साक्षात्कार - प्रख्यात् साहित्यकार प्रो. शम्स-उर-रहमान फारूकी से तलत महमूद की बातचीत हिन्दी-उर्दू को रोजगार से जोड़कर न देखें - हिन्दी-उर्दू को रोजगार से जोड़कर न देखें

गंगा, जमुना और सरस्वती के संगम पर बसा हुआ तारीखीशहर इलाहाबाद जो अब प्रयागराज के नाम से जाना जाता है, अपने अन्दर कई रूपहले किरदार समेटे हुआ है। आजादी की लड़ाई, राजनीति, खेल का मैदान या इल्मो-अदब, यह शहर खास मुकाम रखता है। यहां हमेशा सूफ़ी-सन्त और साहित्यकारों का डेरा रहा है, जिन्होंने अपने त्याग, बलिदान, चिन्तन और विचारों से इस सरज़मी को सींचा है। यही वजह है कि यहां की आब-ओ-हवा में अंकुरित होने वाली विचारों की नई पौध खास मुकाम ही नहीं रखती बल्कि परम्परा रूपी माला में मोती पिरोने का काम करती रही हैं। ऐसी ही खास शख्सियत के मालिक और प्रतिभा के धनी प्रो. शम्स-उर- रहमान फ़ारूकी हैं, जिन्होंने इलाहाबाद में रहते हुए अपनी फिक, चिन्तन और विचारों से अदब और साहित्य रूपी माला में मोती पिरोने का काम किया है। उर्दू अदब में आपकी पहचान हिन्दुस्तान ही नहीं वरन दुनिया के तमाम उर्दू शोबों में हैं।


    उर्दू अदब में शम्स-उर-रहमान फारूकी की शख्सियत किसी तआरुफ़ की मोहताज नहीं है। आप तहरीक-ए- जदीदयत के अलमबरदार माने जाते हैं। शम्स-उर-रहमान फ़ारूक़ी साहब बतौर एक आईपीएस अफ़सर सर्विस में आए और सीपीएमजी के ओहदे से सुबुक-दोश होने के बाद इलाहाबाद में कायम पज़ीर हैं। फ़ारूकी साहब ने सरकारी मुलाजुमत का हक अदा करते हुए उर्दू अदब में एक अंजुमन की तरह काम किया है। आप सर्विस में आने से पहले बलिया और आजमगढ़ के कालेजों में अंग्रेजी के लेक़रार रहे। इसके बाद तो आपने कभी पलट कर ही नहीं देखा। एक के बाद एक नई मंजिलें तय करते चले गए। विजिटिंग प्रोफेसर की हैसियत से हिन्दुस्तान के कई विश्वविद्यालय के अलावा ब्रिटिश कोलम्बिया विश्वविद्यालय अमेरिका की पेन्सेलावानिया विश्वविद्यालय शिकागो विश्वविद्यालय में अपनी सेवाएं दीं। बाद में आपको डी लिट् की उपाधि से नवाजा गया है।


