आलेख - अकबर का किला - प्रो. दीनबन्धु पाण्डेय

पूर्व अध्यक्ष, कला इतिहास एवं पर्यटन प्रबंध, विभाग, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, सदस्य, आई.सी.एस.एस.आर, भारतीय संस्कृति और इतिहास के अध्येता अनेक शोधपत्र एवं पुस्तकें प्रकाशित।


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प्रयाग यानी इलाहाबाद में सम्राट् अकबर ने सामरिक दृष्टिकोण से गंगा, यमुना और अदृश्य सरस्वती के संगम तट पर किले का निर्माण १५८३ ई. में कराया था। यह किला तीन ओर से नदियों से घिरा हुआ है। यही वजह है कि इस किले पर कभी आक्रमण नहीं हुआ। अंग्रेजों ने इस किले पर आक्रमण का असफल प्रयास किया था। बाद में उन्होंने सीधी लड़ाई में इस पर कब्जा जमाया।


   अबुलफजल ने अकबरनामा में लिखा है कि यह किला ठीक संगम पर चार खंडों में बनाया गया था। पहला स्वयं सम्राट् के रहने के लिए, जिसमें १२ आनंद वाटिकाएँ थीं, दूसरा बेगमों और शहजादों, तीसरा अन्य बादशाही कुटुंबियों और चौथा सिपाहियों और नौकर-चाकरों के रहने के लिए था। एक खोज के मुताबिक यह किला ३८ जरीब (अकबरी जरीब ६० गज़ की होती थी) लंबा और २६ जरीब चौड़ा है, कुल क्षेत्रफल ९८३ बीघा और घेरा १२८ जरीब है। इसको बनाने में एक करोड़ १७ लाख २० हजार २ सौ १४ रुपये खर्च हुए थे और यह किला ४५ वर्ष ५ महीने और १० दिन में बना था। इसमें २३ महल, ३ वाबगाह (शयनागार) और झरोखे, २५ दरवाजे, २३ बुर्ज, २७७ मकानात (भवन), १७६ कोठरियाँ, २ खासोआम, ७७ तहखाने, १ दालान दर दालान, २० तबेले, १ बावली, ५ कुएं और १ यमुना की नहर थी, जिनका निर्माण शहजादा सलीम शेखू (बाद का जहांगीर), टोडरमल, भारथ दीवान, पयागदास मुशरिफ, सईद खाँ और मुखलिस खाँ के प्रबंध में हुआ था।


