पुनर्प्रस्तुति प्रदक्षिणा, अपने समय की - नरेश मेहता

शहर एक, लेकिन नाम दो प्रयाग और इलाहाबाद/अलाहाबाद। सामान्य जीवन और व्यवहार में नाम पर्याय जैसे ही प्रयुक्तहोते हैं, लेकिन क्या ऐसा है? सामान्य जीवन में काम चलाने का ही भाव प्रमुख होता है और पर्याय इसमें सहायक भीहोते हैं। लेकिन सजनात्मकता में पर्याय जैसी कोई चीज नहीं होतीकोई किसी का पर्याय नहीं हुआ करता क्योंकि ऐसा होता नहीं है। प्रत्येक शब्द या संज्ञा की अपनी सम्पूर्ण स्वतंत्र संज्ञा होती है। किसी दूसरे संज्ञा या शब्द से काम निकालना न मूल, न पर्याय किसी के साथ न्याय नहीं है। क्या यह कहना गलत होगा कि प्रयाग का अर्थ एक शहर से अधिक संस्कृति से है, जबकि इलाहाबाद एक शहर के साथ-साथ एक सभ्यता का ही बोध करवाता है। इस प्रायद्वीपी शहर में संस्कृति और सभ्यता के विभाजन को स्पष्ट देखा जा सकताहै- शहर की बसाहट से लेकर लोगों की मानसिकता, बोली की बू-बास तक में गंगा-जमुना के संगम की तरह। वैसे तो प्रयाग अब सिकुड़कर एक मुहल्ला भर रह गया है - दारागंज, जहाँ सुविधाजनक कुछ भी नहीं कहा जा सकता।


    बाँध के लम्बे चले गए कूबड़ पर बसा यह मुहल्ला तंग गलियों, बेतरतीब पुराने ढंग के असुविधाजनक मकानों और तथाकथित उपेक्षित सड़कों पर घरों और गन्दगी और कूड़ा नालियों से निकलकर बहता हुआ ब-आम दिख जाएगा। मुस्लिम मुहल्लों में जैसे बकरियाँ और मुर्गियाँ शान से घूमती मिल जाएंगी, उसी तर्ज पर हिन्दू मुहल्लों में गाय और साँड़ सड़कों के बीचो-बीच चुनौती देते से जुगाली करते हुए खड़े बैठे मिल जाएंगे। शायद आदिकालीन इनके स्वच्छन्द स्वभाव और तेवर ने ही इन्हें धार्मिक महत्त्व दिलवाया हो।


    एक तरह से दारागंज पंडों-केवटों और मल्लाहों का मुहल्ला है। लोगों- दूकानों में बड़ी समरसता है। घर और बाहर कम-से-कम कपड़ों में जहाँ लोग आपको विचरण करते मिल जाएंगे, वहाँ दुकानें भी कम-से-कम टीपटापवाली ही होंगी, फिर चाहे वह दुकान पान की हो या भाँग की, किराने की हो या कापी-किताबों की। दिखावे की नफासत लाल गमछे लपेटे जब पण्डों को नहीं सुहाती तब भला पटिए और टट्टरवाली दुकानों को क्यों सुहाएगी? अरे गुरु! आपको रबड़ी-मलाई से गरज है या प्लेट रकाबी से? चलिए आपके लिए पटिया भी पोंछ दिया गया है, अब बैठिए और भाँग का कुल्हड़ जमाइए। चलिए, आप भी क्या याद रखेंगे, भाँग पर देखिए रबड़ी मलाई की तरी करवा दी। जमाइए गुरू सुगंधित भाँग बनारस में भी नसीब नहीं होगी। अब इसके बाद भोला का असली मगही पान तो नहीं खिलाया तो बाबू साहब, रईसी का मजा ही क्या। भूल जाएंगे सिविल लाइन की धुली पुंछी चोचलेबाजी। सच बताइएगा कि पद्मासन लगाकर पटिए पर बैठ कर पान घुलाने में जो आनंद है, वह उन चोंचलेवाली दुकानों में कुर्सियों से पांव लटकाकर बैठने में कभी है? मगर एक बात है सरकार, इसके बाद अगर केदार केवट की नाव में सैर नहीं की तो बेचारी भाँग अकेली कितना नशा दे ही सकती हैं।


      वैसे बनारस की गहरेबाजी और बज्मों का मजा भले ही हो यहाँ पर बाबू साहब इलाहाबाद की साफ-शफ्फाक सड़कों पर कारों-मोटरों का घूमना इसके सामने पासंग भी नहीं। आप कहें तो बुलवाया जाए केदार को?- मतलब यह कि ग्राम्यता प्रधान वाले इस संस्कृति प्रधान मुहल्ले में लोकनाथ आज भी पारम्परिक खांटीपन टूटे-फूटे रूपों में विभिन्न प्रकार के तिलक लगाए, रुद्राक्ष धारे, हाथ पंखे से बिजना डुलाते हुए मिल जाएगा अपनी ग्रामीण आत्मीयता के साथ जो नहाएधोए इलाहाबाद में यदि कहीं होगा भी तो बड़े ही दबे-मुंदेपन के साथ। वह भी इसलिए कि इलाहाबाद शहर जरूर है परन्तु इतना नहीं कि घरों में वस्तुएँ तो धुली-पुंछी धूप और हवा का आनन्द हिलते परदों के बीच लें और आप हैं कि मीलों लम्बे रास्तों पर स्कूटरों पर, बसों में टॅगे-टॅगे बदहवास अपनी घड़ी देखते हुए भागे चले जा रहे हैं। प्रदूषण और पसीने से लथपथ आपकी हुलिया कम देखने लायक ही होती है। गनीमत है इलाहाबाद नगर है, महानगर नहीं, इसलिए लाख टूट-फूट के भी आप अभी भी आदमी ही नहीं, अपने नाम के साथ पहचान में आ जाते हैं।


    वैसे आज बहुत कम लोगों को ज्ञात होगा कि इलाहाबाद कभी संयुक्त प्रान्त की राजधानी हुआ करता था। अंग्रेजों की विशेषता यह रही है कि वे अपने साथ अपना इंग्लैण्ड साथ लिए रहते हैं। स्थान मिला नहीं कि लन्दन की तर्ज पर डेरेतम्बू खड़े कर लिए। बम्बई, कलकत्ता या दिल्ली में बड़ा लन्दन तो इलाहाबाद जैसे शहरों में छोटा लंदन मगर अंग्रेज मय अपने घोड़े-बग्घी के साथ माल-रोड, सिविल लाइन्स के साथ रहना पसन्द करता था। इलाहाबाद में बीच शहर के जो रेलमार्ग गया है उसके एक ओर हिन्दुस्तानी इलाहाबाद है तो दूसरी ओर अलाहाबाद, जहाँ सरकारी दफ्तरों से लेकर गवर्नर-हाउस तक यूरोपीय शैली की राजसी गरिमा के साथ आज भी हैं। उन दिनों शाम होते ही हिन्दुस्तानी वापस अपने हिन्दुस्तानी इलाहाबाद लौट जाया करता था ताकि शाम को हवाखोरी पर निकले अंग्रेज साहब, गोरी मेमें निश्चिन्त घूम सके। उन दिनों क्या मजाल था कि सिविल लाइन्स की सड़कों पर एक भी ‘काला आदमी' दिख सकता था। मुरम की उन सड़कों के दोनों ओर लोहे की बेंचों पर प्रशस्तभाव से गोरे बैठे होते। कम्पनी-काल के उस अलाहाबाद के बड़े बँगलों, छतनार पेड़ों वाली खाली-खाली सड़कों पर घोड़ों- बग्घियों पर अंग्रेज हुक्काम टहला करते थे। द्वितीय विश्वयुद्ध के समय से ही स्थिति में अचानक परिवर्तन आने लगा। अब अलाहाबाद धीरे-धीरे इलाहाबाद बनने लगा। गनीमत यही हुई कि यहाँ की सिविल लाइन्स काफी वर्षों तक कम्पनी-काल जैसी ही बनी रही। आधुनिकता का कैंसर तो गत बीसपचीस वर्षों से लगा है और इस जहरबाद का नतीजा सामने है। लोगों की भीड़-भाड़, फुटपाथों तक पर रेडीमेड कपड़ों आदि की उठाऊ दुकानें, फलों-रसों के ठेले, न जाने क्या- क्या घिर आया है। दुपहिया, तिपहिया वाहनों की रेलमपेल हो गई है। इधर तीन-चार माचिसी शिल्पवाली बहुमंजिला इमारतें निकट भविष्य में मासूम इलाहाबाद को आधुनिक महानगर बन जाने के खतरे की सूचना देने लगी हैं। जाहिर है तीस-चालीस वर्ष पूर्व यह सम्भव था कि खाली सड़कों पर साइकिलों पर या पैदल यारवाशी करते हुए साहित्य के सपने देखे जाते थे। लेकिन


इस अप्रिय वर्तमान को तो कई लोग मुझसे ज्यादा जानते हैं और भोगते हैंमैं तो उन उत्सव जैसे वासरों और लोगों के बारे में कुछ कहना चाह रहा हूँ जो सारे राग-द्वेषों के साथ फिर भी कैसी सुगन्ध देते थे जैसे ए लोग नहीं, हरे चम्पा के फूल हैं, केवड़े के फूल हैं जिससे आपके हाथ ही नहीं, आपके वस्त्र और आज आपकी स्मृति भी सुवासित है।


    लेखक और सर्जक में मूलभूत अन्तर होता है। जीवनयापन के प्रकार से इस अन्तर को समझा जा सकता है। अपनी नींव को गहरे जाने से बचाकर कोई इमारत गगनचुम्बी नहीं हो सकती। हाँ, साधारण एक-दो तल्ले का मकान तो बनाया जा सकता है। देशभेदी ऐसी इमारतें एक सीमा तक थोड़ी बहुत कालभेदी भी होती हैं परन्तु इसके लिए मूल्य चुकाना पड़ता है और वह मूल्य होता है अपनी नींव के माध्यम से धरती के अन्तरजल को सोखते जाना। कालान्तर में नींव द्वारा सोखा गया वह जल इमारत की एक-एक ईंट ऊपर चढ़ता हुआ दीवारों, वास्तुकला के स्वरूपों में मिटता जाता है, जैसे धरती इमारत के वास्तुरूप के माध्यम से अपने गीले पैरों से धीरे-धीरे, हाँफती हुई ऊपर चढ़ रही है। और निश्चित ही एक दिन वह इमारतीपन अपने वैभव से मुक्त होकर पुरातत्व हो जाता है। शायद इसीलिए मकान खंडहर से आगे नहीं जाते, इमारतें ही पुरातत्त्व बनती हैं। अपने खण्ड-खण्ड होते स्वरूप के साथ खुले आकाश में मिट्टी की पर्ती में दब जाने के बाद भी पुनः रचे जाने की अभिलाषा के साथ इमारतें ही पुरातत्व होती हैं। मकानों को खंडहर बन जाने के बाद ऐसी किसी ऐतिहासिक प्रक्रिया में से नहीं गुजरना होता है, इसलिए बड़ी सहजता से वापस मकान बन जाने में कोई खास प्रयास भी नहीं करना होता है।


   साधारणतया तो हम कहीं सिर्फ रहते भर हैं, जबकि वास्तव में हमें वहाँ होना चाहिए या होना पड़ता है। यह होना ही वह आधारभूत सत्त्व है और यही निर्धारण करता है कि हम सर्जक हैं या सिर्फ लेखक। निराला जी इसके अप्रतिम उदाहरण हैं। लेखक के रूप में तो मेदिनीपुर से लेकर कलकत्ता, मीरजापुर या और कहीं, तात्पर्य ऐसी सारी जगहों पर वह सिर्फ रहे। एक अर्थ में लिखा भी और वह भी कम महत्वपूर्ण नहीं, फिर भी सर्जक तो वह प्रयाग के दारागंज में बने। सर्जक बनने से तात्पर्य लेखक का अपनी माटी का स्वयं ही वस्तु-विषय बन जाना, शब्द और अर्थ का विग्रह बन जाना तथा अपने देश-काल पर ऐसे अवधूत भाव से खड़े हो जाना जो सारी स्वीकृतियों की परा अस्वीकृति हो।


