समीक्षा - समय का सृजन पद - उमाशंकर सिंह परमार

किसान आन्दोलन से जुड़ाव, जनवादी लेखक संघ उत्तर प्रदेश का राज्य उप सचिव विधा : आलोचना, कभी कभार कविता पुस्तक : प्रतिपक्ष का पक्ष, सुधीर सक्सेना-प्रतिरोध का वैश्विक स्थापत्य, समय के बीजशब्द, पाठक का रोजनामचा, कविता पथ, सहमति के पक्ष में (प्रकाशकाधीन) हिंदी की प्रमुख पत्रिकाओं में आलेखों का प्रकाशन।


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एक वर्ष की समय सीमा में श्रेष्ठ एवं जरूरी किताबों का चयन करना कठिन काम है। विशेषकर तब जब हजारों की संख्या में पुस्तके प्रकाशित हो रही हों और बिक रही हों। चयन की सबसे बड़ी बिडम्बना यह है कि अधिकतर प्रकाशक अपनी पुस्तकों के प्रचार के लिए स्वयं ही बिक्री के आधार पर श्रेष्ठ किताबों की लिस्ट जारी कर देते हैं और अपनी पत्रिकाओं में प्रकाशित कर देते हैं। इस बाजारवादी चयन प्रक्रिया से सी ग्रेड की असाहित्यिक व अगम्भीर रचनाओं को भी श्रेष्ठ होने का गौरव प्राप्त हो जाता है। दूसरा यह कि कुछ अखबारों और प्रकाशकों तथा लिस्ट बनाने वाले आलोचकों की आपसी साँठ गाँठ भी इधर दो तीन सालों में खुलकर सामने आई है। लिस्ट बनाने वाले आलोचक चुनिंदा लेखकों की पुस्तकों को बढ़ा चढ़ाकर पेश कर देते रहे जिससे वे लोग लेखकीय हलके में निन्दा के पात्र भी बने। हजार किताबों के बीच जब बीस पचीस श्रेष्ठ किताबों का चयन करना हो तो किसी एक फार्मूले के आधार पर नहीं हो सकता बिक्री के आधार पर तो बिल्कुल नहीं हो सकतान ही सगे सम्बन्धियों व एक गुट तथा क्षेत्र विशेष के आधार पर हो सकता है, न प्रकाशनों की पसंद या नापसंद के आधार पर हो सकता है। यह चयन केवल और केवल चर्चा-परिचर्चा, विचार, गम्भीरता, आयोजन तथा साहित्य के बुनियादी सरोकारों की उपस्थिति के साथ ही हो सकता है। साहित्य के बुनियादी तत्वों से रहित कोई भी रचना हो, जाहिर है वह कितनी भी चर्चित हो, साहित्य के दायरे में ही नहीं आती है। चर्चा व परिचर्चा उसी किताब की होती है जिसमे गम्भीरता हो। आलोचक उसी पुस्तक पर अपना अभिमत रखते हैं जिसमें साहित्य की उपस्थिति हो तथा वह रचना तमाम रचनाओं के बीच नई भाषा और चिन्तनधारा की प्रस्तावना कर रही हो। साहित्य बुनियादी समझ और गम्भीरता, आलोचकीय चर्चा-परिचर्चा पुस्तक चयन के ऐसे मूल्य हैं जिनसे प्रकाशन की पसंद और निजी रिश्ते व बाजारवादी मापदण्डों का स्वतः निरसन हो जाता है और सही किताबों की जानकारी पाठक तक पहुँचती है। एक निष्पक्ष एवं समय की जरूरी पत्रिका सृजन सरोकार द्वारा यह काम पहली बार किया जा रहा है। अब तक ऐसा काम केवल प्रकाशन की पत्रिकाएँ करती थीं या प्रकाशन द्वारा तैयार सूचियों को प्रकाशित करने वाले अखबार करते थे लेकिन इनके चयन को कभी भी आम लेखकों की स्वीकृति नहीं मिली। सृजन सरोकार पाठकों की पत्रिका है अस्तु पाठक को सही किताबों की जानकारी देना हमारा दायित्व है।