    प्रयाग जल पूजा यानी प्रकृति पूजा का केन्द्र रहा है। यहाँ पर हिन्दुओं के छोटे-बड़े बहुत से मंदिर थे। अकबर ने गंगा की बाढ़ से शहर इलाहाबाद को बचाने के लिए बाँध बनवाया और यमुना से बचने के लिए भी प्रबंध करवाया। अकबर ने हिन्दू मंदिरों के लिए भी स्थान दियाकिले के अन्दर और किले के आस-पास हिन्दू धर्म के साक्ष्य मिले हैं। १९०६-०७ ई. में भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण विभाग ने किले में उत्खनन का कार्य किया जिसमें भगवान् विष्णु की मूर्ति का शिरोभाग मिला, जो मूर्ति शैली की दृष्टि से दसवीं शताब्दी का है। किले के निर्माण से पूर्व सन् १५७५ के आस-पास सम्राट् अकबर अपने विशिष्ट दरबारी बीरबल के साथ यहाँ आया था। उस समय बिहार और बंगाल में दंगा हो रहा था। उसके दिमाग में यह बात घर कर गई कि अगर बंगाल और बिहार पर कब्जा करना है तो संगम तट पर किला बनाना बहुत जरूरी है। यह किला सामरिक दृष्टि से बहुत ही महत्त्वपूर्ण इसलिए था कि नदियों के होने के कारण इस पर सीधे आक्रमण करना संभव नहीं था। यह नदियों से तीन ओर से घिरा और सुरक्षित था। अंग्रेजों ने नील्स के नेतृत्व में झूसी से इस किले पर तोप से आक्रमण का प्रयास जरूर किया लेकिन तोप का गोला किले तक नहीं पहुँच सका था। बाद में नाव से आकर अंग्रेजों ने सीधे संघर्ष कर किले पर कब्जा जमाया। इसमें उन्हें बहुत ही कठिनाइयों को सामना करना पड़ा था। किले में महलों के नाम थे एमनाबाद, अमरावती, आनंद महल, दीनमहल, महासिंगार महल, अलोल महल, कलोल महल, दिलशाह महल, बशारत महल, उर्दी बहिश्त महल, हंस महल, उम्दे महल और सुखनाम महल। तीन ख्वाबगाहों में ख़ाबगाह झरोखा, चिहल सितून और निशस्तगाह (बैठक) खासोआम्। २५ दरवाजों का ब्योरा इस प्रकार है-हस्तिनापुर दरवाजा, गावघाट अंदर-बाहर, बगल दरवाजा, गुसुलखाना, अजमेरी दरवाजा, फसील दरवाजा, महल दरवाजे, खासोआम दरवाजे, बेरी दरवाजा, अंदर-बाहर, बावली दरवाजा, मानिक चौक के दरवाजे, तख्त दरवाजा, दिहली दरवाजा, निहाल दरवाजा, बदररौ दरवाजा आदि हैं। बुर्जा का ब्यौरा इस प्रकार हैं-शाहबुर्ज से हस्तिनापुर दरवाजे तक आबादी की ओर उत्तर तरफ सात बुर्ज, बावली से शाहबुर्ज तक पाँच, गावघाट से अजमेरी दरवाजे तक दो, हस्तिनापुर की दीवार से गावघाट तक दो, अजमेरी दरवाजे की दीवार से गावघाट की दीवार तक तीन, हस्तिनापुर की दीवार से गावघाट तक दो, अजमेरी दरवाजे की दीवार से गावघाट की दीवार तक तीन, हस्तिनापुर के दरवाजे के सामने दीवार के दोनों ओर चार और २७७ मकानों के बारे में लिखा है कि अजमेरी दरवाजे से बावली तक थे। खासोआम के नाम से दो इमारतें थीं, एक बड़ी और एक छोटी। १७६ कोठरियाँ खासोआम के दरवाजों की ओर यमुना की नहर चिहल सितून के निकट थीं। यह किला दिल्ली और आगरे के किले के सदृश लाल पत्थर का बना है। इसका विशाल सिंहद्वार और भीतर की इमारतें दर्शनीय हैं।


 अशोक स्तंभ


       प्रयाग में सबसे प्राचीन वस्तु जो ऐतिहासिक दृष्टि से बड़े महत्त्व की है, वह सम्राट अशोक का स्तंभ है। चुनार पत्थर से निर्मित बैठे हुए स्फूर्तिवान एकल सिंह वाले शीर्ष के साथ गावदुम स्तंभ की कुल लंबाई ३५ फीट है। नीचे का व्यास लगभग ३ फीट है, परंतु ऊपर जाकर क्रमशः कम होते २ फीट २ इंच है। इस पर जो अभिलेख अंकित है, उससे ज्ञात होता है कि पहले यह स्तंभ सम्राट् अशोक की आज्ञा से कौशाम्बी में ईस्वी सन् से २३२ वर्ष पहले स्थापित किया गया था। अशोक के अंकित अभिलेखों में कौशाम्बी के महामात्र का सन्दर्भ आता है जिससे स्पष्ट है कि यह स्तंभ पहले कौशाम्बी में स्थापित रहा और बाद में इलाहाबाद के किले में आया। इस स्तंभ पर सम्राट् अशोक, उनकी साम्राज्ञी, समुद्रगुप्त और जहाँगीर के खुदवाए हुए अभिलेख हैं। स्तंभ में एक लेख हिंदी में भी है। इन अभिलेखों के अतिरिक्त जब यह स्तंभ पृथ्वी पर पड़ा था, तब उस समय के बहुत से यात्रियों के नाम और सन् संवत् भी इस पर अंकित हैं। पहले यहाँ लोग इसको भीम की गदा कहते थे। बहुत दिनों तक किसी को यह पता न था कि इस पर क्या लिखा है। सबसे पहले जेम्स प्रिंसेप ने इसकी स्थिति और अभिलेखों पर अपना विचार प्रकट किया था, फिर कई विद्वानों का ध्यान इस ओर आकृष्ट हुआ और अंत में उन्होंने बड़े परिश्रम से पंडित राधाकांत शर्मा की सहायता से इसके सभी लेखों को पढ़ा। इसके मुख्य-मुख्य लेख ऐतिहासिक दृष्टि से बड़े महत्त्व के हैंसबसे पहले है, अशोक का लेख जिसमें वास्तव में छह आदेश हैं, जो उसने अपनी प्रजा के हित के लिए अंकित कराए थे। इसकी भाषा प्राकृत अर्थात् यहाँ की तत्कालीन जनता के बोल-चाल की भाषा है और लिपि ब्राह्मी है।


