'साक्षात्कार - प्रख्यात् कथाकार ममता कालिया से वज्दा खान की बातचीत - बच्चे चले जाते हैं, घोंसला रह जाता है

      आप लेखन के शुरूआती दौर में आप कविताएं लिखती रही हैं या यू कहूं कि आप कविताएँ लिखते-लिखते कहानी उपन्यास लिखने के क्षेत्र में आ गईं। मेरा सवाल है-बाद के दिनों में आपने कविताएं लिखना क्यों बन्द कर दिया?


       सभी विधाओं को एक साथ सम्भालना एक तरह से काफी कठिन होता हैं। मुझे ऐसा लगता है जैसे-जैसे हमारी उम्र बढ़ती है। हम अपने भीतर उतरना कम कर देते हैं। बाहर ज्यादा ध्यान देने लगते हैं। मैं इसका कोई आदर्श जवाब भी दे सकती हूं। पर यह मेरा ईमानदार जवाब है और तब कथा और कहानी लिखना हमें ज्यादा सुविधा जनक लगने लगता है। मगर बीच-बीच में मुझे कविताओं की याद आती रही है। कुछ कविताएं बाद में लिखी भी। मगर मुझे खुद प्रकाशित करवाने में संकोच होता रहा है कि हर विधा में दखलांदाजी जरूरी है क्या? क्योंकि मैंने देखा है, बहुत से परिपक्व लेखक, कविता लिखना फिर से शुरू करते हैं तो ऐसा लगता है, उनमें वो लपट वो ताप नहीं बचता जो उनकी शुरू की कविताओं में दिखाई पड़ता है और मैं एक ठण्डे कवि के रूप में नहींजानी जाना चाहती थी। शुरुआती दौर में मैं काफी गुस्सैल कवि थी। वही गुस्सा अगर फिर मेरे भीतर आ गया तो जरूर मैं फिर कविता लिखेंगी।


     इसके अलावा कविता में गहन इम्प्रेशन्स होते हैं। उसका कोई लॉजिक नहीं बना सकते। संगीत चित्रकला कविता में बहुत साम्यता होती है। जैराम पटेल ने कनाट प्लेस में ओडियन नाम के सिनेमा हाल की दीवार पर एक कोलाज बनाया था जिसमें कहीं प्लास्टिक की मछली, सुतली, कागज, कहीं दियासलाई चिपकाया गया था। हमें उस वक्त अजीब सा लगता था क्योंकि तब हम रंगों के ही बारे में जानते थे। ओडियन कोलाज को देखकर हम एक तरह से शॉक्ड होते थे। इसी तरह चौंकाने वाले प्रयत्न कविता में भी हुए और फिर जब स्थापित अच्छे कवियों ने चौकाऊ कविताएं लिखीं तो मेरा मन कविता से उचट गया। “क्या मैं पड़ा रहूं स्त्री की जीभ व जाँघ के भूगाल में'' जैसी कविता श्रीकान्त वर्मा ने लिखी तो मुझे लगा दुनिया में स्त्री क्या बस देह तक ही सीमित है। जब उनके जैसा गम्भीर कवि ऐसा बिख सकता है तो जगदीश चतुर्वेदी, मोना गुलाटी इत्यादि की तो कोई गिनती ही नहीं है।


     और फिर मुझे यह भी लगने लगा कि कविता का फ्रेम मुझे कहीं छोटा पड़ रहा थाजबकि दिमाग कहानियों के नक्शे से भरा पड़ा था।


    जैसा कि आपने कहा आप गुस्सैल कवि र्थी। तो बाद में उसके शान्त हो जाने की क्या वजह रही?


     नहीं गुस्सा उस तरह से शान्त तो नहीं हुआ पर उसका रास्ता बदल गया। पहले तमाम रिश्तों और दोस्ती की जिन बातों पर क्रोध आता था। वो परिस्थितियां जीवन में भी बदलती चली गईं। एक अच्छे आदमी से प्रेम करने का सबसे बड़ा खामियाजा ये भी होता है कि आपका गुस्सा कम होता चला जाता है। गुस्से की वे आन्तरिक वजहें कम होती चली गईं। मुझे देश समाज के आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक सवाल ज्यादा सताने लगे।


    वैसे कहा तो ये जाता है कि प्रायः कविता लिखने की शुरुआत प्रेम से होती है। मगर आपका कहना है एक अच्छी कविता से प्रेम का नतीजा जो कि मुझे भरपूर मिला जिसकी प्रेरणा से मैं और तमाम विषयों की तरफ मुड़ गईं....


     हाँ शायद इसीलिए मैं अपनी संवेदनाओं को, अपनी अभिव्यक्ति को बाकी सामाजिक, राजनैतिक विषयों की तरफ मोड़ पाई। हम बहुत झगड़ालू किस्म के नागरिक के रूप में सामने आते हैं। जब हमें आजादी मिल गई, लोकतंत्र मिल गया तो क्या वजह है कि इतने बड़े-बड़े सवाल दैत्य की तरह


          


हमारे सामने मुंह फाड़े खड़े हो जाते हैं कि हम कभी जाति, कभी वर्ग, कभी स्थान को लेकर आपस में इस कदर झगड़ पड़ते हैं कि खून-खराबा तक हो जाता है। आखिर क्या वजह है, इस तरह के हिंसात्मक आचरण की। एक लेखक के तौर पर इन सबकी पड़ताल करना मुझे निहायत जरूरी लगता है। जैसे मेरी रिहायश २० साल तक मुस्लिम बहुल इलाके में रही। मैंने देखा कि वे कितने अमन पसन्द हैं। सारे सुख-दु:ख इच्छाएं-अनिच्छाएं, आवश्यकताएं सब एक जैसी हैं, किसी भी प्रकार का झगड़ा, हिंसा, अशान्ति कोई भी वर्ग नहीं चाहता।


     आपको अपनी पहली पाठशाला यानि परिवार में किस तरह की परिस्थितियां मिलीं। अपनी सृजनात्मक प्रतिभा को निखारने के लिए या ऐसे कौन से प्रभाव रहे प्रारम्भिक दौर मैं कि जब आपको यह एहसास हुआ कि आपको अपने या अपनी कला' के लिए कोई रास्ता या माध्यम चाहिए और फिर इसके लिए आपने साहित्य चुना?


