प्रसंगवश - ‘कुम्भ' से संबंधित कुछ प्रसंग - प्रो. हेरम्ब चतुर्वेदी

इलाहाबाद के सेंट जोसेफ स्कूल एण्ड कॉलेज से प्रारंभिक शिक्षा। इलाहाबाद विश्वविद्यालय से एम.ए., डी.फिल.। अनेक पुस्तकों के लेखक, तमाम पत्रपत्रिकाओं में महत्त्वपूर्ण विषयों पर लेख। ऐतिहासिक विषयों के विशेषज्ञ। सम्प्रति : इलाहाबाद केन्द्रीय विश्वविद्यालय के इतिहास विभाग में प्रोफेसर एवं अध्यक्ष।


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‘कुम्भ' के सन्दर्भ में जो बात सबसे पहले उठती है और, वास्तव में उठनी भी चाहिए, वह उसकी कथा से ही जुड़ी हुई है - स्पष्ट ही है, कि, ब्रह्माण्ड के परिशुद्धिकरण के साथ, अमृत्व की प्राप्ति तथा अंततः मानव-सभ्यता के सृजन हेतु समुद्र-मंथन की योजना बनी थी जो अंततोगत्वा देवताओं और असुरों के मध्य, विजय-पराजय का निर्णय करने वाला संघर्ष बन गया! यह प्रसिद्ध ‘समुद्र-मंथन' क्षीर-सागर में संपन्न हुआ था! मंदराचल को मथानी और वासुकी नाग को रस्सा बनाकर यह कार्य प्रारम्भ हुआ। सर्प के मुख की ओर असुर एवं पूछ की तरफ देवगन मंथन में संलग्न हुए।


     इस ‘समुद्र-मंथन' के परिणामस्वरूप अन्यान्य चतुर्दश (१४) रत्नों के पश्चात् जब अमृत का कुम्भ या घड़ा निकला तब, देवताओं ने कैसे इसे देवराज इंद्र के पुत्र जयंत को सौंपा था, की वह उसे लेकर सुरक्षित भाग जाए! अब यदि छुप के भागना था, तो ज़ाहिर है कि छद्म रूप में ही भाग सकता था- छुपते हुए! यह संग्राम कुल बारह दिन चला था जो मानव सृष्टि के बारह वर्षों के बराबर था। अमृत के कुम्भ के साथ भागते हुए जयंत से इसे असुरों द्वारा छीनने के चार प्रयास हुए होंगे या किसी भी कारण वश चार स्थानों पर इस कुम्भ से अमृत छलककर पृथ्वी पर गिरा था अतः इन चार स्थानों- यथा, हरिद्वार, प्रयाग, उज्जैन तथा नासिक में ऐसा हुआ माना जाता है। भारत के एक कोने से दूसरे कोने के इन चार स्थानों तक पहुँचने में जितना समय इन्सुं त जयंत को लगा था, उसी के अनंतर (मानव अवधि के अनुसार) इन स्थानों पर कुम्भ पर्व के आयोजन का विधान बना!


     यहाँ, यह ध्यान देने योग्य बात है, कि, यदि, क्षीर सागर', जहाँ पर ‘समुद्रमंथन' हुआ था- उसे ‘कैस्पियन सागर' के रूप में चिह्नित कर लें - जैसा कि, अब नई शोधों ने स्थापित किया है, तो बाकी बातें सहज समझी जा सकती हैं। अरुण ने अपनी पुस्तक 'प्राचीन भारत का प्रच्छन्न इतिहास में स्पष्ट किया है कि मार्को पोलो के काल तक कैस्पियन सागर को क्षीर सागर ही संबोधित किया जाता था! (पृ. ७१) इतना ही नहीं, हरिवंश पुराण (६७.९) से स्पष्ट है कि क्षीर सागर के उस स्थान में यह मंथन संपन्न हुआ था जिसके समक्ष या तट पर अमृत नामक स्थान स्थित था!