       प्रयाग स्तंभ पर सम्राट् अशोक के अभिलेख मूल नागरी अक्षरों में (१)


१. देवानं पिये पियसी लाजा हेवं आहा  (१) सडुवीसतिवसाभिसितेन म  (मे) इयं धमलिपि लिखापिता  (१) हिदत पालते द (दु) संपटिपादा (द)  ये 


२. अनंत अगाय धंमकामताय अगाय पलीखाय अग (गा) या सुसूसाया अगेन भयेन अगेन उसोहन (१) एस चु खे (ख) मम अनुसथिना (या)


३. धंमापेखा धमकामत (ता) च सुवे-सुवे वढिता वढिसति च (चे) व (१) पुलिसा पि मे उकसा च गेवया च मझिमा च अनुविधियति संपटिपादयति च


४. अलं चपलं समादपयितवे (१) हेमेव अंतमहामाता पि (१) एसा हि विधि या इयं धमेना (न) सुखीयाना धम (मे) न ग (गु) नि (ति) ते (ति) चि (च) (१)


      हिन्दी अनुवाद (१) 


      देवताओं के प्यारे प्रियदर्शी राजा ने ऐसा कहा है, ऐसा आदेश दिया है कि अपने अभिषेक के २६ वर्ष पर मैंने यह धर्मलेख लिखवाया है। बिना उत्तम धर्म कामना, बिना उत्तम परीक्षा, बिना उत्तम सेवा, बिना (पापों से) बड़े भय (और) बिना बड़े साहस के इस लोक और परलोक का काम बनाना कठिन है। इस मेरे धर्म की शिक्षा से अपनी-अपनी जगह धर्म की आवश्यकता और धर्म की कामना बढ़ी और बढ़ेगी। मेरे अच्छे, बुरे और मध्यम (विचार) के पुरुष इसका अनुकरण और आचरण करते हैं, जिससे कि चंचल लोक भी धर्म पर चलें। इसी प्रकार मेरे बड़े अधिकारी भी करते हैं, क्योंकि धर्म से पालन, धर्म से न्याय, धर्म से सुख और धर्म से रक्षा की यही विधि है ।


    मूल नागरी अक्षरों में (२)


 ५. देवानं पिये पियदसी लाजा हेवं आहा (१) धमे साधु (१) कियं चु धमे ति (१) अपासिनवे बहु कयाने दया द (दा) ने सचे सा (सो) चये (१) चखुदाने पिम् (में)


६. बहुविधे दिने (१) दुपदं (द) चतुपदेसु पखिवालिचलेसु विविधे मे अनुगहे कटे आ पानदखिनाये (१) अंनानि पि च मे बहूनि कयानानि कटानि (१)


७. एताये में अठाये इयं धमलिपि लिखापिता हेवं अनुपटिपजन्तु ची (चि) लठितीं (ती) का च होतू ति (१) येच हेवं संपटिपजिसति स (से) सुकटं कछतीति (१)


हिन्दी अनुवाद (२)


     देवताओं के प्यारे प्रियदर्शी राजा ने ऐसा कहा है कि धर्म श्रेष्ठ है। धर्म क्या है? बुराई से दूर रहना, भलाई, दया, दान, सत्य और पवित्रता। मैंने दोपायों, चौपायों, पक्षियों और जलचरों की ओर भी बहुत तरह से दृष्टि डाली है (ध्यान दियाहै)। मैंने अनेक प्रकार से (उन पर) प्राण दान तक की कृपा की है। (उनके साथ) और कई तरह की भी भलाइयाँ की हैं। इसलिए यह धर्म लेख लिखवाया गया है कि लोग ऐसा ही करें और यह लेख बहुत दिनों तक बना रहे। जो ऐसा (इसके अनुसार) करेगा, वह भलाई का काम करेगा।


मूल नागरी अक्षरों में (३)