     घर की सबसे पहली याद मुझे किताबों की कतारों की । दूसरी पापा के बैठक की। बैठक का मतलब, वहां जमीन पर एक मोटा गद्दा होता था, एक मसनद और एक डेस्क गद्दे पर सफेद चादर बिछती थी जिसे पापा ‘पल्ली' कहते थे। बड़े होते हुए मुझे यही लगा कि हमें घर में बहुत आजाद माहौल मिला था। बहुत आजाद ख्याली मिली हमें। पापा चाहते थे कि उनके बच्चे किसी न किसी काम में व्यस्त रहे वे स्वयं पढ़ने से बहुत ताल्लुक रखते थे। वे रातभर जाग-जाग कर पुस्तकें पढ़ा करते थे और खुद भी विद्वान् थे। आकाशवाणी में होने की वजह से रचनाकारों से उनका बराबर सम्पर्क बना रहता था। उनकी निगाह में लेखक एक आदर्श प्राणी था तो ऐसे में जाहिर है कुछ तो अपने पिता का ध्यान खींचने के लिए। कुछ अपने आस-पास के माहौल से प्रभावित होकर मैंने लिखने की अटपटी कोशिशें शुरू कीं। जैसा कि मैंने बताया, मेरे पिता को स्वयं लिखने पढ़ने का बहुत शौक था। मुझे भी मोटी-मोटी किताबें पढ़ाते थे और पढ़ने के लिए देते थे। ऐसा भी था कि वे खाली हमें डराने के लिए ऐसा करते हों। बाद में पूछते भी थे। दरअसल वे हमें बहुत रचनात्मक माहौल देना चाहते थे तो इन सब चीजों ने मिलकर मेरा एक दिमागी माहौल बनाया और मुझे लगा कि लिखने-पढ़ने के सिवा कोई और ऐसी चीज नहीं जो स्थायी महत्व रखती हो। अपने उस वातावरण के लिए आज भी अपने मन में बहुत आश्वस्त महसूस करती हूं कि बहुत रचनात्मक वातावरण मुझे अपने घर से मिला।


     और फिर इन्दौर क्रिश्चियन कॉलेज जहां मैं पढ़ती थी, वहाँ भी लिखने-पढ़ने का काफी अच्छा माहौल था। कई साथी व अग्रज लेखक वहाँ पढ़ते थे जेसे रमेश बक्शी चन्द्रकान्त देवताले, सरोज कुमार, चन्द्रसेन विराट इत्यादि। हमारे विद्यालय में हर साल सालाना जलसे में एक बड़ा कवि सम्मेलन होता था जिसमें अनेक मशहूर कविगण आते थे। वहाँ मैंने मंच से हरिवंशराय बच्चन से लेकर भवानी प्रसाद मिश्र तक को सुना। फिर लोकल अखबारों से शुरू करके अनेक पत्र-पत्रिकाओं में धीरे-धीरे मेरी कविताएं प्रकाशित होने लगीं। कविता की कई प्रतियोगिताओं को मैं बराबर जीतती रहती। कहानी लेखन तो बाद की बात है।


     लिखने-पढ़ने से आपका मतलब सृजनशीलता से या सृजनशील विधाओं से है?


    सृजनशीलता कैसे आती है? देखिए कोई भी लेखक कैसे बनता है? आप जिस माहौल में साँस लेते हों, घर में किताबों की कतार की कतार हो, किताबों के बीच सोते हो, उन्हीं के बीच साँस लेते हों, तो पढ़ते-पढ़ते लेखक बन जाते हैं हम। कोई ऊपर से इल्हाम नहीं आता। तो मेरे साथ भी यही था। मेरे घर में चार में से तीन कमरे किताबों पत्रपत्रिकाओं और पेपर से भरे होते थे। मेरे पास दूसरा और कोई विकल्प नहीं था। सहेलियों के साथ एक दो बार खेल लिया यह अलग बात थी। लेकिन बाकी सारे समय किताबें और पापा, यही दो चीजें थीं मेरे पास।


    लेकिन ये बातें आपको भीतर से जीवन्त बनाती होंगी?


     हाँ ये मेरे लिए एक नई दुनिया खोलती थी। मैंने बहुत कम उम्र में ही पढ़ना शुरू कर दिया पुस्तकों कोटॉमस हार्डी, स्टीफन आदि को पढ़ती तो कहानियों की तमाम बातें दिमाग में चक्कर लगाती रहतीं कि ऐसा भी हो सकता है और वैसा भी हो सकता है। मुझे लगता है लोग अपने दोस्तों से बात करके वयस्क होते हैं। हम किताबें पढ़-पढ़कर वयस्क हुए हैं। पढ़ने के बाद लगता था, जीवन अच्छा ऐसा होता हैऔर रिश्ते भी ऐसे होते हैं। रिश्तों में भी इतने पेंच होते हैं ये सब मुझे किताबों से पता चला।


    एक तरह से ये जो लिखने-पढ़ने की दुनिया एक अलग दुनिया है, मतलब अलग ही संसार एक तरह से लिखनापढ़ना हमारा जीवन रचता है।


     हाँ लेकिन अब जो लेखक हैं वे कैसे बनते हैं, किस प्रक्रिया से बनते हैं। यह मैं नहीं जानती लेकिन मेरे समय में जो लेखक बनते थे, पढ़ाकू लोग होते थे। उन्होंने दूसरों को बहुत पढ़ा होता था। जाहिर है जब उसके बाद लिखना शुरू करते होंगे तो उतना अनगढ़, कच्चा और बेवकूफी भरा नहीं लिखेंगे, इसकी गुंजाइश बनती है। 


     आप आपके लेखन में बहुत ज्यादा गहराई है, स्वाभाविकता है। आपको कोई कहानी ऐसी नहीं है कोई उसे पढ़े और उसमें आपको कनेक्ट न कर ले, कहीं न कहीं वह मन के भीतर स्पर्श जरूर करती है। मतलब इसमें संवेदनशीलता के साथ-साथ कहना चाहिए कि इतनी समरसता होती है और जो विषय वस्तु होती है कई बार अपने आस-पास की ही, जानी पहचानी जैसी लगती है। पर आपका कहन' इतना रोचक व स्वाभाविक होता है कि मुझे नहीं लगता पाठक आपकी कोई कहानी पढ़ना शुरू करता होगा तो पूरा किए बगैर बीच में ही छोड़ देता होगा। मैंने आपके कई उपन्यास या कहानियां पढ़ी हैं। खास तौर से मैंने दौड़ पढ़ी थी तो जैसे मेरा दिल धक्क से हुआ, मतलब आपने उसमें जो दृश्य रचे हैं, वे इतने ज्यादा स्वाभाविक थे सचमुच लगभग हर घर में देखने को मिलते थे।


