संस्मरण' - ऐसे थे गुरु मार्कण्डेय - सन्तोष कुमार चतुर्वेदी

इलाहाबाद विश्वविद्यालय से प्राचीन इतिहास संस्कृति और पुरातव में डी. फिल। पत्रिका 'अनहद' के संपादक। आलोचना के क्षेत्र में एक स्थापित युवा नाम। सम्प्रति- एक महाविद्यालय में एसोसिएट प्राफेसर।


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एक समय ऐसा भी हुआ करता था जब लोग इलाहाबाद को भारत की साहित्यिक राजधानी कहा करते थे। एक से बढ़ कर एक नाम जिनकी रचनाओं से गुजर कर हम रोमांच का अनुभव किया करते थे, इलाहाबाद में रहते थे। छायावाद के चार पायों में से तीन पाए पन्त, निराला और महादेवी वर्मा इलाहाबाद के ही थे। फिर धर्मवीर भारती, हरिवंशराय बच्चन, प्रकाश चन्द्र गुप्त, बी डी एन साही जैसे नामचीन रचनाकारों की एक असमाप्त सूची है। जिस समय मैं इलाहाबाद आया तब का इलाहाबाद साहित्यिक सांस्कृतिक दृष्टि से काफी सम्पन्न था और यहाँ की जमीन काफी उर्वर थी। नई कहानी आंदोलन की त्रयी मार्कण्डेय, शेखर जोशी, अमरकांत अब भी अपना काम सक्रियता के साथ कर रही थीलक्ष्मीकांत वर्मा, केशव चंद्र वर्मा, जगदीश गुप्त, रघुवंश, रामस्वरूप चतुर्वेदी, दूधनाथ सिंह, रविन्द्र कालिया, ममता कालिया, हरीश चन्द्र पाण्डे और अनिल कुमार सिंह जैसे विभिन्न पीढ़ियों के लोग उस अलख को जगाए हुए थे जो इलाहाबाद की अपनी खास पहचान एक अरसे से रही है।


     हालांकि मैं कविताएं लिखा करता था और पूर्वांचल के एक अत्यंत पिछड़े जनपद के अविकसित अंचल से इलाहाबाद आया था, फिर भी अपनी स्थिति से भलीभांति वाकिफ़ था। हिन्दी मेरा विषय कभी नहीं रहा और साहित्य का लिखना पढ़ना बस रुचि का ही मामला था। कवि होने के नाते एक चाह थी कि अपनी भी कविताएँ पत्र पत्रिकाओं में छपे। तब इलाहाबाद से मार्कण्डेय जी कथा नामक पत्रिका निकाल रहे थे जो दो तीन साल में एक बार आती थीइस लेट लतीफी के बावजूद कथा में छपना किसी भी रचनाकार के लिए गर्व का विषय होता था। कथा में छपना साहित्य जगत में एक लेखकीय स्वीकृति जैसा होता था। मैं मार्कण्डेय जी से इसी बावत मिलना चाहता था। मेरा कमरा उसी लॉज में था जिसमें उस समय के चर्चित युवा कवि अनिल कुमार सिंह रहा करते थे। अनिल के यहाँ बोधिसत्व, धीरेंद्र तिवारी, सूर्यनारायण, पीयूष श्रीवास्तव जैसे युवा रचनाधर्मी लोग आया करते थे। ऐसे ही एक दिन मैं युवा कवि बोधिसत्व के साथ मार्कण्डेय जी के यहाँ गया। शुभ्र धवल बाल, गौर वर्ण, ऊँची लेकिन इकहरी कद काठी वाले मार्कण्डेय का व्यक्तित्व ही कुछ ऐसा था, जो मिलने वाले को आकर्षित कर लेता था। सामान्य परिचय होने के बाद मार्कण्डेय जी खुद आवभगत के लिए लडडू ले कर आए और विद्या जी (मार्कण्डेय जी की पत्नी, जिन्हें हम मम्मी कहाकरते थे) को चाय बनाने के लिए कह कर बातचीत करने लगे। कथकड़ी में उनका कोई सानी नहीं था। दूधनाथ सिंह अक्सर उनके बारे में यह कहा करते थे ‘भले ही नामवर जी लेखन में उस्ताद हों लेकिन कथकड़ी में मार्कण्डेय जी का कोई सानी नहीं।' यह बात उनसे मिल कर और बात कर ही महसूस किया जा सकता था। एक से एक दिलचस्प प्रसंगों को जिस रोचक अंदाज़ में वे प्रस्तुत करते वह खालिस उनका अन्दाज़ ही होता। बहरहाल कुछ देर बातें कर जब हम वापस लौटने लगे तो उन्होंने आगे भी मिलते रहने के लिए कहा। हाँ, एक बात जो कहने से छूट गई, वो यह है, कि कवि के रूप में परिचय देने के बावजूद मैं उन्हें अपनी कविता देने का साहस नहीं जुटा पाया। इसमें उनके बौद्धिक आतंक से हदस जाने जैसी कोई बात नहीं थी। पहली ही मुलाकात में जिस सदाशयता और अपनत्व के साथ वे मुझ जैसे अपरिचित और अदने से व्यक्ति के साथ पेश आए, वह दुर्लभ है। कविता न देने के पीछे मेरे खुद का संकोच था, जो इस उहापोह में था कि मेरी कविताएँ कथा में छपने लायक हैं भी अथवा नहीं।