८. देवानं पिये पियदसी लाजा हेवं आहा (१) कयानमेव देखवि (ति) इयं मे कयाने कटे ति (१) नो मिन पापकं देखति इयं मे पापके कटे ति इयं वा आसिनवे नामा ति (१)


९. (दुपाटि वेखे चु खो एसा (१) हेवं चु खो एस देखिये (१) इमानि आसिन वगामीनि नाम अथ चंडिये निलिये कोधे माने इस्या कालनेन व हकं मा पलिभसयिस


(१) एस बाढू देखिये इयं में हिदतिकाये इयं मन में पालतिकाये)


हिन्दी अनुवाद (३)


    देवताओं के प्यारे प्रियदर्शी राजा ने ऐसा कहा है कि मनुष्य भलाई ही देखता है कि यह भलाई मैंने की है। मनुष्य पाप नहीं देखता है कि यह पाप मैंने किया या यह दोष है। यह देखना बड़ा कठिन है। (परंतु) इस (अर्थात् मनुष्य) को इस प्रकार भी देखना चाहिए कि ये बुराइयाँ हैं, जैसे कठोरता, निर्दयता, क्रोध, घमंड और ईष्र्या इत्यादि। (यह भी सोचना चाहिए कि कहीं) इन बुराइयों के कारण मैं दोषी न बनें। यह अच्छी तरह से देखना चाहिए कि यह (कर्म) परलोक के लिए (अच्छा) है।


मूल नागरी अक्षरों में (४)


१०. देवानां पिये पियदसिलाजा हेवं आहा (१) सडवीसतिवसाभिसितेन मे इयं धंमलिपि लिखापिता (१)


११. लजूका में वहूसुपानसतसहसेसु जन सि आयता तेसंये अभिहालेवा (१)


१२. देडे वा अतपतिये मे कटे किंति लजूका अस्वथ अभीतां कंमानि पवतयेवू जनस जानपदसा हितसुखं उपदहेवू अनुगहिनेवुचा


१३. सुखीयन दुखीयनं जानिति धूम युतेन च (१) वियोवदिसति जनं जानपदं किंति (१) हिदतंच पालतं च आलाध्येवूति (१) लजूका पिलर्घाति (१) पटिचलिटवेमं


१४. पुलिसानिपि में छंदानि पटिचलित ते पि च कानि वियोवदिसति येन में लजुका चर्घति आलाधयितवे अथाहि पजं वियताये धातिये निसिजितु ।


१५. अस्वथे होति वियत-धाति चघति में पजंसुर्खपलिहटवे (१) हेवं ममा लजूका कटा जानपदस हितसुखाय येन ऐसे अभीता अस्वथ संतं अविमना कंमानि पवतये वृति (१)


१६. एतेन मे लजूका (न) अभि (हा) ल (ले) व (वा) द (द) डु (डे) व (वा) अतपतिये अ (क) जि (टे) (१) | च (इ) छ (छि) तव (वि) य (ये) ह (हि) ल (ए) सि (स) (१) कि (किं) (तिं ति) (१) चा (ङ्ग)


१७. विय (यो) हालसमना (ता) चा (च) सिया दंडसमता च (१) आव इते पि च म (मे) आव (व) ति बंधनबधानं मुनिसानं तीलितदंडानं पतवधानं ति (ति) निं दिवसि (सा) नि योते दिने (१)


१८. नातिका वं (व) कानि निस (झ) पयिसँति ज (जी) वताये तानं नासंतं वा निझपयिता दानं दाहँति पालतिकं उपव (व) सं वा कछ (छ) ति


१९. इहा हि मे हेवं निलुधसि पि कालसि पालतं आलाध्य (ये) ठा (बु) (१) जनस च वढति विविध (धे) धंमचलने सयमे दाने (न) सविभागेति।


हिन्दी अनुवाद (४)


