्होंने नौकरी में खुद को ढालने का बहुत प्रयास किया, पर बात बनी नहीं। वह लचक उनमें थी ही नहीं। उनका प्रचंड माक्र्सवादी व्यक्ति स्वयं से ही लाचार होकर एक दिन दंडकमंडल लेकर चल पड़ा। वे अब पूर्वी उत्तर प्रदेश में एक बड़े मठ के स्वामी हैं। साहित्य तो उनसे छूट गया पर एक अपक्राति उनके जीवन में घटित हुई, जो अब उनके रचनाकार को निगल चुकी होगी।
राजेंद्र मंगज विलक्षण गणितीय बुद्धि के स्वामी थे। अंग्रेजी साहित्य में भी एमए कर लेने के कारण विश्व साहित्य पर उनकी पकड़ हममें सबसे अच्छी थी। साहित्य के अलावा प्राच्य एवं पाश्चात्य दर्शन की उन्हें गहरी समझ थी। कविता, कहानी पर जब भी बात होती, उनका प्रबुद्ध और सजग विश्लेषक अपनी सम्पूर्ण गरिमा के साथ मौजूद दिखता। अपनी कविताओं और साहित्यिक, सामयिक चिंतन के लिए उस समय इलाहाबाद के बुद्धिजीवी साहित्य चिंतकों में उनकी एक पहचान बन रही थी कि अचानक वे देश की प्रतिष्ठित प्रशासनिक सेवा में चुन लिए गए। कई महानगरों और राजधानियों से होते हुए तीन दशक से भी ज्यादा समय बाद सम्प्रति वे लखनऊ में आयकर आयुक्त के रूप में काम कर रहे हैं। बड़े पद और बड़ी तनख्वाह के बावजूद कई अप्रत्याशित कठिनाइयों ने उन्हें जीवन की दुर्गम पथरीली जमीन पर पटक- पटक कर उनके धैर्य की कठोर परीक्षा ली पर वे टूटकर गलीज रिश्वतखोरों की जमात में शामिल होने से खुद को बचाए रखने में कामयाब रहे हैं। एक बार फिर वे अपनी रचना यात्रा में वापस लौटने की तैयारी में हैं। एक लौ ने बुझने से इनकार कर दिया है तो हमें रौशनी की उम्मीद तो करनी होगी।
डा सिंहेश्वर सिंह के तेजस्वी व्यक्तित्व से साहित्य को ही नहीं, इलाहाबाद को भी बहुत उम्मीद थी, पर कोई नहीं जानता था कि जिम्मेदारियों का एक पहाड़ उनके सिर पर टूट पड़ने का इंतजार कर रहा है। अपने भयावह और दर्दनाक अभावों के बावजूद उनके रचना कर्म की निरंतरता कभी भंग नहीं हुई। उनका एक काव्य संकलन आ चुका था। धर्मवीर भारती को एक चुनौती की तरह उन्होंने एक उपन्यास की रचना की थी, सूरज का आठवां घोड़ा। आर्थिक दिक्कतों के कारण उनकी दोनों पुस्तकों का प्रकाशन स्थानीय स्तर पर हुआ लेकिन प्रकाशक ने उनके प्रचार-प्रसार में कोई रुचि नहीं ली, न ही उनका ताम-झाम से विमोचन हो सका। उनके स्वभाव से नाराज आलोचकों ने भी उनकी लगभग उपेक्षा कर दी। उनमें एक आग थी, जो बहुत ही क्रूरतापूर्वक बुझा दी गई। यह काम उन्हीं लोगों ने किया, जो साहित्य के परम सेवक समझे जाते थे। और रही-सही कसर उनके परिजनों ने तब पूरी कर दी, जब वे उनका इलाहाबाद से अपहरण कर ले गए। पिछली सदी के आठवें दशक में बिहार में जिस तरह अपहरणों का दौर चल रहा था, लगभग उसी तरह उनके जिले कटिहार से कुछ लोग आए और इलाहाबाद के उस सिंह को पिंजरे में डाल कर उठा ले गए। पता चला कि डाक्टर साहब की दो बच्चियां बड़ी हो गईं थीं और अपने लापता बाप के नाते परिजनों के लिए कठिनाई का कारण बनती जा रही थींउसके बाद उनका क्या हुआ, कुछ मालूम नहीं पड़ा। अगर वे होंगे तो ७० साल से ऊपर के होंगे। अभी ज्यादा वक्त नहीं गया है, भगवान करे, वे अभी जगे हुए हों।
