'साक्षात्कार - सोचा नहीं था कि ‘कानपुरी' से ‘इलाहाबादी' हो जाऊंगा - प्रो. राजेन्द्र कुमार से कुमार वीरेन्द्र, हितेश कु. सिंह, अवनीश यादव की बातचीत

      ‘ अवनीश : चूकि पत्रिका ‘सृजन सरोकार' शहर इलाहाबाद के साहित्य, समाज और संस्कृति पर केन्द्रित अंक है, इसलिए मेरा पहला सवाल यही रहेगा कि आपका इलाहाबाद की रगों से कब और कैसे परिचय हुआ?


      राजेंद्र कुमार : जन्म स्थान कानपुर होने के नाते मैं वहाँ के पुस्तकालयों में प्रायः रोज ही पत्र-पत्रिकाएँ और अपनी पसंद की किताबों को पढ़ने जाया करता था। वहाँ मेरी नज़र ‘कल्पना' (हैदराबाद) और 'ज्ञानोदय' (कलकत्ता) जैसी पत्रिकाओं पर पड़ी। ‘कल्पना' का तो शायद ही कोई अंक ऐसा रहा होगा, जिसमें इलाहाबाद के किसी न किसी लेखक की रचना न रही हो। डॉ. रघुवंश, विजयदेव नारायण साही, विपिन अग्रवाल, जगदीश गुप्त, मार्कंडेय, जैसा कोई न कोई, नाम न रहता हो। बाद में इलाहाबाद से निकलने वाली पत्रिकाएँ ‘नई कविता' ‘निकष', ‘क.ख.ग', वगैरह को पढ़ते हुए इलाहाबाद के साहित्यिक परिवेश से और ज्यादा परिचित हुआ। तब मुझे अपने भविष्य का यह अंदाज़ नहीं था कि ‘कानपुरी से इलाहाबादी' हो जाऊंगा।


     अवनीश : फिर तो काफी रोचक है। जानना चाहता हूँकि कल-पुर्जा के गुर्राहट के वातावरण में साहित्य का दिल कैसे धड़कना शुरू हुआ। प्रथमतया कौन लोग सहारा बने, किनके सम्पर्क में रहे आप?


     राजेंद्र कुमार : याद आता है, उन दिनों का कानपुर वह मिलों और मजदूरों का शहर। कई मिले-जैसे एक थी ‘म्योर मिल', मेरे मुहल्ले के बहुत पास। खुद हमारे पुश्तैनी मकान के नीचे का हिस्सा किराये पर उठा था। उसमें प्रायः मजदूर और खोमचा लगाकर अपनी रोजी-रोटी कमाने वाले लोग रहते थे। उन्हीं दिनों मेरा संपर्क राजनीति और साहित्य दोनों में सक्रिय रुचि रखने वाले अपने कुछ अग्रजों से हुआ। मसलन, शील जी, सुदर्शन चक्र, देव प्रताप नागर। शील जी के यहाँ ही सी.पी.आई के कई सदस्यों के संपर्क में आया। कामरेडसुल्तान नियाज़ी, रामआसरे, संत सिंह यूसुफ़। सुल्तान नियाजी का बंगला म्योर मिल के गेट के एकदम सामने था। शील जी वहाँ भी अक्सर आते और मुझे भी बैठकों में शामिल होने को प्रोत्साहित करते। प्रगतिशील लेखक संघ से मुझे उन्होंने ही जोड़ा। शील जी ने इंडियन पीपुल थियेटर (इप्टा) के लिए कुछ नाटक भी लिखे। पृथ्वीराज कपूर के लिए उन्होंने 'किसान' नाटक लिखा, जिसे मंचित होते देखने की याद से आज भी रोमांचित हो उठता हूँ। पृथ्वीराज जी को शील जी के यहाँ ही मैंने देखा भी ।


    मूलतः मैं विज्ञान का विद्यार्थी था। जब बी.एस.सी. कर रहा था, तो डी.ए.वी. कालेज में देवी शंकर अवस्थी जैसे प्रखर व्यक्तित्व का सान्निध्य मिला। कहने का आशय यह कि कानपुर में भी तब साहित्य की दृष्टि से ऐसी अनुर्वरता न थी, जैसी, आज है। भले ही वह ‘धुएँ में लटका शहर' (इसी शीर्षक से मैंने अमृतराय जी द्वारा संपादित नई कहानियाँ' में ‘कथानगर स्तंभ के लिए लिखा था) रहा हो, लेकिन वहाँ तब ‘पुतलीधर के भोंपू' थे, तो साहित्यकारों की उत्साहवर्द्धक आवाजें भी थीं। एक लेखक के रूप में मेरे विकास में निश्चय ही इन सबका योग रहा होगा। और हाँ, सबसे पहले मुझे याद करना चाहिए। अपने पितामह (बाबा) को, जिन्होंने मुझे हिंदी और उर्दू साहित्य के प्रति बचपन से ही जिज्ञासु बनाया। मैं कक्षा-२ से कक्षा-८ तक मेस्टनरोड पर स्थित


         


स्कूल (जिसे सनातन धर्म कालेज का ‘भवन सेक्शन' कहाजाता था) में पढ़ता था। वहाँ एक बड़ा सा हाल था, जिसमें चारों तरफ कानपुर की पुरानी पीढ़ी के लेखकों (राय देवी प्रसाद पूर्ण, हितैषी जी, विश्वभर नाथ शर्मा 'कौशिक आदि के बड़े-बड़े ‘फ्रेम-मंडित' चित्र टंगे दिखते थे। वहीं मेरे एक शिक्षक हुआ करते थे—कृष्णकुमार ‘कोमल'। वे स्वयं कवि थे, और मुझ जैसों को भी प्रोत्साहित करते थे। पहली कविता मैंने उन्हीं दिनों लिखी होगी।


     कुमार वीरेन्द्र : बतौर साहित्यकार राजेन्द्र कुमार काउदय कैसे हुआ। पहली रचना कौन सी लिखी और कहाँ छपी?