       देवताओं के प्यारे प्रियदर्शी राजा ने ऐसा कहा है कि अपने अभिषेक के २६वें वर्ष मैंने यह धर्म लेख लिखवाया है। मेरे बड़े अधिकारी बहुत से सैकड़ों हजारों (लाखों) प्राणियों पर नियुक्त हैं। उनको न्याय और दंड में मैंने स्वतंत्र कर रखा है, जिससे वे लोग बिना स्वार्थ और बिना (बदमाशों के) भय के काम करें, और देश में रहने वाले लोगों (प्रजा) के हित और सुख का ध्यान रखें। तथा (उन पर) कृपा करें। सुख और दुख को समझें और देशवासियों से धर्मयुक्त व्यवहार करें, क्योंकि इससे वे लोग इस लोक और परलोक की आराधना करेंगे। मेरे बड़े अधिकारी मेरी सेवा करना चाहते हैं। और लोग भी मेरी इच्छा के अनुसार काम करना चाहेंगे, वे भी अपने इर्द-गिर्द वालों के साथ उसी तरह व्यवहार करेंगे, जिस तरह मेरे बड़े अधिकारी लोग श्रद्धा से मेरी आराधना (सेवा) की अभिलाषा करते हैं। जैसे (कोई अपनी) सन्तान को (किसी) जानी बूझी हुई धाय को सौंप कर संतुष्ट हो जाता है कि यह (जानी बूझी हुई धाय) मेरे बच्चे को श्रद्धा के साथ सुख से पालेगी। इसी तरह मैंने देशवासियों के हित और सुख के लिए बड़े-बड़े अधिकारियों को नियत किया है जिससे वे लोग बिना भय और बिना स्वार्थ के प्रसन्नता के साथ अपना काम करें। इसलिए मैंने न्याय और दंड में उनको स्वतंत्र कर दिया है क्योंकि ऐसा होना ही चाहिए। इससे (न्याय के) व्यवहार में समता रहेगी और दंड में भी | समता रहेगी।


       आज (से) यह भी मेरी आज्ञा है कि जिन कैदियों के लिए प्राण दंड का निर्णय हो चुका है, उनको तीन दिन की मुहलत दी जाए, जिसमें उनके भाई-बंधु उनके जीवन के लिए याचना कर सकें, अथवा उनका मरना निश्चित समझकर उनके उद्धार के लिए दान पुण्य करें, व परलोक संबंधी व्रत उपवास करें। क्योंकि मेरी इच्छा है कि इस दंड की रुकावट के समय में वे लोग परलोक संबंधी आराधना (कृत्य) कर लें। इस तरह लोगों में कई प्रकार का धर्माचरण, संयम और दान का प्रचार बढ़ता है। इति ।


मूल नागरी अक्षरों में (५)


२०. देवानपिये पियदसी लाजा हेवं आहा (१) सड्वीसा (स) तिवसाभिसितेन में इमानि जातानि अवधियानि कटानि (से) यथ सुके सालिका अलुने चकछा (वा) के


२१. हंस (से) नदि (दी) मुखे, गोलाटे, जि (ज) तुका,अंबाकी (कि) पिलिका, दुभी (डी), अनठिकमछे वेदव (वे) यक (के) गंगाप (पु) प (पु) टके, संकुजमछे, कप (फ) ट (सेय) क (के) प (पं०) नससे, पि सि मले ।


२२. (संडके, ओकपिंडे, पलसते सेत) कपोव (ते) ग (गा) म कपोते, सब (वे) चत (तु) पद (ते) य (ये), पटिभोग (ग) (नो एति न च ख़ादियति । अजका) ना (नि व) एडका च सूकली च गभिनी व पायमीना व


२३. (अवधिय पोतके पि च कानि आसंमासिके (१) वधिकुकुटे नो कटविये तुसे) सजीवे नो (झापयितविये दावे अनठाये वा विहिसायेवा नो झापे) तवि ये (;) जीवेन जीवे नो पुसिताविये


२४. तीसु चातुमासीसु तिसायं पुनमासियं तिंनि दिवसानि (चावुदसं पंचदसंपटिपदं धुवाये चा)


२५. अनुपोथं मछे अवधिये नोपि विके तविये (१) एतानि या (ये) व (दिवसानि नागवनसि केवटभोगसि यानि अंनानि पिजीवनिकायानि नो हंतवियानि अठमी पखाये चावुदसाये पंनडसाये तिसाये पुनावसुने तीसू चार्तुमासीसु)


२६. सुदिवसाये गोने नो नि (नी) ला (ल) खिता (त) विये अजका एडा (के सूकले एवापि अंने नीलखियति ने (नीलखित विये) तिसाये पुनावसुने चातुंमासिये चातुंमासिपखाये अस्वसा गोनसा)


२७. लखने नो कटविये (१) याव सडुवीसे (स) तिव साभिसितेन में एताये अंतलिका ये पंनवसीति बंधनमोखानि कटानि (१)


हिन्दी अनुवाद (५)