    शम्स-उर-रहमान फ़ारूकी की अदबी खिदमात और मकबूलियत।


    प्रो. शम्सुरर्हमान फ़ारूकी की अदबी खिदमात बतौर अन्तरराष्ट्रीय उर्दू नकाद, लेखक, कवि, एडिटर और उपन्यासकार की है। इनकी उर्दू शायरी में दिल की जगह दिमाग की कार-फ़रमायी नज़र आती है। आपका १८वीं और १९वीं सदी की उर्दू शायरी, क्लासिकी अरूज के अमली पहलु, अदबी नज़रियात और ऐतिहासिक दास्तानों पर अहम काम किया है। आपका उपन्यास 'कई चांद थे सरे आसमां काफी चर्चित रहा है। इसका उन्वान मशहूर शायर अहमद मुश्ताक की यह पंक्तियां कई चांद थे सरे आसमां कि चमकचमक के पलट गए, ना लहू ही मेरे जिगर में था ना तुम्हारी जुल्फ स्याह थी।' से लिया गया है। इस कहानी की शुरूआत १८वीं सदी से होती है, जो उस ज़माने के कल्चर और मिटती बादशाहत के साए में समाज, शायर और फ़नकार होने के माने, जिन्दगी बसर करने के तरीके और अदब में पनप रही नई तब्दीलियों के मंजर बड़े ही करीने से पेश किया है। उर्दू में लिखे गए इस उपन्यास के हिन्दी अनुवाद ने उनकी मेघा में चार चांद लगा दिए। बाद में यही उपन्यास अंग्रेजी में शाया हुआ। किस्सागोई का यह अंदाज उन्हें दूसरे उर्दू अदब के लोगों से अलग रखता है। आप अंग्रेजी में लिखने से भी पीछे नहीं रहे हैं। आपकी कुछ गज़ल व नज्मों और अफ्सानों को जर्मन, हिन्दी, तमिल, मलयालम और अन्य भाषाओं में भी तर्जुमा किया गया है। आपके द्वारा लिखी गई किताबों की  सूची काफी लज्बी है। खास किताबों में ‘मीर तकी मीर की शायरी' ‘शेर-ए-शोर अंगेज', 'कई चांद थे सरे आसमां'काफी चर्चित रही हैं। इसके अलावा तन्कीदी किताबों में उनकी ‘शेर गैर-शोर और नस्र', ‘तफ़हीम-ए-गालिब', ‘आरजू' आदि रही है। इन्हीं अदबी खिदमात के चलते आपको कई बड़े एवार्डो से नवाजा जा चुका है। खासकर बिड़ला फाउंडेशन का सरस्वती सज्मान, बहादुर शाह जफर नेशनल एवार्ड और भारतीय साहित्य के लिए पद्म श्री एवार्ड से सुशोभित किया जा चुका है। आपकी अदबी खिदमात का सिलसिला यहीं नहीं थमता है। आपने ४० साल तक उर्दू का अदबी रिसाला ‘शबखून' का संपादन किया जो लोगों के बीच काफी मकबूल हुआ।


     उर्दू अदब के नामवर नक्काद शम्स-उर-रहमान फ़ारूक़ी से तलत महमूद की बातचीत


     मुझे विश्वविद्यालय में पढ़ाने की बड़ी तमन्ना थी। लेकिन चाह कर भी ऐसा नहीं हुआ। कुछ न कुछ तो करना ही था। लेहाजा मैंने कालेज में पढ़ाना शुरू कर दिया। उस ज़माने में मेरे एक दोस्त सिविल सर्विसेज़ का इज्तेहान दे रहे थे। उनके पास सिविल सर्विसेज़ का एक फॉर्म अतिरिक्त आ गया। उन्होंने यह फॉर्म मुझे भरवा दियातकदीर का मज़ाक देखिए जिस दिन मुझे सिविल सर्विसेज का आखरी पेपर देनाथा, उसी दिन मुझे अलीगढ़ यूनिवर्सिटी का इन्टरव्यू भी देना था। मैंने सोचा मेरे सभी पेपर अच्छे हुए हैं, लेहाजा अब इसे छोड़ना ठीक नहीं है और मैं इन्टरव्यू देने नहीं गया। शायद मेरे लिए यह अच्छा नहीं हुआ।


     एक साहित्यकार और सरकारी अफसर की मुलाज़मत दोनों की अलग-अलग दिशाएं, आप दोनों को बैलेन्स कैसे करते थे?