     राजेंद्र कुमार : बतौर लेखक राजेंद्र कुमार के उदय की पृष्ठभूमि बचपन में ही बन चुकी थी। उन दिनों की हिंदी पाठ्य पुस्तकों में जो कविताएँ होती थीं, उन्हें पढ़ना मुझे अच्छा लगता था। वो मेरी स्मृतियों में आज भी हैं। किताबों में पढ़ता था, अपने बाबा के मुँह से हिंदी उर्दू कवियों की काव्य पंक्तियों को सुनता था। इसी तरह साहित्य संस्कार हुआ मेरा।  


     शुरुआत छंद-बद्ध रचनाओं से हुई। गीतात्मक कृतियों को कापी में उतार कर संग्रहीत करता जाता। कई कापियाँ हो गई तो उन पर बाद में संग्रहों के नाम भी लिख देता–जैसे ‘प्यासे गीत', 'तुम्हें आवाज़ देता हूँ’, ‘मनुष्य और छाया'। एक कहानी-संग्रह भी हो गया। इसमें कुछ-कुछ पत्रपत्रिकाओं में भी छपता रहा। लेकिन ज्यादातर अनछपा ही रह गया।


     पाना मुश्किल है कि मैंने पहली कविता कब लिखी होगी। स्कूल के दिनों की याद करता हूँ तो कुछ पंक्तियाँ जेहन में उभरती हैं,- ‘लोग मुझे पागल कहते हैं, नहीं जानता, मैं खुद क्या हूँ...।' इसी तरह का कोई गीत था। जो मैं पहली बार स्कूल के किसी कार्यक्रम में सुनाने का साहस कर पाया था। प्रोत्साहन मिला तो स्कूल की वार्षिक पत्रिका में कुछ देने लगा। उस वक्त मुझे पत्र-पत्रिकाओं के स्तर में भेद करने की तमीज तो थी नहींतब अति रहेॐ अचेत'। तो सरिता, मुक्ता जैसी पत्रिकाओं में भी कुछ छप जाता, तो हुलस उठता था।


    अलबत्ता, पहली कहानी कब लिखी यह मुझे याद है। वह भी छपी बाद में कलकत्ते से निकलने वाली 'आदर्श' नाम की पत्रिका में कीमतें' शीर्षक से। आजादी के बाद की बिडम्बना पर वह थी।


    कुमार वीरेन्द्र : जैसा कि आपके हिस्से में अभी तक तीन कविता संग्रह, दो निबंध संग्रह, एकाधिक आलोचना की लिखीं, काफी मात्रा में पुस्तके भी सम्पादित कीं और लम्बे समय तक ‘अभिप्राय' पत्रिका भी निकालते रहेऐसे में जानना चाहता हूँ किस विधा की ओर उन्मुख होने को मन अधिक अखुवाता है। किसमें आप आत्मीयता और सहजता पाते हैं।


        मैं इलाहाबाद में अध्यापक के रूप में स्थायित्व पा गया। हाँ, कानपुर में ‘मधुरिमा' नाम से एक हस्तलिखित पत्रिका निकालने का प्रयास ज़रूर किया था। एक ही दो अंक निकल सके थे।


       सन् २००९-११ के दौरान महात्मा गाँधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय की पत्रिका ‘बहुबचन' का संपादन भी किया।


     हितेश कु. सिंह : वैसे तो इलाहाबाद नदियों के संगम का शहर है। तालीमी और तहजीबी महत्त्व का शहर है। निराला, पंत, महादेवी वर्मा से लेकर अमरकांत, मार्कण्डेय शेखर जोशी, रवीन्द्र कालिया, ममता कालिया और न जाने कितने नाम गिनाऊँ। इन सबसे क्या आपका सानिध्य रहा। तो कुछ प्रसंग बताएँ।


      राजेंद्र कुमार : वैसे तो, जैसा मैंने बताया, पत्र पत्रिकाओं के माध्यम से कानपुर में ही इलाहाबाद के कई लेखकों आलोचकों के लेखन से परिचित हो चुका था, पर देखने से नहीं मिला या देखा किसी को नहीं था। ‘कल्पना' जैसी पत्रिका में उनकी रचनाएँ तो छपती थीं, लेकिन उनके फ़ोटो नहीं। इलाहाबाद के लेखकों को देखा तब, जब इलाहाबाद आया।


      रामानंद दोषी एक गीतकार थे। वो कवि-सम्मेलनों में भाग लेने कानपुर आया करते थे। उन्हें देखने के लिए मैंने अपने कुछ गीत दिए। तो एक बार जब वो कानपुर आए, तो मुझे अपने गीतों के बारे में उनकी राय जानने की उत्सुकता हुई। मैं इस बार उनसे मिला, तो उन्होंने मेरी पीठ ठोकी। बोले, यहाँ से इलाहाबाद जाऊंगा, निराला जी से मिलने। मुझसे पूछा-तुम चलोगे। मुझे वही अपने साथ इलाहाबाद लाए। दारागंज में निराला जी को देखने का सौभाग्य मुझे मिला। पर सिर्फ देखने का ही। उस संक्षिप्त दर्शन में निराला जी से दोषी जी ने ही कुछ बात चीत की। मैं तो सिर्फ उन्हें देखता ही रहा। इस तरह पहली बार इलाहाबाद आकर लौट गया। निराला जी को प्रणाम करके। उनके व्यक्तित्व की छाप अपने मन में सहेजे।


     फिर सन् १९६७ में इलाहाबाद आया। उन दिनों 'नई कहानियाँ पत्रिका दिल्ली से इलाहाबाद, आ चुकी थी अमृतराय जी के संपादन में। उनसे मेरी प्रत्यक्ष मुलाक़ात तब तक नहीं थी। हाँ, ‘नई कहानियाँ' में मेरी दो-एक रचनाएँ वे छाप चुके थे। इस नाते उनसे पत्राचार होता था। मैंने उन्हें लिखा, मैं इलाहाबाद आना चाहता हूँ। उत्तर मिला-फ़ौरन चले आओ। मैं सब कुछ छोड़-छाड़ कर इलाहाबाद आया। बस से आया था। उतरा तो सीधे अमृत जी के यहाँ पहुँ धूप-छाँह में उनकी आत्मीयता ने मुझे सहज कर दिया। उन्हीं के यहाँ रहा। उन्हीं के साथ मुझे पहले-पहल पंत और महादेवी से मिलने का सुयोग मिला था। एक बार तो, पंत जी को लेकर अमृतजी 'प्यासा' फ़िल्म देखने गए, तो मुझे भी साथ ले गए। वह टाकीज़ जहाँ वह फ़िल्म देखी थी, चौक घंटाघर के पास थी। उसका नाम मुझे इस वक्त याद नहीं आ रहा। अब तो वह है भी नहीं। पर उन दिनों उसकी हालत यह थी कि कुर्सियों में बैठने पर खटमल काटते थे। उसका नाम ही तब पड़ गया था, खटमल टाकीज़।