   भक्ति-काल के बाद थोड़े-थोड़े भिन्न रूप में यह घटना निराला के माध्यम से एक सीमा तक सम्भव हुई। निराला के शब्दों में कहें तो कहना होगा कि वह अपने समय में अँट नहीं पाए। किसी का केवल गुणानुवाद करना सीखना नहीं होता, तराशना जरूरी होता है तभी सम्भावनाओं के कारण, फलक उजागर होते हैं। कहा जा सकता है कि निराला बराबर अपने समय का उल्लंघन एक व्यक्ति के रूप में, एक सर्जक के रूप में करते रहे- ‘बाहर कर दिया गया हूँ, पर भीतर भर दिया गया हूँ।' कहा जा सकता है कि वह जिस आकाश तले खड़े रहे उससे उनका सिर बराबर टकराता था। यही कारण है कि समकालीन अक्षांश देशान्तर उनके होने, चलने किसी को भी ठीक तरह से झेल नहीं पाए, वे चरमराते रहे। कई प्रकार की विषमताएँ उनके स्वरूप का वादी-स्वर बन गईं तभी तो अपनी लिखी गई। कविताओं से भी बड़ी और सार्थक रचनाओं को अनरचे ही उन्हें लौट जाना पड़ा क्योंकि वामन में अन्तर्भूत इस विष्णु के तीसरे डग के लिए समय का बलि अपनी बलि देने को जैसे तैयार नहीं था।


   निराला को देखना ऐसा लगता था कि जैसे किसीप्राचीन मंदिर के गर्भगृह में बुझने की सीमा पर जलते दीये की मंद रोशनी में कोई विग्रह आपको आधे नेत्रों से देख रहा है। और आपसे संवादहीनता में पूछ रहा हो कि आपके आने का प्रयोजन! और आप अपने भीतर तक एक ठण्डा अकेलापन अनुभव करने लगे। शायद मैंने उन्हें पहली बार सन् '४४-४५ के आसपास देखा थामैं तब काशी विश्वविद्यालय का विद्यार्थी था। हमारे एक आत्मीय प्रभासचंद्र शर्मा काशी आए हुए थे जो स्वयं भी एक आधे कवि थे। उनके साथ योजना बनी कि इलाहाबाद चलकर निराला जी से मिला जाए


    दारागंज पहुँचने पर निराला जी के पते-ठिकाने के लिए कई जगह पूछना पड़ा। बड़ी मुश्किल से आखिरकार हम एक पण्डे के अहातेनुमा घर में दाखिल हुएगर्मियाँ अभी प्रारम्भ ही हुई थी और इस समय दोपहर था। अहाता वीरान के साथ-साथ सुनसान भी था। दुतल्लेवाले इस अहाते से कमरों से ज्यादा पड़सालें थीं और वह भी एक कच्ची, गोबर लिपीमकान का बूढ़ापन आँगन में उगे पेड़ से लेकर बेतरतीब शहतीरों और झुके खम्भों से स्पष्ट झलक रहा था। जिन बच्चों ने हमें इस घर तक पहुँचाया था वे हमें सामने के ऊपरवाले कमरे में निराला जी का होना बताकर भाग गए थे। हमने हल्के से आवाज देने की कोशिश की ताकि ठीक से जाना जा सके परन्तु कहीं से कोई आहट या उत्तर जैसा भी कुछ नहीं मिला।


   आखिरकार दीवार से सटे रेलिंगविहीन कच्चे जीने से ऊपर चढ़े। सिवाय सन्नाटे के कहीं कुछ नहीं था। खालीपन में यह विशेषता होती है कि वह अपने तीनों आयामों के साथ होता है और चूंकि हम सामान्यतः दो आयामों के ही आदी होते हैं इसलिए तीसरा आयाम प्रायः असुविधा देने लगता है। परन्तु जैसे ही हम कमरे में दाखिल हुए तो देखा कि एक जीर्ण-शीर्ण शीतलपाटी पर एक प्रशान्त, पृथुल काया हाथ को तकिया बना लेटी है और पास ही ताड़ का एक छोटा सा पंखा गिरे-गिरे भाव से देह से सटा आधा शीतलपाटा पर है। सिवाय लुंगी के और कोई वस्त्र नहीं था। घुटमुंड सिरवाला व्यक्ति संन्यासी अधिक लग रहा था। लगा कि हम गलत जगह आ गए हैं। असमंजस की स्थिति होने पर भी हमें स्वीकारना ही पड़ा कि 'अनामिका' के चित्रवाले निराला ही हैं। वह अपने सोएपन में भी सिंह अधिक लग रहे थे और बड़े-बूढों ने यही सिखाया था कि सिंह को जगाना ठीक नहीं होता। साथ ही हमारी समस्या यह भी थी कि इन्हें कैसे जगाया जाए, और वह भी क्या कह कर? कमरा भी कोठरी से नजदीक ज्यादा था। कोने में एक चूल्हा था जहाँ एकाध अधजली लकड़ी अभी भी चूल्हे में थी। दो-एक जूठे बर्तन बता रहे थे कि सिंह अपना भोजन कर चुका है। दीवार में एक खूटी थी जिसपर गुड़ीमुड़ी भाव में एक लाल गमछा भी विश्राम कर रहा था। खुटी के नीचे टीन का एक छोटा सा बक्सा था जिसमें निश्चित ही निराला जी के कपड़े रहे होंगे। बक्से पर दो-तीन पुस्तके भी दिख रही थीं, जिसमें रामचरितमानस भी थीहम समझ नहीं पा रहे थे कि यहाँ, ऐसी निरभ्रता में बैठना ठीक है या नहीं? यहाँ के अलावा नीचे चबूतरे पर धूप में बैठना तो थाने के खुले चबूतरे पर बैठाल दिए गए जैसा होता कि तभी नीचे से किसी के खाँसने की आवाज सुनाई दी। हमारी जान में जान आई जरूर, पर लगा कि आनेवाले को हम अपना कुल-शील क्या बताएंगे और यह भी कि हम किसी खाली घर में क्या कर रहे हैं? दरवाजे की चौखट में खड़े उस व्यक्ति ने हमें नीचे आने का इशारा किया। नीचे पहुँचकर हमने उसे बताया कि हम लोग बनारस से आए हैं और निराला जी से मिलना चाहते हैं। उसने बताया कि वह दिन में सोते नहीं बल्कि झपकते हैं, अभी थोड़ी देर में ही जाग जाएंगे। आगन्तुक त्रिपुण्डू, रुद्राक्ष तथा जनेऊ से पंडा तो लग ही रहा था परन्तु उसके बोलने से यह भी झलक रहा था कि वह इस घरनुमा अहाते का स्वामी है। उसके चले जाने पर हम फिर ऊपर पहुँचे और निराला के सामनेवाली दीवार से सट कर बैठ गए।


    लेटे हुए निराला से मुझे कुशीनगर के इसी प्रकार की मुद्रा में लेटी बुद्ध की विशाल प्रतिमा याद हो आई। सिवाय बुद्ध के लम्बे उत्तरीय के, स्वत्व बुद्ध के लम्बे उत्तरीय के, स्वत्व की धजा और प्रभाव वैसा ही सघन था। तभी शायद झपकी के टूटने से या फिर गरमी के कारण ण छाया में कुछ कम्पन हुआ और प्रतिमा ने आँखें खोलीं। निश्चित ही वह चौंके होंगे क्योंकि ऐसी , तभी दोपहर में किसी के होने के बारे में उन्हें कोई जानकारी नहीं हो रही होगी। उनके उठकर बैठने । में ह्वेल या डालफिन के समुद्र जल से बाहर आने की याद आ रही थी। उन्होंने अपनी मटमैली नीली आँखों से देखा जरूर मगर पहचानने की जहमत नहीं उठाई। हो सकता है कि किसी को पहचानना उनकी प्रकृति में ही न रहा हो। क्योंकि ऐसा तो प्रायः लगा कि वह अपनी काया से ही नहीं बल्कि कहना चाहिए स्वत्व से भी उनके अक्षांश-देशान्तर इतने बिखरे बिखरे और व्यापक लगते थे कि उनके अयन में किसी दूसरे के लिए कोई स्थान सम्भव नहीं होता थायाद नहीं पड़ता कि उस दिन क्या बातें हुईं। वैसे भी निराला सामान्यतः बात नहीं, दर्शन देते थे, सो हमें भी हुए।


   बहुत बार न सही लेकिन कई बार उन्हें देखने-सुनने का भी मौका मिला, व्यक्तिगत भी और सार्वजनिक भी। दो एक बार तो खासी दिलचस्प स्थितियों में शमशेर जी के साथदो-एक बार जब जाना हुआ तो हमें चाय पिलवाने के लिए चन्द्रमुखी ओझा ‘सुधा' की बड़ी बहन चन्द्रकान्ता त्रिपाठी के यहाँ ले गए। जिस अधिकार भाव से उन्होंने चाय पिलवाने के लिए चन्द्रकान्ता जी से कहा उसमें वैसी ही थी जैसे कि पुरुष अधिकार के भाव से हचक कर खटिया पर बैठता है। ऐसे ही प्रसंग में एक सब्जीवाली ने जब उनसे बकाया पैसों की माँग की तो उन्होंने अंग्रेस जी हम लोगों में से कहा कि इससे कह दो कि वह प्रेसीडेंट राजेन्द्र बाबू के पास जाए क्योंकि हमारा पैसा उनके पास है।


  ४।। इसी प्रकार सन् '४७ में जब नागरी प्रचारिणी सभा ने बनारस में उनकी स्वर्ण जयंती मनाई थी तब का दृश्य तो अभूतपूर्व था। इस आयोजन का सारा श्रेय नन्ददुलारे जी वाजपेई को जाता है। विवेकानन्द शैली में साफा बाँधे, रेशमी भूषा में पूरे बैण्ड-बाजे के साथ वह पंडाल तक लाए गए थे। किसी साहित्यिक आयोजन में इतनी बड़ी भीड़ हिन्दी क्षेत्र में अकल्पनीय है। मैथिली बाबू, महादेवी वर्मा तथा कितने ही तत्कालीन नामांकित लेखक मौज मौजूद थे। सभा का मैदान खचाखच भरा हुआ था। इधर प्रशस्ति-पत्र का वाचन चल रहा है और ऊँचे पीठासन पर बैठे हैं और निराला कितनी ही बार अपना साफा खोल-बाँध रहे हैं और बच्चे मौज ले रहे हैं। निराला जी को तब मैथिली बाबू के हाथों दस हजार रुपयों की थैली भेंट की गई। किन मुश्किलों से इतनी बड़ी राशि, आज भले ही यह नगण्य हो यह तब ऐसा नहीं था, स्वयं वाजपेई जी ने तथा उनके शिष्यों ने जुटाई थी और उसे देखते-देखते निराला जी ने कुछ रामकृष्ण मिशन, कुछ विधवाओं और कुछ नवयुवक लेखकों को हाथो-हाथ बाँट दी। सारे आयोजन में सन्नाटा खिंच गया।


   मुझे ठाकुर रामकृष्ण परमहंस की एक बात याद हो आई कि ठाकुर पैसा कभी नहीं छूते थे। उनके किसी विरोधी ने इसकी परीक्षा लेने के लिए रामकृष्ण जिस आसन पर बैठते थे उसके नीचे एक रुपया या सिक्का रख दिया। रामकृष्ण आए और आसन पर बैठ गए परन्तु थोड़ी देर में ही वह बोले कि आसन जल रहा है। और उन्होंने आसन के नीचे से यह सिक्का निकाला और एक तरफ फेंक दियामाना कि निराला रामकृष्ण नहीं थे परन्तु इस प्रकार की मानसिकता किसी की भी हो सकती है, क्योंकि इसके लिए स्वत्व की आवश्यकता होती है। आयोजन में सन्नाटा अवश्य छा गया परन्तु किसमें ताव था कि उस फकीर को रोकता। निराला के प्रिय कवि तुलसी की ही तो ये पंक्तियाँ हैं कि- 'हम चाकर रघुवीर के पढ्यो लिख्यो दरबार, अब तुलसी का होइहैं नर के मनसबदार।' 'भला ऐसी अनासक्ति, असंगता या अवढरत्व क्या बिना उदास हुए सम्भव है? जब सारे अंगराग भस्मीभूत हो जाते हैं तब कहीं भस्मी शिव-श्रृंगार बनती है।


  उस दिन आयोजन में कइयों ने, जैसे- मैथिली बाबू, महादेवी वर्मा, नन्द दुलारे वाजपेई ने उनसे काव्य-पाठ का आग्रह किया परन्तु उन्होंने जो भाषण दिया वह निश्चित ही भाषण तो नहीं ही था। परन्तु भाषण देता कौन? वैसे भी निराला उपस्थित ही कब होते थे? कोई है इसका तात्पर्य, यह नहीं होगा कि वह उपस्थित भी हैं। जिसके व्यक्तित्व के सामने आरात्रिक रामकृष्ण परमहंस मय शारदा माँ के उपस्थित होंतो उनका सारा जागतिक कर्म हमारे-आपके लिए हो ही कैसे सकता है?