     यह मैंने अपने बुजुर्गों से सीखा है कि जिस काम को करना है, उसे ठीक से अंजाम देना है। यह अलग बात है कि नौकरी करना मेरी पहली पसंद नहीं थी। लेकिन करना पड़ासो किया, जैसे एक अफसर को करना चाहिए। मेरी दफ्तर की जिन्दगी अलग थी। आठ घन्टे की सरकारी ड्यूटी करने के बाद मेरे पास मेरे अपने सोलह घन्टे मेरे पास होते थे। इसमें मैं क्या करू, यह मुझे सोचना था। लिहाजा मैंने इन बचे हुए घन्टों में पढ़ने लिखने का काम किया और इन घन्टों में ही अपने बच्चों को तालीम और तर्बियत भी दिया। उन्हें फारसी और उर्दू भी पढ़ाया। इस काम को करने में मेरी बीवी का बहुत अहम योगदान रहा है। यदि वह मेरा साथ न देतीं तो शायद मैं अपने सारे कामों को सही ढंग से अंजाम न दे पाता। उन्होंने मुझे घर के कामों से हमेशा अलग कर रखा। मुझे कभी यह एहसास नहीं होने दिया कि मेरे ऊपर कोई जिज्मेदारी है। मेरी जिन्दगी में मेरे पास तीन काम थे, नौकरी करना, पढ़ना-लिखना और बच्चों की तालीम देना, जिन्हें मैं मुतवातिर करता रहा।


    आपने अक्सर किताबी बात को खारिज किया है। या यूं कहिए कि पहले लिखी तमाम बातों पर आपने सवाल उठाया है? यह कितना सही है?


     हां, यह सही है। मेरी बगावत कहिए या यूं समझिए कि साहित्य में आकर मैंने हर चीज में सवाल उठाया। जैसा कि कहा जाता है कि मीर बहुत सादा मिजाज़ शायर हैं। दर्द से भरे हुए हैं। फला के यहां बड़ी नाजुक मिजाज़ी है। यह नाजुक मिजाजी क्या है? मैने यह नहीं किया कि मुझे जो पढ़ाया गया या जो किताबों में जो लिखा दिया गया है, उसे वैसा ही मान लिया। बल्कि यह कि मैंने सवाल उठाया, ऐसा है भी या नहीं? गालिब के यहां बड़ी पेचीदगी और बुलंद ख्याली है। तो यह पेचीदगी और बुलन्द ख्याली क्या चीज़ है? मीर के यहां पेचीदगी और बुलंद ख्याली नहीं है तो क्यों नहीं है? इस तरह बहुत सारी बातें मैं अपने लड़कपन से करने लगा थामैंने और लोगों की तरह हाईस्कूल के बाद से उर्दू नहीं पढ़ीफारसी उर्दू जो भी पढ़ा स्कूल के बाहर ही पढ़ा। मेरे बाप भी कहते थे कि उर्दू पढ़ने के लिए स्कूल क्या जाना? इसलिए बचपन से ही जो प्रिसीड्स लोगों में बैठ जाती है, वह मेरे अंदर नहीं बैठी। यही वजह है कि मैं अपने ढंग से जिया।


    आपका ताल्लुक सूफी घराने से है तो क्या आपने कभी ऐसा महसूस किया कि आपको नई पहचान बनाने में परेशानी का सामना करना पड़ा हो?


     नहीं, यह कहना ठीक नहीं है। अगर आप यह समझते हैं कि सूफ़ियों और मुल्लाओं में लिखने पढ़ने की कोई पाबंदी थी, तो आप गलत समझ रहे हैं। मेरे मां-बाप अलग-अलग अकीदे के थे। मेरे दादा के खानदान में शरियत पर चलने वाले देवबंदी मौलवी लोग थे। जो मजहब के तमाम सिद्धांतों की कट्टरता से पैरवी करते थे जबकि मेरे नाना उदारवादी और सूफीयाना घराने के थे। जहां मुहर्रम और शब-ए बरात के साथ होली भी मना ली जाती थी।


        


हमारे नाना सूफ़ीयाना ख्यालात के थे और सूफी बुर्जुग से मुरीद थे। वह लोग ईश्वर और अल्लाह किसे कहते हैं? इस बात में फर्क नहीं करते थे और न ही उन लोगों ने हिन्दू मुस्लिमान में फर्क महसूस किया। जहां तक अदब और साहित्य से मोहब्बत या उर्दू और फारसी बोलने की परंपरा की बात है तो यह धारा हमारे (नाना-दादा) दोनों तरफ बहती थी। जो मेरे अंदर भी पहुंची। हां, इसका एक फायदा यह हुआ कि मुझे दोनों ख्यालात को जानने का मौका मिला। हमारे नाना की तरफ बहुत बड़े-बड़े लेखक हुए हैं। हमारे नाना के बाप खुद बहुत बड़े राइटर थे, जो बहुत बड़े सूफी शाह फ़ज़ले रहमान साहब के मुरीद थेजिन्होंने कुरान का तर्जुमा अवधी में किया है। इसी तरह मैं बस अपना काम करता गया और मुझे लोग जानने लगे।