      'धूप-छाँह में रहते हुए ही उर्दू के प्रसिद्ध लेखकआलोचक एहतिशाम हुसैन साहब से हुई। वो तरक्की पसंद तहरीक से जुड़े थे। अक्सर अमृत जी के यहाँ आते। उन्हीं की प्रेरणा से (बल्कि कहिए उनके ही स्नेहपूर्ण दबाव से) मैंने इलाहाबाद वि.वि. से हिंदी में एम.ए. किया। वैसे मैं एम.ए.ओमे. करने के उद्देश्य से तो इलाहाबाद आया नहीं था। फिर भी किया। करके इलाहाबाद वि.वि. से संबद्ध सी.एम. पी. कालेज में हिंदी का अध्यापक नियुक्त हुआ। कालेज के पास ही कहानीकार सतीश जमाली रहते थे। कालेज से छूटता तो उनके यहाँ होते हुए लौटता। कालिया, दूधनाथ और सत्यप्रकाश मिश्र से जमाली के यहाँ ही पहली भेटें हुईं। मैं अकेले, किराये का कमरा लेकर रहता था। संकोची था, इसलिए ज्यादा-मित्र वित्र भी नहीं थे। लेकिन लेखकों से मिलने का उत्साह रहता। पता लगाकर कि कौन कहाँ रहता , मैं इलाहाबाद के वरिष्ठ लेखकों से मिलने जाने की जुगत करता। साइकिल/स्कूटर चलाना जानता नहीं था। अपनी तो बस ११ नंबर की बस थी। यानी पैदल ही चलतापैदल चलते देखकर परिचित कुछ मित्र कहते-सिर से माक्र्सवादी, पैर से गाँधीवादी।


      बहरहाल, लेखकों से मिलना ही मेरे लिए तीर्थाटन होता। छुट्टी के दिन तो बाकायदा प्लानिंग करके चलता। मसलन यह कि पहले अजित पुष्कल के यहाँ जाउंगा, सुबह की चाय वहीं हो जाएगी। अजित पुष्कल के पास ही अमरकांत जी रहते थे। कम से कम दो घंटे वहाँ बैठना ही होगा। सो दोपहर का भोजन वहीं। फिर पहुँचुगा लूकरगंज, शेखर जी के यहाँ। शाम की चाय वहीं। उधर से ही भैरों जी के यहाँ हो लूगा (भैरव जी के यहाँ चाय-बिस्कुट से ज्यादा और कुछ की आशा करना व्यर्थ होता)। फिर अश्क जी के यहाँ। और संभव हुआ तो नरेश मेहता जी के यहाँ भी। कुछ न कुछ खिलाएंगे ही। गर्जे कि प्लानिंग ऐसी कि पूरे दिन का इंतजाम हो जाए। उन दिनों सिवा खिचड़ी के, मुझे कुछ और बनाना आता नहीं था। तो यों ही, पेट का काम भी चल जाता। तीर्थाटन भी हो जाता।


     स्वभाव से संकोची था। इसलिए उन्हीं लेखकों से ज्यादा मिलने-जुलने जाता, जो अपनी ओर से खुले होने का एहसास करा पाते। मार्कंडेय जी से मैं बहुत बाद में मिला। बल्कि तब जब खुद उन्होंने ‘कथा' में लिखने का आग्रह किया। कर्नलगंज में शैलेश मटियानी रहते थे। खिलाने- पिलाने के शौकीन। नीलकांत जी भी वहीं पास थे। उनसे भी खूब आत्मीयता हो गई।


     उर्दू के लेखकों का सान्निध्य भी मुझे खूब मिला। अकील साहब, अली अहमद फ़ातमी, असरार गाँधी। बाद में शम्सुर्रहमान फ़ारूकी साहब से भी मिला।


      हितेश कु. सिंह : इसके अतिरिक्त शहर की कुछ और ऐतिहासिकता के बारे में बताएं। जहाँ पर साहित्य संगोष्ठियाँ लगती थीं। कॉफी हाउस, निराला सभागार, हिन्दुस्तानी एकेडमी, उत्तर मध्य क्षेत्र सांस्कृतिक केन्द्र, हिन्दी साहित्य सम्मेलन, इलाहाबाद म्यूजियम, आदि साहित्यिक/सांस्कृतिक स्थलों के कुछ वाकये बताएं। आज के दौर में इन संस्थानों को किस तरह देख पा रहे।


      राजेंद्र कुमार : हिंदुस्तानी एकेडेमी, साहित्य सम्मेलन वगैरह की गोष्ठियों में श्रोता के रूप में उपस्थित होता था। गोष्ठियाँ अक्सर ही होती थीं। कॉफी हाउस उन दिनों बहुत गुलज़ार था, लेखकों और बुद्धिजीवियों की बैठकी से। फिराक और विजयदेव नारायण साही को पहले-पहल वहीं देखा। लक्ष्मीकांत वर्मा, सत्यप्रकाश मिश्र, नरेश मेहता टी. पति, विपिन अग्रवाल आदि काफ़ी हाउस के नियमित बैठक बाज थे। लेकिन काफी हाउस की बैठक में ज्यादा शामिल होने का स्वभाव मेरा कभी नहीं रहा। जब कोई लेखक मित्र आग्रह करता-रामकमल राय या सत्प्रकाश मिश्र वगैरह तो, उन्हीं के साथ कभी-कभी चला जाया करता। निराला सभागार तब नहीं था। हाँ, इलाहाबाद विश्वविद्यालय का हिंदी विभाग अलबत्ता तब अपनी अलख जगाए रखता था। बाहर के विद्वानों को भी व्याख्यान वगैरह के लिए बुलाया जाता था।