      जयंत के इस प्रकार छुप कर भागने में व्यतीत कुल समय का अंदाजा इस से लगाया जा सकता है, कि सूर्य एक राशी में एक माह तक रहता है- और, उसके अनंतर मानव के हिसाब से आप एक व्यक्ति के हरिद्वार, इलाहाबाद, उज्जैन और नासिक पहुँचने का सहज अनुमान लगा सकते हैं, कि इन स्थानों तक पहुँचने में कितना समय जयन्त ने लिया होगा! 


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      इसी कथा से एक और बात स्पष्ट होती है- इसमें भी भारत की एकता का सन्देश छुपा था! उत्तर में यदि जयंत हरिद्वार में विश्राम कर रहे हैं, या कुछ बूंदें टपक रही हैं; तो दक्षिण का प्रतिनिधित्व इस कथा में नासिक कर रहा हैपश्चिम का, उज्जैन, जो उत्तरापथ और दक्षिणापथ के मध्य व्यापार का मथुरा के अतिरिक्त दूसरा महत्वपूर्ण स्थान है, और पूर्व दिशा का प्रतिनिधित्व इस कथा में प्रयाग कर रहा है!


      बिलकुल, अगस्त्य ऋषि के विन्ध्याचल पर्वत पार कर के दक्षिण-प्रयाण की भांतिथी! अखंड भारत की अवधारणा यहाँ भी इस कथा में अनुरेखित हो रही • थी!


        और   शंकराचार्य  द्वारT चारोंनिकलता   , दिशाओं में पीठ स्थापित करने की भाँति यह कथा भी उससे पूर्व भारत की अखंडता की इसी अवधारणा को रेखांकित कर रही हैचूंकि, बाद में, शंकराचार्य के र्य के माध्यम से भी इसी अवधारणा की पुष्टि हो रही है, अतः, शंकराचार्यों का भी महत्व इस कुम्भ के आयोजन में स्वाभाविक रूप से बाद में सम्बद्ध हो जाता है!


                                                                                                            3


    इसी सन्दर्भ में एक और महत्वपूर्ण बात इलाहाबाद के सन्दर्भ में कही जा सकती है - जहाँ बाकी सारे पूर्व-वर्णित कुम्भ के स्थान, नदियों के तट पर स्थित हैं- वहीं अकेले इलाहबाद ऐसा है, जो तीन महत्वपूर्ण नदियों - गंगा, यमुना एवं सरस्वती के संगम पर स्थित है!


       यहीं, पुनः एक सन्दर्भ और जुड़ता और निकलता है- वह है, सरस्वती का! सरस्वती के मिथक एवं/अथवा वास्तविकता पर विवाद को विराम आधुनिक वैज्ञानिक शोधों, अनुसंधानों ने लगा दिया है। नासा तक के वैज्ञानिकों के शोध से स्थापित हो चुका है, कि सरस्वती के साथ यमुना भी पहले, पश्चिम-मुखी थी! भूकंप या सूनामी जैसी किसी प्राक्रतिक आपदा के चलते, सरस्वती तो धरती के भीतर चली गई और, यमुना पश्चिम मुखी हो कर, प्रयाग में गंगा से मिलती है।


      इस सन्दर्भ में, हम बस इतना जोड़ना चाहेंगे कि इस बात के संकेत, कम से कम, ‘लोक-स्मृति' से प्राप्त हो जाते हैं कि गंगा-यमुना के साथ सरस्वती के भी संगम का निरंतर उल्लेख मिलता है। अतः संभव है कि सरस्वती की कोई ऐसी सहायक नदी या शाखा रही हो, जो इस प्राकृतिक आपदा, अथवा भूकंप से यमुना की भाँति ही पश्चिम-वाहिनी होती हुई, गंगा से मिल गई हो! या, प्रकारांतर में, सरस्वती की यह सहायक जलधारा यमुना में मिल कर ही उसके साथ, प्रयाग में गंगा के साथ संगम करती है! अतः, लोक मान्यता सही प्रतीत होती है- शेष शोध यह भी देर-सबेर स्थापित कर ही देंगे !!