    आपकी ज़िन्दगी की जरूरियात और लिखने-पढ़ने का शौक यह सब सरकारी मुलाज़मत से पूरी होती रही या कभी इसके लिए कुछ अलग से भी सोचना पड़ा?


     हम कोई बहुत मज़हबी आदमी तो नहीं थे। लेकिन हम जिस घराने से ताल्लुक रखते हैं, उस घराने में ज़िन्दगी के प्रति कुछ वैल्यूज़ और उसूल भी थे, जो मुझे मेरे वालिदैन से मिले। खास कर मेरे मां-बाप जिनकी तबीयत और तालीम से मैं समझ सका कि बेइमानी क्या है? जुल्म क्या है? दिल लगाकर काम करो लालच मत करो। जो कुछ भी मिलता हैवह अल्लाह देने वाला है। वैसे भी हमारे बाप, दादा छोटे-मोटे जुमीदार होने के साथ-साथ चचा-बाप वगैरह सर्विसेज में भी थे। लेकिन मेरी बीबी बड़े ज़मीदार खानदान की थीं। लिहाजा कभी इस तरह की बातें हमारे जेहन में आई ही नहीं। जो कुछ भी था बहुत था। यह घर जिसमें आप बैठे हैं वह भी मेरी बीवी का बनवाया हुआ हैमैं तो इसके लिए भी मना करता रहा, लेकिन वह नहीं मानीं।


    आप अक्सर उर्दू कल्चर और तहज़ीब को नुकसान होने की बात करते है? ऐसी कौन सी बातें हुई हैं, जिससे अदब को नुकसान पहुंचा है?


     हां, ऐसी तमाम बातें थीं। झुठा भ्रम और गलत प्रचार किया गया था जिसने लोगों का नजरिया ही बदल दिया। यहां तक कि अपनी चीजे ही लोगों को बुरी लगने लगी थी। लोग अपनी जुबान और तहजीब को ही बुरा कहने लगे थे। खासकर १८वीं सदी की एक ऐसी पिक्वर-इमेज बनाई गई जिसको बड़े-बड़े हिस्ट्रोरियन मान रहे थे, जिसमें कहा गया कि मुल्क तबाह और बर्बाद हो गया है, यह सदी जुवाल की सदी है। यहां कोई एडमिनिस्ट्रेशन नहीं है, कोई फिलॉस्फी नहीं है, दिल्ली डूब गई है। बादशाह बिल्कुल कठपुतली हो गए। हैं। वह इश्कबाजी, पतंगबाजी और बटेर बाजी में लगे रहते हैं। न इन्हें पढ़ना-लिखना आता है और न लड़-भिड़ सकते हैं। इसी तरह वाजिद अली शाह को ही ले लीजिए। मुंशी प्रेमचंद साहब जो मेरे बहुत पसंदीदा लेखक हैं, जिनका मैं बड़ा सम्मान करता हूं। उनकी १९२४ की एक स्टोरी ‘शतरंज के खिलाड़ी' और बाद में सत्यजीत रे की फिल्म ‘शतरंज के खिलाड़ी' ने लखनऊ की हिस्ट्री को ऐसा चौपट किया है कि या यूं कहिए लखनऊ के कल्चर को नष्ट करने पर तुली हुई है। इतना ही नहीं वाजिद अली शाह को यहां तक कहा गया कि वह जाने आलम पिया बने हुए हैं। नाच गा रहे हैं। किसान भूखे मर रहे हैं, कोई पूछने वाला नहीं है, यह तो सिर्फ औरतबाजी में लगे हैं। इनके महल में तीन सौ औरतें हैं। यह लोग क्या लड़ पाएंगे। लड़ना भिड़ना उनके बस का नहीं है। लेहाजा आप तख्त-ओ-ताज छोड़ दीजिएयह बातें उसके लिए कही गई, जिसके पास अपनी एक प्राईवेट फौज थी, जिसको वह खुद रोजाना प्रैक्टिस कराया करता था। यही सब कह कर उसको नष्ट किया गया। यह बहुत ही बड़ा अत्याचार और फॉड था। इन्हीं बातों को जस्टिफाई करने के लिए अंग्रेजों ने एक किताब 'ब्लु बुक' पार्लियामेंट में पेश किया जिसमें तमाम गलत बातें लिखी हुई हैं जबकि ‘ब्लू बुक' के जवाब में १८५६ में वाजिद अली शाह ने उर्दू, फारसी और अंग्रेजी में एक किताब छपवाई थी 'आंसर टू दी ब्लू बुक' जो कोलकाता की एक प्रेस में छपी। इसकी सूचना अंग्रजों को मिल गई। अंग्रेजों ने इन किताबों को न सिर्फ बैन किया बल्कि इसके छपते ही इसे सीज कर नष्ट करा दिया। इसका नतीजा यह हुआ कि उर्दू कल्चर और तहज़ीब को भारी नुकसान उठाना पड़ा।