      अवनीश : आप अपनी पुस्तक ‘प्रतिबद्धता के बावजूद के अन्तर्गत 'सत्ता, संस्कृति और बौद्धिक समाज' में लिखते हैं, इलाहाबाद में अमरकांत जैसा वयोवृद्ध साहित्यकार भी रहताहै और कैफ जैसा युवा क्रिकेट खिलाड़ी भीइसके अतिरिक्त हर कोशिश है एक बगावत' कविता संग्रह में ‘अमरकांत, गर तुम क्रिकेटर होते' नाम से बाकायदा कविता भी लिखते हैं। तो दोनों की स्थिति/परिस्थिति में इतना भयानक अंतर के लिए किसको जिम्मेदार समझें।


     राजेंद्र कुमार : असल में प्रश्न सांस्कृतिक दृष्टि का है। सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के नाम पर संकीर्ण मान्यताएँ प्रचारित की जा रही हैं। कोई स्पष्ट सकारात्मक और सुचिंतित नीति नहीं है। राममनोहर लोहिया, जवाहरलाल नेहरू जैसे राजनयिक अब कहाँ हैं, जिनका अपने समय के लेखकों और बुद्धिजीवियों से निकट का संपर्क रहता था। सुनते हैं, एक बार जवाहरलाल और रामधारी सिंह दिनकर कहीं किसी सभा में भाग लेने साथ-साथ जा रहे थे, सभास्थल के लिए सीढ़ियां चढ़ना थाजवाहर लाल के पाँव किसी सीढ़ी पर लड़खड़ा गए। दिनकर ने उन्हें संभाला। जवाहरलाल दिनकर की ओर देखते हुए बोले- जब-जब सियासत लड़खड़ाती है, साहित्य और संस्कृति इसी तरह उसे गिरने से बचाती हैयह एहसास हैआज किसी भी राजनेता को? सत्तामद में सब चूर हैं। साहित्य से दूर-दूर तक किसी का आत्मीय और वास्तविक रिश्ता नहीं। संस्कृति मंत्रालय है, पर साहित्य कहाँ है? साहित्य किसी को चुनाव में वोट नहीं दिला सकता। संस्कृति की वह चेतना जो समाज-सजग बनाने वाली हो, बौद्धिकों की वे गतिविधियाँ जो हमें समय-सजग बनाने वाली हो, सत्ता उन्हें क्यों महत्व देगी? आज अखबारों में भी शब्द साधकों कलाकारों के लिए कितनी जगह है? नेता, अभिनेता, क्रिकेटर और धर्म के नाम पर ढोंगी कर्मकांडी सब जगह छके रहते हैं। अब साहित्य के नाम पर आज सरकारी-असरकारी तौर पर सम्मान और पुरस्कार बहुत हैं। बस, इनसे साहित्यकारों को नवाज कर सत्ताव्यवस्था अपने कर्तव्य की इतिश्री मान लेती है। इधर विडंबना यह भी कि आज के लेखकों का अपने समाज में कोई सक्रिय रिश्ता नहीं बन पाता। नए-से-नए लेखक भी पुरस्कार वगैरह पाकर आत्ममुग्धता को प्राप्त हो जाते हैं। रचना के क्षेत्र में न वैसा संघर्ष है, न वैसे सरोकार जो पहले की पीढ़ियों के लेखकों में हुआ करते थे। जो थोड़ेबहुत हैं, उनकी कोई संगठित आवाज़ नहीं है।


     अवनीश : लगे हाथ यह भी स्पष्ट कर दीजिए, इसे उत्थान समझा जाए या पतन कि जूते शोरूम में बिक रहे हैंऔर किताबें फुटपाथ पर।


     राजेंद्र कुमार : यह बाजारवाद और उपभोक्तावाद का जुमाना है। स्थूल उपयोगिता के आधार पर चीजों का महत्व आँका जाता है। उपयोगिता का आज का जो पैमाना है, उस पर बेचारी किताबें कहाँ ठहरती हैं। साहित्य की जो लोकप्रिय पत्रिकाएँ मानी जाती रहीं, इलाहाबाद जैसे शहर में भी उनके मिलने के लाले पड़ रहे हैं। हिसाब-किताब का समाज बन रहा है, किताब का कहाँ? इलाहाबाद साहित्य के प्रकाशन का केंद्र थाअब लोकभारती प्रकाशन, नीलाभ प्रकाशन जैसे केंद्र भी नहीं बचे जहाँ लेखकों का आना-जाना होता था, आपस में चर्चाएँ होती थीं‘राजकमल' और 'वाणी' ने ज़रूर इलाहाबाद में अपनी शाखाएँ खोल ली हैं। इनसे कुछ आशा की जा सकती है। कुछ तो बच सकता है। दिल को बहलाने को गालिब ये खयाल अच्छा है।'


     हितेश कु. सिंह : बतौर प्रोफेसर और विभागाध्यक्ष आपने इलाहाबाद विश्वविद्यालय में लम्बे समय तक अध्यापन कार्य भी किया है। कैसा अनुभव रहा? साहित्यिक उत्कर्ष में हिंदी विभाग और विश्वविद्यालय का कितना योगदान आप समझते हैं?


     राजेंद्र कुमार : अनुभूति होती थी कि मैं भी उस हिंदी विभाग में हूँ जहाँ कभी भारती हुआ करते थे। कमलेश्वर, दुष्यंत, मार्कंडेय जहाँ सहपाठी रहे थे। अभी भी रघुवंश जी, रामस्वरूप जी, जगदीश जी (बाद में दूधनाथ जी भी आ गए) इन सबका सहयोगी कहलाने का सुयोग मुझे मिला। उस समय हिंदी विभाग का अध्यक्ष होना भी गौरव की बात होती थी। पूरे देश की निगाह इलाहाबाद वि.वि. के हिंदी विभाग पर रहती थी कि अब हिंदी विभाग का अध्यक्ष कौन है, या कौन होने वाला है।