   मुझे काशी के बंगाली-टोला के एक साध्वी माँ का स्मरण हो रहा है, जो आगन्तुक को देखने के लिए एक ओर थोड़ा झुक जाती थीं। उन्हें हर बार जब ऐसा करते देखा गयातो एक बार गोपीनाथ कविराज ने उनसे इसका कारण जानना चाहा कि वह ऐसा क्यों करती हैं? इस पर वह बोलीं कि जब प्रभु सामने बैठे हों तब आगन्तुक को देखने के लिए झुकना ही तो पड़ेगा न। निराला की मानसिकता भी क्या साधुता की नहीं थी? हम पहले कह आए हैं कि सर्जक सन्त भले ही न हो परन्तु सन्त की चित्तवृत्ति होनी चाहिए। क्या यह कहना गलत होगा कि सब को अनुपस्थित कर देने पर ही आप उपस्थित हो सकते हैं। निराला का लेखन ही नहीं बल्कि सारा जीवन इसलिए उपस्थित है क्योंकि शेष सब उनके लिए अनुपस्थित हैं। वास्तव में तो सर्जक का यह चरित्र, स्वत्व भक्तिकाल के कवियों के बाद ही अविश्वसनीय हो चला था, तब भला आज के हमारे हिसाब-किताबीवाले युग में ऐसा स्वत्व पागल ही तो माना जाएगा। तंत्र और मंत्र की सन्धि पर खड़ा ऐसा स्वत्व किसी को औघड़, किसी को भक्त, किसी को दम्भीआदि लगता रहा हो तो आश्चर्य की क्या बात है? वस्तुतः निराला तो साहित्य के हड़िया बाबा थे। भला ऐसे अवधूत की महायात्रा के समय गिनती के साहित्यकार, धुले-पूछे लोग ही थे तो इसे भी गनीमत ही समझना चाहिए। हाँ, दारागंज के अत्यन्त साधारण जन, दूकानदार, सब्जीवाले, केवट-मल्लाह भी कंधा देने के लिए साथ चल रहे थे तो क्या यह उनकी ITT५। उपेक्षा मानी जानी चाहिए? भगवान् आशुतोष की बारात में कोई सम्पन्न देवी-देवता नहीं गया था। यदि गए होते तो शंकर की बारात मिथक की भी मिथक कैसे बनती? राज्य ने चारछह आदमियोंवाला पुलिस-बैंड, दो चार सिपाही भेजकर सरकारी दायित्व से मुक्ति पा ली तो दो-चार साहित्यकारों ने भी पहुँचकर बाकी के इलाहाबाद के साहित्यकारों का प्रतिनिधित्व कर ही दिया।


   कड़वे-मीठे ऐसे कुछ और भी प्रसंग हो सकते हैं, हो सकता है आपके पास कुछ ज्यादा ही हों, तब भी मिर्जा गालिब का यह शेर याद आ रहा है


   या रब, वो न समझे हैं न समझेंगे मेरी बात


    दे और दिल उनको जो न दे मुझको जुबाँ और। खैर ...।


   कहने को तो भाई जगदीश गुप्त भी बरसों से उसी दारागंज में रह रहे हैं परन्तु उनके व उनके लेखन को देखकर लगता है, कि दारागंज की बू-बास से बचने के लिए उन्हें कितना प्रयत्न करना पड़ा होगा। यह मैं किसी आक्षेपवश नहीं कह रहा हूँ बल्कि कारण भी जानता हूँ कि तब तक काल और परिस्थितियाँ छायावाद-युग से भिन्न हो गई थींबाद में पडित श्रीनारायण चतुर्वेदी भी चाकरी-परिक्रमा के बाद कुछ समय के लिए दारागंज में रहने लगे थे। अपने समय में चतुर्वेदी जी की विएना की सड़क काफी चर्चित भी हुई थी। यह छद्म नाम से व्यंग्य भी लिखा करते थे। परन्तु चतुर्वेदी जी, तात्पर्य ‘भैया साहब' रचना-कर्म से अधिक साहित्यिक गतिविधियों में जाने जाते रहे। शिक्षा विभाग के हिन्दी पुस्तकों की खरीद, कोर्स की पुस्तकों आदि के द्वारा तत्कालीन हिन्दी लेखकों पर खासा उनका प्रभाव था, कहना चाहिए उनका प्रभामण्डल था। उन्होंने कुछ समय तक 'सरस्वती' का सम्पादन भी किया था। इंडियन प्रेस, रामनारायन लाल बुक सेलर्स आदि प्रकाशकों पर उनका दबदबा भी था। वह जहाँ रहे, चाहे वह लखनऊ रहा हो या प्रयाग ‘भैया साहब' के दरबार में छोटे-बड़े लेखक जाया करते थे। इस दरबार के नवरत्नों में भगवतीचरण वर्मा, अमृतलाल नागर, गिरिजाकुमार माथुर, विद्यानिवास मिश्र जैसे कई लोग थे। भैया साहब न केवल दिलचस्प व्यक्ति थे बल्कि पुरलुत्फ भी। खुली देह के भैया साहब को देखकर यही लगता कि व्यक्ति चाहे तो कितनी कम-से-कम देह के साथ भी अच्छा खासा रह सकता है, मगर शर्त है कि चाहे तो।


   वस्तुतः इलाहाबाद आधुनिक-युग का साहित्यिक केन्द्र कमोबेश बीसवीं शताब्दी के आरम्भ से ही रहा। इसका कारण था 'सरस्वती' का प्रकाशन। आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी अपनी रेलवे की नौकरी के बाद 'सरस्वती' के सम्पादन के लिए इलाहाबाद आ गए। कहना न होगा कि द्विवेदी जी स्वयं तो लेखक नहीं थे परन्तु उन दिनों की आरम्भिक साहित्यिक स्थिति में उनसे योग्य कोई दूसरा व्यक्ति नहीं हो सकता था। भाषा और व्याकरण के प्रति उनकी जागरूकता के कारण ही तत्कालीन लेखकों पर गहरा प्रभाव पड़ा। कहा जा सकता है कि हिन्दी लेखन और साहित्य पर सटीक पकड़ के कारण ही हिन्दी गद्य और पद्य दोनों स्वरूपित होने लगे। उस काल के प्रसिद्ध लेखकों में कश्मीर सुषमा के कवि श्रीधर पाठक तो इलाहाबाद, लूकरगंज के निवासी ही थे परन्तु सब से प्रसिद्ध तो मैथिलीशरण गुप्त थे। मैथिली बाबू ने द्विवेदी जी की गुरु कृपा को सार्वजनिक रूप में भी स्वीकारा। इसी लूकरगंज में रामनाथ लाल 'सुमन' भी हुए।


   'सरस्वती' के बाद ‘अभ्युदय' नाम से एक पत्रिका लूकरगंज से ही पद्मकान्त मालवीय निकाला करते थे। यह वह समय था जब विभिन्न प्रकार की मासिक, साप्ताहिक, बच्चों की पत्रिकाएँ एक साथ निकल रही थीं- उक्त दोनों मासिकों के अलावा देशदूत, वानर, बाल सखा, शिशु आदि मुद्रित हो रहे थे और सारे हिन्दी प्रदेशों में भी पढ़े जाते थे। फिर भी लेखन का स्तर अपेक्षाकृत अभी स्तरीय नहीं था परन्तु साहित्यिक चेतना प्रबल होती जा रही थी। ज्योति प्रसाद निर्मल ‘देशदूत' के माध्यम से साहित्य तथा अन्यान्य विषयों से हिन्दी समाज को परिचित कराने में लगे थे। उस काल की साहित्यिक पत्रिकाएँ आज की भाँति अलग-थलग साहित्यिक पत्रिकाएँ नहीं होती थीं बल्कि साहित्य और समाज दोनों को एक-दूसरे के निकट लाने में लगी थीं फिर चाहे वह ‘विशाल भारत' हो या 'सरस्वती', 'चाँद' हो या ‘माधुरी' या ‘विश्ववाणी'। संत निहाल सिंह रहे हों या गुरुदयाल मलिक सत्यदेव परिव्राजक रहे हों या अन्य कोई, अपने यात्रा वृत्तान्तों या सामयिक विषय समस्याओं से समाज को अवगत करा रहे थे।


  उन दिनों के सम्पादकीय सर्वथा भिन्न प्रकार के होते थे जिससे पता चलता है कि सामाजिक तथा साहित्यिक उन्नयन एवं जागरण के लिए सम्पादक कितना परिश्रम कर रहा है। रोचक बनाने के लिए विदेशी साहित्य की महत्वपूर्ण रचनाओं के अनुवाद छापे जाते थे। उन दिनों ‘भुवाल संन्यासी का मुकदमा' किसी भी उपन्यास से कहीं अधिक रोचक छपा करता था और सारे पाठक उसे पढ़ने के लिए उत्सुक रहा करते। इसी प्रकार विजयानन्द दुबे (छद्म नाम) का ‘दुबे जी का चिट्ठा' भी खास प्रकार का हास्य प्रस्तुत करता था। शिवशंभु शर्मा, अन्नपूर्णानन्द आदि कितने ही लेखक थे जो लोकप्रिय हुए। इस जागृति का ही कारण था कि काव्य के क्षेत्र में छायावाद का आगमन हो सका। यद्यपि महावीरप्रसाद द्विवेदी के काव्य-स्कूल से सर्वथा भिन्न यह काव्य-आन्दोलन था लेकिन सहसा ऐसा परिपक्व काव्य आन्दोलन भी द्विवेदी जी की जागरूकता से ही संभव हो सका।


    इलाहाबाद को यह श्रेय जाता है कि छायावाद के तीन प्रमुख कवि मुख्य रूप से इलाहाबाद में ही थेअकेले प्रसाद जी अवश्य काशी के थे। इसी प्रकार प्रेमचन्द जी भले ही काशी में हुए परन्तु उनकी यथार्थवादी कथा-दृष्टि का प्रभाव और विकास आगे चलकर इलाहाबाद में ही हुआ, न कि काशी में। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल की आलोचना को काशी या इलाहाबाद की सीमा में नहीं बाँधा जा सकता है, क्योंकि इतने वर्षों बाद भी उनकी आलोचना, आलोचना-दृष्टि सभी सार्वदेशिक रूप में प्रामाणिक है। प्रयत्न चाहे नन्द दुलारे वाजपेई, हजारी प्रसाद द्विवेदी, नगेन्द्र, रामविलास शर्मा या नामवर सिंह आदि ने किए हों परन्तु शुक्ल जी की-सी परिपक्वता किसी दूसरे में सम्भव नहीं हो सकी।