     वर्ष २०१८ को जनवरी से दिसम्बर २०१८ के बीच तमाम प्रकाशनों से पुस्तके आई, फ्लिपकार्ड, आमेजन में पुस्तक बिक्री के रिकार्ड बने अधिकतर प्रकाशक अपनी किताबों को नेट बाजार की साइट में डाल देते हैं और किताब के लेखक से कहते हैं कि वह बिक्री साइट से ही तयशुदा किताबें खरीद ले। इससे पचास प्रति बिकी नही कि साइट उस किताब को बेस्ट सेलर में डाल देती है। यह आजकल खूब हो रहा है। हर प्रकाशन इस प्रविधि के सहारे हर साल तीस चालीस किताबें बेस्टसेलर करवा लेता है। हम इन आँकड़ों के फेर मे नही पड़ेंगे। हम उन्ही किताबों पर बात करेगें जिन पर पर्याप्त समीक्षाएँ लिखी गई हैं जिन पर पर्याप्त चर्चा हुई हैजिन्हे लेखकों ने पाठकों ने गम्भीर लेखन के अन्तर्गत रखा है।


    इस वर्ष की शुरुआत में वरिष्ठ कवि मलय की तीन रचनाएँ प्रकाशित हुईं। मलय की ये किताबें काफी अन्तराल के बाद प्रकाशित हुईं। एक में मलय के संस्मरण हैं जिसमें उन्होंने अपने समय के बड़े कवियों और मित्रों पर साहित्यिक टिप्पणी की है तथा उनके साथ अपने जीवन के बिताए गए क्षणों का विवेचन किया है। जैसा कि हम जानते हैं मलय अपने समय के तीन-तीन महत्वपूर्ण लेखकों के साथ रहेएक हैं मुक्तिबोध, दूसरे श्रीकान्त वर्मा, तीसरे हरीशंकर परसाई। तीनों के साथ अपने अनुभवों कोलेकर मलय ने 'यादों की अनन्यता' लिखी है। उनकी दूसरी किताब ‘कवि के साक्षात्कार' है। यह मलय के अब तक के साक्षात्कारों का संचयन है। इन साक्षात्कारों को लीलाधर मंडलोई, मदन कश्यप, ज्ञानरंजन, विमलकान्त येन्डे और असंग घोष ने लिया हैं। उनका नवीनतम कविता संग्रह जिस पर तमाम आलोचकों ने विभिन्न माध्यमों पर अपनी बात रखी ‘वाचाल दायरों से दूर' इसी वर्ष प्रकाशित हुआ है। इसी वर्ष वरिष्ठ आलोचक अमीरचन्द वैश्य की पहली और लगभग छः सौ पेज की किताब 'विजेन्द्र का रचना संसार' दो खण्डों में प्रकाशित हुई। इस किताब की जरूरत बहुत पहले से महसूस की जा रही थी। मगर विजेन्द्र का रचनाकर्म इतना व्यापक है कि कोई भी आलोचक उनका विशद् मूल्यांकन नहीं कर सका। अमीरचन्द त्रिलोचन के शिष्य रहे। विजेन्द्र के सहयोगी रहे, उनके साथ रहे अस्तु वह विजेन्द्र के जीवन व व्यक्तित्व से बखूबी परिचित हैं। त्रिलोचन आलोच्य कवि और आलोचक दोनों को जोड़ते हैं इसलिए यह किताब लोकधर्मी आलोचना की एक जरूरी किताब के रूप में इस वर्ष पसंद की गई। इस पर तमाम समीक्षाएँ लिखी गईं। वरिष्ठ पत्रकार और कवि सुधीर सक्सेना के रचनाकर्म को लेकर युवा पत्रकार रईस अहमद लाली की संपादित किताब 'जैसे धूप में घना छाया' प्रकाशित हुई। इस किताब में अजय तिवारी, नासिर अहमद सिकन्दर,भारत यायावर, बली सिंह, भरत प्रसाद, अजीत प्रियदर्शी, नरेन्द्र मोहन, स्वप्निल श्रीवास्तव, तेजिन्दर, अनिल जनविजय के महत्वपूर्ण आलेख हैं। यह किताब काव्यात्मक संस्मरणों की है जिस पर तमाम आयोजन हुए और रिव्यू प्रकाशित हुए। आलोचना और संस्मरण का संयुक्त रूप इस किताब में देखा जा सकता है।