    विभाग में बराबर साहित्यिक गतिविधियाँ होती थीं। सेमिनार और संगोष्ठियाँ होती थीं। व्याख्यानमालाओं के अंतर्गत निराला व्याख्यानमाला की विशेष प्रतिष्ठा थी। जगदीश गुप्त कवि के साथ साथ चित्रकार भी थे। उन्होंने 'कला संगम' के अंतर्गत समय-समय पर चित्रकला संबंधी प्रदर्शनियां आयोजित भी की थीं। तब विश्वविद्यालय में एक ड्रामाटिक हॉल भी था। दूधनाथ सिंह के निर्देशन में मोहन राकेश के ‘आधे-अधूरे' का मंचन इसी हॉल में हुआ था। नाटक में अभिनय करने वाले सभी, हिंदी विभाग के छात्र-छात्राओं में से थे। भारतीय हिंदी परिषद नाम की संस्था थी, जिससे श्रेष्ठ पुस्तके (विभाग से संबद्ध रहे विद्वानों की) प्रकाशित भी होती थीं मेरे समय तक ये सब सक्रियताएँ रहीं। विभाग की वार्षिक पत्रिका ‘कौमुदी' का ऐतिहासिक महत्व था। प्रेमचंद तक की रचना इसमें शुरू-शुरू में छपी थी। बीच- बीच में स्थगित होती रही। बाद में दूधनाथ सिंह ने संपादक के रूप में इसे व्यापकता दी ताकि मात्र विभाग के अध्यापकों और विद्यार्थियों का मंच बनकर रह जाने की बजाए अपने समय की रचनात्मक सक्रियता में योग दान देने वाले धूमिल, कालिया जैसे कवियों-कहानीकारों से भी विद्यार्थियों को परिचित होने का मौका मिल सके। खुद मैंने भी कौमुदी के कई अंक संपादित किए।


    हितेश कु. सिंह : अभी हाल फिलहाल इविवि के हिंदी विभाग में लंबे इंतजार के बाद काफी संख्या में शिक्षक नियुक्त हुए। बतौर अध्यापक-साहित्यकार आप इस नई आमद को किस रूप में देखते हैं?


     राजेंद्र कुमार : जब हम लोगों (सत्यप्रकाश मिश्र, रामकमल राय और किशोरी लाल) ने हिंदी प्रवक्ता के रूप में नियुक्ति पाई थी, तब नए-पुराने सारे अध्यापकों की संख्या कुछ मिलाकर तैंतीस थी। मज़ाक चलता था कि हमारा देश ३३ करोड़ देवीदेवताओं का देश है और हमारा हिंदी विभाग एक-एक करोड़ देवताओं के एक-एक प्रतिनिधि का विभाग। आगे चलकर यह भी हुआ कि हममें से, साहित्यिक सक्रियता की दृष्टि से तीन नामों (दूधनाथ सिंह, सत्य प्रकाश मिश्र और राजेंद्र कुमार) के लिए छात्रों के बीच दबी जबान यह मुहावरा भी चल पड़ा-'ठाकुर-बाम्हन-लाला।


     धीरे-धीरे हमारे अग्रज सेवा-निवृत्त होते हुए। कुछ अच्छी नियुक्तियाँ हुई, जिनमें प्रणयकृष्ण और सूर्यनारायण जैसे प्रतिभाशाली साथी हमें मिले। लेकिन फिर विभाग खाली होता गया। जहाँ ३३ थे, वहाँ मात्र तीन रह जाने की आशंका व्यापीनिश्चय ही अभी हाल में जो नियुक्तियाँ हुईं, उनसे यह कामना तो की ही जा सकती है कि विभाग फिर से समृद्ध हो सके।


     कुमार वीरेन्द्र : अच्छा! आपके पास तो लम्बा अनुभव है। तब के समाज और साहित्य तथा अब के समाज और साहित्य के अन्तर्सम्बन्धों में क्या कुछ परिवर्तन दिखता है? और अगर दिखता है तो किस स्तर का?


     राजेंद्र कुमार : परिवर्तन होना स्वाभाविक है। होना भी चाहिए। पर प्रश्न है, परिवर्तन कैसा? सकारात्मक या नकारात्मक? इलाहाबाद के साहित्यकारों में तमाम आपसी मतभेदों के बावजूद आपस में जो एक पारिवारिक भाव था, वह अब नहीं है। प्रगतिशील लेखक थे, तो परिमल के सदस्य रह चुके लेखक भी थे। तीव्र बहसें होती थींकेवल जुबानी नहीं, बाकायदा रचनात्मक लिखत-पढ़त के साथनई कविता', जैसे आंदोलन के वरिष्ठ लेखकों में जगदीश गुप्त, लक्ष्मीकांत वर्मा, केशवचंद्र वर्मा, विजय देव नारायण साही जैसे व्यक्तित्व थे। साही जितने प्रखर आलोचक थे, उतने ही गंभीर कवि भी। उनके द्वारा उठाई गई बहसों और उनके लेखों की धमक नामवर जी तक के लेखन में देखी जाती रही  ।   तो  यह सब था। अब वह नहीं है।


     असल बात यह है कि आखिर इलाहाबाद भी है तो देश के उसी नक्शे पर। बाहर तो है नहीं। तो जो दशा पूरे देश की हो रही है, उससे इलाहाबाद एकदम अछूता कैसे रह सकता है? और अब तो अपने शहर के जिस नाम से हम जाने जाते थे, वह नाम भी छीना जा रहा है। हमारा इलाहाबाद अब उनका प्रयागराज हो जाएगा, तो लगता है अपने आपसे ही कितने अजनबी हो जाएंगे हम।


     तो निश्चय ही निराशा भी होती है। पर इस निराशा में भी हमारी कोशिश होनी चाहिए कि हम नितांत आशाहीन न होने पाएँ।


     अवनीश : आप मानते हैं कि ‘कविता कोई नितांत सामयिक कार्रवाई नहीं होती और यह भी लिखते हैं कि हर अच्छी कविता एक प्रतिध्वनि होती है। हमारे अनुभवों, हमारे भावों, हमारी स्मृतियों और हमारी कल्पनाओं की ‘सम्मिश्रप्रतिध्वनि'। इसके अतिरिक्त अगर कविता को और स्पष्ट करना हो तो आप क्या कहेंगे?