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      आइए, अब प्रसंग उठाएं, मध्य क़ालीन  भारत  का 1 


      काल-क्रम के अनुसार, पहले अकबर आता है, तो आइए, अकबर की बात करें! अकबर जब इलाहाबाद में दुर्ग स्थापना के विषय में अंतिम निर्णय ले चुका था, अर्थात् १५८३ से पूर्व संगम आने का अवसर मिला था, संभवतः कुम्भ के किसी अवसर पर! जेसुइट मिशन का प्रसिद्ध पादरी फादर मोंसेरेंट, जो अकबर के दरबार में कई साल रहा था, उसे विश्वास था कि अकबर ईसाई मत की तरफ आकर्षित है और वह देर-सबेर इसाई मत स्वीकार लेगा अतः उसने पुर्तगाल लिख भेजा, कि धर्मातरण में पारंगत, सुप्रसिद्ध मिशनरी वैदेत्ति को इस विशेष अवसर पर भारत में प्रयाग नामक स्थान पर इस विशेष कार्य को संपन्न कराने हेतु भेजें!


       यहाँ यह प्रश्न पुनः पूछा जाना चाहिए कि वेदेत्ति को कहाँ भेजने के लिए लिखा गया - यह तथ्य अपने-आप में किसी खास अवसर या आयोजन का साक्ष्य होने के कारण महत्त्वपूर्ण है! स्पष्ट ही है इलाहाबाद! यह भी स्पष्ट है कि, इलाहाबाद में माघ मास में उस वर्ष ‘कुम्भ' का आयोजन था और तय था कि अकबर अपने स्वाभाव के अनुसार इलाहाबाद में विभिन्न मतों के मध्य होने वाले ‘शास्त्रार्थ' को सुनने आएगा ही अतः बस, वहीं संगम तट पर वेदत्ति को भेजने के लिए आग्रह था 1 


       इसी से हम दूसरी बात का भी निष्कर्ष लगा सकते हैसंभवत: अकबर को यहीं से ‘‘इबादत-खाना'' का विचार भी मिला होगा! और देश को ‘‘दीन-इ-इलाही'' या 'तौहीद-एइलाही' के साथ ही ‘‘सुलह-ए-कुल'' की अवधारणाएं, जो भारतीय परंपरा ‘‘वसुधैव कुटुम्बकं'' के अनुकूल तथा एक प्रकार से अनुसरण ही थीं!


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      अब बात करते हैं औरंगजेब की, वह भी ‘कुम्भ' के ही अवसर पर इलाहबाद आया था - वाकई, प्राचीन एवं मध्यकालीन भारतीय इतिहासकारों के लिए यह सामान्य घटना थी अतः, अंग्रेजों से पूर्व के इतिहासकारों ने इसका “कुम्भ'' के रूप में उल्लेख नहीं ही किया है। किन्तु, घटना के महत्व से यह घटना कुम्भ की ही है!


       और, इस बात के प्रमाण ‘राष्ट्रीय अभिलेखागार' में फ़रमानों के रूप में सुरक्षित रखे हैं कि यहीं उसने अरैल स्थित सोमेश्वर महादेव के मंदिर के साथ-साथ उज्जैन के महाकाल एवं चित्रकूट के बालाजी मंदिर तथा बनारस के जंगम्बाड़ी मठ को भू-राजस्व रहित भू-अनुदान प्रदान किए थे!


       उज्जैन, चित्रकूट या बनारस के मठ को यहाँ दान देने का औचित्य क्या था? अवश्य ही कोई ऐसा अवसर रहा होगा कि अनेक मंदिरों व मठों के अधिकारी, मठाधीश प्रयाग में एकत्रित हुए होंगे और वे कब, क्यूँ और कैसे यहाँ उपस्थित होते थे - यह तो सर्वविदित है - ऐसा अवसर कुम्भ पर ही आता था! और, मुगल बादशाह बिना खास अवसर के यहाँ क्यूं आता और क्यूँ यहाँ पर दान देता या पूर्व में प्रदत्त किए गएराजस्व-मुक्त भू-अनुदान, जिसे ‘‘मदद-ए-माश'' कहते थे उसकी पुष्टि करता? जाहिर है अकबर, औरंगजेब आदि भी हर्ष के प्रयाग में दान देने की परंपरा का अनुपालन ही कर रहे थे? 