    हाँ मेरा युवा वर्ग से बहुत नाता रहा है अपने घर में वो लड़कपन से बड़े होते देखा। जब नौकरी की तब लगातार नए लड़के-लड़कियों को देखती थी, उनके मनोभावों से उनके घर के वातावरण से बराबर रूबरू होती रहती थी। दौड़ कहानी तो जैसे खुद मेरे पास चलकर आई। मेरे जितने भी दोस्त मिले इलाहाबाद में जिनके बच्चे कामयाब थे, सब अमेरिका में थे। तो मैंने घर के घर खाली होते देखे। घर से एक भी बच्चा चला जाता है तो जैसे रौनक चली जाती तो मैंने ये सारी चीजें देखीं, ये भी देखा कि पीछे माता-पिता कितने अकेले रह जाते हैं। परन्तु देखिए ये कितनी विचित्र बात है और इस पर और भी ....... जाना चाहिए कि एक तरह पहले माँ-बाप केसे धकेलते हैं, अपने बच्चों को प्रतियोगिता के लिए कि तुम ये प्रवेश परीक्षा दो, तुम वो इम्तहान दो। ताकि वे योग्य बनें और अपनी योग्यता सिद्ध करें और वो आई.आई.टी. में जाए या आई.आई.एम. में एम.बी.ए. करें, तो इस तरह पहले तो धकेलत हैं, उसके बाद बच्चा जब वहाँ जाता है तो एक किस्म की मानसिकता भी पढ़ाई के साथ साथ पैदा होती है। धीरे-धीरे बच्चा बाहर का हो जाता है और घर से जो उसकी डोर है वो टूटती जाती है। तब माता-पिता जिस अकेलेपन से गुजरते हैं, वो पीड़ादायक होता है। बच्चा तो व्यस्त हो गया अपने काम में और वे पीछे रह गए अकेले।इसी को कहा जाता है खाली घोंसला रह जाता है जब सारे चूजे चले जाते हैं और चिड़ा-चिड़ी अकेले बैठे हैं उदास।


    दौड़' वास्तव में बहुत मार्मिक और हकीकत को बखान करता हुआ उपन्यास है।


   बच्चे चाहे नौकरी के सिलसिले में बाहर जाए, चाहे पढ़ाई के सिलसिले में, घर तो खाली हो ही जाता है।


   मैम मैं कभी-कभी सोचती हूँ जैसा कि आपने कहा पैरेन्टस ऐसा करते हैं, दबाव बनाते हैं बच्चे पर कि फलाने ने ऐसा किया तो तुम भी करो। ताने भी देंगे, देखो फैलाने का बेटा कितनी अच्छी जगह है, तुम्हें भी करना चाहिए, जाना चाहिए अच्छी नौकरी में वगैरह-वगैरह। उसके बाद उसका कहीं अच्छी जगह चुनाव होता है तो बुरा भी होते हैं पर जैसा कि आपने कहा कि बेटे के बाहर जाने पर वे बहुत अकेले रह जाते हैं।


    देखो ऐसा है ये जो रिश्ते हैं, थोड़ा खादपानी मांगत हैं। इसलिए आपको कभी-कभी घर जाना भी पड़ता है। आपको अपने ही माता-पिता, भाई-बहन, पत्नी से कहना भी पड़ता है, मैं तुमको प्रेम करता हूं या करती हैं। जिस तरह से हम पौध में पानी डालते हैं, उसी तरह हमें अपनी थोड़ी भावनाएं डालनी पड़ती हैं। चाहे परिवार हो, चाहे परिवेश हो चाहे दोस्त हों। बहुत दिन तक जब हम मिलते नहीं तो रिश्ता बहुत अटपटा हो जाता है।


    तो यह एक बहुत बड़ी समस्या है, आधुनिक जीवन की। पहले तो हम कैरियर में अपने जीवन के सर्वश्रेष्ठ साथ लगा देते हैं। उसके बाद कैरियर राक्षस की तरह हमारा पूरा समय माँग लेता है।


    तो एक तरह से कहा जाए तो इसका कोई विकल्प नहीं है?


  हाँ इसका कोई विकल्प नहीं क्योंकि तब आपका जो कामयाबी का सपना है, उसे छोड़ दीजिए। बहुत से लोग ऐसे हैं जिन्होंने यह स्वीकार नहीं किया। वे पूरे समय नौकरी नहीं करेंगे या वे शहर के बाहर कहीं नहीं जाएगे। इलाहाबाद शहर तो ऐसे लोगों से भरा है जिन्होंने काम नहीं किया और फ्रीलांसर हो गए। पर उनकी जिन्दगी भी कष्टदायक हो गई। उनको देखकर भी आपको सबक मिलता है कि कम से कम ऐसे नहीं बने, क्योंकि इसमें पढ़ा-लिखा योग्य लड़का माता-पिता के आँखों के सामने तो है लेकिन उन्हें वह सन्तोष नहीं होता। जो काम करने वाले बच्चों को मां-बाप को होता है। ये परिवार की भौतिक विसंगति हे कि बेटा आपके साथ है फिर भी आपको लगता है जैसे जीवन समस्याओं से घिरा हैआप समाज में उस आत्मविश्वास के साथ नहीं रह सकते।


    और जिनके बच्चे विदेश निकल गए हैं, उनका तो कहना ही क्या? जब उनसे बात कीजिए तो ऐसा लगता हैजैसे उनसे ज्यादा सुखी और कोई है ही नहींक्योंकि विदेश से उनके लिए उपहार आते ही सन्देश आते हैंकभी-कभी बच्चे की सफलता और सूटकेसों से लादे फंदे आ जाते हैं। किन्तु सम्प्रेषण की समस्या वहाँ भी होती है।


    पर मुझे ऐसा लगता है हमें दूसरा पक्ष तो देखा जाना चाहिए। आज का जो युवा है, रोजगार की कमी या अच्छी नौकरी के चलते बाहर चला जाता है और यदि उसे अच्छी नौकरी मिल भी जाती है, फि भी उनके जीवन में भाग दौड़ बहुत बनी रहती है और भी तमाम तरह की दुश्वारियां हैं। संघर्ष भी होते हैं। चौबीस घण्टे आफिस का ही काम करता रहता है। बॉस के आदेश की रत्ती भर अवहेलना नहीं की जा सकती।


    हाँ, ऐसा है, बहुत ज्यादा हैयह मुझे बहुत बड़ी कमी लगती है। अपने दौड़ उपन्यास की कि मैंने पवन का पक्ष तो लिखा ही नहीं। स्टैला और पवन के जीवन में जो जबरदस्त आपाधापी है, नौकरी से जुड़े इतने अधिक दबाव है कि वे उन्हें इतनी भी मोहलत नहीं देते कि वे अपने घर सम्पर्क कर पाएं। वे अपनी नौकरी का ..... रुटीन, सुबह से रात तक का (९ से ९ तक का) पूरा कर लो तो बहुत है। आज भी इतने वर्षों बाद भी नौकरी के क्षेत्र में यह दबाव उसी तरह बना हुआ है। कोई बदलाव नहीं आया।


    हाँ बल्कि मुझे तो लगता है, दबाव पहले से ज्यादा हो गया है ?