     इन बातों को आप कैसे साबित करेंगे कि यह जो लिखा गया है सब ठीक नहीं है?


    इसके बरअक्स १८५७ की हिस्ट्री में अंग्रेजों ने सिकन्दराबाग की लड़ाई के बारे में खुद लिखा है। सिकन्दराबाग की लड़ाई वहां की औरतें लड़ रही थीं। अंग्रेजी फौज को इस लड़ाई में दांतों तले पसीना आ गया था। आप ही बताइए कि जिनको बदनाम किया गया था कि मर्द जनाना हो गए हैं और न जाने क्या-क्या खराब बातें लिखी गई थी जबकि सच्चाई तो यह है कि इस लड़ाई को औरते लड़ रही थीं। इसका मोर्चा वाजिद अली शाह की बेगम हजरत महल (जिसका वाजिद अली शाह से तलाक हो चुका था) ने मोर्चा संभाल रखा था। वह राइफल ले कर सिकंदराबाग के एक ऐतिहासिक दरख्त की फुगी पर चढ़ गईं और वहां से अंग्रेजी फौजों को निशाना बना रही थीं। जितने भी अंग्रेज फौजी आते, वह उन्हें वहीं से मार गिराती। जब काफी सिपाही मार दिए गए तो छानबीन की गई तो पता चला कि पेड़ की फुगी पर कोई सिपाही छुप कर बैठा हुआ है। तब जाकर उसे उतारा गया तो देखा कि यह तो औरत हजरत महल है जो वाजिद अली शाह की पत्नी भी नहीं रह गई थी, कि उसको तख्त-ओ-ताज मिल जाएगा। इसपर भी इतने जोश के साथ वह लड़ी थी।


    इसी तरह दिल्ली को भी बदनाम किया गया है। दिल्ली उजड़ गई। लोग दिल्ली छोड़ कर भाग गए थे। पहले सौदा गए, फिर मीर गए। जबकि यह सब गलत बातें हैं। मैंने तो लिखा है कि अगर दस लोगों ने दिल्ली छोड़ी थी तो बीस लोग आकर बसे भी थे। उस समय शायरी एक पेशा था, जैसे आज लोग फिल्मों के लिए लिख रहे हैं। लिहाजा लोग जाया आया करते थे। मीर ने खुद लिखा है कि 'खराबा दिल्ली का दहचंद बेहतर लखनऊ से था, वहीं ऐ काश मर जाता सराय सीमा आता।' मतलब जिस दिल्ली को तुम खराब कहते हो वह लखनऊ से कहीं बेहतर है। अच्छा होता कि मैं दिल्ली में ही मर जाता। लखनऊ न आता। हां, कुछ शायर जो खुद शराब और औरतबाजी में लगे रहते थे, उन्हें बाकी दुनिया से कोई मतलब नहीं था। उनका यही असर उनकी शायरी में झलकने लगा था। जो सच नहीं है।


    आपकी नावेलों का अनुवाद हिन्दी में भी हुआतो क्या दूसरी भाषा में अनुवाद, बयान, ख्यालात और जज्बातों का हक अदा हो पाता हैं?