     कविता संग्रहों में इस वर्ष सबसे चर्चित कविता संग्रहों में एक वरिष्ठ पत्रकार और कवि सुभाष राय का कविता संग्रह ‘सलीब पर सच' इसी वर्ष प्रकाशित हुआ। इस कविता संग्रह - को आलोचकों एवं पाठकों ने हाथो-हाथ लिया तथा पत्रिकाओं से लेकर सोशल मीडिया तक इस किताब की खूब किताब की खूब चर्चा हुई। इस कविता संग्रह मे भूमंडलीकरण के दौर की आत्मीयतामलक पतिरोधी कविताएं हैं, जिन्हें सपाटबयानी से पृथक लयात्मक भंगिमाओं के से पृथक लयात्मक भंगिमाओं कारण अधिक पसंद किया गया। वरिष्ठ कवियों में शुमार छत्तीसगढ़ के कवि त्रिलोक महावर का कविता संग्रह 'शब्दों से परे' नए कवियों और वरिष्ठ कवियों के बीच काफी चर्चा में रहा। त्रिलोक महावर का यह पाँचवा संग्रह है जो लगभग दस साल के अन्तराल में आया हैइस कविता संग्रह में जंगल जमीन और संस्कृति में हो रहे बदलावों तथा मानवीय मूल्यों में हो रही गिरावट को कारण के रूप में सत्ता एवं पूँजी के आपसी तालमेल को बताया गया है। इस कविता संग्रह की लम्बी कविता 'सिके की आखिरी मौत' पहले से लोक प्रिय रही जो छत्तीसगढ़ के आदिवासी आम जन किसान, मजदूरों द्वारा आज भी नाट्य रूपकों में गाई जाती है। इस संग्रह पर छत्तीसगढ़ के लेखकों ने तमाम गोष्ठियाँ की। तमाम आलोचकों ने अपने अभिमत रखे। तथा अखबारों में संग्रह की समीक्षाएँ छपी। यह संग्रह भी इसी वर्ष प्रकाशित हुआ।


