'पुनर्पाठ - सजा सहज सितार : तोड़ती पत्थर - डॉ. विन्ध्याचल यादव

 


प्रारंभिक व इण्टरमीडिएट शिक्षा आजमगढ़ से स्नातक : इलाहाबाद विश्वविद्यालय परास्नातक : हिंदी विभाग,इलाहाबाद विश्वविद्यालय पीएचडी : ‘हिंदी साहित्येतिहास लेखन में इतिहास दृष्टियों की भूमिका' हिंदी विभाग, काशी हिंदू विश्व विद्यालय, वाराणसी संप्रतिः असि. प्रोफेसर, राजकीय कालेज लालगंज मिर्जापुर में कार्यरत


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प्रो. राजेन्द्र कुमार ने निराला को छायावाद के रुपायन का ही नहीं रुपान्तरण का भी कवि कहा है। जिस तरह शमशेर ने ‘जब कभी मैं राह भूला/हे महाकवि!' कहकर निराला के कवि व्यक्तित्व को परवर्ती हिंदी काव्यान्दोलनों के सम्मुख ‘केवल जलती मशाल की तरह प्रस्तुत किया - उससे स्पष्ट है कि निराला की काव्य रश्मियाँ छायावादी क्षितिज के पार प्रगति-प्रयोग तथा नई कविता तक को आलोकित करती हैं। द्वितीय अनामिका में संग्रहीत ‘तोड़ती पत्थर (सुधा, मई १९३७ में प्रकाशित) कविता निराला की एक ऐसी कविता है जो छायावादी भाववोध के भीतर जनपक्षधरता व प्रगतिशीलता के उन्मेष का अंकुरण रचने वाली कविता है। ‘तोड़ती पत्थर कविता में पहली तीन पंक्तियों में निराला ने मानो कविता का है।


     ‘तोड़ती पत्थर कविता में पहली तीन पंक्तियों में निराला ने मानो कविता का तोरण द्वार रचा हो, जिसमें निराला ने तीन साभिप्राय शब्द प्रयोगों- मैंने' (उत्तम पुरुष), ‘उसे (अन्य पुरुष) तथा ‘इलाहाबाद (संज्ञा) - द्वारा कविता के भूगोलसंस्कृति और उसके राजनीतिक परिसर की भूमि तैयार कर दी है, तिस पर ‘तोड़ना क्रिया का प्रयोग संघर्ष का ऐसा नगाड़ा ठोंक देता है जिसकी धमकती अनुगूंज कविता में आद्यन्त भास्वर है


    वह तौड़ती पत्थर


    देखा उसे मैंने इलाहाबाद के पथ पर


    वह तोड़ती पत्थर!'


    यहाँ तोड़ना क्रिया के साथ निराला ने जिस ‘आब्जेक्ट का प्रयोग किया हैवह है - पत्थर; कोई जबदी-जकड़ी हुई, कठोर-निर्मम-रुढिगतवस्तु। यह पत्थर सम्भवतः वही पत्थर है जिस पर 'प्रेमचन्द के फटे जूते' ठोकर मार-मारकर फट जाते हैं और उनके पाँव का अँगूठा एक आक्रोशित घृणा से जिसकी ओर इशारा करता रहता हैअसल में एक तरफ यह पत्थर स्त्री के संदर्भ में सामाजिक संरचना के भीतर पुरुष प्रधान सामंती मानसिकता का पत्थर भी है जिसके तले सदियों से स्त्री के सपने, आकांक्षाएं व सामाजिक हित दले जाते रहे हैं। वहीं दूसरी ओर ये पत्थर सामन्ती-पूँजीवादी संरचना और निर्मम राजनीति की उपेक्षा का भी पत्थर है - जिसका गढ़-मठ- ‘सामने तरुमालिका अट्टालिका प्राकार के रूप में कविता में आया है।


   तीन पंक्तियों के इस बेहद अभिधापरक प्रतीत होते शुरुआती बन्ध में तोड़ना' क्रिया के साथ एक और बड़ी महत्वपूर्ण क्रिया प्रयुक्त हुई है - वह है : ‘देखना - ‘देखा उसे मैंने इलाहाबाद के पथ पर।' ‘देखना यहाँ सीधा सरल देखना नहीं है बल्कि सर्वथा उपेक्षित हाशिए की ओर संवेदनशील पक्षधरता है।' अर्थात् ‘देखना यहाँ निराला का उस हाशिए के पक्ष में खड़ा होना है, अपनी संवेदना का उसके पक्ष में रचाव है। पत्रकार-राजनेता-वकील-न्यायाधीश-धर्माधिकारी नहीं देखता या नहीं देख पाता। देखता है कवि अपनी संवेदना की आँख से। इसी पंक्ति में निराला की काव्यभाषा विषयक सजगता देखने लायक है : ‘देखा उसे मैंने इलाहाबाद के पथ पर' में उसे' और 'मैंने' के प्रयोग की क्रमागतता को देखना चाहिए। अन्य पुरुष ज्यादा मुख्य है अतः वह कविता में भी पहले स्थान पाता है, कवि खुद को बाद में रखता है। इलाहाबाद के पथ को नन्द दुलारे वाजपेयी ने ‘स्वराज भवन' या आनन्द भवन के सामने की सड़क के रूप में लक्षित किया है जिसपर नन्द किशोर नवल ने टिप्पणी की है कि - - ‘अब यह कविता एक साधारण प्रगतिशील कविता न रहकर भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के नेतृत्व में चलने वाले भारतीय स्वाधीनता आंदोलन की आलोचना बन जाती है।