     देखिए, हक तो कोई अदा नहीं कर पाता और न ही कर सकता है। हर जुबान का टेंपर और स्टाइल अलग होता है। मगर यह बात अलग है कि अगर आप दोनों जुबानों को अच्छी तरह जानते हैं तो उस जुबान के काफी हद तक करीब पहुंच जाते हैं। अंग्रेजी में तो अनुवाद मैंने खुद किया है। हिन्दी का अनुवाद जिन लोगों ने किया है, मैं उन लोगों के साथ था। इसके बावजूद औरतों की जुबान जो उस जमाने में थी या फिर उर्दू की हाई लैंगवेज, उन बातों का अनुवाद नहीं हो सका। बहुत सारी चीजें छोड़नी पड़ी जिनका दूसरी किसी जुबान में अनुवाद नहीं किया जा सकता। कुछ को अंग्रेजी में लिखना पड़ा। हां, एक मेहरबानी अनुवाद करने वालों ने किया कि उर्दू की शायरी में उर्दू के ही शब्द लिखे जबकि फ़ारसी का अनुवाद कर दिया। लिहाजा किसी भी अनुवाद को हम परफेक्ट नहीं कह सकते और न ही नकार सकते हैं। अभी हाल में कुछ अच्छे तर्जुमे किए हैं। हमारे एक दोस्त ने कबीर के दोहों का भी अनुवाद किया है। लेकिन मालूम होता है कि जैसे वह आज के जमाने के शायर हैं। ऐसा करके आपने कबीर को हमारे नज़दीक तो ला दिया। लेकिन असल कबीर से दूर भी कर दिया। लिहाजा किसी भी भाषा का अनुवाद करते हुए हमें यह ख्याल करना चाहिए कि जो उसकी सुगंध है, वह उससे कम न हो। 


     इन दिनों इलाहाबाद का नाम प्रयागराज किए जाने की काफी चर्चा है। इस पर आपकी क्या राय है?


      इस पर मेरा आर्टिकल ‘दी टाइम्स आफ इन्डिया' औरदूसरी जगह छप चुका है। लेकिन मैं कहता हूं, नाम बदलने से कुछ होता हो तो बदल दीजिए। गरीबी मिट जाए, दरिद्रता, मिट जाए। लोगों को रोजगार मिल जाए। बिटिया की शादी में कुछ आसानी पैदा हो जाए। लोग पढ़-लिख जाएं। वैसे भी आपने नाम बदला नहीं है। बल्कि प्रयागराज का नाम छीन लिया, जो पहले से ही मौजूद है। संगम का क्षेत्र या उस पार झूसी की बड़ी बस्ती है, वह प्रयाग है। इलाहाबाद तो अकबर का बसाया हुआ वह क्षेत्र है, जो अलग-अलग गांव या बस्ती हुआ करता था। अकबर ने इसे जोड़ एक नया शहर बसाया, जिसका नाम आई से शुरू होता है। इलाहाबाद या इलाहावास, जिसका सही अनुवाद होता है ‘हाउस आफ दी डिवाइन' या 'दी प्लेस आफ दी डिवाइन'अगर आप यह समझते हैं। कि किसी मुसलमान मुल्ला ने आकर इसका नाम अल्लाहबाद किया है तो आप गलत हैं। यह जो नाम लिखा जाता रहा है, अल्लाहाबाद है। यह तो अंग्रेज़ बहादुर की गलती से या उसके पल्ले नहीं पड़ा जो इलाहाबाद का नाम अल्लाहाबाद कर दिया। यह न तो फ़ारसी में और न उर्दू में हो सकता है।


    क्या अदब और साहित्य विचारधारा में बंटता जा रहा है? और इसमें बाजारवाद का क्या रोल है?