    वरिष्ठ एक्टिविस्ट लेखक/कवि शाकिर अली पिछले तीन दशक से लिख रहे थे। उनके दो कविता संग्रह इस वर्ष प्रकाशित हुए। शाकिर अली पत्रिकाओं और अखबारों में लगातार पढ़े जाते रहे हैं। उनकी कविताएँ बस्तर के आदिवासी समुदायों व वहाँ की जनसंस्कृति पर छाए खतरों की गहरी पड़ताल करती हैं। उनका कविता संग्रह 'बचा रह जाएगा बस्तर' इन्हीं कविताओं का अकेला कविता संग्रह है। बस्तर के अतिरिक्त उनकी अन्य कविताएँ जो पाठकों ने पढ़ीं है वह दुसरे कविता संग्रह ‘नये जनतन्त्र' में संग्रहीत हैं। दोनों कविता संग्रह बोलचाल की भाषा में साफ़ सुथरी प्रतिबद्धता और स्पष्ट वैचारिक निर्मितियों के साथ साथ लोकजीवन की वास्तविकताओं तक पाठक को ले जाते हैं। शाकिर अली बहुत कम कविता लिखते हैं। कम लिखते हैं इसलिए अच्छी लिखते हैं। इन कविता संग्रहों को छत्तीसगढ़ के लेखक समुदाय में काफी चर्चा रही। वरिष्ठ कवि संपादक कौशल किशोर का कविता संग्रह 'नयी शुरुआत इसी वर्ष प्रकाशित हुआ। इससे पूर्व उनका कविता संग्रह 'वह औरत नहीं महानद थी' बेहद चर्चित र्चत कविता संग्रह था। नई शुरुआत में उनकी नई कविताएँ हैं। कौशल किशोर को पढ़ने वाले जानते हैं कि उनकी भाषा और तासीर गहन वैचारिक आवेगों से सम्पुष्ट है अस्तु कथ्यात्मक रूप में उनकी कविताएँ समय के काले पक्ष का बेहतरीन चित्रण करती हैं। यह कविता संग्रह अभी प्रकाशित हुआ है इस पर चर्चा होगी क्योंकि यह भी ‘औरत नहीं महानद थी' का विधान एवं तल्खी लेकर संवाद करता है। कौशल किशोर और शाकिर अली दोनों एक्टिविस्ट हैं, कवि बनने के मोह में कभी नही रहे इसलिए दोनों वरिष्ठ लेखकों के कविता संग्रह बहुत देर से प्रकाशित हुए इसलिए पाठकों और लेखकों की इनके प्रति उत्सुकता रही है। वरिष्ठ गीतकार / कवि विजय राठौर दायित्वबोध दोनों के बीच सन्तुलन की बात करता हुआ जीवन और समाजिक संरचनाओं को विश्लेषित करता है। झारखण्ड के चर्चित और नामचीन कवि अशोक सिंह से सभी परिचित हैं। वह दो दशकों से लगातार लिख रहे हैं। उन्होंने आदिवासी साहित्य और अन्य विदेशी साहित्य का अनुवाद कर अपनी पहचान कायम कीउनकी कविताएँ एक दशक से पाठ्यक्रम में पढाई जा रही हैं लेकिन पहला कविता संग्रह अब इस वर्ष प्रकाशित हुआ हैइस कविता संग्रह का नाम है ‘कई कई बार होता है प्रेम'। इस संग्रह के शीर्षक से यह भ्रम होता है कि इसमें प्रेम कविताएँ हैं लेकिन ऐसा नही है। ये कविताएँ आमजन जीवन छोटी छोटी जरूरतों व जीवन की छोटी छोटी घटनाओं के सहारे बेहद सधी भाषा में समय के खतरों का संकेत हैवैयक्तिक अनुभवों के बल पर सार्वजनिक सच तक पहुँचने की एक सफ़ल कोशिश है। वरिष्ठ गजलकार नूर मुहम्मद नूर का नवीनतम गज़ल संग्रह ‘सबका शायर' इसी साल के अन्त में प्रकाशित हुआ। नूर मुहम्मद नूर की गजलों से हम सब वाकिफ़ हैंइस संग्रह में भी वही मुहावरा और साफगोई के साथ बतकही है जो उनके अन्य संग्रहों में है। नूर मुहम्मद नूर का अपना पाठक वर्ग है और उस पाठक वर्ग में वह पढ़े जाते हैं। यही इनकी किताब के चर्चित होने का कारण है।