     राजेंद्र कुमार : ‘कविता कोई नितांत सामयिक कार्रवाई नहीं होती'—यह कहने का आशय यह है कि हर सार्थक रचना एक मानसिक क्रिया की परिणति होती है। बाहर घट रही घटनाओं की प्रतिक्रियाओं की तात्कालिक परिणति नहींमुझे याद है जब चीन तथा पाकिस्तान के हमले हुए थे, ढेरों जोशीली कविताएँ लिखी गईं। राष्ट्रप्रेम के नाम पर उन्हें तात्कालिक सराहना भी मिलती थी। और सन् ‘९२ में बाबरी मस्जिद ध्वंस की प्रतिक्रिया के रूप में भी पता नहीं कितनी कविताएँ लिखी गईं। उनमें से कितनी कविताएँ हैं, जिन्हें आज श्रेष्ठ कृति के रूप में स्वीकारा जा सकेगा? ठीक है, उन कविताओं ने एक तात्कालिक उद्वेलन पाठकों के मन में पैदा किया। लेकिन मात्र तात्कालिक उद्वेलन ही। एक प्रकार का उफान मात्र। उफ़ान की नियति है कि वह जितनी जल्दी उठता है, उतनी ही जल्दी बैठ भी जाता है।


    असल में कविता साहित्य की अन्य विधाओं की तुलना में सबसे संघनित विधा होती है, जिसमें विचार सिर्फ विचार बने रह कर नहीं आ सकते, भाव सिर्फ भावुकता बनकर नहीं। विचार और भाव दोनों के संयुक्त संघनन की मांग आज की कविता से की जाने चाहिए। बाकी, कविता के ‘सम्मिश्र प्रतिध्वनि' होने की बात, तो उस भूमिका से ही स्पष्ट है, जो मैं पहले ही लिख चुका हूँ।


    अवनीश : ‘समकालीन सृजन' १९९८ में आपने एक लेख २०४७ का भारत लिखा। इतनी आगे की चीज कोलिखने के पीछे कहीं २०वीं सदी में लिखी राहुल सांकृत्यायन की ‘बाइसवी सदी' का प्रभाव तो नहीं रहा?


     राजेंद्र कमार : नहीं, ऐसा नहीं है। राहुलजी की किताब ‘बाइसवीं सदी' से उस लेख की कोई प्रेरणा नहीं ली गई किताब उस वक्त मेरे जेहन में थी ही नहीं। असल में कलकत्ते से निकलने वाली पत्रिका 'समकालीन सृजन' का वह आयोजन था। संपादक शंभुनाथ जी थे, उन्होंने ही ऐसा कुछ लिखने का प्रस्ताव किया था। वह विशेषांक बाद में पुस्तक रूप में प्रकाशित हुआ। '२०४७ का भारत' नाम से।


    कुमार वीरेन्द्र : एक दौर था, जब इलाहाबाद से कई महत्त्वपूर्ण साहित्यिक सांस्कृतिक पत्र पत्रिकाएँ निकलती थीं। आज यहां से जो कुछ निकल रही हैं उनके बारे में, आपकी क्या राय है? क्या पत्रिका आप तक पहुँचती भी है।


     राजेंद्र कुमार : हाँ, इलाहाबाद से निकलने वाली पत्रपत्रिकाओं का भी अपना गौरवपूर्ण इतिहास है। इलाचंद्र जोशी 'संगम' नाम का पत्र निकाला था। भारती ने ‘निकष'। नई कविता' (जगदीशगुप्त, रामस्वरूप चतुर्वेदी, विजयदेव नारायण साही) ‘क.ख.ग' (रघुवंश) जैसी पत्रिकाएँ निकलीं। भले ही कुछ ही अंक निकले हों, लेकिन आज भी उन्हें संग्रहणीय माना जाता है। ‘आलोचना' के भी कुछ अंक इलाहाबादी संपादकों के हाथ में रहे। उसी दौर की आलोचना' में प्रेमचंद के बारे में छपे एक लेख से व्यापकता बनाम गहराई जैसी बहस छिड़ी। इसी शीर्षक से उन दिनों लिखा गया नामवर जी का लेख उनकी पुस्तक ‘इतिहास और आलोचना' में संकलित है। कुछ बरसों बालकृष्ण राय ने ‘माध्यम' का संपादन किया। मार्कण्डेय जी ने ‘कथा' निकालना आरंभ कियाइसमें छपे तब के लेखकों में से कई के नामों को पर्याप्त प्रतिष्ठा मिली।


    मार्कंडेय जी के संपादकत्व में 'माया' का भी एक कथा-विशेषांक निकला था जो चर्चित रहा। भैरव जी और श्रीपतराय की चर्चा भी हिंदी के कृती संपादकों के रूप में विशेष रही। ‘अमरकांत' को एक कहानीकार के रूप में आगे लाने का श्रेय 'कहानी' पत्रिका को मिला। ‘डिप्टी कलेक्टरी' शीर्षक कहानी इसी पत्रिका में छपी थी। नई कहानियाँ भी अपने अंतिम दौर में इलाहाबाद आ गई, अमृतरायजी के हाथ में।


    मैंने भी 'अभिप्राय' इलाहाबाद आकर ही शुरू किया। अखिलेश और देवीप्रसाद मिश्र की रचनाएँ महत्व के साथ पहली बार छापने का श्रेय ‘अभिप्राय' को ही है। बोधिसत्व और बद्रीनारायण की भी कविताएँ ‘अभिप्राय' में छपीं। दूधनाथ जी के नाटक ‘यमगाथा' का भी एक अंक इसी में छपा। इसके कई विशेषांक (खासकर, क्रमशः विजय देवनारायण साही पर और फिर निराला पर केंद्रित) आज भी लोगों को याद हैं। साही पर केंद्रित विशेषांक ‘साही के बहाने' नाम से तथा निराला पर केंद्रित ‘स्वाधीनता की अवधारणा और निराला' नाम से पुस्तक रूप में प्रकाशित हुए।


    हिंदी साहित्य सम्मेलन से निकलने वाली पत्रिका ‘माध्यम' एक बार फिर निकली, जब सत्यप्रकाश मिश्र सम्मेलन के साहित्य-मंत्री थे। सत्यप्रकाश के असामयिक निधन के बाद यह पत्रिका भी अपने अंत को प्राप्त हुई।


     अनिल श्रीवास्तव ने ‘कथ्यरूप' निकाली। जमाली जब 'कहानी' (सरस्वती प्रेस) से मुक्त हुए तो उन्होंने खुद ‘नई कहानी' नाम से एक पत्रिका शुरू की। तीन-चार अंक हीनिकल पाए।