     छायावाद के प्रमुख कवि निराला की चर्चा हम कर आए हैं इसके अलावा सुमित्रानन्दन पत्त, आरम्भ में उन दिनों वह केवल कवि भर नहीं थे। उन्होंने नरेन्द्र शर्मा आदि के साथ मिलकर ‘रूपाभ' नाम से एक मासिक निकाला था। अब तो इस पत्रिका के अंक भी दूभर हो गए हैं परन्तु ‘रूपाभ' उस समय का प्रमुख पत्र थाकविताओं के अतिरिक्त साहित्य की समस्याओं पर लेख होते थे। इसी कारण ‘रूपाभ' के चारों ओर पारम्परिक शैली में सोचने तथा लिखनेवालों के स्थान पर अनेक नवोदित कवि सामने आए। वैसे मैं ठीक तरह से तो नहीं कह सकता कि इन नवोदित लेखकों में बच्चन थे या नहीं परन्तु शमशेर, वीरेश्वर, भुवनेश्वर आदि सामने आए। छायावाद-स्कूल को यह श्रेय जाता है कि पश्चिम के, विशेषकर अंग्रेजी काव्य के रोमांचक काव्य के ढंग पर हिन्दी में लिखना शुरू किया गया। पन्त जी ने रवीन्द्रनाथ ठाकुर की भांति ‘ज्योत्स्ना' काव्य-नाटक लिखा। 'तेरा हार' शीर्षक से उपन्यास भी लिखा परन्तु ये दोनों केवल प्रयोग बनकर रह गए। रवि ठाकुर के रक्त कर्वी' या 'चंडालिका' पन्त जी के ज्योत्स्ना' के आधार थे परन्तु हिन्दी भाषा में वह गीति-तत्त्व कभी सम्भव नहीं हो सका जो बंगला में था। क्यों नहीं था, के कारणों पर नहीं जाना चाहता क्योंकि विषयान्तर हो जाएगा।


    पन्त जी अपने इस आरम्भिक उत्साह से विमुख होते चले गए और बाद में केवल काव्य तक ही सीमित रहे। आज भी कुछ लोग तो जानते ही हैं कि पन्त जी अप सृजन और व्यक्तित्व दोनों से हिन्दी को चमत्कृत किए हुए थे‘पल्लव', ‘गुंजन', ‘ग्राम्या' या और कुछ बहुत ही सम्मोहक रचनाएँ थीं। असल में पन्त जी के पास काव्य-भाषा तो थी ही परन्तु उनकी वास्तविक शक्ति थी ध्वन्यात्मक बिम्ब-शक्ति, जो छायावाद के किसी दूसरे कवि में नहीं थी। निराला में निश्चित औदात्य था परन्तु रम्यता तो पंत के पास थी और वह भी सटीक बोलती हुई -


  सन्ध्या का झुटपुट


  बाँसों का झुरमुट


   हैं चहक रहीं चिड़ियाँ


   टी-वी-टी टुट टुट।'


  'मृदु मन्द-मन्द मन्थर-मन्थर


   लघु तरिणी हंसिनी सी सुन्दर


  तिर रही खोल लघु पालों के पर


    ग्रामीण बाला का जल लिए अपने पर्वतीय गाँव के सपले पथ पर चलने का यह बिम्ब देखने योग्य है


     ''वह गज-गति अपनी सर्प-डगर पर


   तात्पर्य यह कि पन्त में ऐसे सैकड़ों काव्य-चित्र मिल जाएंगे परन्तु उन्हें चित्रकाव्य की कोटि में कभी नहीं रखा जा सकता क्योंकि वह काव्य की अधम-कोटि मानी जाती है। सब जानते हैं कि पंत कोमल-कान्त-पदावली के कवि हैं। प्रकृति उनके काव्य का पर्याय जैसी है। उन्होंने अपने पर्वतीय संस्कार और दृष्टि को बहुत लम्बे समय तक धुंधला नहीं होने दिया। ‘युगान्त' और ‘युगवाणी' के बाद हिन्दी-काव्य जिस प्रगतिशील-आन्दोलन तथा चेतना के साथ प्रभावी हो रहा था उसका प्रभाव पन्त जैसे जागरूक ‘कवि पर कैसे नहीं पड़ता? पन्त जी की इसे जागरूकता भी कहा जा सकता है और कमजोरी भी कि वह ऐसे सारे बदलावों से न केवल सावधान ही हो जाते थे । बल्कि तदनुरूप होने की चेष्टा भीकरने लगते थे। जब एक समय नई कविता आन्दोलन उन्मुख हुआ तो पन्त जी ने ‘कला और बूढ़ा चाँद' के द्वारा नई कविता के साथ हो जाना चाहा। प्रगतिशील आन्दोलन से जब उनका मोहभंग हुआ तो वह अरविन्द दर्शन और गांधी की ओर मुड़ गएइस प्रकार के घेराव में निराला को भी देखा जा सकता हैउन्होंने भी वेदान्त-दर्शन से लेकर वह तोड़ती पत्थर' या ‘अबे, सुन बे, गुलाब' जैसी कविताएँ भी लिखीं, परन्तु इस सब के बावजूद उन्होंने अपनी आधारभूत भूमि को नहीं छोड़ा। इसी कारण जीवन के अन्तिम दिनों में जिस प्रकार राग और भक्तिपरक कविताएँ लिखीं वह निर्भय व्यक्तित्व के कवि की रचना लगती हैं।


    असल में पंत जी एक साथ कई चीजें मूर्त करना चाहते थे। सन् '४० के आसपास उन्होंने काव्य और संस्कृति को लेकर ‘लोकायतन' नाम से एक राष्ट्रीय योजना बनाई थीअनेक लोगों को उसमें जोड़ा भी गया था। ऐसा लगता हैकि वह नर्तक उदयशंकर के साथ इसी योजना को स्वरूप देने हेतु गए थेउदयशंकर की प्रसिद्ध फिल्म ‘कल्पना' तथा ‘पेन एण्ड मशीन' से वह जुड़े भी इसीलिए थे, जिनके लिए कुछ गीत भी लिखे थे। लेकिन शायद बात कुछ आगे नहीं बढ़ पाई। हालाँकि कम्यनिस्ट पार्टी के सेक्रेटरी पी.सी. जोशी के आन्तरिक दबाव में पन्त जी प्रगतिशीलों के निकट गए थे जबकि निराला के पास रामविलास शर्मा आदि कम्युनिस्ट गए थे। इस तात्त्विक भेद को दोनों के लेखन पर देखा जा सकता है। यह कहना तो सर्वथा गलत होगा कि रामविलास शर्मा ने जो विध्वंसक लेख पन्त जी पर लिखा उसके कारण वह कम्यूनिस्टों से अलग हो गए। हो सकता है वह चौंके हों परन्तु अरविन्द या गांधी की ओर मुड़ना उनकी वैचारिक निष्पत्ति थी। निराला और पन्त में इतना साम्य अवश्य है कि इन दोनों में दर्शन के प्रति झुकाव हैपरन्तु सबसे बड़ा अन्तर यह है कि निराला दर्शन के लिए काव्य का मू मूल्य नहीं चुकाते जबकि इसके विपरीत पन्त के काव्य ‘सौवर्ण' आदि बाद के काव्य-संग्रहों में काव्य दर्शन में खो जाता हैऔर पन्त को जब इसकी प्रतीति होती है तब तक बहुत देर हो जाती है। यही कारण है कि वह अपना महाकाव्य ‘लोकायतन' अफरा-तफरी में लिखते हैं जो न काव्य, न दर्शन कुछ नहीं बन पाता बल्कि इतिवृत्तात्मक भी ठीक तरह से नहीं बन पाया। आश्चर्य होता है कि पन्त जैसे जागरूक महाकवि से इनती बड़ी भूल क्यों और किसलिए हुई? इसका प्रत्यक्ष कारण तो वामपंथियों द्वारा पन्त जी पर योजनाबद्ध तरीके से प्रहार और विरोध था। हालाँकि निराला ने वामपंथियों का कोई साथ नहीं दिया था परन्तु एक तो रामविलास शर्मा का निराला को बराबर समर्थन तथा काव्य के क्षेत्र में उन्हें एक बड़े नाम की आवश्यकता थी। इस सम्बन्ध में इतना ही कहा जा सकता है कि ऐसे सदाशयी, सौम्य महाकवि के साथ जैसा शालीन व्यवहार अपेक्षित था वह समकालीन और तत्कालीन समान धर्माओं ने नहीं किया।


    मुझे याद है जब 'निराला व्याख्यानमाला' में पन्त जी ने ‘छायावाद पुनर्मूल्यांकन वाले भाषण में ऐसा ही कुछ कहा कि आज की नई कविता छायावाद का ही ‘एक्स्टेंशन' है या छायावाद के ज्यादा निकट है तब परिमल के लेखकों ने काफी विरोध किया। यह ठीक है कि पन्त जी ने भी अपनी बात सरलीकृत रूप में कही जिससे भ्रम उत्पन्न हुआ लेकिन उनका विरोध तो उससे भी अधिक अनसोचे रूप में हुआ।


   सृजन एक शाश्वत, गतिशील प्रक्रिया होती है, जिस पर देश और काल दोनों का प्रभाव भी पड़ता है, जिसके कारण उसके बाह्य-स्वरूप में भिन्नता भी आ जाती है। परन्तु नैरन्तर्य तो तब भी अप्रभावित रहता है। निरन्तर बदलता हुआ अतीत ही वर्तमान बनता जाता है। छायावाद के ज्यादा निकट की बात के पीछे पन्त जी का अभिप्राय नई कविता को छायावाद की अनुकृति का तो नहीं हो रहा होगा। कालान्तर में जब नई कविता पुरोधाओं ने बाद की कविताओं को नई कविता का ‘एक्सटेंशन' जैसा कहा तब मंशा क्या थी? जब ऐसी कोई मंशा नहीं थी केवल कुल-गोत्र की एकता बताना था तब पन्त जी के कथन पर इतनी भौंहे चढ़ाने की क्या आवश्यकता थी? तात्पर्य यह कि पन्त बराबर गलत समझे गए विरोध के द्वारा। तो यह भी कहा जा सकता है कि निराला को ही समकालीन या तत्कालीनों ने कितना समझा- पूजित बनाकर। यही कारण है कि पन्त अपने तरीके से एकान्तिक होते चले गए तो निराला दूसरी तरह, परन्तु भिन्न परिणतियोंवाली समानता के साथ।


    यह कहा जा चुका है कि निराला अवधूत या औघड़ व्यक्तित्व के थे तो पन्त उतने ही आत्ममुखी, मितभाषी, संकोचीये दोनों ही असंग थे, विभिन्न प्रकार में। पन्त जी को भी जीवन में कम पापड़ नहीं बेलने पड़े थे। सन् ‘३०-४० के दशक में कुछ समय के लिए पन्त जी कालाकाँकर के कुँवर सुरेश सिंह के साथ रहे। नौका विहार' वाली कविता तथा बाद में ‘ग्राम्या' की कविताएँ कालाकाँकर की ही देन हैं। कालाकाँकर में एक छोटी सी पहाड़ी पर काटेजनुमा उनका आवास था, जिसे उन्होंने ‘नक्षत्र' नाम दिया था। उस काटेज के बाहर एक नीम थी जिस पर पन्त जी की कविता भी है। नरेन्द्र शर्मा उनके साथ रहते थे। इस काटेज के पास पलाशवन था, जो नरेन्द्र शर्मा के काव्य-संग्रह का शीर्षक बना। रोज शाम को कुंवर सुरेश सिंह की बैठक में गोष्ठी जमती। उन दिनों वहाँ चार-आठ दिनों के लिए निराला, बच्चन, सोहनलाल द्विवेदी आदि भी आ जाते थे। गंगा-तट से लगी इस बैठक में देर रात गंगा की प्रशान्तता के साथ न जाने कितनी साहित्यिक गोष्ठियाँ हुई तथा काव्य-वाचन आदि। किसी ने उन दिनों के संस्मरण नहीं लिखे, नहीं तो बहुत ही दिलचस्प वर्णन पढ़ने को मिलते।