     जाने माने कवि मनोजकुमार झा का कविता संग्रह कदाचित अपूर्ण' इस वर्ष के मध्य में प्रकाशित हुआ और बड़े आलोचकों के बीच व बिहार के हिन्दी संस्थान में इस पर चर्चाएँ हुईयह कविता संग्रह मनोज कुमार झा की रचनात्मकता का बड़ा पड़ाव है। वह बहुपठित और बहु आलोचित कवि हैं। यही कारण है कि यह किताब एकेडमिक छात्रों के बीच काफी लोकप्रिय रहीइसी तरह वरिष्ठ कवि पवन करण का कविता संग्रह 'स्त्री शतक' भी सोशल मीडिया व अख़बारों पत्रिकाओं में खूब चर्चित रहा। यह कविता संग्रह पवन करण की स्त्रीवादी कविताओं का बेहतरीन संग्रह है। पवन करण की नारीवादी कविताएँ पहले भी बहुत चर्चित रहीं और कुछ खास विचारधारा के लेखकों के बीच आलोचना का भी शिकार रहीं। अब उनकी सभी कविताएँ एक साथ एक संग्रह में प्रकाशित हो चुकी हैं। वरिष्ठ गजलकार देवेन्द्र आर्य का गजल संग्रह ‘जो पीवै नीर नैना का' इसी वर्ष प्रकाशित हुआ और इसकी काफी चर्चा रही। ये ग़ज़लें तमाम पत्रपत्रिकाओं में पढ़ी जा चुकी हैं अस्तु सभी जानते हैं कि देवेन्द्र किस तासीर के शायर हैदेवेन्द्र हिन्दी भाषा के समर्थक हैंऔर हिन्दी शब्दों के फारसी स्थानापन्न प्रयोग करने के विरोधी हैं। इसकी भूमिका में उन्होंने गुजुल की भाषाई सैद्धांतिकी देते हुए हिन्दी ग़ज़ल को केवल हिन्दी गज़ल बनाए रखने की जोरदार अपील की है। युवा कथाकार अमिता नीरव का कहानी संग्रह ‘तुम जो बहती नदी हो' इस वर्ष काफी चर्चित रहा। इस कथाकार के पास स्त्री जीवन की समझ के साथसाथ कहानी कहने की किस्सागोई वाली शैली भी है। इनकी कहानियों में उपस्थित बिम्ब व परिवेशगत संस्कृति वास्तविक यथार्थ की है जहाँ लेशमात्र भी कल्पना का आभास नहीं होता है। अमिता नीरव का यह कहानी संग्रह अपनी भाषा और बेहतरीन कथाबिम्बों के कारण बहुत अच्छा बन पड़ा है। युवा कथाकार सलिल सुधाकर का कहानी संग्रह 'बदनाम औरतें'इस वर्ष काफी चर्चित रहा। यह कहानी संग्रह अपने शीर्षक से भले ही सनसनीखेज लगे लेकिन ऐसा कुछ नहीं है। इसमें आठ कहानियाँ हैं जिनमें मोहरे, बदनाम औरतें, शैतान बुश के कुनबे की औरत, ताश का महल मास्टर पीस कहानियाँ हैं। यह कथाकार अपनी कहानियों में दो दशकों के समय को समेटते हुए इस दौरान आए तमाम सामाजिक राजनैतिक वैश्विक परिवर्तनों को रेखांकित करता है तथा पारिवारिक एवं एवं नैतिक मूल्यों के विघटन से पाठक को रूबरू कराते हुए चिन्तन और मनन को बाध्य करता है। इन कहानियों को पढ़ते हुए पाठक तमाम झंझावतों से टकराते हुए भी अन्ततः अपने आपको सार्वभौमिक मूल्यों के पक्ष में खड़ा पाता है। युवा कवि असंग घोष जाने माने आम्बेडकरवादी कवि हैं। उनका चर्चित कविता संग्रह 'अब मैं साँस ले रहा हूँ' इसी वर्ष प्रकाशित हुआ है। असंग घोष आम्बेडकरवादी है लेकिन जड़ता में आबद्ध नहीं है। उनकी दृष्टि में मार्क्स का व्यापक प्रभाव है। वह पूँजी की हरकतें व इतिहासबोध से वाकिफ़ हैं। यही कारण है मलखान सिंह के बाद वह एकमात्र दलित लेखक हैं जो कवि के रूप में मुख्यधारा से जोड़कर परखे जाते हैं और मुख्यधारा में रखे जाते हैं। उनके इस कविता संग्रह की चर्चा और परिचर्चा का एक कारण यह भी है। इस संग्रह में उन्होंने वर्गीय और जातीय संस्कृति के विरोध में सामतावादी संस्कृति पर बेहद जरूरी बात की है।


     इन वरिष्ठ एवं स्थापित लेखकों के अतिरिक्त नई पीढी के रचनाकारों की दृष्टि से यह वर्ष बहुत अच्छा रहा। तमाम नवोदित कवियों के कविता संग्रह नवम्बर -दिसम्बर २०१७ में प्रकाशित हुए और २०१८ में उनकी चर्चा रही इनमें आरा के कवि सिद्धार्थ वल्लभ का ‘सुनो शोणा' और सुमित कुमार