    इन तीन शुरुआती पंक्तियों की छोटी सी बंदिश के बाद पूरी कविता अपेक्षाकृत तीन बड़े बन्धों में रची गई है। तोड़ती पत्थर कविता करुणा और प्रतिरोध के अन्तसँघर्ष पर लिखी गई कविता है। इसका पहला बन्ध ‘कोई न छायादार पेड़ ....' प्रतिरोध की दुर्धर्ष सर्जना है तो अन्तिम बंध - ‘देखते देखा-मुझे तो एक बार ....... करुणा का अन्तस्तली विप्लव। बीच में है ‘दिवा का तमतमाता रूप' - यह आक्रोश है - श्रमिक-मजदूर वर्ग के सीने का जो व्यवस्था के खिलाफ उसकी देह के बीचो-बीच सीने में (कविता में भी बीचो बीच) धधक रहा है - ‘रुई ज्यों जलती हुई भू। कविता में एक ओर करुणा आक्रोश को संयमित करती है इसे अराजकता में तब्दील होने से रोकती है, वहीं दूसरी ओर प्रतिरोध को और भावात्मक, धारदार और मानवीय बनाती है।


    ‘कोई न छायादार पेड़' हाशिए के समाज के राजनीतिक-सामाजिक अधिकारों के हनन के साथ उनके प्राकृतिक और मानवीय अधिकारों तक के अपहरण की ओर इशारा करता है। आज जब सत्ता और पूँजी का कुटिल गठजोड़ आदिवासियों को उनके जल-जंगल-जमीन से काट रहा है, उनकी प्रकृति-संस्कृति प्रभुवर्ग द्वारा अपहृत की जा रही है तब ‘कोई न छायादार पेड़ वह जिसके तले बैठी हुई स्वीकार के अर्थ में सामाजिक न्याय और मानवअधिकारों का स्वर कितना भास्वर है। कोई न छायादार पेड़' को 'सामने तरुमालिका अट्टालिका प्रकार से जोड़कर पहें तो सामाजिक विषमता, श्रम-विभाजन और उत्पाद के वर्गीय बँटवारे का कुत्सित गणित साफ हो जाता है। 'तरुमालिका अट्टालिका - प्राकार सत्ताधारी वर्ग की वर्चस्व मानसिकता का पूँजीवदी गढ़ है जिस पर वह लड़की भारी हथौड़े से तगड़ा प्रहार करती है - ‘करती बार-बार प्रहार' प्रहार की बारंबारता संघर्ष की अनवरतता तथा व्यवस्था की दीर्घकालिक कठोरता दोनों का एहसास कराती है।


   एक करने योग्य है वह है, निराला का यहाँ एक चीज लक्षित सौन्दर्यबोध। जो रीति युगीन जड व मांसल सौंदर्यबोध के साथसाथ सूक्ष्मकल्पनाप्रवण सौन्दर्यबोधदोनों के सम्मुख चुनौती पेश करता है। रीतिकालीन ‘कुन्दन को रंग फीको लगै दमकै अति अंगन रंग फीको लगै दमकै अति अंगन चारु गुराई के बरक्श ‘श्याम-तन' का सौन्दर्य निराला ने रचा है - श्याम तन अर्थात् श्रम की श्यामलता और कसाव का सौंदर्य :


   *श्याम तन, भर बँधा यौवन


    नत नयन, प्रिय कर्म-रत-मन


    गुरु हथौड़ा हाथ


    करती बार-बार प्रहार ---


  यह सौंदर्यबोध का विरस्थापन हिंदी कविता में स्त्री की अबला छवि को तोड़कर उसकी सबला व सशक्त छवि को साकार करता है। ये स्त्री की वह नरम-नाजुक कलाइयाँ नहीं जिसे कोई मरोड़ दे, यहाँ हथौड़ा चलाने वाली कलाइयाँ हैं - वह भी ‘गुरु हथौड़ा। एक प्रहार में थकती नहीं - करती बार-बार प्रहार।' जब तक सामन्तवादी-पूँजीवादी गढ़-मठ को चकनाचूर न कर दें।


   चढ़ रही थी धूप


    गर्मियों के दिन


    दिवा का तमतमाता रूप ........