    वैयक्तिक आकर्षण की ही बात कह लीजिए, लगभग एक सप्ताह बाद मार्कण्डेय जी से मिलने के लिए मैं सायकिल से चल पड़ा। तब मार्कण्डेय जी २ डी मिंटो रोड पर रहा करते थे। रत थेइस दिन मैं उनके यहाँ अकेला था इसलिए घर परिवार से ले कर पढाई लिखाई की बातें तफसील से हुई। वे दिन मेरे संघर्ष के दिन थे, जब पिता के आकस्मिक निधन के कारण मैं तमाम परेशानियों का अनुभव कर रहा था। आर्थिक मोर्चे पर भी अपनी लड़ाई मुझे खुद लड़नी थी और साथ साथ अपने पढ़ने लिखने के क्रम को एक तरतीब भी देना था। हाँ, इस दिन मैंने दु:साहस कर अपनी कविता मार्कण्डेय जी के हवाले कर दी। कविता देखने के बाद उन्होंने उसे अपने पास बिना कुछ आश्वस्त किए ही रख लिया और कविता लेखन के क्षेत्र की दुश्वारियों साथ साथ इलाहाबादी काव्य लेखन की पृष्ठभूमि और उसकी सम्पन्नता के बारे में ऐसी बातें बताईं, जिनसे मैं अभी तक अपरिचित था। हाव भाव से मुझे लगा कि कविता उन्हें शायद अच्छी नहीं लगी है लेकिन जब उन्होंने इसे अपने पास कथा की फाईल में रख लिया तब मुझे उम्मीद की कुछ किरणें दिखाई पड़ीं। इसी मुलाकात में उन्होंने कथा के सम्पादन की भी बात की और मुझसे यह कहा कि अगर तुम थोड़ा समय दो तो हम फिर से कथा को निकालना शुरू कर दें। कुछ समय पहले ही वे दिल के दौरे को झेल चुके थे और दिल्ली से ऑपरेशन करवा कर लौटे थे। इस समय तक साहित्यिक पत्रकारिता का मेरा कोई भी अनुभव नहीं था। ले दे कर एक दो कविताएँ अपने नाम थीं और कुछ लेख जिसे गोपाल रंजन ने अमृत प्रभात में काफी महत्व दे कर सम्पादकीय पेज पर छापा था। पत्रिका ग्रुप के अंग्रेजी अखबार नार्दर्न इण्डिया पत्रिका के एक्सक्यूटिव एडीटर शिव कुमार दुबे हमारे गाँव के थे और इलाहाबाद के हमारे लोकल गार्जियन थे। वे भी मुझे लिखने पढ़ने के लिए प्रोत्साहित करते रहते थे।