    हाँ बरसों बीत जाते हैं, उन्हें नौकरी करते-करते फिर भी दबाव उनपर से कम नहीं होता। उनके जीवन में न सोमवार होता है न कोई शनिवार न कोई इतवार। क्योंकि  फोन से वे लगातार अपने प्रोफेशन से जुड़े रहते हैं। ऑनलाइन हमेशा उनके पास काम आता रहता है।


    जी-जी हमारी पीढ़ी है, उसने अपने माता-पिता को नौकरी करते देखा है कि उस समय न तो इतनी आपाधापी थी नहीं इतना तनाव था। ये काम भी कर रहे थे उन्हें तसल्ली भी रहे थी।


    वो फैज़ की पक्तियाँ है न ‘हम जीते जी मसरूफ, कुछइश्क किया कुछ काम किया'


     हाँ एक समय था सब लोग नौकरी कर रहे थे तो नौकरी उन्हें सर्वग्रासी राक्षस की तरह खा नहीं लेती थी, निगल नहीं जाती थी। ये तुम कह रही हो। मैंने की, अपने माता-पिता को देखा है। माँ तो खैर काम नहीं करती थीं लेकिन पिता कामकरते थे। एक तरफ तो वे अपने काम को इतना इंजॉय करते थे और फिर काम उनकी रुचि के अनुसार लगी थी। दूसरी बात मैं कह रही थी। जब ऑफिस से निकल घर आते थे तो ऐसे दिखाते थे वो जैसे रोज शाम को कोई विजेता घर में घुस रहा हो। वे इतने भरे रहते थे कि आज उसने यह लिखा मैंने यह लिखा, तो उसने ऐसा लिखा तो मैंने वैसा लिखा तो वो जो उनकी दिमागी लड़ाई थी। वो आज तक मैं किसी कहानी में कैप्चर नहीं कर पाई। और वो रोज साइकिल पर जाते थे अपने ऑफिस लेकिन वे ऐसा महसूस करते थे जैसे कोई शहंशाह। कोई उनकी साइकिल को छू नहीं सकता था। तो एक मामूली जीवन के अन्दर वे कितनी गैर मामूली किस्म की अकड़ के साथ जीते थे। वो जो उनकी ढसक थी, वह मैं आज तक नहीं भूल पाई। जो मुझे बहुत ज्यादा प्रभावित करती थी। एक जमाने में मेरे पिता बिल्कुल हीरो थे मेरे और मैं यह मानती थी जो कुछ मेरे पापा कहेंगे, जीवन में वही सच्चा और सही है।


    आपका लिखा मैंने कहीं पढ़ा था कई वर्षों तक पापा मेरे लिए शब्दकोष, भावकोष, अर्थकोष बने रहे। यह पंक्ति मेरे मन में गहरे तक उत्तरी जो मुझे याद रही और मैंने इस पंक्ति को कहीं नोट भी कर रखा है।


    हाँ यह बिल्कुल सच है। बहुत वर्षों तक पिता मेरे भावकोष, शब्दकोष बने रहे और विचारकोष भी। वाकई यह सच है कि मैं उनकी विचारशीलता से संवेदनशीलता से और उनके ज्ञान से इतनी अधिक प्रभावित थी कि हर समय मैं उनसे कुछ न कुछ सीखती रहती थी लगातार। देखो ऐसा था, यह एक अजीब किस्त का रिश्ता है। मैं जब एम.ए. कर रही थी दिल्ली से तो मेरे पापा जगह-जगह की लाइब्रेरियों में जाकर मेरे लिए किताबें लाते थे। तो जब मैं पढ़ने बैठती थी तो मेरे से ज्यादा मेरे पिता जानते थे, मेरी उन किताबों के बारे में। विल्सन नाइट का पूरा चैप्टर वो बताते थे-देखो इसमें यह लिखा है। यदि टी.एस. इलियट को मैं समझ नहीं पा रही होती तो वे बताते- देखो इस निबन्ध में यह पॉइन्ट है। इस तरह से मुझे बहुत मदद भी मिल जाती थी पढ़ाई में। मैं कक्षा में और बच्चो से हमेशा एक-दो कदम आगे रही तो अपने पापा के कारण। अगर मुझे किसी वाद-विवाद प्रतियोगिता में बोलना होता था तो बस, मैं इतना कहती थी, पापा मुझे इस विषय पर बोलना है। पिता तो इतने विद्धान थे समझ लीजिए पूरे एनसाइक्लोपीडिया थे और वे बोलना शुरू हो जाते थे। उस वक्त मेरी याददाश्त बहुत अच्छी थी। काफी बातें मुझे याद रहती थीं और समझ भी लेती थीफिर मैं कॉलेज में जाकर धुआंधार बोलती थी। यह मैंने विद्यार्थी जीवन में सीखा। क्योंकि एक तो पापा ने हमें निर्भय होना सिखाया। चूंकि हमारा परिवार ऐसा था, न किसी से लेना था न देना। वो ठीक है कि हम अपने रिश्तेदारों से ज्यादा सम्बन्ध नहीं रख पाए। पापा को अच्छा नहीं लगता था। वे कहते थे-इससे बच्चों की पढ़ाई बहुत प्रभावित होती है। क्योंकि घर में बहुत सारे रिश्तेदार होते है तो बच्चे ऐसे माहौल में नहीं पढ़ सकते हैं और कोई सांस्कृतिक काम भी नहीं हो सकता। लेकिन इन सबके बावजूद उनका जो ज्ञान था अद्भुत थाऐसा लगता था मुझे जैसे वे भी एम.ए. कर रहे हैं।


     जिस तरह तैयारी करते थे वह विरल है। मुझे लेने उस समय पापा पहुँच जाते थे लाइब्रेरी। मैं उन दिनों विश्वविद्यालय की लाइब्रेरी में बैठ कर पढ़ती थी। लाइब्रेरी बन्द होती थी रात में ९.३० बजे। तो जब लाइब्रेरी बन्द होती थी और मैं बाहर निकलती थी तो देखती थी मेरे मम्मी-पापा दोनों खड़े हैं। फिर हम तीनों चलकर घर आते थे। तो आप ये समझिए मैंने जिस माहौल में शिक्षा पाई, उस माहौल में यह निहायत ही स्वाभाविक बात थी कि मैं लिखने लग पड़ें।


    निश्चय ही बहुत सौभाग्यशाली रही हैं आप?