देवताओं के प्यारे प्रियदर्शी राजा ने ऐसा कहा है कि अपने अभिषेक के २६वें वर्ष में मैंने इन जीवों को अवध्य कर दिया है। (ये जीव न मारे जायं, ऐसा हुक्म दिया है) वे ये हैं-तोता, मैना, लाल, चकवा, हंस, नंदीमुख (नीलगाय) गेलाट, चमगादड़ रानी कीड़ी पहाड़ी कछुआ दंडी, बिना हड़ी की मछली, साही गिलहरी, बारहसिंघा, सांड़, बंदर, धब्बेदार हिरन, सफेद कबूतर और वे सब चौपाए जो न तो काम में आते हैं और न खाए जाते हैं, भेड़ी या सुअरनी जो गर्भिणी हो या दूध देती हो, अवध्य है और छह महीने के छोटे बच्चे भी अवध्य हैं। मुर्गा को बधिया नहीं करना चाहिए। जिस भूमि में जीव जन्तु उत्पन्न हो गए हों उनको नहीं जलाना चाहिए। एक जीव को मारकर उससे दूसरे जीव को (अपना) पेट नहीं पालना चाहिए।


     तीनों चौमासों (चार-चार महीने के जाड़ा, गर्मी और बरसात इन तीनों ऋतुओं) की पूर्णमासियों के दिन (जो फाल्गुन, आसाढ़ और कार्तिक के अंत में पड़ती थीं) तथा पुष्य नक्षत्रवाली (पौषकी) पूर्णमासी (और) चौदस, पंद्रस (अमावस्या) तथा प्रतिपदा और व्रत उपवासों के दिन न तो मछली मारना चाहिए और न (उनको मुर्दा या जिंदा) बेचना चाहिए। इन्हीं दिनों में नागवन (कजरी वन, जहाँ हाथी रहते हैं) और कैवर्त-भोग (मछुओं के तालाब) में जो अन्य जीव हैं, उनको भी नहीं मारना चाहिए। दोनों पक्ष की अष्टमी चौदस और पंद्रस पुष्य और पुनर्वसु नक्षत्र (और उपर्युक्त) तीनों चौमासों की पूर्णमासी के दिन और दिनों (त्योहारों) में सांड़ को बधिया नहीं करना चाहिए। (इसी प्रकार) बकरा, मेंढा, सुअर या जो दूसरे जानवर बधिया किए जाते हैं, वे नहीं किए जाने चाहिए। पुष्य, पुनर्वसु तथा चौमासे के दिनों और चौमासे के दिन और चौमासे के दोनों पक्ष में (अथवा दोनों पक्ष के दिनों अमावस्या और पूर्णमासी को) घोड़ों और बैलों को दागना नहीं चाहिए। जब से मेरे अभिषेक को २६ वर्ष हुए, तबसे मैंने पच्चीस (बार) कैदी छुड्वाए हैं।


    मूल नागरी अक्षरों में (६)


२८. देवानपिये पियदसि (सी) लाज (जा) हेवं अ (आ) हा (१) (दवाड़सवसाभिसितेन में धमलिपि लिखापिता लोकसा हितसुखाये से तं अपहटा तं तं धमवढि पापो वा हेवं लोकसा) (स)


२९. हितसुखे ति पटिवेखामि अथ (इयं ना) या (ति) पा (स्) (हेव) पतियासंन हेवं अपकठ (ठे) स (सू) किम (म) कानि स (सु) खं अ (आ) वहामि (मी) ति तथ (था) च विदपो (हा मी मि) (१) हेवं मेव सडु (व) (नि) को (का) येसु पटिवेखामि (१)


३०. सवपासंडा पिमे पूजिता विविधाय स (पू) का (जा) चा (या) (१) ए चु इयं अतना पा (प) चुपगमने से मे म (मु) ख्यमुते (१) सडुव (वी) सतिवसअभिसा (सि) तेन में इय (य) ध (ध) मलिपि लिखापिता ति (१) हिन्दी अनुवाद (६)


हिन्दी अनुवाद (६)