    एक दो मुलाकातों में ही मार्कण्डेय जी ने कथा की पृष्ठभूमि और उसकी उस विशिष्टता से मुझे अवगत करा दिया जो उसे अन्य पत्रिकाओं से अलग करती थी। देर से आने के बावजूद लोग कथा की प्रतीक्षा करते थे। जब किसी रचनाकार से कथा के लिए हम लिखने का आग्रह करते, वे न केवल इसे स्वीकार करते बल्कि समय पर भेज भी देते। कभी कभार यह भी होता कि लेखक लिखने में देर कर देता, तब भी मार्कण्डेय जी धैर्यपूर्वक उस लेखक के लेख की प्रतीक्षा करते । लेख का तगादा करते हुए वे आम तौर पर इस बात को दोहराते ‘आपके लेख की वजह से ही कथा प्रेस में नहीं जा रही। जब तक आपका लेख नहीं मिलेगा हम प्रेस में जाएँगे भी नहींइसलिए लेख पूरा कर जल्द भेजिए।' इस तरह मन मुताबिक सामग्री जुटाने के बाद ही वे कथा को प्रेस में देते थे। प्रेस से पत्रिका मिलने के पश्चात् उसे भेजने का सिलसिला शुरू होता। साथ ही अगले अंक की योजनाएं भी बनतीं ।


     कोई भी पत्रिका तभी बेहतर कर सकती है जब वहाँ वैचारिक स्तर पर लोकतांत्रिक परम्पराओं का पालन किया जाता हो। जब मैं कथा से जुड़ा तो मेरे मन में एक डर था कि कि क्या वहाँ सम्पादक के कहे अनुसार ही मुझे करना होगा या मुझे भी कुछ करने की छूट होगी। आप इसे मेरी महत्वाकांक्षा भी कह सकते हैं। लेकिन रचनात्मक रूप से सक्रिय होने के कारण अभिव्यक्ति की आजादी मेरे लिए सर्वोपरि थी। गाँव पर रेडियो पर बी बी सी की हिंदी सेवा सुनते हुए उनके कार्यक्रमों पर मैं पत्र द्वारा अपनी राय दियाकरता था। यही नहीं कुछ निबंध प्रतियोगिताओं और कविता प्रतियोगिताओं में भी हिस्सा ले कर खुद को साबित करने के प्रयास में लगा हुआ था। वैसे भी दमघोटू वातावरण में काम कर पाना मेरे लिए सम्भव नहीं था। मार्कण्डेय जैसे बड़े सम्पादक, जो खुद भी एक उम्दा कहानीकार हैं, क्या मुझे इसकी छूट देंगे कि मैं उनके सामने अपनी राय रख सकू। मेरी इन शंकाओं का तब पटाक्षेप हो गया जब कथा के आठवें अंक की योजना बनते समय मार्कण्डेय जी ने न केवल मेरी राय पूछी बल्कि आई हुई रचनाओं के बारे में मेरी राय भी जाननी चाही। मुझे आज भी यह अच्छी तरह याद है कि कुछ नामचीन लेखकों, कवियों की रचनाओं पर मेरी असहमति का उन्होंने पूरा सम्मान किया और उन रचनाओं को कथा में कभी भी शामिल नहीं किया। आज , । जब कई स्तरों पर अपने समाज को देख रहा हूँ, आज जब एक से बढ़ कर एक विद्वान् टाइप के लोगों से दो चार होता हूँ तो उनकी ‘अधजल गगरी से छलकते जल' को देख कर परेशान होता हूँ। सच मानिए ऐसे तमाम टाइप्ड लोग विद्वान् तो क्या मनुष्य तक होने की योग्यताएँ नहीं रखते। हमारा आज का समय तो भारतीय लोकतंत्र का सर्वाधिक त्रासद समय है। प्रख्यात् इतिहासकार प्रोफेसर लाल बहादुर वर्मा ने बातचीत के क्रम में जब यह बताया कि आपातकाल में भी ऐसा भयावह माहौल नहीं था, तब अपने समय की भयावहता का अंदाज होता है। ऐसे में मार्कण्डेय जी का लोकतान्त्रिक अन्दाज़ बहुत मायने रखता है। अगर कथा पत्रिकाओं की भीड़ में अपनी लेट लतीफी के बावजूद शीर्षस्थ रही, तो उसमें मार्कण्डेय जी की इस लोकतांत्रिकता का बड़ा हाथ रहा। लेखकों से कैसे और क्या लिखवाया जाए, यह महारत मार्कण्डेय जी को मालूम थी। कथा एक साहित्यिक और सांस्कृतिक पत्रिका तो थी ही साथ में उसे सामयिक बनाने की एक जो पूर्वसम्पादकीय युक्ति जो उन्होंने ईजाद की थी वह खुद उनकी अपनी थी। कथा का कवर पलटते ही कोई भी पाठक इस पूर्वसंपादकीय से रु ब रु हो सकता था। पत्रिका के क्षेत्र में यह एक ऐसा अभिनव प्रयोग था जिसे मार्कण्डेय जी ने आजीवन निबाहा। आम तौर पर जब कोई पत्रिका हम पलटते हैं तो उसके शुरुआती पन्नों पर विषय सूची और संपादकीय वगैरह से परिचित होते हैं। कथा ने इस परम्परा को तोड़ा। कथा का यह पूर्वसम्पादकीय किसी न किसी ऐसे मसले पर होता था जो ज्वलन्त और दूरगामी हितों वाला होता था। शिक्षा, किसानों की समस्या, धर्म जैसे विषय पूर्वसम्पादकीय में शामिल किए जाते थे। इसमें एक मुद्दे पर तमाम लोगों की राय हो सकती थी या फिर किसी एक विशेषज्ञ लेखक का उस विषय पर लम्बा चौड़ा आलेख हो सकता था। लम्बा मतलब तीस चालीस पृष्ठ तक का। यानी अगर आलेख उम्दा है तो उसकी लम्बाई उसके छपने में आड़े नहीं आती। आज कम्प्यूटर का जमाना है। तमाम लेखक उस पर ही अपना आलेख या कविता कहानी लिखते हैं और कम्प्यूटर महाराज एक एक शब्द जोड़ कर बता देते हैं कि कितने शब्दों का यह आलेख बना। यह मार्कण्डेय जी की सोहबत का ही असर हैकि जब पत्रिका के लिए आलेख लिखने के सिलसिले में कोई लेखक मुझसे शब्द सीमा के बारे में पूछता है तो मैं कहता हूँ जितने र शब्दों में आलेख बेहतर बन जाए, उतने शब्दों में लिखिए। शब्द की ? भी कोई सीमा होती है क्या?