    हाँ मैं यह कहूँगी। मेरे पापा ने कभी भी मुझे मेरे लक्ष्य से अलग हटने नहीं दिया। इसलिए जब मैं लेक़रार बन चुकी थी, पढ़ाते हुए ढाई साल हो चुके थे जब रवीन्द्र कालिया मुझे मिले लेकिन सबसे ज्यादा निराशा मेरे पापा को हुई जब मैंने शादी का फैसला लिया। कहते थे कि अरे मैंने तो सोचा था तुम्हें इंदिरा गांधी बनाऊंगा। विजय लक्ष्मी पंडित बनाऊंगा लेकिन तू तो वहीं निकली कि शादी करना चाहती है। एक तरह से मेरे नम्बर बहुत ज्यादा कट गए प्रेम व शादी के कारण। क्योंकि पापा ये मानकर चल रहे थे कि वे जिस तरह से मेरा निर्माण कर रहे हैं उसमें प्रेम व शादी जैसी किसी ऐवरेज (औसत) बातों के लिए जगह नहीं है। वे ये भूल गए थे कि उस समय मेरी उम्र कुल २२.५ साल थी....(हंसती हैं)


    जी तो एक तरह से यह कहा जा सकता है, आपकी साहित्यिक नींव पिता के कारण इतनी मजबूत बनी।


     हाँ बहुत ज्यादा


     इसका मतलब लेखक बनने के लिए साहित्यिक नींव का मजबूत होना भी आवश्यक?


      अच्छा, मेरे पिता के भीतर ऐसा कोई पूर्वाग्रह भी नहींथा कि इस लेखक को पढ़ना है, इसको नहीं पढ़ना है। ये सब ध्रुवीकरण तो बाद में हुआ है कि लोग कहने लगे इसको पढ़ोगे तो वामपन्थी हो जाओगे, मुझे पढ़ोगे तो दक्षिणपनथी। कुछ भी जो उन्हें बहुत अच्छा लगे, उसी को कहते इसको पढ़ो। यह बहुत अच्छी है।


    मुझे लगता है, इसीलिए लोगों की निरपेक्ष दृष्टि नहीं बन पाती। जब तक उनका गहरा अध्ययन नहीं होगा तो उनका सन्तुलित नजरिया भला किस प्रकार विकसित हो पाएगा।


    हाँ बहुत छोटी उम्र में यदि पक्षधरता शुरू कर दो तो आपका विकास फिर रुक जाता है और जो सर्वश्रेष्ठ है उसे आप पढ़ नहीं पाते।


     जैसाकि आपने बातचीत के दौरान ये बताया है कि आपने बहुत छोटी सी उम्र में लगभग सारी क्लासिकल साहित्य पढ़ लिया था - चेबव, हेमिंग्वे, टॉलस्टॉय, टैगोर, ब्रेख्त, गोर्की, शेक्सपीयर, तो कहीं न कहीं उनका प्रभाव आपके लेखन के शुरूआती दौर में पड़ा होगा क्योंकि जब किसी अच्छे लेखक को पढ़ते हुए अच्छी कविता, कहानी को अपने भीतर जीते हैं तो निश्चित ही उसके प्रभाव की, हमारे सृजन पर जाने-अनजाने में छाप आ ही जाती है। मेरे ख्याल में हर रचनाकार के साथ शुरुआती मैं ऐसा होता होगा। चित्रकला में भी जब हम 'ओल्ड मास्टर्स' के चित्रों का अध्ययन करते हैं, जाने-अनजाने उस कलाकार की शैली का प्रभाव हमारे चित्रों में कहीं न कहीं झलकने लगता है। ये बात दीगर है कि एक सीमा के बाद (अपनी दृष्टि पा लेने के बाद) रचनाकार इससे मुक्त हो जाता है।


    यह तो सच है, मैंने कालजयी लेखकों को बहुत शुरुआत में ही पढ़ लिया था, तब तक मैं उनके महत्व को नहीं जानती थी। चाहे शेक्सपीयर को पढ़ा हो चाहे जेम्स ज्वॉयस को पढ़ा हो। उस समय कथा तत्प का ही आनन्द लेती थीउस वक्त मैं उनकी भाषा या शैली वगैरा को उतना नहीं समझ पाती थी। जब तक मैं शेक्सपीयर का एक नाटक पूरा पढ़ पाती, पापा दूसरा भी लाकर दे देते थे। कई नाटक पढ़े, उन्हें पढ़कर हँसी भी आती थी, गुस्सा भी। इसी तरह अन्य लेखक भी। जेम्स ज्वॉयस, शेक्सपीयर जैसे लेखकों को यदि देखा जाए तो उनका बहुत सा लेखन फिर से ही कही गई कहानियां थी, जो बहुत पहले से ही ग्रीक व लैटिन भाषाओं में मौजूद थींतब मुझे लगता था उस चीज को लेखक ही दुबारा इतने रोचक व मौलिक ढंग से लिख सकता है। मुझे पढ़ते वक्त बराबर यही लगता रहता था कि लेखक ही ऐसा करिश्मा कर सकता है। साथ ही मुझे यह भी लगता था। इतनी मोटी-मोटी किताबें नहीं लिखनी चाहिए किसी भी लेखक को। बल्कि छोटी और सरल भाषा में लिखनी चाहिए। पहले से प्रचलित भाषाओं कथा, कहानियों को देखने का नजरिया ही हमें लेखक बनाता है। जिस तरह से पेन्टिंग की दुनिया में अब तक काफी बदलाव हुए हैं .... यथार्थ भी बहुत बदला है। यही बात साहित्य कथा-कहानी में भी लागू होती है। शरत चन्द्र से अब तक यथार्थ बहुत बदल चुका है। उस समय दो विचारधाराएं मुख्य रूप से प्रचलित थीं, ब्रह्म समाज व आर्य समाज। अब तो तमाम विचारधाराएं हे गई हैं और अब तो हमे यथार्थ के आगे जाकर नव यथार्थवाद की बात करनी चाहिए।


    जी अपनी तरह से देखना, अनुभूत करना ही लेखक या कलाकार बनाता है। जो लेखक या कलाकार की शैली का एक हिस्सा होता है।