   पन्त जी के निकट व्यक्तियों में बच्चन और नरेन्द्र शर्मा प्रमुख रहे हैं। बच्चन के साथ तो वह कटरा के कचहरी के पास ‘बसुधा' नामक एक काटेज में रहते थे। इस काटेज के पास उन दिनों इलाहाबाद विश्वविद्यालय के वाइस चांसलर प्रो. रंजन का बँगला था। ‘बसुधा' काटेज का नाम भी बच्चनसुमित्रानन्दन पंत के प्रथमाक्षरों को लेकर बनाया गया था। ब/ सुधा ‘बसुधा'। बाद में इस काटेज में डॉ. आशामुकुल दास रहने आए थे, जो मेडिकल डाक्टर के साथ बँगला के कवि भी थे। डॉ. दास अज्ञेय के काफी निकट थे। कुछ लोग तो आज भी होंगे जो बता सकते हैं कि डॉ. दास जैसा सज्जन मनुष्य मिलना दुर्लभ है। पन्त जी वैसे तो अन्तर्मुखी व्यक्ति थे परन्तु एक विशिष्ट प्रकार का विनोदी स्वभाव भी था। शमशेर को वह जिस लहजे में शायर' कहते थे उसमें ‘छेड़ खुबाँ से चली जाय असद' की ध्वनि आती थी। लेकिन कुल मिलाकर उनमें आधारभूत सम्भ्रान्तता थी जो मध्यमवर्गीय हिन्दी लेखकों को चौंकाती थी। वामपंथी उन्हें बुर्जुआ समझते थे। हो सकता है हिन्दी के वामपंथी इस संज्ञा के अर्थ और निहितार्थ को न जानते रहे होंगे क्योंकि पन्त जी बुर्जुआ स्वभाव के तो हो सकते थे परन्तु जीवन में कतई बुर्जुआ नहीं थे। उनका रहन-सहन, खान-पान आम भारतीय की ही तरह था। इसी प्रकार परिमल ग्रुप वामपंथियों की भांति अछूत भले ही न समझता रहा हो पर उनसे छिटके जरूर रहते थे।


   उन दिनों काफी-हाउस का तो चलन न था। विश्वविद्यालय रोड पर जगाती का एक रेस्तराँ ‘रास्ते राहत हुआ करता थाजहाँ भगवतीचरण वर्मा अपने विद्यार्थी काल में अपनी मित्र मंडली के साथ बैठा करते थेव्यवस्थित रूप से लेखकों के मिल-बैठने का यह कोई क्रम भी नहीं था। लेखक तो थे पर दलबाजी नहीं थी। यह खेमेबंदी तो प्रगतिशील आन्दोलन की कृपा से प्रारम्भ हुई। फिर भी उस काल में गाहे-बगाहे पंडित अमरनाथ झा के यहाँ लोग जमा हो जाते थे। झा साहब तब वाइस चांसलर हुआ करते थे। उनके घर लेखकों की गोष्ठी बहुत बड़ी बात हुआ करती थी। उन दिनों नाटककार जगदीशचन्द्र माथुर भी विश्वविद्यालय में विद्यार्थी थे। झा साहब के इस ‘दरबार' में पन्त जी, रामकुमार वर्मा, बालकृष्ण राव, भगवती बाबू, नरेन्द्र शर्मा, बच्चन, शमशेर, गंगा प्रसाद पांडे आदि जाते थे। तब इलाहाबाद जैसा प्रशान्त और क्लासीकल शहर था वैसा ही तो उसका चरित्र होगा। हो सकता है लेखकों में सब अच्छे-बुरे लेखन को लेकर जो भी दूरपास के सम्बन्ध रहे हों परन्तु वामपंथियों के आगमन के बाद जात-कुजात की जो भावना सिद्धान्त बनी वह सब कहीं नहीं थी।


   साहित्य में तब लेखन प्रमुख था न कि समस्याएँ, वह भी साहित्य को लेकर नहीं बल्कि वामपंथी राजनीति की समझ से प्रतिपादित सामाजिक समस्याएँ। कालान्तर में यह प्रवृत्ति ही लेखन में भी अधिक महत्वपूर्ण होती गई, विभिन्न नामों से। चूंकि पन्त या नरेन्द्र शर्मा अपेक्षाकृत अधिक संस्पर्शी लेखक थे। इसलिए इस बदलते स्वरूप के प्रति ये ज्यादा जागरूक थे- जबकि रामकुमार वर्मा, भगवती बाबू आदि के लिए ऐसी बातों का कोई मतलब नहीं था। भगवती बाबू बेलौस किस्म के आदमी थे। कविताएँ लिखते जरूर थे परन्तु मुख्यरूप से वह गद्यकार थे। इसलिए साहित्य की इस प्रकार की सैद्धान्तिक चोंचलेबाजियों में उनकी कोई रुचि नहींथी। कहने को तो रामकुमार वर्मा भी कविताएँ लिखते थे और गाते भी थे परन्तु उनकी रुचि एकांकी नाटकों में ज्यादा थी। चूंकि वह विश्वविद्यालय में प्राध्यापक थे अतः वार्षिकोत्सव के अवसर पर अपने एकांकियों के मंचन में उन्हें सुविधा होती थी। आम हिन्दी प्राध्यापकों की भूषा से भिन्न रामकुमार वर्मा सूटेड-बूटेड व्यक्ति थे। उनके एक एकांकी संग्रह का नाम भी ‘रेशमी टाई' था। कालान्तर में रामकुमार वर्मा ने 'एकलव्य' महाकाव्य भी लिखा था। इसके विपरीत आई.सी.एस. हो जाने के बाद भी जगदीशचन्द्र माथुर ने ‘कोणार्क' नाम से एक महत्त्वपूर्ण नाटक लिखा था। कहने को तो बालकृष्ण राव भी आई.सी.एस. थे उनका एक काव्य-संग्रह भी छपा था परन्तु कुछ खास नहीं। परन्तु वह अपने चारों ओर अच्छा खासा मजमा जुटाने में माहिर थे। उनके पास लेखकों और कवि-सम्मेलनों को लेकर बहुत ही दिलचस्प किस्से थे। यदि वे उन्हें ही लिख दिए होते तो निश्चित ही वह उनकी विदग्ध रचना होती। 'लीडर' के सम्पादक सी.वाई. चिन्तामणि के पुत्र होने के कारण भी तथा अपने सम्बन्धों के कारण भी उनके खासे रसूख थे इसलिए सरकारी नौकरी से बाहर आ जाने पर भी अच्छे खासे हीले से लगे रहे। समय बाद वह 'लीडर' में साप्ताहिक साहित्य संस्करण में रहे। एक बार उन्होंने मेरे काव्य संग्रह 'वनपाखी सुनो' पर आलोचना लीडर में छापी, तब मैं दिल्ली में हुआ करता था। एक दिन मुझे डाक से धर्मवीर भारती का एक पत्र आलोचना के साथ प्राप्त हुआ। भारती ने इस आलोचना पर छपा अपना प्रतिवाद भी भेजा। देखा, तो मजा आ गया बालकृष्ण राव, जो सी.बी. कहलाते थे, ने बड़ी कमाल की आलोचना की थी।


   उन दिनों ‘नकेन' नाम से बिहार के नलिन विलोचन शर्मा, केसरी और नरेश ने एक काव्य-आन्दोलन चलाना चाहा था। इन नरेश महाशय की कविताओं की विशेषता यह भी थी कि वे मेडिसीन प्रधान होती थी। शायद सी.बी. अपने कारणों से इन दूसरे नरेश से भी नाखुश रहे होंगे इसलिए संग्रह मेरा और कविताएँ इन दूसरे नरेश महाशय की, पर उक्त आलोचना लिख डाली। शायद सी.बी. ने वनपाखी सुनो को देखने की भी जहमत नहीं उठाई थी। उनकी इस जरासंधी आलोचना पर भारती ने जो खबर ली उसका भी कोई जवाब नहीं था। कहने का तात्पर्य यह कि आई.सी.एस. के चुनिन्दा व्यक्ति भी बड़ी मासूम भूलें कर जाते हैं।


    सी.बी. इलाहाबाद के मेयर भी रहे, हिन्दुस्तानी अकादमी के अध्यक्ष भी रहे, माध्यम के सम्पादक भी रहे पर जो वह आसानी से कर सकते थे, संस्मरण लिखना, वही नहीं किया। निश्चित ही साहित्य की इससे हानि ही हुई। ऐसी हानि पंडित वाचस्पति पाठक के द्वारा भी हुईपाठक जी के पास दिल्ली, इलाहाबाद, काशी या कहा जाए कि किन-किन और कैसे-कैसे प्रकाशकों, लेखकों के सैकड़ों संस्मरण नहीं थे


    साहित्य की समृद्धि लिखित, मौलिक साहित्य के द्वारा तो होती ही है परन्तु इससे भी कहीं अधिक लेखकों के आचरण, क्रिया-प्रतिक्रिया से भी वह समृद्ध होती है। प्रत्येक लेखक व्यक्ति भी होता है और व्यक्ति कभी-न-कभी कसमसाता जरूर है क्योंकि ऐसा कसमसाना मानवीय होता है। लेखक का यह पक्ष संश्लेषणों के अभाव में बिला जाता है। सब जानते हैं कि बच्चन कभी पंत जी के आत्मीय रहे हैं, साथ भी रहे हैं। वैसे कह नहीं सकते कि एडेल्फी के जमाने में जब बच्चन, गंगाप्रसाद पांडे वहाँ रहते थे तब पन्त जी भी वहाँ रहते थे कि नहींक्योंकि पन्त जी उदयशंकर से अलग होकर और नरेन्द्र शर्मा का विवाह करवाकर मुम्बई से वापस इलाहाबाद आ गए थे, तब वे कहाँ रहते थे, यह ज्ञात नहीं। अतः जो व्यक्ति पंत जी के इतने निकट रहा हो तब बाद में ऐसा क्या हुआ कि पंत जी से हुए पत्राचार को लेकर बच्चन ने जो सार्वजनिकता बरती जिसके कारण कोर्ट-कचहरी तक की नौबत आ गई थी, उसे क्या कहा जाए? इसी प्रकार बच्चन ने अपनी जीवनी में यशपाल जी की पत्नी श्रीमती प्रकाशवती पाल के आरम्भिक दिनों को लेकर जो लिखा-पढ़ा उससे पता नहीं जीवनी का महत्व बढ़ा या नहीं, फिर भी इतना तो कहा ही जाना चाहिए कि ऐसा न होता तो गज़ब नहीं हो जाता ‘यद्यपि शुद्धं, लोक विरुद्ध न करणीयं, न करणीय।' तात्पर्य यह कि सृजनात्मक लेखन के साथ-साथ व्यक्तिगत संस्मरण, एक सीमा तक ही सही, पर आने चाहिए।


    वैसे तो में सन् '४३ से ही इलाहाबाद आता-जाता रहापरन्तु रेडियो नौकरी के कारण सन् '४९ में तीन वर्षों के लिए आया। यह वर्ष इलाहाबाद के नए साहित्यिक लेखकों - निवेश के उत्कर्ष का युग कहा जा सकता है। वैसे तो सभी जगह कमोबेश रूप में प्रगतिशील लेखक संघ सक्रिय था तो उसके विरोध में भी प्रायः लोग रहे हैं परन्तु वामपंथियों का जिस प्रकार व्यवस्थित विरोध इलाहाबाद में रहा वैसा अन्यत्र नहीं था। और इलाहाबाद की केन्द्रीय स्थिति को देखते हुए ऐसा होना सहज था। इस व्यवस्थित विरोध का नाम थापरिमल। आज चाहे यह संस्था इतिहास हो गई हो। इसके बाकी के सदस्य भले ही आहें भरते हुए उसे अश्रुपूरित नेत्रों से याद कर लेते हों परन्तु सुननेवालों को यह सब मरसिया भर लगता होगा लेकिन ‘परिमल' सचमुच जीवन्त और प्राणवान संस्था थी। इसी कारण वह प्रगतिशील लेखक संघ को तुर्की बतुर्की अपने लेखन और आयोजनों के द्वारा जवाब दे सकी। फिर भी हमें दोनों की स्थितियों को समझना चाहिए।