मैं खुद तीस साल से भी ज्यादा समय तक पत्रकारिता, योग-तंत्र और रचना कर्म के तिराहे पर खड़ा-खड़ा गुबार देखता रहा, कारवां बहुत आगे निकल गया, तब होश आया। जब तक बड़े अखबारों में सम्पादक रहा, रुककर सोचने का समय नहीं मिलाइलाहाबाद से आगरा आने के बाद 87 से 2009 तक इसी बेहोशी में पड़ा रहा। झूठी मान, प्रतिष्ठा और अर्थहीन अखबारी लेखकीय गरिमा की लहरों पर सवार मैं उसे ही दुनिया की सबसे बड़ी उपलब्धि मानता रहा। पर लहर के एक झटके ने एक दिन मुझे किनारे ला पटका। जब मैं वहां खड़ा हुआ तो कोई मुझे पहचानने वाला नहीं था, मैं स्वयं भी खुद से अपरिचित लग रहा था। अमर उजाला परिवार के आपसी झगड़े में मुझे संस्थान से बाहर होना पड़ा। धीरे-धीरे महत्वहीनता के कोमा से मैं वापस आ रहा हूं और अब खुश हूं कि मेरे पास लिखने-पढ़ने के लिए समय है। राजकुमार और शिवशंकर, केवल दो के भीतर इलाहाबाद कभी नहीं गुम हुआदोनों की पढ़ाई-लिखाई ठीक-ठाक चलती रही। राजकुमार जे एन यू चले गए, वहां उन्हें आचार्य नामवर सिंह का मार्गदर्शन मिला और अब वे काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में प्रोफेसर हैं। नई पीढ़ी के आलोचकों में उनकी गिनती होने लगी है। शिवशंकर ने प्रेमचन्द और बाल्जाक की कथा रचनाओं का तुलनात्मक अध्ययन करके अपनी पहचान बनाई। वे अजीतमल के स्नातकोत्तर हिन्दू महाविद्यालय में हिंदी विभाग के अध्यक्ष हैं और समकालीन कथा मंच पर उनकी महत्वपूर्ण उपस्थिति हिंदी जगत् महसूस कर रहा है। हमारी इस मित्र मंडली के अतिरिक्त पत्रकारिता की दुनिया में भी कुछ अच्छे लोग सम्पर्क में रहे। इलाहाबाद में 80 के आस-पास मैं भारत अखबार से निकल कर जब अमृत प्रभात में आया तो वहां सुधांशु उपाध्याय का साथ मिला। वे बहुत गम्भीर और सम्वेदनशील मित्र थे, एक प्रखर रचना धर्मी भी। पर वे हम लोगों की तरह हल्ला मचाने की जगह चुपचाप अपना काम करने में यकीन रखते थे। नवगीत के आचार्य शम्भुनाथ सिंह ने उन्हें भी नवगीत दशक में शामिल किया। आज के वक्त में सुधांशु उपाध्याय ने देश भर के नवगीतकारों में अपनी श्रेष्ठ रचनाओं से एक पुख्ता जगह बना ली है। वहीं गोपाल रंजन से भी मुलाकात हुई। वे तब एक गजलगो और एक सधे हुए पत्रकार की तरह दिखते थे। अब भी वे उसी भूमिका में हैं लेकिन परिपक्वता के साथ। इलाहाबाद की उर्वर साहित्य भूमि से 20वीं सदी के सातवें-आठवें दशक में उभरी रचना-दीप्ति का प्राण कुछ दियों में अब भी लौ बनकर जल रहा है। भविष्य में हिंदी साहित्य में उनके सार्थक योगदान के प्रति आश्वस्त होने में मुझे कोई गलती नहीं दिखती।
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