के कवि सिद्धार्थ वल्लभ का ‘सुनो शोणा' और सुमित कुमार मध्यान्दिन का ‘सुनहरी धूप मीठी छाया' काफी चर्चित रहे। ये दोनों कविता संग्रह २०१७, की समाप्ति पर प्रकाशित हुए मगर इन पर चर्चा २०१८ मे हुई। २०१७ की समाप्ति में केवल युवा कवियों के ही नही वरिष्ठ कवियों के भी कविता संग्रह प्रकाशित हुए, इनमें सतीश कुमार के ‘सुन रहा हूँ इस वक्त को सूत्र सम्मान भी मिला, कुँवर रवीन्द्र का बचे रहेगें रंग, बचे रहेंगे रंग रवीन्द्र का दूसरा कविता संग्रह है।


      पहला कविता संग्रह ‘रंग जो छूट गया था' २०१५ में प्रकाशित हुआ था। दोनों संग्रहों में रंग अभिधान का प्रयोग है। रवीन्द्र चित्रकार हैं, चित्र की सृजन प्रक्रिया और कविता रचना प्रक्रिया एक होती है। चित्र में रंगों का वही महत्व हैजो कविता में शब्दों का है। रवीन्द्र की बड़ी खासियत है कि यदि उनके चित्रों और कविताओं को परस्पर आमने-सामने रखकर पढ़ा जाए तो दोनों रचनात्मक माध्यमों में वह एक जैसी वैचारिकता, चिन्ता व प्रतिरोध का सामाजिक लोकधर्मी पक्ष प्रस्तुत करते हैं।


    सुधीर सक्सेना का यह अर्धरात्रि है, चन्द्रेश्वर का सामने से मेरे, महेश कटारे सुगम का आशाओं के नये महल, और बुन्देली गजलों का संग्रह अब जीवै को एकै चारो, बेगूसराय के वरिष्ठ कवि गीतकार रामेश्वर प्रसान्त का सदी का सूर्यास्त, वरिष्ठ कथाकार अनन्तकुमार सिंह का कहानी संग्रह नया वर्ष मुबारक, ताकि बची रहे हरियाली भी २०१७ के अन्त में प्रकाशित हुएइन पर वर्ष भर बातचीत होती रहीचूंकि इनका प्रकाशन वर्षान्त में हुआ इसलिए इस आलेख में इनकी चर्चा नही की गई है। वर्षान्त में प्रकाशित कुछ सनसनीखेज साहित्य भी सोशल मीडिया में चर्चित रहा इनमे गीता श्री का हसीनाबाद, नीलिमा चौहान की पतनशील पत्नियों के नोट्स मुख्य हैं। इन दोनों में चटखारे लेकर यौनिकता का प्रतिपादन किया गया जिससे गम्भीर चर्चा नहीं हुई। केवल खास अभिरूचि के पाठकों ने इनकी चर्चा बनाए रखी।


     फिर भी २०१८ युवा कवियों की दृष्टि से बहुत हद तक सफ़ल रहा। वर्ष की शुरुआत में युवा कवि प्रेमनन्दन का कविता संग्रह 'यही तो चाहते हैं वे' प्रकाशित होकर आया। इस कविता संग्रह में प्रेम की अधिकांश प्रकाशित कविताएँ हैं जिनमें भूमण्डलीकरण द्वारा गाँव और कस्बों में हुए किए गए बदलावों की व्यथा कथा कही गई है। अपने स्थापत्य में तो यह प्रतिरोध का कविता संग्रह है लेकिन इसकी अन्तर्वस्तु उदारमानवतावादी नजरिए की पुष्टि करती है। प्रेम नन्दन की तरह सत्येन्द्र श्रीवास्तव का कविता संग्रह रोटियों के * हादसे भी इसी वर्ष प्रकाशित हुआ। सत्येन्द्र दिल्ली के जाने माने एक्टिविस्ट एवं कवि हैं। दिल्ली में रहकर भी वह लोकधर्मी कवियों और लेखकों पर लगातार अपना अभिमत देते रहते हैं, उनको प्रकाशित करते रहते हैं। उनके पास लोकधर्मिता की समझ भी है और अभिरुचि भी। इस अभिरुचि का परिष्कृत स्वरूप रोटियों के हादसे में अन्तर्विष्ट है। यह कविता संग्रह लोकधर्मी लेखकों व कवियों के बीच लोकप्रिय रहा। युवा कवि और आम्बेडकरवादी चिन्तक आर. डी. आनन्द का कविता संग्रह ‘अन्धेरे में जुगनू' एक नए हस्तक्षेप के साथ पाठकों के बीच आया और काफी चर्चित रहा। यह मलखान सिंह, असंग घोष की परम्परा का कविता संग्रह है जिसमे फार्मूलाबद्ध आम्बेडकरवाद की जगह वर्गीय विभेदों की एतिहासिक एवं सांस्कृतिक भूमिका को परखा गया है। युवा कवि बृजेश नीरज का नवगीत संग्रह ‘आँख भर आकाश' नवगीतकारों द्वारा, युवा लेखकों द्वारा पसंद किया गया। यह इसलिए भी चर्चित हुआ कि इसमें लयात्मक कविता की हर बानगी को रखा गया है हाईकू, सानेट, गीत, नवगीत, गजल, सज़ल, मुक्तक, दोहा, कुण्डलियाँ, गद्य काव्य सभी का समावेश है।