   'परिमल' तत्कालीन नवोदित लेखकों की स्थानीय संस्था थी, जिसके सारे सदस्य मित्र-परिवार के जैसे ही थे। जबकि प्रगतिशील लेखक संघ स्थानीय नहीं था। अखिल भारतीय संस्था ही नहीं बल्कि वामपंथी राजनीति का साहित्यिक मंच और आन्दोलन दोनों था। चरित्र की यह भिन्नता ही थी जिसके कारण ‘परिमल' साहित्यिक संस्था थी और प्रगतिशील लेखक संघ साहित्य के नाम पर एक गिरोह। दोनों की गतिविधियाँ एक-दूसरे का जवाब होती थीं। चूंकि ‘परिमल' में साहित्य सम्बन्धी वैचारिक तथा सिद्धान्तगत खुलापन था और कहा जा सकता है कि तत्कालीन नवोदित अधिकांश महत्वपूर्ण लेखक 'परिमल' में ज्यादा थे, जबकि प्रगतिशील लेखक संघ में राजनीतिक बपतिस्मा लेने पर ही लेखक माना जाता था। दोनों ही खेमों में लेखकों की कोई कमी नहीं थी ऐसे में केवल रथियों-महारथियों की ही चर्चा सम्भव हो सकती है। प्रगतिशील खेमे में आलोचक प्रकाशचंद्र गुप्त, अमृत राय, उपेन्द्रनाथ अश्क', शमशेर, भैरव प्रसाद गुप्त, मार्कण्डेय, अमरकान्त, शेखर जोशी आदि थे तो 'परिमल' में धर्मवीर भारती, रघुवंश, केशवचंद्र शर्मा, मुंशी लक्ष्मीकान्त वर्मा, विजयदेव नारायण साही, रामस्वरूप चतुर्वेदी, जगदीश गुप्त आदि थे। इलाहाबाद के पहले के माहौल में लेखक गाहे बगाहे ही मिला करते थे और वह भी औपचारिक लेकिन अब स्थिति बदल चुकी थी। लेखक यारवाशी के लिए भी और साहित्य की राजनीति के लिए भी रोज काफी-हाउस में या मनाली-कैफे में मिला करते थे। ऐसा दोनों ही पक्ष किया करते थे परन्तु परिमल के लेखक इस मामले में ज्यादा सक्रिय थे। इस स्थिति में सजीवता तब आ जाया करती थी जब दोनों ही खेमों के लोग उसी काफी हाउस में, उसी टेबल पर बैठे होते और तब जो शोशेबाजी होती, नुक्ताचीं होती तब प्रायः प्रगतिशील भाई लोग खिसक जाने में ही भलाई समझते थे। इसमें दिलचस्प स्थिति यह थी कि अमृत राय और शमशेर कभी भूलकर भी इन साहित्यिक मराठा सरदारों की चौथ वसूली में हिस्सा लेने नहीं आते थे।


    मैं जब इलाहाबाद पहुँचा तब यह विसात बिछ चुकी थी और परिमल के लोगों तक मेरी प्रशस्ति भी पहुँच चुकी थी कि मैं प्रगतिशील खेमे का हूँ। इस समय तक वात्स्यायन अपना बोरिया-बस्ता समेट कर दिल्ली जा चुके थे‘प्रतीक बन्द हो ही चुका था तथा दूसरा सप्तक' भी आ जैसा ही रहा था इसी कारण मैं लखनऊ में 'भारती' का नाम सुन चका था और वह भी मेरा नाम सुन चुके थे, यद्यपि हम पहले नहीं मिले थे। मुझे एक दिन किसी ने रेडियो में बताया कि भारती मुझे खोज रहे थे। मैं शाम को रेडियो से निकल कर बी.एन. रामा के रेस्तराँ में बैठकर काफी पीने के बाद अमृत के घर जाया करता था क्योंकि अभी मकान की तलाश जारी थी। उन दिनों इलाहाबाद, यहाँ की सड़कें, खाली और लोग सब में भद्र बड़प्पन हुआ करता था, सबमें व्यक्तित्व लगता था इसलिए बी.एन. रामा के रेस्तराँ की खिड़की से छतनार पेड़ों को देखना या इक्के-दुक्के आतेजाते लोगों को देखना उपन्यास पढ़ने जैसा लगता था। खासकर तब तो और भी सब खुशनुमा लगता था जब कॉफी की गन्ध भी नशे की कमी को दूर कर रही हो।


    अभी मैं कॉफी के इस काम्य-सुख को भोग ही रहा था कि उस खाली जैसे रेस्तराँ में थोड़ी लम्बी कद-काठी के एक व्यक्ति ने प्रवेश किया। सामान्यतः तो फूलों में ही गन्ध होती है परन्तु हर व्यक्ति में भी गंध होती है लेकिन इसके लिए काफी खुलापन होना चाहिए। चूंकि आज के जमाने में गंध के साथ-साथ व्यक्ति का भी पता नहीं चलता कि इस हजरत को क्या कहा जाए? आगन्तुक एड़ियों पर जोर देते हुए जिस तरह मेरी ओर बढ़े तो मुझे लगा कि यह श्रीमान्, धर्मवीर भारती ही होंगे। क्योंकि मुझे एक गन्ध के निकट आते जाने की प्रतीति हुई। जिस अनायास ढंग से हमने एक-दूसरे को पहचाना, वह दोनों को चौंका गयाहम लोगों ने साथ-साथ कॉफी पी और धीरे-धीरे एक-दूसरे में गलियारे टटोलने की कोशिश की ताकि बात आगे बढ़े। मुश्किल से अभी दस मिनिट भी नहीं गुजरे होंगे कि भारती ‘तुम' पर उतर आए। जाहिर था यह बेतकल्लुफी मुझे, वह भी इतनी जल्दी, कुछ नागवार गुजरी परन्तु मैंने उनके और अपने बीच 'आप' को ही बनाए रखा, जो शायद उन्हें अच्छा नहीं लगा, खैर, फिर भी तनाव अब वैसा नहीं रह गया था। हम थोड़े तो खुल ही गए थे। हठात् भारती ने कहा, 'भाई, बुरा मत मानना, ‘दूसरा सप्तक' की तुम्हारी कविताएँ पढ़कर ही लगता था कि तुम साफे-तिलक में पंडित जैसे कोई आदमी होगे मगर तुम तो एकदम आधुनिक हो।' मैं सिर्फ हँस दिया। थोड़ी देर की औपचारिक बातों के बाद मैंने भी कहा कि- ‘आपकी कविताएँ पढ़कर मुझे भी ऐसा लगा था कि गले में रेशमी रूमाल बाँधे, आगे की ओर झुकी टोपी फटकारे र कोई हजरत होंगे मगर आप तो अच्छे खासे सम्भ्रान्त लग रहे हैं।' गरज कि इस पहली मुलाकात मेंएक-दूसरे को जितना जानना-बूझना एक-दूसरे को जितना जानना-बूझना था वह रस्म पूरी हुई।


   इलाहाबाद के इस काल में मैं प्रगतिशीलों के अधिक सम्पर्क में था, जबकि सन् '५९ में जब मैं दुबारा यहाँ बसने आया तब परिमलवालों के भले ही निकट न रहा होऊँ परन्तु कामरेड भाइयों ने अपने चरित्र के अनुरूप ही मेरे विरुद्ध फंट खोल लिया थाखैर जैसा कि मैंने बताया कि मैं मकान की तलाश में अमृत राय के घर में डेरा डाले हुए था। अमृत राय उस समय अपने उरूज़ पर थे। बनारस छोड़कर तथा श्रीपतराय और सरस्वती प्रकाशन आदि से अलग २/डी मिण्टो रोड पर रहने लगे थे। 'हंस' को नया स्वरूप दिया जा रहा था तो खास किस्म का नया फर्नीचर भी बनने लगा था। उनके बड़े नेता होने में थोड़ी कसर बाकी थी, जो कालान्तर में चीन-यात्रा और कार खरीद के बाद ही पूरी हुई। लेकिन यह पूरा होना ही अमृत राय को भारी पड़ गया। अमृत ने अपनी ओर से पूरी ईमानदारी के साथ 'हंस' को नया स्वरूप ही नहीं दिया बल्कि उसका ‘शांति संस्कृति अंक' निकाला, जो निश्चित ही महत्वपूर्ण था। लेकिन जब उन्होंने कार खरीदी तो कई कामरेड भाइयों को रास नहीं आया। तर्क था कि पार्टी को क्या यह पैसा नहीं दिया जा सकता था? तात्पर्य यह कि खटास की यह शुरुआत थी, जो तब और बढ़ गई जब उन्होंने अशोक नगर में बड़ा सा पुराना बँगला खरीदा और ‘धूप छाँह' के नाम से डाक बंगले जैसा नया आवास बनाया जहाँ बड़े लॉन और गमले भी थेजाहिर है कि अमृत का आचरण बुर्जुआ मानसिकता ही दरसाता था और कामरेड भाइयों के काले रजिस्टर में इस बड़े नेता का नाम भी दर्ज कर लिया गया। हजरत अमृत परिवार और पार्टी, इन दो पाटों के बीच भला साबुत कैसे बच सकते थे और फिर तो वह लगातार पिसते और ही चले गए। दोनों ही ओर से सिद्धान्त प्रतिपादित किए जाने लगे परन्तु म लगे परन्तु मजा तो यह था कि इस प्रकार के मानवीय आचरणों के लिए सिद्धान्तों की दुहाई भी हास्यास्पद हो जाया करती है। परन्तु यह सब तो बहुत बाद में तथा बाद तक चलता रहा।


    अमृत का घर उस समय अच्छा खासा तप्त भाइयों का अड़ा था। बाहर दालान में रखी मचिया और कुर्सियों पर बिना नहाए, बासी कुरता-पाजामा पहने क्रांतिकारी भाई लोग चाय और बीड़ी के सुट्टे मारते सर्वहारा क्रांति को गति देते-देते थक जाया करते थे परन्तु क्रांति ऐसी नाशुक्रा थी कि तेलंगाना के किसान-विद्रोह के बाद विन्ध्याचल ही नहीं लाँघ पा रही थी। वैसे तो अमृत सिगरेट नहीं पीते थे परन्तु क्रांति की सम्भावना को बलवती बनाने के लिए बीड़ी का शौक करने लगे, मगर खाँसते हुएउन दिनों एक बड़े दिलचस्प व्यक्ति कलकत्ते से आया करते थेमहादेव भाई साहा, जो थे तो भोजपुरी पर जीवन भर बंगाल में रहने के कारण केवल घुटनों से नीचे तक ही हिन्दी भाषी रह गए थे। वह बंगला दैनिक युगान्तर' के सम्पादकीय विभाग में थे। वैसे महादेव भाई अध्ययनशील थे। कामरेड जरूर थे परन्तु कामरेडीपन नहीं था। वह अमृत के काफी अंतरंग थे। मुश्किल यही थी, कई प्रगतिशील महानुभाव महादेव भाई के सन्तुलित वैचारिक स्वरूप से प्रसन्न नहीं थे, जबकि महादेव भाई ने पार्टी के लिए अपना घर नहीं बसाया। वह चाहते तो खासी बड़ी नौकरी में जा सकते थे परन्तु गेरू रंग के दो कुरतों और दो धोतियोंवाले ऐसे फकीर को भी यदि स्थानीय कामरेड बुर्जुआ समझते रहे हों तो आश्चर्य नहीं किया जा सकता था। कहते हैं न कि आदमी का शत्रु और नहीं बल्कि वह स्वयं होता है।