    कविता के बिल्कुल मध्य में गर्मी की भीषणता का ऐसा जीवन्त बिंब-विधान-‘रुई ज्यों जलती हुई भू/गर्द चिनगी छा गई' - हिंदी कविता में दुर्लभ है। यह बन्ध प्रकृति चित्रण की कलात्मकता की दृष्टि से जितना पठनीय है, उतना ही नाटकीय है कविता में वातावरण की सृष्टि के नजरिए से। ‘कोई न छायादार पेड़’ को ‘रुई ज्यों जलती हुई भू से जोड़कर पढ़े, तब पत्थर तोड़ती लड़की के संघर्ष की भीषणता का बोध और गहनतर हो जाता है। असल में बाहर का ये 'दिवा का तमतमाता रूप' लड़की और उसके समूचे वर्ग के भीतर ‘तरुमालिका अट्टालिका वाले वर्ग के विरुद्ध प्रतिरोधात्मक तमतमाहट की आँच है। यह उसी आक्रोश का बिंबधर्मी रचाव है।'


   देखते देखा मुझे तो एक बार


   उस भवन की और देखा, छिन्नतार,'


   कविता का यह बन्ध अपार करुणा की सृष्टि करता है। प्रतिरोध जब करुणा से घुल-मिल जाता है तो वह बहत दीर्घजीवी ताकतवर व मानवीय हो जाता है। यह प्रश्न प्रायः किया जाता हैकि देखते देखकर उस भवन की इसका ओर क्यों देखा लड़की ने और देखकर कोई नहीं देखा मझे उस दष्टि से/जो मार खा रोई नहीं, का क्या निहितार्थ है? इसका सर्वोत्तम जवाब इन पंक्तियों के बीच आए एक शब्द - छिन्नतार' में छिपा हुआ है। प्रिय-कर्म-रत मन छिन्नातार हुआ क्योंकि वह भवन उसके वर्ग के शोषण व वेदना की वजह था। 'बादल-राग' की पंक्तियाँ-अट्टालिका नहीं है रे/आतंक-भवन' को तोड़ती पत्थर' के तरुमालिका अट्टालिका प्राकार वाले भवन से जोड़कर पढ़े तो देखकर कोई नहीं' में निहित 'आतंक' को समझा जा सकता है, और फिर अपने प्रति संवेदनपूर्ण कवि की दृष्टि की सच्चाई का आभास श्रमिक युवती को भावुक कर देता है। एक तरफ ‘आतंक भवन' है दूसरी तरफ संवेदना का ढाँढुस। फिर दृष्टि की वह करुणा और सहनशीलता साथ साथ फूट पड़ती है - देखा मुझे उस दृष्टि से/जो मार खा रोई नहीं।


   सजा सहज सितार


   सुनी मैंने वह नहीं जो थी सुनी झंकार।


   ये दो पंक्तियाँ आत्मा की मुक्तावस्था या ज्ञानदशा की अद्भुद प्रक्रिया की कविता रचती हैं। कवि का मन संतों की ‘सहज' साधना की मनसे ऊँचाइयों की दशा में पहुँचता है। यहाँ आश्रय के साथ गहरा तादात्म्य होता है, वर्णनीयेतन्मयी भावेन योग्यता के उदय के साथ कवि का मन एकलयएकतान हो जाता है। फिर वह ‘सद्य : परिनिवृत्तये' का भावयोग और झंकार सुनता है - ‘सुना मैंने वह नहीं जो थी सुनी झंकार। यह झंकार असल में करुणा की डोर से श्रमिक युवती की वेदना के गुंथ जाने की प्रक्रिया से उत्पन्न झंकार है। हृदय की उच्च भावभूमि पर पहुँचना है, जहाँ पहुँच निराला लिखते हैं -


   देखा दुखी एक निज भाई।


    दुख की छाया पड़ी हृदय में


    कर उमड़ वेदना आईं।' (अधिवास, रागविराग)