     कथ्य तो हमें कहीं मिल जाता है। मगर शिल्प हमें गढ़ना होता है। उसी के साथ भाषा व शैली हमें ढूँढनी होती है। जैसे कि मेरे दिमाग में एक कहानी लगातार घूम रही हैसावित्री सत्यवान की। जो कितनी पुरानी पौराणिक कथा हैकि पहले से ही यह घोषित है कि सत्यवान के पास एक साल का जीवन बचा है और उसकी मृत्यु के पश्चात् यमराज के साथ-साथ सावित्री भी चलती जाती है और यमराज से बराबर ऐसे वरदान माँगती है कि उन्हें सत्यवान को जीवित करना पड़ता है। आज कितनी ही सावित्रियां है जो अपने  सत्यवान को बचाने के लिए उनकी लाइलाज बीमारियों से लगातार जूझ रही है। जिनकी मृत्यु को सावित्रियां दो-चार वर्ष स्थगित तो कर सकती है दवाओं के बल पर लेकिन बचा नहीं सकती हैं। ये हारी हुई सावित्रियां हैं। इसी तरह जिसे आगे लाइलाज रोग का पता चल जाए कि कुछ समय में उसकी मृत्यु तय है तो यह एक तरह से पूर्व घोषित मृत्यु हैजो अत्यन्त पीड़ादायक यन्त्रणा के समान है।


     मेरे दिमाग में कैंसर जैसे असाध्य रोग से लड़ते हुए लोग व उनका परिवार आता है। रवीन्द्र कालिया जैसे स्वस्थ व्यक्ति की पीड़ा मैंने अपनी आंखों से देखी। साढ़े चार साल इस रोग से उन्होंने संघर्ष किया। ये जानते हुए कि मृत्यु आती है। फिर भी रवि पूर्ववत अपने कामकाज करते रहे, अपने ऑफिस बराबर जाते रहे। वैसे मृत्यु तो सभी को होनी है। सभी इस अटल सच्चाई को भलि भाँति जानते हैं लेकिन यदि पहले से कैंसर जैसा लाइ लाज रोग मृत्यु सीमा निर्धारित कर दे तो इस पीड़ा को शब्दों में कैसे बयान किया जा सकता है भला। यह अनुभव इतना भयंकर और सजी वश कि इसे शब्दों में बांधना आसान नहीं है।


     किसी भी सृजनकर्मी को अपनी अभिव्यंजना को कहाँ तक जाकर अभिव्यक्त करना चाहिए यानि उन्हें अपनी स्वतंत्रता का प्रयोग किस स्तर तक करना चाहिए या यह सवाल इस तरह से पूछु कि अभिव्यक्ति के खतरे हैं तो चुप्पियों के भी?


     बहुत अच्छा सवाल है। चुप्पी के खतरे और फायदे दोनों है। कई बार ऐसे संकट के समय आते हैं जब रचनाकार का कुछ कहना बोलना सिखना जरूरी हो जाता है। ऐसे समय में जब वो चुप हो जाता है तो वह अपने समय व समानधर्मियों को निराश करता है। मैं एक उदाहरण दूंगी जब १९७६ में हमारे देश में आपातकाल लगा था, तब जितने भी बड़े लेखक थे, उनसे हम युवा लेखक चाहते थे कि आपातकाल के विरुद्ध बोलें। सरकार की मनमर्जी के विरूद्ध मोर्चा खड़ा करें। जबकि वे सब एकदम चुप बैठे थे और अनुशासनपर्व जैसी कविता लिख रहे थे और तो और हालात ऐसे होने लगे कि वे आपातकाल के पक्ष में लिखने लगे। वे लेखक जिन्हें हम बड़ा मानते थे, अपना आदर्श मानते थे। वे हमारे सामने आपात समर्थक की भूमिका में आ गए। इससे ये हुआ कि हम सब जो सक्रिय युवा लेखक माने जाते थे, उनका उनपर गुस्सा क्षोभ प्रकट होने लगा। इसका परिणाम हुआ कि हमें जगह-जगह भूमिगत होना पड़ा, गिरफ्तारियां *हुई। पर ऐसा नहीं है कि ये आपातकाल के समय ही होता है। रचनाकारों के लिए सत्ता एक तरह से हमेशा आपातकाल रखती है, उसका संकट काल कभी समाप्त नहीं होता। क्योंकि अभिव्यक्ति के खतरे तो हैं ही। जब भी आप कुछ बोलते हैं तब ही लोग आपको तौलना शुरू कर देते हैं। सबसे बड़ा उदाहरण तो यही है, हुसैन साहब की पेन्टिंग्स को कितना गलत अन्दाज में समझा गया जिसका खामियाजा मृत्युपर्यनत उन्हें तक भुगतना पड़ा। इसी तरह डॉ. रघुवंश को इलाहाबाद में रातों-रात गिरफ्तार कर लिया गया कि वे पेड़ों पर चढ़कर टेलीफोन के तार काटते हैं जबकि वे विकलांग थे। सत्ता हमेशा अभिव्यक्ति को कुचलना चाहती है। चाहे वो ७० का दशक हो, चाहे अभी का का। १९७६ में तो आपातकाल था ही। सरकारें हमेशा यही चाहती हैं। आप सब एक ही लाइन में खड़े हों और कोई आपत्तिजनक बात न करें, न लिखें न बोलें।


     मैम मैं आपसे सवाल पूछना चाहती हूँ। यद्यपि यह सवाल किसी चित्रकार के लिए ज्यादा लग रहा है मुझे लेकिन मैं ऐसा समझती हूँ चाहे चित्रकार हो, साहित्यकार हो या किसी भी विधा का फनकार हो सबके मूल मैं भाव व सृजनात्मकता ही होती है। तो मैं ये जानना चाहती थी कि जिस तरह चित्रकला में तरह-तरह की टेक्नीक्स या माध्यमों का इस्तेमाल प्रचुरता से हो रहा है कि कभी-कभी लगता हैचित्र में जटिलता या सूक्ष्मता उत्पन्न करने के लिए तकनीक पर इतना अधिक ध्यान दिया जाता है कि मूल भावों की उपेक्षा हो जाती है और आज तो अनेक कलाकार अपनी तकनीकी विधा के कारण भी पहचाने जाते हैं। तो क्या लेखन में भी शब्द कौशल, घुमावदार, लच्छेदार वाक्य भारी-भरकम शब्दों का प्रयोग चातुर्य यानि जो तत्व तकनीकी पक्ष को ज्यादा उजागर करते हैं या इसे इस तरह कहूं कि तकनीकी पक्ष, भाव पक्ष से ज्यादा महत्वपूर्ण हो जाता है।