    समय के साथ अमृत को भी सर्जनात्मक लेखक बनने की सूझी। हालाँकि वह लिखते-पढ़ते तो हमेशा ही थे परन्तु लेखक बनने की गलतफहमी शायद शुरू में न रही हो, वरना अमृत राय में जो सहज अनुवाद था वह कालान्तर में उपेक्षित हो गया‘कलम का सिपाही' जैसी महत्त्वपूर्ण जीवनी के बाद अमृत ने इस बारे में भी कुछ और नहीं सोचा और धड़ल्ले से 'बीज' नामक उपन्यास लिख डाला। इस उपन्यास में भी जो जीवनीपरक जैसा है वह तो रोचक है लेकिन अधिकांश बहुत ही साधारण। अमृत को आस रही होगी कि बीज पड़ते ही पेड़, फल, फूल सब लहलहा उठेगा और वह उपन्यास में प्रेमचंद से ऊपर न भी सही तो प्रेमचंद के आस-पास तो पहुंच ही जाएंगे। इसी को तो कहते हैं कि गए थे मिलने और बैठाल दिया दलने। यार लोगों ने ऐसा मजमा जमाया और सम बाँधा कि अमृत का लेखक हमेशा के लिए भटक गया। अब अमृत ने जिद ठान ली कि वह लेखक बनकर ही दिखाएंगे और ‘धुआँ तथा दो-एक और उपन्यास लिख डाले। एक नाटक भी लिखा पर बात को नहीं बनना था सो नहीं बनी। अमृत की कहानियों का भी ऐसा ही हश्र हुआ। अमृत कुल मिलाकर सदाशयी थे और एक सदाशयी व्यक्ति का ऐसा बिखर जाना कई बार टीस देता है। वैसे प्रगतिशीलों से जो उन्होंने बाद में सैद्धान्तिक लड़ाई लड़ी वह निश्चित ही तर्कपूर्ण थी परन्तु उसकी कमजोरी यही थी कि वह हारे हुए एक लेखक की लड़ाई थी।


    जो हो, अमृत एक अच्छे खासे यारवाश और खुले दिल-दिमाग के थे। अच्छा होता यदि प्रेमचंद और प्रगतिशील लेखक संघ को वह मनोग्रंथि न बनने देते। नतीजा यह हुआ कि 'हंस' कालान्तर में बन्द कर दिया। अजीब विषमता थी कि उनके अपने प्रकाशन से वह अमृत को जितना आगे करते प्रेमचंद उतने ही अनायास ढंग से और आगे बढ़ जाते। आश्चर्य तो यह कि कल तक के व्यक्तिगत मित्र अपने कामरेडी चरित्र से बाहर निकलकर सहानुभूति के लिए भी अमृत के पास भूले से भी नहीं फटके।


    आखिरकार मुझे आवास मिल ही गया १४ स्टेनली रोड। तीन-चार कमरों का दुतल्ले पर खुला, हवादार आवास। वैसे तो यह काफी बड़ा बँगला था, कुछ और भी किराएदार थे, मकान मालिक भी रहता था। इलाहाबाद के बँगलों की तरह ही यहाँ भी खूब हरियाली और छतनार पेड़ थे। तब यह जगह शहर से काफी दूर होती थी इसलिए भीड़भाड़ भी नहीं थी। अच्छी बात तो यह थी कि यह घर अमृत के घर के पास था। पंडित इलाचंद्र जोशी, कृष्णदास, मार्कण्डेय, ओंकार शरद सब-के-सब अमृत के घर के पास ही रहते थे। संयोग से भगवती नाम का जो नौकर मुझे मिला था वह भी खासा दिलचस्प आदमी था। यह हजरत वर्षों तक किसी कर्नल के यहाँ काम कर चुके थे। कर्नल के निधन के बाद वह खाली था। रेडियो में उसका एक चचेरा भाई चपरासी था उसी ने इसे मेरे यहाँ काम दिलवा दिया। वह बड़े काम का निकला।


      उन दिनों शमशेर चौक के एक होटल अन्नकूट में तीसरी मंजिल पर रह रहे थे। असुविधाओं में सुविधा के साथ रहने में शमशेर को सिद्धि प्राप्त थी। चूंकि मेरे पास जगह थी इसलिए उन्हें किसी तरह मना लिया कि वह मेरे साथ चलकर रहें। शमशेर जी ने बड़े ही काँखते-कूखते अपनी तीन शर्ते रखीं। जैसे कि बिना उनकी आज्ञा के उनके कमरे में कोई नहीं आएगा और न नौकर बिना पूछे सफाई करेगा, भले ही वह सफाई कई दिनों के बाद ही हो। दूसरे, यह कि हम क्या लिखते-पढ़ते हैं इसकी कभी चर्चा नहीं करेंगे, न रोकने की कोशिश करेंगे और तीसरे यह कि हिसाब, चाहे वह किराया हो या कुछ, हिसाब के ढंग का ही होगा और इस प्रकार शमशेर एक दिन अपनी गृहस्थी के साथ रहने आ गएयहाँ आने पर उन्हें थोड़ी असुविधा जरूर हुई होगी क्योंकि यहाँ से माया-प्रेस, जहाँ शमशेर काम करते थे, काफी दूर पड़ता था। कहने को वैसे तो उनके पास एक साइकिल जैसी चीज भी थी पर वह शायद इलाहाबाद आनेवाली सब से पहली साइकिल रही होगी। पुरखों से वसीयत में मिली जैसी नायाब साइकिल पर अच्छे खासे माइनस नम्बर के मोटे चश्मे के शमशेर व्यक्ति से ज्यादा चरित्र लगते थे जो साइकिल पर बैठकर अपने लेखक को ढूंढने निकला हो–कि बताओ अब आगे मुझे क्या करना है-और हमने चूंकि गीता पर हाथ रखकर शर्ते पालन करने की कसम नहीं खाई थी इसीलिए शर्तों का पालन कर सके। वैसे मैंने भगवती को आदेश दे दिया था कि वह शमशेर जी के आदेश का पालन करेगा। चूंकि हममें से किसी के पास कुछ खास सामान नहीं था इसलिए सफाई आदि की कोई झंझट भी नहीं थी।


    शमशेर को खाना खिलाकर भगवती मेरे लिए खाना रेडियो लाया करता। अभी चार-आठ दिन ही हुए होंगे कि शाम को जब मैं रेडियो से लौटा तो देखा कि घर में खासा फर्नीचर मौजूद है। हैरान तो होना ही था कि यह सब कहाँ से आया? पर जब दो दिन बीत जाने पर भी मैंने भगवती से कुछ नहीं पूछा तो उसने खिसियाए ढंग से बतलाया कि वह सारा फर्नीचर किराए पर लाया है। उसने माना कि उसने ऐसा करने के पहले पूछा नहीं परन्तु उसे लगा कि साहब के पास अक्सर लोग आते हैं, मिलने भी और खाने पर भी तब उसे लगा घर को साहब के अनुरूप सजा हुआ होना चाहिए- मतलब यह कि सोफा सेट, डाइनिंग टेबल, वार्डरोब, परदे सभी तो आ गए। आपको आपका नौकर जब इतनी इज्जत दे रहा हो तो आपका सीना गर्व से नहीं फूल उठेगा? मला उस गर्व-स्फीत मानसिकता में यह पूछना निहायत ही मध्यमवर्गी अपने को साबित करना होगा कि हे भगवती महाशय, हर माह इस फर्नीचर का आखिर किराया क्या होगा? अभी मैं इस ऊँचाई से ठीक तरह से नीचे आ भी नहीं पाया था कि मैंने शमशेर को एकदम लकदक करती साइकिल पर सवार माया प्रेस जाते देखा- या इलाही ये माजरा क्या है? मैं डरा कि भगवती ने कहीं मेरी ही तरह शमशेर को भी तो 'साहब' नहीं बना दिया? जब भगवती से पूछा गया कि यह सब क्या है तो उसने जिस मासूमियत से कैफियत दी वह और भी दिलचस्प थी। भगवती ने मालूम कर लिया था कि शमशेर जी किराए पर साइकिल लिए हुए हैं। सो भगवती ने सारा हिसाब- किताब जोड़कर शमशेर से कहा कि अगर वह आपको इसी किराए में नई साइकिल उपलब्ध करवा दे तो कोई आपत्ति तो नहीं होगी? भला भोले भंडारी शमशेर को आपत्ति क्यों होती। और एक दिन भगवती ने उन्हें किराए पर यह साइकिल ला दी जिसे उसने मेरे हिसाब में से खरीदा था। जब कुछ दिनों के बाद इस घटना को किस्से के रूप में हम लोगों ने याद किया तो लगा कि नहीं, भगवती अच्छा कुक ही नहीं या अच्छा नौकर ही नहीं बल्कि अच्छा मनुष्य भी है। अभी इस ‘थ्योरम' के क्यू.ई.डी. तक पहुँचे ही होंगे कि देखा कि शमशेर साइकिल दिलवाने के लिए आभार प्रकट करने के लिए भगवती के लिए दोनों में लोकनाथ से रबड़ी लिए चले आ रहे हैं।


    भगवती को मेरे साहब होने की खासी चिन्ता रहती थी। वह मेरे कपड़ों, जूतों को ही चुस्त-दुरुस्त नहीं रखता था बल्कि वह मेरे यहाँ आनेवाले पर भी नजर रखता थाउसकी नजर रखने की आदत से जब पहली बार मेरा सामना हुआ तो मैं हैरत में आ गया। होता यह था कि श्रीमती ओ.पी. सिंघल आए दिन कोई-न-कोई अचार या कोई गुजराती ‘डिश' पका कर भिजवा देती थींइसी प्रकार प्रकाशचंद्र जी गुप्त और पी.सी. जोशी के यहाँ से कभी आगरे का पेठा, खुरजे की खुरचन आदि आ जाया करती थी। साहब से ज्यादा साहब के नौकर को लगता रहा कि दुनियावी सम्बन्ध एकतरफा नहीं होते हैं और जाने क्या सोचकर हजरत आठ-दस हमारे मित्रों को एक शनिवार के लिए न्यौत आए। सुबह रेडियो जाते वक्त बड़े ही संकोच से उसने बताया कि शाम को कुछ लोग खाने पर आनेवाले हैं। न वह मेरा जन्मदिन था और न किसी पुरखे का स्मृति-दिवस, तब किस तुफैल में, वह भी मुझसे बिना पूछे ‘कुछ लोग' बुलाए गए हैं? लेकिन उसकी बातों में ध्वनि यही थी कि लोगबाग जब हमें चीजें भेजते हैं तो क्या हमें उन्हें निमंत्रित नहीं करना चाहिए? तात्पर्य यह कि भगवती, भले ही वह नौकर रहा हो, उसके इस लौकिक शिष्टाचारवाले ज्ञान के सामने साहब को, भले ही वह साहित्य में अपने को तीसमारखाँ समझते रहे हों, पराजित होना ही था। यह अलग बात है कि भाषा से भले ही यह पराजय स्वीकार न की हो, परन्तु मौन भी एक प्रकार है- ‘मौन सम्मति लक्षणम्!'