    मुझे नहीं लगता कि विचारधारओं में बंट रहा हैवैसे बंटने से हमेशा नुकसान होता है और होता आया है। जहां तक बाजार की बात है, तो बाजार में बिकना या उसके लिए अपने को लोकप्रिय बनाना यह कोई नई बात नहीं है। जैसा कि म्यूजिक और डांस में होता है। एक म्यूजिक और डांस क्लासिकल होता है और दूसरा वह जो हम आप करते हैं। उसी तरह यह भी है, इसमें कोई बुरी बात नहीं है। बल्कि न हो तो मुझे शिकायत होगी। यह तो हर ज़माने में हर लिटरेरी कल्चर में हर मुल्क में होता आया है और हो रहा है।


    अदब में आम आदमी का रूझान कम होता जा रहा है। इसकी क्या वजह है?


     यह आम बात है। ज़माने के साथ यह सब चलता रहता है। साहित्य हो या अदब लिखने और पढ़ने का मामला जहां भी आ जाता है, वहां का अनुपात कम ही रहता है। पढ़नेलिखने में लोगों का इन्टरेस्ट कम होता ही है। खास कर यूपी में तो मुसलमान खुद ही इसके जिज्मेदार हैं। पचासों बरसों से हम लोग यह इल्ज़ाम लगाते आए हैं कि दूसरी कौम ने उर्दू को छोड़ दिया। तो मेरा उनसे सवाल है कि मुसलमानों ने ही उर्दू को कितना पकड़ कर रखा है।


     लोगों का मानना है कि उर्दू कोई रोजी-रोटी का जरिया तो है नहीं, फिर उर्दू को फुरोग कैसे दिया जा सकता है?


     उर्दू को रोजी-रोटी से जोड़ना सरासर गलत हैक्या हिन्दी पढ़ लेने से हमें रोजी-रोटी मिल जाती है। भाषा रोजगार के लिए नहीं बल्कि भाषा मेंटल हॉरिजन बढ़ाने के लिए पढ़ी जाती है। हिन्दी-उर्दू को रोजगार से जोड़कर नहीं देखना चाहिए। कुछ करने के लिए आपको अंग्रेजी तो पढ़ना ही पड़ेगा। मेडिकल हो, आईआईटी या आईआईएम, बिना अंग्रजी जाने आप इसमें नहीं चल पाएंगेएक किस्सा है कि बलिया के एक लड़के ने यस नो यस नो करके किसी तरह आईआईटी क्वालीफाई कर लिया और उसका एडमिशन भी हो गया। लेकिन उसने देखा कि वहां की दुनिया ही बिल्कुल अलग है। सब लोग अंग्रेजी बोल रहे हैं। उसने लिखा, यहां का वातावरण मेरे लिए ठीक नहीं है और फिर उसने आत्महत्या कर ली। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि मैकाले ने एक तंज करते हुए कहा था कि इन्डियंस को अंग्रेजी स्कूल में पढ़ना चाहिए क्योंकि वह रूप-रंग में तो काला होगा, लेकिन दिल से गोरा होगालिहाजा हमें यह अच्छी तरह समझ लेना चाहिए कि उर्दू या हिन्दी को रोजी-रोटी से जोड़ कर नहीं देखना चाहिए।


     आपकी अंग्रेजी में लिखे गद्य को काफी सराहा गया। इसके बारे में आप क्या कहना चाहेंगे?


     अहमदाबाद में २००२ में जो घटना हुई, जिसमें बड़ा ही अत्याचार हुआइस बात को लेकर दिल में इतना गुस्सा और बेचैनी थी कि मैंने उस गद्य को लिख डाला। इसी तरह मैंने मुरादाबाद के दंगों पर भी कविता लिखी। मैं समझता हूँ शायद ही उर्दू के राइटर ने कोई कविता अंग्रेजी में लिखी हो। इस कविता को भोपाल के एक बड़े फेस्टिवल में पढ़ा भी गया और जिसे बाद में उसे जमाने की श्रेष्ठ कविताओं में छापा गया।