      देवताओं के प्यारे प्रियदर्शी राजा ने ऐसा कहा हैकि अपने अभिषेक के बारह वर्ष पर लोगों के हित औरसुख के लिए (यह) धर्मलेख मैंने लिखवाया है, जिससे लोग ऐसी-वैसी बातें छोड़कर धर्म को बढ़ाएँ। इस प्रकार लोगों का हित और सुख (इस) में है, यह मैं देखता हूँ। जिस प्रकार मैं (यह) देखता हूँ कि अपने जातिवालों (संबंधियों) में किसको क्या सुख पहुँचाऊँ? उसी प्रकार (अपने से) निकट और दूरवालों में भी देखता हूँ और वैसी ही (अनुष्ठान कार्य) कार्य करता हूँ। इसी प्रकार सब सम्प्रदाय वालों में भी देखता हूँ। मैंने सब संप्रदायवालों की अनेक प्रकार की पूजा से सत्कार किया है। परंतु उनमें अपने (मंतव्य) का स्वागत करना (आदर करना) मैं सबसे मुख्य समझता हूँ। अपने अभिषेक के २६वें वर्ष पर मैंने यह धर्मलेख लिखवाया है। इति


                                                                         कौशाम्बी का लेख


मूल नागरी अक्षरों में


१. देवानपिये आनपयति (१) कोसँबियमहाम (मा) त


२. ....(स) मड (गे) (कटे) संघसि नि (नो) लहियो (ये)


३. ....(संघं भा) ठ (ख) ति भिति (खु) (वा) में भि (ति) (खु) नि (वासे) चि (पि) (च)


४. ब (....) (ओदातानि दुसानि) पि (स) नं (नि) ध (धा) पयित (तु) अ (ना) त (वा) सथ (सि) अं (आ) व (वा) सयि (ये)।


हिन्दी अनुवाद


      देवताओं के प्यारे, प्रियदर्शी (राजा) कौशाम्बी के बड़े अधिकारी (सुबेदार) को इस प्रकार आदेश देता है


      संघ (बौद्धों के मठ) का नियम न उल्लंघन किया जाए। जो कोई संघ में फूट डालेगा, वह सफेद (अर्थात् गृहस्थों के) कपड़े पहनाकर उस स्थान से, जहाँ भिक्षु या भिक्षुणियां रहती हैं, निकाल दिया जाएगा।


                                                                          महारानी का लेख


मूल नागरी अक्षरों में


१. द (दे) वानं पियस बचनेना सवत महामता


२. वतविया (१) ए हेत दुतीयाये देविये दाने


३. अंबावडिका वा आलमे व दानए (ग) हे वा ए त (वा) सि (पि) अंने


४. किछि गनीयति ताये देविये घे नानि (१) सहे व (व) (विनति)


५. दुतियाये देविये ति तीवलमातु कालुवानि (कि) ये (१)


हिन्दी अनुवाद


     देवताओं के प्यारे (राजा) के वचन (आज्ञा) से सब बड़े अधिकारियों से कहो कि दूसरी रानी का जो दान है, आम की वाटिका या बगीचा या दानगृह या और भी जो कुछ हो, वह दूसरी रानी तीवर की माता कारुवाकी का है।


                                                                सम्राट् समुद्रगुप्त का अभिलेख


      सम्राट् इस स्तम्भ पर अशोक के लेखों के पश्चात् अंकित किया गया महत्वपूर्ण लेख सम्राट् समुद्रगुप्त के विषय में है। यदि अशोक की प्रशस्तियों से उसका प्रजावात्सल्य, उसकी सच्चरित्रता तथा उसके उत्तम शासन प्रबंध आदि का ज्ञान हमको होता है, तो समुद्रगुप्त के लेख से उसके समकालीन न की अनेक जातियों जजों ना उनले देशों की नामावली हमको मिलती है, जो अन्यत्र कहीं नहीं पाई जाती। गुप्तवंशीय नरेशों में ईसा की चौथी शताब्दी के मध्य में समुद्रगुप्त बड़ा वीर, योद्धा, विद्वान्, कवि तथा संगीतज्ञ हुआ है। उसने समस्त भारत में ओर से छोर तक दिग्विजय करके उस समय की प्रथा के अनुसार अश्वमेध यज्ञ किया था। इस लेख में उसके गुणों और विजय की कीर्ति का वर्णन कवि हरिषेण ने किया है।