    माफ कीजिएगा, बात लेखक से लिखवाने की हो रही थी और बीच में हवाला पूर्व सम्पादकीय का आ गया। दरअसल इसका भी एक सन्दर्भ है। कर्नाटक के विदर्भ और उत्तर प्रदेश-मध्य प्रदेश के बुंदेलखंड अंचल में जब किसान आत्महत्या कर रहे थे, तब किसी खबरिया चैनल पर पुण्य प्रसून बाजपेयी इसे सिलसिलेवार प्रस्तुत कर रहे थे। मार्कण्डेय जी इस खबर से व्यक्तिगत तौर पर बहुत व्यथित हुए। जब हम उनसे मिलने गए तो उन्होंने कहा कथा के अगले अंक के लिए पूर्व सम्पादकीय का विषय मिल गया है। विषय होगा किसानों की आत्महत्या'। इस पर एक आलेख पुण्य प्रसून बाजपेयी का होगाइन महोदय का नम्बर किसी तरह कलेक्ट करो। और किससे इस बारे में लिखने के लिए कहा जाए तुम बताओ। मैंने कहा कि अगर विदर्भ से जुड़ा कोई व्यक्ति इस पर लिखे तो कॉलम और बेहतर हो जाएगा।


      हाँ, तो नाम बताओ? मार्कण्डेय जी ने कहा।


      मैंने सरजू प्रसाद मिश्र का नाम लिया।


      उन्होंने तुरन्त ही इसे फाइनल कर मुझे इस पर काम करने के लिए और लेख मंगवाने के लिए कहा। अन्ततः कथा के एक अंक में दोनों आलेख पूर्व सम्पादकीय में प्रकाशित किए गए और इसकी चर्चा व्यापक स्तर पर  हुई ।