    यह काफी अच्छा और मुश्किल सवाल है कि कई बार तकनीकी रूप से कलाकार या कथाकार अपनी कृति पर ज्यादा काबिज हो जाता है। उसकी मूल प्रेरणा पीछे चली जाती हैलेखन में यह खतरा हमेशा बना रहता है। यदि कोई रचना या पुस्तक पुरस्कार पा जाती है या प्रसिद्ध हो जाती है तो वो सेट फार्मूले की तरह बन जाता है। जैसे जादुई यथार्थवाद की बात करूं जो हमें लातिन के अनुवाद में देखने को मिला। मगर हिन्दी साहित्य ने इस तकनीक को बहुत जल्द पकड़ा। उदाहरण के तौर पर उदय प्रकाश ने न जाने कितनी कहानियां लिखी है, जिसका ढर्रा एक जैसा है, तकनीक एक ही है सबकी। मैं यह कह सकती हूं कि वो अपनी शिल्पगत पहचान और कथ्य के फार्मूले में कैद होकर रह गए। उनकी कहानियों को पढ़कर लगता है कि अपने कुछ पात्रों को अपमानित करने के सिवा उन्होंने कुछ और नहीं किया। एक तरह से पात्रों का मखौल उड़ाया है। मोहनदास कहानी में गाँधी जी के देश में गाँधी जी के सत्य को अपमानित करने वाली कहानी है। उनकी कहानियों के बजाय मैं अगर पढ़ना चाहूँगी तो अरुण प्रकाश, अखिलेश, पंकज मित्र, कबीर संजय की कहानियां पढ़ना चाहूंगी जो हर बार अपना शिल्प तोड़ते और बनाते हैं। यहाँ पर यह खतरा लेने की बात लागू हो रही है। जो सवाल तुमने पहले पूछा था कमोबेश यही काम रवीन्द्र कालिया भी कर रहे थे। वे हर रचना में शिल्प को बदल देते थे। उनका कहना था- लेख हमेशा परिवर्तनकारी भूमिका में होता है। यह हर रचनाकार के लिए जरूरी है वो अपने एक फार्मूले के चारों ओर गोल गोल नहीं धूम सकता। 


      इसी तरह दूधनाथ सिंह ने आखिरी कलाम में पात्रों को लजित करने के अलावा किया क्या है? उनकी कहानियों में तो पत्नी का पात्र भी पशु स्तर पर चित्रित हुआ है। जीवन में हमें बहुत सकारात्मक रहना पड़ता है। वर्ना हम कीड़े में तब्दील हो जाएंगे।


       चारो ओर इतनी विराट बातें हो रही है कि हमें जब कमतरी का एहसास होता है तो जैसे हम चींटी में तब्दील हो गए हों। इसी एहसास से कला या कथा पैदा होती है। हम व्यवस्था को रातों रात नहीं बदल सकते। इसी से कला में भी कभी काला कभी लाल रंग पैदा होता है। और इसी से कभी आक्रोश, कभी गुस्सा, कभी प्रेम, कभी क्षोभ भी, जैसे मुक्तिबोध की कविता है 'अंधेरे में' या जैसे अरुण कमल की कविता है ‘सारा लोहा उन लोगों का, अपनी केवल धार'।


       जब आप किसी कहानी या उपन्यास के पात्रों को रच रही होती हैं तो किन तत्वों पर या कौन सी ऐसे खास बातेंहोती है जिस पर आपका सर्वाधिक ध्यान रहता है।


     देखो ऐसा है सबसे ज्यादा ध्यान तो जो तर्क हमारे दिमाग में है जिसको कि हम विकसित करना चाहते हैं, उसके विरुद्ध हमारा पात्र न जाए इतना तो हम ध्यान रखते हैं। लेकिन हम पात्र की डोरी पकड़ कर पूरे रास्ते चल नहीं सकते। क्योंकि वह कोई काठ का खिलौना नहीं है। जब हमने उसे खड़ा कर दिया है तो वह अपने आप विकसित होता चलता है। कई बार जिस पात्र को हमने नायक समझा वो इतनी भूमिका नहीं निभा पाता जितना कि और पात्र लोग निभा ले जाते हैं। जैसे सब मैंने दुक्खम-सुक्खम उपन्यास शुरू किया तब मैंने यह नहीं सोचा था कि दादी इतनी महत्वपूर्ण चरित्र बनकर सामने आएगी। मेरे मन मस्तिष्क में कवि मोहन उपन्यास का हीरो था लेकिन लिखते-लिखते मैंने पाया कि कवि मोहन से ज्यादा महत्वपूर्ण उसकी मां यानि दादी हो गई। जो शुरू में केवल एक झगडालू औरत की तरह सामने आती है। बाद में उसका कद इतना बढ़ जाता है, तो देखिए कई बार कहानी बढ़ने के साथ-साथ पात्र का कद अपने आप बढ़ जाता है तो कई बार उसका महत्व कम भी हो जाता है। तो पात्र हमेशा लेखक के काबू में नहीं होता है।


     लेकिन थोड़ा यह ध्यान में रखना चाहिए, उपन्यास की जो मूल अवधारणा है कहीं उसके विरुद्ध न चला जाए पात्र। जैसे यदि कोई पात्र हत्यारा है तो उसे बाद में हम एकदम से शरीफ नहीं दिखा सकते या बच्चे को खलनायक नहीं बना सकते। कुछ बातें तो मूलभूत बातें होती ही हैं जिसका ध्यान हरेक रचनाकार को रखना ही चाहिए।


    जी जैसा कि पेन्टिंग बनाते वक्त भी कई बार ऐसा होता है जब हम शुरूआत करते हैं, किसी मूल भाव को लेकर, जिसकी अभिव्यक्ति, हमें लगता है अमुक रंग के माध्यम से या इस तरह-तरह रेखाओं का प्रयोग करने से, बहुत अच्छे ढंग से या बहुत प्रभावी ढंग से होगी लेकिन जैसे-जैसे चित्र आगे बढ़ता है, अपनी रवानगी में तो कई बार जो शुरूआती दौर में बेहद महत्वपूर्ण लग रहा था वो बाद में गौण हो जाता है और जिन बातों पर या रंगों पर या रेखाओं पर हमारा फोकस नहीं होता, वे हमारे चित्र में हीरो बन जाते हैं।


    चूँकि चित्रकार होने के नाते चित्रों से मेरा ताल्लुक हैजिस तरह से यदि कलाकार में प्रयोगधर्मिता नहीं है या वह अपने समय को साथ लेकर नहीं चलता है तो सम्भवतः वह समाज परिवेश समय के साथ बहुत बेहतर संगत न बिठा पाए। तब शायद बहुत सार्थक व मौलिक कृति न रच पाए या कोई बहुत महत्वपूर्ण योगदान न दे पाए अपनी रचनाओं द्वारा जमाने को। लेखन के क्षेत्र में आप इसे कैसे देखती हैं?