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      अब चर्चा कुछ अखाड़ों की आक्रामकता और संगठन की- उत्तर औरंगजेब काल में, जब छोटे-छोटे क्षेत्रीय राज्यों का गठन हो गया तब हम ‘अखाड़ों' को संगठित शक्ति के रूप में उभरते हुए पाते हैं और इसका ऐतिहासिक शोधपूर्ण अध्ययन सर जदुनाथ सरकार ने स्वयं किया था!


      ये अखाड़े, अंततः, अवध के नवाब के साथ हो गए थे और उनके साथ १७६१ में पानीपत के तृतीय युद्ध में नवाब के साथ लगभग १०,००० की सशक्त सेना के साथ, मुगुल बादशाह और मराठों के विरुद्ध लड़े थे! उनकी अवध के प्रति पक्षधरता की वजह साफ़ थी, मुगल बादशाह शाह आलम मराठों का कठपुतली मात्र था और, मराठों ने इलाहबाद, काशी और मथुरा की माँग कर रखी थी शाह आलम से भी - पूर्व की भाँति - शिवाजी के काल से चली आ रही इस माँग को अब वे अपने समर्थन की कीमत के तौर पर और, मुगुल सम्राट पूरी तरह से मराठा शक्ति पर निर्भर था!


      इसमें से काशी और प्रयाग तो अवध नवाब के क्षेत्र थे! इनके मराठों के अधीन होने से अवध-नवाब का सीधा अहित था! अतः यह कारण बना और अंततः, रूहेल्ला नवाब के हस्तक्षेप से अवध नवाब और उनके साथ, इन अखाड़ों के संतों और सेना ने मुगल शासक और मराठों के विरूद्ध पानीपत के मैदान में युद्ध किया! किन्तु युद्धोपरांत मृत मराठा सरदारों तथा सैनिकों का हिन्दू रीति-रिवाजों से अंतिमसंस्कार भी किया!


                                                                                                  ७      


       मराठों के ही सन्दर्भ से एक दूसरा सन्दर्भ भी समझा जा सकता है- जो कुम्भ के स्नान से अभिन्न रूप से जुड़ा हुआ है। वस्तुतः, अखाड़ों का वर्तमान स्वरूप काफी कुछ मराठा काल में ही स्पष्टतः उभरा -विशेष-रूप से उनका उग्र स्वरूप और आक्रामकता! यही नहीं, जैसे मराठा इतिहास में, शिवाजी के उपरान्त, उनके द्वारा स्थापित, अष्ट-प्रधान शासन-व्यवस्था में छत्रपति का स्थान पेशवा या मुख्यमंत्री अथवा प्रधानमंत्री ने ले लिया, वैसे ही अखाड़ों में भी क्षेत्र प्रवेश को ‘पेशवाई' कहा जाने लगा, क्योंकि, न तो पेशवा और न पेशवाई का उल्लेख इससे पूर्व हमें मिलता है


       और, ‘‘शाही स्नान'' अपने आप में एक विशिष्ट स्नान' का द्योतक है! यह संबोधन यह भी स्पष्ट करता है कि यह साधारण स्नान नहीं, अपितु एक विशेष अवसर पर अर्थात् कुम्भ, अर्ध-कुम्भ, माघ के विशेष तिथियों पर होने वाले स्नान हैं, जो एक सुनिश्चित, सुपरिभाषित एवं सुव्यवस्थित क्रम की आशा और अपेक्षा रखते हैं!


                                                                                                सम्पर्क : 8/5 ए, बैंक रोड, इलाहबाद-211002 मो.नं.: 9452799008