    गरज कि साहब की गृहस्थी बिना घरनी के भी मजे से भगवती चला रहा था। कुछ-कुछ समझ तो मैं भी रहा था कि भगवती नार्मल नहीं था। अजीब थका-थका सा, हवन्नक जैसी शकल में वह रहता था पर मुस्तैद बहुत था। असल में वह अफीम का सेवन करता था इसलिए पिनक में रहता थालेकिन उसके काम में कोई त्रुटि नहीं थी, तब भला मुझे क्या और क्यों शिकायत होनी चाहिए थी? बल्कि उसे मुझसे शिकायत हो सकती थी कि रोज वह मेरे लिए टिफिन लेकर रेडियो आता और मैं एक-न-एक कारणवश उसका लाया लंच प्रायः लौटा देता था। उसने मुझे ‘साहब' बनाकर आकाश में सबसे ऊंची उड़ानवाली पतंग बना रखा था उससे मेरे दूसरे मित्रों को जरूर आपत्ति थी, जैसे भैरवप्रसाद गुप्त, जिनकी बैखरी भाषा में वह मुझे उल्लू बना रहा है, ठग रहा है। शायद ऐसा ही होगा परन्तु भाई भैरव, आकाश में पतंग बनकर उड़ने का मजा ही कुछ और। सच तो यह है कि १४ स्टेनली रोड के वे दिन आज भी पुकारते से लगते हैंहाँ, जब कभी भूले भटके नागार्जुन या त्रिलोचन मुझसे अधिक शमशेर के मेहमान बनकर आते तब भगवती को जरूर असुविधा होती। उसकी सारी व्यवस्था ही गड़बड़ा जाती। न खाना, न नाश्ता, किसी का भी कोई समय नहीं होता। देर रात तक ये तीनों महानुभाव बहसें जरूर करते परन्तु शायद ये तीनों नहीं जानते थे कि बहस का मुद्दा क्या है? आधिकारिक श्रोता तो अकेला मैं ही होता परन्तु भागीदार बन शमशेर भी वस्तुतः श्रोता ही होते थे। नागार्जुन दमे के मरीज थे इसलिए सबेरे, कनटोपे से लैस वह हाँफते हुए कुछ कहते, तो हर प्रकार से पहलवान, बलिष्ठ त्रिलोचन जाड़ों में भी नंगे बदन खास लहजे में अपनी बात कहते। नागार्जुन के लिए अरबी फारसी वाली उर्दू का कोई मतलब नहीं था तो त्रिलोचन के लिए पाली-संस्कृतवाली हिन्दी का कोई मतलब नहीं था। अब इस दंगल में क्रांति, वर्ग संघर्ष की क्या गत-दुर्गति बनती यह तो हम चारों में से कोई कभी नहीं समझ पाया होगा परन्तु रात के दो-तीन तो बज ही जाते। शारदीया चाँदनी बाहर छिटकी होती, छतनार वृक्ष और हवा इसका आनन्द ले रहे होते परन्तु दिग्गज कवियों को वर्ग संघर्ष के अहम मसले के सामने चाँदनी को देखना या उसकी चर्चा करना पार्टी-लाइन से भटकना ही होता। और तब तक वर्ग-संघर्ष भी थक थकाकर सो गया होता, तो चाँदनी भी अपने पंख समेट चली गई होती।


    मुझे व्यक्तिगत कारणों से तीन-चार महीनों के लिए मालवा जाना पड़ा। यही तय हुआ कि यह मकान छोड़ दिया जाए, सामान भैरव मकान छोड़ दिया जाए, सामान भैरव के ९ स्टेनली रोड पर रख दिया जाए, लौट कर कोई दूसरा मकान देख लिया जाएगा, और हुआ भी यही। इस व्यवस्था में भैरव यह भी चाहते थे कि मैं भगवती को छुट्टी दे दें, जबकि मैं नहीं चाहता था इसलिए 'नरो वा कुंजरो वा' शैली में भगवती को संशय में ही रहने दिया।


   जब मैं लौट कर आया तो भैरव स्वयं आवास को लेकर परेशान थे। वह बँगला गिरा-पड़ा तो पहले ही था परन्तु अब कुछ ज्यादा ही बुढ़ा गया था। इस बार पहले से भी ज्यादा बड़ा आवास टैगोर टाउन में मिल गया। इंडियन प्रेस ने जवाहरलाल नेहरू रोड पर पन्द्रह-बीस बँगलों की एक कालोनी बना रखी थी, जिसमें पंत जी भी रहने लगे थे। पंत जी के कहने पर इंडियन प्रेस के मालिक पटल बाबू ने मुझे भी एक बँगला दे दियाभैरव तो साथ रहने के लिए आते ही लेकिन मैं चाहता था कि शमशेर जी भी आ जाएं, जगह काफी थीलेकिन शमशेर बहादुरगंज के एक मकान ‘जस्टफिट' में फिट हो गए थे इसलिए राजी नहीं हुए। इस बार लौटने पर भैरव पहले दिन से भगवती को लेकर नाराज थे। मेरी अनुपस्थिति में भैरव के मना करने पर भी वह मेरा सामान झाड़-पोंछ कर रखता था। यह सुनकर मुझे अच्छा ही लगा और वह फिर टैगोर टाउन में हमारी गृहस्थी चलाने लगा। पर मैं यह भूल रहा था कि साथ में इस बार शमशेर नहीं बल्कि भैरव हैं। शमशेर ने किसी भी दिन, किसी भी बात पर न मुझसे, न भगवती से कुछ पूछा होगा कि फलाँ चीज क्या, क्यों और कितनी, किन दामों में आई है।


    लेकिन धीरे-धीरे भैरव से भगवती की किचाँयच होने लगी कि नींबू चौक में इकन्नी में मिलता है तो तुम कर्नलगंज से दो आने के क्यों लाए? गरज कि आटा-दाल या कहिए किस बात पर इन दोनों में कहा-सुनी नहीं होती परन्तु मैंने अपने को इससे अलग रखने में ही खेर समझी। लेकिन आँख मूंद लेने ये फन लोटे दी जाती है और भैरव ने मुझे अल्टीमेटम दे दिया कि तुम्हारा भगवती चोर हैऔर बदतमीज भी, जवाब देता है। या तो यह रहेगा या वह रहेंगे। भगवती के साथ अपने को रखने पर भैरव से मुझे सहानुभूति ही हुई। मैं पहले भी कह चुका था कि भाई, अगर तुम सारी गृहस्थी चला सको तो चलाओ वरना भगवती जिस तरह चला सकता है उसे स्वीकार कर लो, फिर चाहे वह चोरी हो या डाकाजनी। मेरा काम बिना नौकर के चल नहीं सकता तब भला भगवती ही क्या हुआ है? मुझे बहुत बाद में पता चला कि भगवती ने भैरव जी को कह दिया था कि जब साहब कुछ नहीं कहते तब आप कहनेवाले कौन होते हैं? बात शायद काफी बिगड़ चुकी थी। कोई निर्णय करना मेरे लिए दुष्कर ही होता परन्तु संयोग से भैरव को अपने घर लम्बे समय के लिए चला जाना पड़ा और में साँसत से बच गया। जब वह लौटकर आए तब उन्होंने लूकरगंज में अपना ठीया खोज लिया। भला मैं क्या और कैसे साथ रहने के लिए आग्रह करता। फिर रेडियो में घटनाएँ जितनी तेजी से घट रही थीं उसमें बहुत-कुछ अनिश्चित सा लग रहा था कि मैं अब रेडियो में रह पाऊँगा या नहीं और यदि रहा भी तो इलाहाबाद तो नहीं ही।


    यह तो स्पष्ट ही था कि इलाहाबाद में दोनों साहित्यिक खेमे आए दिन हर मौके पर अपने-अपने नेजे तेज कर लेते थे। रेडियो प्रायः इसका शिकार होता था। खासकर तब और भी जबकि साहित्यिक कार्यक्रम किसी कम्यूनिस्ट के हाथ में हो। मैं इस बीच केवल ‘फेलो ट्रेवलर' ही नहीं रह गया था बल्कि पार्टी कार्ड-होल्डर हो गया था। वैसे चेष्टा भर मैंने अपने 'कामरेड' को रेडियो की नौकरी पर शायद ही कभी हावी होने दिया होगा। वैसे आज हम एक बूढ़े ज्वालामुखी हो गए हैं। न वैसी आग हमारे बीच रह गई है न ही वैसी तपिश जैसी उन दिनों हुआ करती थी। बूढ़े ज्वालामुखी पर चढ़ा भी जा सकता है तथा उसमें झाँका भी जा सकता है। भले ही थोड़ा सा लावा, वह भी पेंदी में रह गया हो साथ ही थोड़ा सा गरम-गरम धुआँ। इसे चाहे तो खिलौना-ज्वालामुखी कह सकते हैं। यही तो आज हम हो गए हैं परन्तु उन दिनों, आपके मुँह से अगर निकला कि भाई, आप इस स्क्रिप्ट मेंसे ये पंक्तियाँ काट दीजिए- तो समझ लीजिए कि आपने विस्यूवियस को छेड़ दिया।


    हम सब ने उन दिनों में जो भी लिखा, अमर साहित्य ही लिखा, ऐसा हम मानते थे और अमर साहित्य की पंक्तियाँ काटने की बात कोई करे तो हम-आप जिहाद पर ही उतारू हो सकते हैं। बस ऐसा ही माहौल उन दिनों हो गया था। परिमल के लेखकों की आपत्ति का आधार था कि कहनेवाला कम्युनिस्ट है लेकिन कामरेड भाइयों की आपत्ति यह नहीं थी बल्कि वे तो गैर-कम्यूनिस्टों से हिसाब चुकता करने में विश्वास करते थे। बिना यह सोचे कि ऐसा करने के लिएसरकारी रेडियो उपयुक्त मंच नहीं है। आज हँसी आती है कि ऐसी अड़ियल मनोवृत्ति किसी दूसरे में भले ही मिले परन्तु अत्यन्त शिष्ट मितभाषी तथा प्रशान्तस्वभाव के प्रकाशचंद्र गुप्त तक अपने अमर साहित्य में से कुछ भी काटने पर फन फैलाकर फनफना उठते थे, भले ही काटा जानेवाला अंश आपत्तिजनक हो। इस क्रम में अमृतराय रहे हों या नेमिचंद्र जैन। कौन-कौन याद नहीं आता। परिमल के लेखकों में भारती, जगदीश गुप्त या और कोई हो उनके लिए हर पंक्ति ‘प्रेस्टीज प्वाइंट' बन जाया करती थी।


    जहाँ तक मुझे याद है, शमशेर के कहानी संग्रह ‘प्लाट का मोर्चा' पर आलोचना थी, आलोचक थे- भारती। ठीक है शमशेर पर आप जो कहना चाहें कहें, मगर इसके माध्यम से पूरे माक्र्सवाद पर ही आप आलोचना करने लग जाएं, तो बात समझ में नहीं आती। इसी प्रकार इलाचंद्र जोशी के एक उपन्यास पर शायद जगदीश गुप्त को आलोचना लिखनी थी। ठीक है, जोशी जी को आप विश्व का सर्वश्रेष्ठ उपन्यासकार सिद्ध करें इसमें किसी को क्या आपत्ति हो सकती है पर यह न करके प्रेमचंद पर आप तलवार भाँजने लगे तो इसे प्रसारित कैसे किया जा सकता है? ऐसे दिलचस्प लेकिन उलझन में डालनेवाले प्रसंग आए दिन घटित होतेबात पंत जी, जो कि उन दिनों चीफ प्रोड्यूसर तथा एडवाइजर थे तक पहुँचती, लेकिन पंत जी अपने स्वभाव के अनुरूप कोई रिस्क लेने को तैयार नहीं होते और आई गई मुझ पर पड़ती, यहाँ तक कि स्टेशन डाइरेक्टर को भी कहा जाता कि यह सब इसलिए हो रहा है क्योंकि इंचार्ज कम्यूनिस्ट है। हालाँकि कई बार अपने इन मित्रों को बैरंग लौटाना पड़ता और मजा यह कि हम लोग इस घटना या दुर्घटना के बाद साथ ही अपनी-अपनी साइकिलों पर कॉफी हाउस पहुँचते और वापस जाकर लेखक हो जाते। ज्यादा विस्तार में जाने की आवश्यकता नहीं। परन्तु मैं समझ चुका था कि अब इलाहाबाद से तबादला निश्चित है।


   वस्तुतः इलाहाबाद के इस थोड़े से प्रवास के प्रति आज भी आभारी हूँ कि इन दो-तीन वर्षों में यहाँ रहकर मैंने मन-ही-मन स्वतंत्र-लेखक बनना तय कर लिया था और वह भी इसी शहर में और अपने इन्हीं मित्रों के बीच। मैं तब आश्वस्त हो चला था कि मैं अब और अधिक इस नौकरी में नहीं ठहर सकेंगा। जब एक रेडियो-कवि-सम्मेलन में मना कर दिए जाने के बावजूद नागार्जुन ने ‘यह है राज तिरंगा, जिसमें गधे नहाएं गंगा' पढ़ दिया था- मुझ पर जो भी गुजरी हो लेकिन सर्वहारा क्रांति नहीं ही आई। पता नहीं सर्वहारा क्रांति गोरखपुर या पटना के किस अस्पताल में तब से आज तक कोमा में पड़ी है ।


    जो हो, ये सारे तेवर बतलाते हैं कि इलाहाबाद कई बार मूर्खता की सीमा तक जीवन्त था। और ठीक भी है बिना तेवर और बिना भूल किए यौवन का अर्थ ही क्या है? अगर ऐसा तब नहीं हुआ होता तो आज क्या याद किया जाता!!


                                                                        इलाहाबाद संग्रहालय में दिए गए श्री नरेश मेहता जी के अंतिम व्याख्यान का एक अंश