कविता के आखिर में श्रमिक युवती की एक क्षण की कंपकंपी, माथे से गिरते सीकर बिंदु और फिर कर्म में लीनता का दृश्य हीनताबोध के विगलन और आत्मविश्वास के आविर्भाव न की जमीन रचता है जहाँ से वह पूरी ‘डिग्निटी' से बोल पाती है - मैं तोड़ती पत्थर। कविता के आरंभ में' जिसके तले बैठी हुई स्वीकार जैसी पंक्ति हैं, जहाँ स्वीकार गौरतलब हैइस स्वीकार को' मैं तोड़ती पत्थर से जोड़कर पढ़े तब कविता में करुणा की पृष्ठभूमि में आत्म स्वीकार, आत्म संघर्ष तथा आत्मविश्वास की प्रक्रिया क्रमशः पर्ण होती दिखती है। वह तोडती पत्थर में जहाँ एक संवेदना है वहीं मैं तोड़ती पत्थर में एक हुँकार। यह प्रक्रिया अपनी लाचारी के ‘आत्मस्वीकार' से शुरू होकर करती बार-बार प्रहार के आत्मसंघर्ष से होती हुई ‘रुई ज्यों जलती हुई भू के पूरे वातावरण के भीतर से मैं तोड़ती पत्थर के आत्मविश्वास या रघुवीर सहाय के शब्द लेकर कहें तो "गर्वीली गरीबी की हुँकार तक पूर्ण होती है, जिसे 'कविता के नये प्रतिमान' में नामवर जी ने मजदूरनी के भीतर के पत्थर के तौर पर व्याख्यायित किया था और जिसे संशोधित करते हुए नन्द किशोर नवल ने प्रथमतः कवि हृदय का पत्थर माना, फिर किसी संवेदनहीन दर्शक के हृदय का पत्थर माना था, जिसे वह ‘मैं तोड़ती पत्थर के माध्यम से व्यक्त करती है'


    गोरखपुर में हुए एक सेमिनार का हवाला देते हुए दलित विचारक कँवल भारती ने ‘सजा सहज सितार' और 'कोई न छायादार पेड़' को लेकर अपनी आपत्ति दर्ज कराई है। यह जदूर स्त्री की वेदना को चित्रित नहीं करती है, बल्कि उसे एक देह के रूप में देखती हैं, जो अपमानजनक है।' १२ अगस्त १९३७ को जानकी बल्लभ शास्त्री को लिखे पत्र में निराला की चिंता को उद्धृत करते हुए कँवल भारती कहते हैं कि ‘कवि को स्त्री के पत्थर तोड़ने पर आपत्ति नहीं है, आपत्ति इस पर है कि वह धूप में बैठी है, कोई छायादार पेड़ वहाँ नहीं है। यदि किसी पेड़ के नीचे पत्थर तोड़ती तो कवि का मन विचलित नहीं होता। यह आदर्शवादी दृष्टि है। कवि सामाजिक विशेषाधिकारों का उपभोग करने वाले वर्ग से आता है, इसीलिए उसे छाया चाहिए। कवि की पृष्ठभूमि यदि मजदूर वर्ग की होती तो वह छाया नहीं, काम की तलाश करता। न तो मुक्ति के स्तर पर और न ही स्वाधीनता के सवाल पर यह कविता उद्वेलित करती है यह एक रुपवादी कविता बन कर रह गई है जिसका न कोई समाजशास्त्रीय महत्व है और न अर्थशास्त्रीय।


    इस लेख के पूरे विश्लेषण से कँवल भारती की निष्पत्ति स्वयमेव सरलीकृत सिद्ध हो जाती है। उनकी निष्पत्तियाँ (विशेषकर इस कविता के संबंध में) दलित-आलोचना की खास दृष्टि की दृष्टि-भंगिमा की विशिष्टता का ही परिणाम जान पड़ती है। अन्यथा वे इसे देहवादी और रूपवादी तो नहीं ही सिद्ध करते। हाँ इस बात में थोड़ी सच्चाई अवश्य हैकि निराला का पूरा रचनाकर्म प्रगतिशील एवं क्रांतिकारी नहीं है, उसमें तमाम अन्तर्विरोध मौजूद हैं जो यहाँ बहस तलब नहीं है। और तोड़ती पत्थर कविता को भी छायावादी परिवृत्त में ही रखकर उसकी कला और संवेदना का आस्वादन किया जाना चाहिए, न कि उसे प्रतिमानों पर कसा जाए। छायावाद के दायरे में ही उसकी प्रगतिशीलता व काव्यकला की परख की जा सकती है।


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सहायक सामग्री :


१. निराला : साहित्य-साधना, भाग-२, राम विलास शर्मा, राजकमल प्रकाशन।


२. आत्महंता आस्था, दूधनाथ सिंह, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद।


३. कवि निराला, नंददुलारे वाजपेयी।


४. निराला संचयिता, रमेशचन्द्र शाह, महात्मा गांधी अन्तर्राष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा।


५. निराला की काव्य भाषा, रेखा खरे, लोक भारती प्रकाशन, इलाहाबाद


६. निराला होने का अर्थ, राजेन्द्र कुमार, अभिव्यक्ति प्रकाशन, इलाहाबाद।
७. अभिप्रायः, संपा.-राजेन्द्र कुमार, निराला विशेषांक।


८. निराला काव्य की छवियाँ, नन्द किशोर नवल, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली।


९. कविता के नये प्रतिमान, नामवर सिंह, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली।


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