    चाहे कथाकार हो, चाहे कलाकार हो दोनों पर समान रूप से लागू होती है समय के साथ सामंजस्य बिठाने की बात। कथाकार दो तरह से समय को समझता है, एक तो  वह समय, जिसमें हम खुद है को समझने की कोशिश दूसरा समय से आगे जाकर समझने की कोशिश। लेखक थोड़ा भविष्य द्रष्टा भी होता है। समय के साथ-साथ चलना पत्रकारिता के इलाके में चलना ज्यादा जरूरी और सही माना जाता है। पत्रकार अपने समय को उसी तरह पकड़ता है जैसे कैमरा अपने लेन्स से कोई दृश्य। शब्दों की खासियत यह है कि कई बार बहुत पीछे जाकर बहुत आगे तक बार करते हैं जैसे हजारी प्रसार द्विवेदी की रचनाएं। आज से चालीस साल पहले भी लिखी हुई है... जो आज भी प्रेरित करती है, अपनी जैसी लगती है। कालजयी रचना वही होती हे जो समय के चक्र से ऊपर उठ जाए। जीवित रहने वाला साहित्य व कलाकर्म वही होगा जिसमें समय का भेद मिट जाए।


    जी, जैसे आप ६०-७० के दशक की बातें करती हैं। उस दौरान के तमाम अनुभव बताती हैं या हम आपके उस दौरान के लेखन को पढ़ते हैं तो मैं उस समय की बातों व लेखन में और आज के समय मैं रती भर फर्क नहीं पाती हूंया इससे भी पहले पढ़ा जाने वाला तमाम साहित्य आज भी उतना ही समकालीन लगता है। मैम जैसे यदि पुरानी कई क्लासिक फिल्मों में पात्रों की बोली भाषा का ढंग वेशभूषा या सेट आज के हिसाब से बदल दिए जाए तो वे क्लासिक फिल्में हू-ब-हू आज के दौर की ही लगने लगेंगी।


    हाँ यही है जीवित रहने वाला, साहित्य सिनेमा।


    जब आपने अपना लेखन कार्य प्रारम्भ किया थातकरीबन ७० के दशक में। तब से लेकर अब तक हिन्दी साहित्य बहुत सारे उतार चढ़ाव से गुजरा होगा और खुद आपका अपना लेखन भी। तो आप क्या फर्क या समानता पाती हैं तब के दौर और अब के दौर के लेखन में ?


    जो सातवां दशक था उसमें साहित्य में बहुत निश्चित और तीखे विभाजन थे। मिसाल के लिए जो प्रगतिशील कवि है वो कभी भी कलावादी किस्म की कविता नहीं लिखेगा। हम ये जानते थे उस समय। एक खास कवि को सुन रहे हैंतो हमें किस मिजाज की कविता सुनने को मिलेगी। इसी तरह जो प्रयोगवादी कवि थे वो अपनी प्रयोगधर्मिता कभी नहीं छोड़ते थे। उनकी बात कितनी भी अटपटी लगे पर वे उस पर ही कायम रहते थे। यही हाल व्यक्तिवादी लेखकों का था। उन्होंने अपनी अलग दुनिया बना रखी थी लेकिन जैसे-जैसे समय बदल रहा है, उसका प्रभाव साहित्य पर भी पड़ा और साहित्य में ये विभाजन बहुत कमजोर पड़ा है। अब भूमण्डलीकरण के साथ-साथ एक ग्लोबल समय भी आया है। लेखक भी इतनी ऊँची फैन्स की दीवारें नहीं बनाता कि एक जगह से दूसरी जगह जा न पाए। इसलिए कई बार होता है कि कलावादी खेमे में भी यथार्थवादी लेखक नजर आते हैंऔर यथार्थवादी पत्रिकाओं में कलावादी लेखक मौजूद हैं। यह अच्छी बात है कि आप लेखन में चीन की दीवार नहीं खड़ी करते।


     जैसा कि आप महिला सेवा सदन डिग्री कॉलेज की लम्बे समय तक प्रचार्या रही हैं तो वहाँ अपने अध्यापन के दौरान बहुत सारे कडुवे भी अनुभव हुए होंगे। कोई ऐसी स्मृति जो अभी तक वैसी ही वर्तमान है जैसी अपने उस समय की?


     मेरा अध्यापन कार्य कई शहरों में फैला रहा है। दिल्ली विश्वविद्यालय से शुरू करके मुम्बई के एक कॉलेज में पढ़ाकर इलाहाबाद के पिछड़े से कॉलेज में अध्यापन करके अपना अधिकांश समय बिताया है। मुझे लगता है अध्ययन और अध्यापन दोनों स्तरों पर मेरा मोहभंग हुआ। मुझे लगता है विद्यार्थियों में उतनी सीखने की ललक नहीं थी जिससे कि वे सभी ढंग से शिक्षित हो सकें और शिक्षकों की दशा को देखकर तो मैं इतनी निराश हुई कि उन्हें अपने वेतन सम्बन्धी अधिकारों की चेतना ज्यादा बनी रहती थी बजाय अध्यापन करने की। अपनी तरक्की को लेकर क्षुद्रता की हद जाकर लड़ाई करनासाथी अध्यापकों का किसी न किसी तरह नुकसान करना। पिछड़ी जाति के अध्यापकों को अपने से कमतर मानना ये सारी चीजें मुझे इलाहाबाद के उस विद्यालय में देखने को मिलीं। मुझे लगा कि महिला शिक्षा का सपना तब तक अधूरा रहेगा जब तक शिक्षण और शिक्षार्थी दोनों का स्तर ऊंचा नहीं उठेगा। यह हाल जब इलाहाबाद के कॉलेज का रहा है तो आप सोच सकते हैं और कस्बेनुमा और ग्रामीण क्षेत्रों में कॉलेजों की क्या हालत रहती होगी।


    आपको क्या लगता है, इसमें कैसे सुधार लाया जा सकता है?


    मुझे ऐसा लगता है कि छात्र अपने अध्यापकों से प्रेरणा ग्रहण करना बन्द कर चुके हैं। कम-से-कम मुझे तो ऐसा ही लगा। अध्यापक और छात्र के स्तर पर सघनता कम होती जा रही है। यह भी कह सकते हैं कि अच्छे विद्यार्थी जो निकल रहे हैं वे जीवन की पाठशाला से ज्यादा सीख रहे हैं, शिक्षा की पाठशाला से कम।