     इधर, हमारे एकदम नए लेखकों की पीढ़ी भी इस दिशा में सक्रिय है। संतोष चतुर्वेदी 'अनहद' और हितेश सिंह ‘प्रयागपथ' जैसी पत्रिकाओं का कुशल संपादन कर रहे हैं। कथा' बीच में दिल्ली प्रवास के बाद फिर इलाहाबाद आ गई है दुर्गासिंह के संपादन में। ‘पक्षधर' (आपातकाल में दूधनाथ सिंह उसका एक ही अंक निकाल पाए थे) इलाहाबाद से निकला था। अब दिल्ली से उसे विनोद तिवारी निकाल रहे हैं।


     बाहर से निकलने वाली कई अत्यंत सराही जाने वाली पत्रिकाओं 'पहल', 'वसुथा', ‘तदभव' का एक अच्छा-खासा पाठकवर्ग इलाहाबाद में है। मुझे भी इन पत्रिकाओं के अंकों की प्रतीक्षा रहती है।


    अवनीश : आपने एक कविता लिखी है ‘इतवार का दिन' उसमें डिस्टर्व करने वालों की खैर नहीं। संयोग से आज इतवार है। इस जैसी कविताओं के बारे में कुछ बताएँ।


     राजेंद्र कुमार : इतवार का दिन उन दिनों लिखी गई थी, जब मैं कानपुर के मजदूरों के संपर्क में था। वहाँ मिलों को ‘पुतलीघर' कहते थे। ऊंची ऊँची चिमनियों में धुआँ निकलता रहता था। मिलों में मजदूरों के काम पर पहुँचने का समय, दोपहर में खाने की छुट्टी का समय बताने के लिए मिलों के भोंपू बजते थे। भोंपूओं की आवाज़ दूर-दूर तक जाती थी। उससे समय का अंदाज़ लगाते थे लोग-अब सुबह के पाँच बजे अब दोपहर के दो और शाम के सात बजे। इतवार का दिन छुट्टी का दिन होता था। मैंने मजदूरों को अपने हक में लड़ते भी देखा और परिवार के संकटों से जूझते भी। ‘पुतलीघर का भोंपू' और 'इतवार का दिन' उन्हीं अनुभवों को व्यक्त करने वाली कविताएँ हैं। ये मेरी प्रारंभिक कविताओं के दिन थे। ६० के दशक के।


     हितेश कु. सिंह : आज की कविता और कवियों को क्या कहना चाहेंगे।


     राजेंद्र कुमार : मेरा मानना है किसी भी लेखक को चाहे वह कितना भी प्रतिष्ठित और वरिष्ठ हो, दूसरे लेखकों को उपदेश नहीं देना चाहिए। हाँ, सलाह या परामर्श देना दूसरी बात है। साहित्य एक ऐसा क्षेत्र है, जिसमें प्रवेश के लिए हर एक को अपनी राह खुद तलाशनी होती हैं।


     हितेश कु. सिंह : सद्यः प्रकाशित आपकी कविताएं काफी मुखर हैं। सत्ता-व्यवस्था से सीधे लड़ती नज़र आती हैं।


     राजेंद्र कुमार : शायद सही है कि मेरी कुछ कविताओं में मुखरता ज्यादा हैव्यवस्थाओं की अमानवीय होती जाने वाली प्रवृत्तियों के प्रतिरोध के लिहाज से इसे जायज ठहराया जा सकता है। लेकिन यह सिर्फ आज की ही बात नहीं है। अज्ञेय जब ‘चौथा सप्तक' की योजना बना रहे थे, तब उन्होंने भी यही बात इस रूप में कही थी—“आज का कवि बहुत बोलता है।' निस्संदेह मुखर होना कभी कभी कविता के केंद्रीय अनुभव की आंतरिक मांग भी होती है। मेरा इस संबंध में उनसे पत्राचार भी हुआ था। मेरा कहना था। (और अब भी है) कि मुखर होना कभी-कभी कविता के केंद्रीय अनुभव की मांग भी होती है। लेकिन कविता के लिए अगर वह अतिरिक्त बन जाए, तो यह निस्संदेह कविता के लिए अच्छा नहीं होता। मैं पहले ही कह चुका हूँ, कविता सबसे संघनित विधा है। उसमें कुछ भी अतिरिक्त के लिए चाहे वह शब्दों में हो, अर्थध्वनियों में हो) गुंजाइश नहीं होती।


    कुमार वीरेन्द्र : यदि इन दो शब्दों में आपको चुनना हो इलाहाबाद शहर' है या 'जीवन' तो आप क्या चुनना चाहेंगे?


     राजेंद्र कुमार : जो पहले का इलाहाबाद था, वह ‘जीवन' ज्यादा था। हालाँकि शहर भी था ही। पर वह नगर होने की हड़बड़ी में नहीं थायह जो ‘स्मार्ट सिटी' जैसी संकल्पनाएँ आज आ गई हैं, इनमें एक प्रकार की क्रूर हड़बड़ी है। इनमें ‘जीवन' ज्यादा नहीं हैजीवन ज्यादा था पहले यह कहने का आशय यह है कि रचनात्मक स्फूर्ति पहले ज्यादा थी। शांति थी। शांति, वह नहीं, जो गतिहीनता का एहसास कराती हो। बल्कि वह शांति जो हमारे अंतर्मन की सच्ची आवाजों को शोरगुल में खोने नहीं देती थी। तब इलाहाबाद के जीवन की लय पूरे देश के साहित्यिक समाज में महसूस की जाती थी। खासकर हिंदी समाज में इलाहाबाद शहर था तो ऐसा, जिसे शऊर था अपने यहाँ बसने वालों की अपनी पहचान कराने का। अब शहर है, लेकिन अब उसे शऊर नहीं, स्मार्ट सिटी बनने के गुरूर की ओर ढकेल दिया जा रहा है। और मज़ा यह भी, एक ओर स्मार्ट सिटी बनाकर उसे आगे ले जाने का दावा, दूसरी तरफ़ पुराने पन्नों में पाए जाने वाले नाम को उस पर थोपकर पीछे से जाने का उपक्रम।


     अवनीश : और अंत में यह भी जानना चाहता हूँ। वतौर अतिथि आप साहित्यिक संगोष्ठियों में प्रायः देखे जाते हैं, इधर बीच आप फेसबुक और वाट्सएप जैसे सोशल मीडिया पर भी सक्रिय देखे जा रहे हैं। न सिर्फ लाइक करते हैअपितु 'कमेंट भी करते हैं और साथ-साथ हिदायत भी देते हैं- ‘फला भाई देखना अभी नौसिखिया हूँ, टाइप करने में ज़रा लड़खड़ा जाता हूँ। आभासी दुनिया से यह कैसा अनुभव देता है?