     कवि हरीश चन्द्र पाण्डे कुछ उन रचनाकारों में से एक हैं, जिन्हें दादा बहुत पसन्द करते थे। लिखते तो वे कविता थे लेकिन दादा कहते हरीश से कोई कहानी लिखवाओ। कल कल छल छल बहती साफ सफ्फाक जल वाली पहाड़ी नदी सी कहानी। बातों के बीच ही प्रश्न वाचक मुद्रा में मुझसे पूछते - ‘शेखर जोशी से इधर तुम्हारी कोई बात हुई क्या?' बहुत दिनों से शेखर ने कोई कहानी नहीं लिखी। उनके पीछे पड़ जाना है और कथा के लिए उनसे कहानी लिखवाना है। जल्द बात करो और मेरी बात उन तक पहुंचाओ। रवीन्द्र कालिया भी बढ़िया कहानी लिखते हैं, उनसे कहो। अच्छा रुको ममता कालिया से कहानी के लिए मैं बात करता हूँ। सुरेश काँटक का इन दिनों क्या हाल है? कितनी अच्छी कहानियाँ लिखता है। अगर वह कहानी भेजे तो उसे कथा में लगातार छापना है। अच्छा यह बताओ कि नए लोगों में कौन लड़का बेहतर कहानियां लिख रहा है। ऐसे लड़कों से कथा के लिए जरूर लिखवाओ।


    एक और सन्दर्भ जिसके बिना कथा की कथा दरअसल अधूरी ही रहेगी। संगम लाल ऐसा नाम है जो पर्दे के पीछे रह कर कथा के मुद्रण और पेज सेट अप का गुरुत्तर दायित्व निरन्तर संभालते रहे। शनिवार की शाम जब मैं राजापुर के एकांकी कुंज स्थित उनके आवास पर पहुँचता दादा सबसे पहले संगम लाल को फोन करने के लिए कहते। अपनी तमाम व्यस्तताओं के बावजूद संगम लाल बातचीत के बाद कथा कार्यालय आते और हम बातचीत के साथ साथ अपना काम भी शुरू कर देते। दादा संगम जी को वही तवज्जो देते जो किसी मानिन्द को दिया जा सकता था। यह क्रम दादा के जीवन के आखिरी दिनों तक चला। ऐसे तमाम संस्मरण संगम जी के जेहन में भी जरूर होंगे क्योंकि वे भी उन तमाम राज और रहस्यों के गवाह हैं जो किसी चौथे व्यक्ति को शायद ही पता हो।


     तो ऐसे थे मार्कण्डेय जी जिनसे मैंने साहित्यिक सांस्कृतिक पत्रिका के सम्पादन के वे गुर सीखे जो दुर्लभ ही नहीं, दुर्लभतम भी हैंस्मृतियाँ आज भी ताजी कह लें, तरोताजी हैं। बहुत कुछ जैसी की तैसी, बिल्कुल तरोताजी। आज हमारी पत्रिका अनहद जो भी है, जैसी भी है, उसके पीछे उन अदृश्य मार्कण्डेय जी की भी दृष्टि है, जिन्होंने मुझे बहुत कुछ नया सोचने और करने का स्पेस दिया। जिन्होंने योजनाएं बनाने और उसे साकार करने का जुनून मुझमें भरा। उनके साथ बीते तेरह साल मेरे जीवन के वे साल हैं। जिसने मुझे नई दिशा प्रदान किया। ये दिन व्यक्तिगत और पारिवारिक तौर पर मेरे संघर्ष के दिन थे जिसमें मार्कण्डेय ने एक अभिभावक की तरह मुझे अपना बेपनाह प्यार, भरपूर स्नेह और बेशकीमती अपनत्व प्रदान किया। बाबा नागार्जुन के शब्द उधार ले कर कहूँ तो उनकी आभा मुझमें आज भी दमकती है।


                                                                                                                                         सम्पर्क : 58, नया मम्फोर्डगंज, इलाहाबाद-211002, उत्तर प्रदेश


                                                                                                                                                                                           मो.नं.: 9450614857