     2019। वर्ष कौशल किशोर सत्तर के दशक से निरन्तर सामाजिक एवं राजनैतिक विषयों पर तमाम अखबारों में लिखते रहे हैंइस वर्ष उनके इन लेखों का संग्रह ‘प्रतिरोध की संस्कृति' काप्रकाशन हुआ। इसमे डेढ़ दशकों की राजनैतिक एवं आर्थिक हलचलों को देखा जा सकता है। युवा आलोचकों मे अजीत प्रियदर्शी की दो महत्वपूर्ण किताबें इस वर्ष प्रकाशित हुई। इनमें एक कथा साहित्य पर हैइसका नाम है ‘कथा आस्वाद के रंग' तथा दूसरी कविता पर है। इस पुस्तक का नाम है। ‘आधुनिक काव्य परिदृष्य'। दोनों पुस्तकों में युवा पीढ़ी के लेखकों और कवियों का विशद् विवेचन है। अजीत की दृष्टि माक्र्सवादी आलोचना की रही है। वह अपनी विशिष्ट उद्बोधन शैली में मार्क्सवादी औजारों से रचना की चीरफाड़ करते हैं। यह प्रविधि पाठक को बाँधती है। इन किताबों में नए लेखकों को तरजीह दी गई है। अतः दोनों पुस्तके नई पीढ़ी के रचनाकारों द्वारा चर्चित हैं। आलोचना और संस्मरण दोनों का समन्वित स्वरूप पहली बार देखने को मिला युवा कवि गणेश गनी की किताब किस्से चलते हैं बि के पाँव पर' में। इस किताब में आलोचना के औजारों और भाषा मे भीषण तोड़फोड़ की गई है। भाषा कथा की है, शिल्प संस्मरण का तथा अपरूप आलोचना का। यही विलक्षणता इस किताब के लिए चर्चा का कारण बनी और यह किताब २०१८ के दौरान सोशल मीडिया व पत्रिकाओं में काफी चर्चित रहीऔर भी तमाम पुस्तकों का प्रकाशन इस दौरान हुआ जिसमे बाल साहित्य, व्यंग्य साहित्य, राजनैतिक साहित्य, अर्थशास्त्र, इतिहास, पर शानदार किताबें रहीं लेकिन इस आलेख में केवल साहित्य की उन किताबों को सम्मलित किया गया है जो किसी न किसी रूप में साहित्य के बुनियादी सरोकारों के अनुरूप हैं। और जिन पर वर्ष की समय सीमा के दौरान चर्चा भी हुई तथा आलोचकीय प्रतिक्रियाएँ भी विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई। फिर भी बहुत कुछ जरूरी छूट गया है। यह सीमा मेरी भी है और आलेख की भी। एक सीमित दायरे में उन्ही किताबों का परिचय दिया जा सकता है जो आँखो के सामने से गुजरी हों और पत्र-पत्रिकाओं में रिव्यू पढ़े गए हों। फिर भी सभी प्रकाशित लेखकों और कवियों पर एक साथ लिखा जाना किसी भी टिप्पणीकार के लिए असम्भव है, यह भी एक मानवीय सीमा है।