    राजेंद्र कुमार : (हँसते हुए) साहित्यिक संगोष्ठियों और वाट्स-एप या फेसबुक से जुड़ना मेरे लिए संवादहीनता के माहौल से उबरने का विनम्र उपक्रम है। और फिर वो एक कहावत है। न -A Man is never too old to learn तो मैं कोशिश करता हूँ कुछ नया-नया भी सीखता रह सकें। निश्चय ही अभी नौसिखिया हूं। इस संदर्भ में सच तो यह है कि आज के बच्चे भी मुझ जैसे उम्र-प्राप्त से कहीं ज्यादा आगे हैं। मुझे वाट्सएप वगैरह के उपभोग का सलीका सिखाने के मामले मेरी पौत्रियाँ मेरी गुरु है।


    कुमार वीरेन्द्र : पुस्तक के प्रकाशन के मामले में सुना है, आप बहुत उत्साहित नहीं रहे। पहले कविता-संग्रह 'ऋण गुणा ऋण' के बाद आपके दूसरे संग्रह हर कोशिश है एक बगावत' प्रकाशन के बीच एक लंबा अंतराल है। लेकिन इधर के पाँच वर्षों में आपकी कई (पाँच-छै) किताबें प्रकाशित हुईं। तो बीच का जो अंतराल है, उसका कारण क्या आपकी अपनी उदासीनता को माना जाय, या कुछ और ?


    राजेंद्र कुमार : ऐसा तो नहीं कह सकता कि प्रकाशन का कोई उत्साह ही नहीं रहा। जब लिखना शुरू किया था, छपने छपाने का अवसर पाने के लिए बहुत लालायित रहता था। पत्र-पत्रिकाओं में भेजता रहता था। बहुत कुछ लौट-लौट आने के बावजूद। किसी संपादक से कोई परिचय वगैरह भी नहीं था। हाँ, देवीशंकर अवस्थी जी कानपुर में तब थे। हिंदी के क्षेत्र में उनकी काफ़ी प्रतिष्ठा थी। उन्होंने मुझे प्रोत्साहित किया प्रकाशनार्थ रचनाएँ भेजने को। कानुपर की लाइब्रेरियों में मैं जाता था, तो मुझे वहीं से कल्पना, ज्ञानोदय, धर्मयुग, हिंदुस्तान जैसे पत्रों का पता मिल जाता। उन्हीं उन्हीं पतों पर मैं कविताएँ वगैरह भेजता। इस तरह कुछ छपता, कुछ लौट आता। संपादक के अभिवादन और खेद सहित। कानपुर में शिवाले के पास एक प्रकाशन था। वहीं से मेरा पहला संग्रह छपा। सन् १९६३ में बहरहाल, छपने का सिलसिला शुरू हो गया। मेरी उम्र उस वक्त १९-२० की थी। उसमें ज्यादातर गीतनुमा कविताएँ थीं।


     जब इलाहाबाद आया तब तक हिंदी की लगभग सारी पत्रिकाओं में छपने लगा, जिनके नाम अभी मैंने बताए। सारिका', कहानी' वगैरह में कहानियाँ भी छपीं।


     इलाहाबाद में ही, कहानीकार सतीश जमाली ने अपने ‘चित्रलेखा प्रकाशन' से मेरा संग्रह छापा। कायदे का मेरा पहला संग्रह यही था। फिर एक कहानी संग्रह भी छपा अनादि प्रकाशन से।


     असल में प्रकाशकों से मैं अपनी ओर से कोई संपर्क कर नहीं पता था। यहाँ तक कि जब ‘ऋण गुणा ऋण' संग्रह छपा, मुझे उसकी प्रतियाँ उन लेखकों को भी देने में संकोच होता था, जिनसे मैं परिचित हो चुका था।


     मुझे यह गलतफ़हमी भी थी कि प्रकाशित हो गई किताब, तो लेखकों तक भी स्वयं प्रकाशक ही पहुँचाएगा। यह गलतफ़हमी इसलिए भी थी कि प्रकाशक सतीश जमाली स्वयं भी लेखक थे और इलाहाबाद के प्रायः सभी लेखकों से उनके घनिष्ठ संबंध थे। यानी संकोच मुझमें थाबेवकूफी के हद तक। तो अंतराल का एक कारण यह था। यह भी कि अपनी रचनाओं की पांडुलिपि तैयार करना भी मुझे बहुत नीरस-सा काम लगता। अब भी लगता है। बहुत सारी चीजें पुरानी कापियों और डायरियों में अब भी इधर-उधर पड़ी हैं।


    इधर जो कई किताबें एक साथ आईं, उनके लिए मैं साहित्य भंडार के श्री सतीश अग्रवाल का आभारी हूँ। वे खुद मेरे घर आकर मुझसे मिले। उनका प्रेमपूर्ण आग्रह न होता तो, शायद मैं इतना उत्साहित न होता प्रकाशित होने के लिए। और संगम लाल-उन्हें तो मैं अपना गणेश कहता हूँ। वही मेरा लिखा कंपोज़ करते हैं।


    अवनीश : इधर बीच क्या कुछ नया लिख रहे हैं?


    राजेंद्र कुमार : कुछ कविताएँ हैं जिन पर काम करना है। डायरी भी कभी-कभी लिखता रहा। उनके भी कुछ अंश पुस्तकाकार शीघ्र ही प्रकाशित हो सकेंगे। मुक्तिबोध और तुलसीदास पर भी लिखने के क्रम में हूँएक पुस्तक आलोचना आसपास' संभवतः जनवरी २०१९ तक आ जाएगी। बाकी, 'हम अभी से क्या बताएँ, क्या हमारे मन में है।'