      यह लेख गुप्तकालीन ब्राह्मी लिपि तथा संस्कृत भाषा में है। पहले आठ श्लोक हैंफिर गद्य है। इसमें कुल ३३ पंक्तियाँ हैं, जिनमें से पहली चार बहुत खंडित हैं और कुछ पंक्तियों के बीच कुछ अंश मिट गए हैं। १ से ४ तक पंक्तियों का आशय अत्यंत खंडित होने के कारण स्पष्ट नहीं है। पंक्ति ५ और ६ में समुद्रगुप्त की विद्वत्ता तथा ७ और ८ में पिता द्वारा उसकी योग्यता का उल्लेख है। पंक्ति ९ से २४ तक सम्राट् की वीरता और उसके दिग्विजय की चर्चा की गई है। इनमें से १९वीं और २०वीं पंक्ति में तत्कालीन दक्षिण के बहुत से विजित राजाओं और उनके देशों के नाम है। इसी प्रकार २१वीं पंक्ति में आर्यावर्त के राजाओं की नामावली है। २२वीं पंक्ति में अनेक देशों तथा जातियों की सूची है। २३वीं पंक्ति में लंका, गुजरात तथा पश्चिमीय सीमाप्रांत के राजाओं की चर्चा है। पंक्ति २५, २६ तथा ३१ में समुद्रगुप्त के अन्य गुणों, जैसे दानशीलता, उदारशीलता, उदारता, और २७ में उसके काव्य तथा संगीत में निपुण होने का वर्णन है। पंक्ति २८ और २९ में वंशावली दी गई है। ३२वीं पंक्ति में कवि ने आत्म परिचय दिया है।


समुद्रगुप्त का अभिलेख मूल और हिंदी अनुवाद सहित पाठ


भाषा : संस्कृत।


१. [यः] कुल्यैः स्वैः """। तस """"


२. [यस्य ?]""""(।।) [१]


३.त्र """ "पुं (?) व """   त्र "त्र """


४. [स्फा]रद्वं (?)"""क्षः स्फुटोसित त्र """ "प्रवितत [१।२]


५. यस्य प्र [ज्ञानु] यंगोचित-सुख-मनसः शास्त्र-तत्व] तर्थ-भर्तुः--स्तब्धो-]]-][ह]नि]]]]]]]]]नोच्छु - - ]]- - []


६. [स]त्काव्य-श्री-विरोधान्बुध-गणित-गुणाज्ञाहतानेव कृत्वा [वि]द्वल्लोकेवि [नाशि]१ स्फुट-बहु-कविताकीर्ति-राज्यं भुनक्ति [।। ३] ।


७. [एह्ये]हीत्युपगुह्य भाव-पिशुनरुत्कणितैरोमभिः सभ्येषूच्छवसितेषु तुल्य-कुलज-म्लानाननोद्वीक्षि[त]: []


८. [स्ने]ह-व्ययालुलितेन बाष्प-गुरुणा तत्वेक्षिणा चक्षुषा यः पित्राभिहितो नि[रिक्ष्य] निखि[लां] [पाह्येवमुर्वी] मिति [।।४]


९. []ष्ट्वा कम्र्माम्यनेकान्यमनुज-सदृशान्यद्भुतोदिभिन्नहर्षा भ[I]वैरा-स्वादय-[न्तः] ]]]]]]]]-- ]]--]]]][के]चित् []


१०. वीर्योत्तप्ताश्च केचिच्छरणमुपगता यस्य वृत्ते(S) प्रणामे(5)प्य[ त्ति ?]-[ग्रस्ते-घु] -- ]]]]]]]]]]]]--]]-- 00-- [।। ५]


११. संग्रामेषु स्व-भुज-विजिता नित्यमुच्चापकाराः श्वः श्वो मान प्र]]]]]]]]--]]---- []


१२. तोषोत्तुङ्गैः स्फुट-बहु-रस-स्नेह-फुल्लैर्मनोभिः पश्चात्तापं व ]]]]]]]]-- ] मस्य [द्विषन्तः] [।६ 


१३. उद्वेलोदित-बाह-वीय-रभसादेकेन येन क्षणादन्मूल्याच्युत-नागसेन-गणपत्यादीननृान्संगरे]२ [१ ]


१४. दण्डेग्रहयतैव कोतकुलजं पुष्पाह्वये क्रीडता सूर्ये [नित्य (?) ]]-- तट] ] ---]]--]]- [।1 ७ 


१५. धर्म-प्राचीर-बन्धः शशि-कर-शुचयः कीर्तयः स-प्रताना वैदुष्यं तत्व-भेदि प्रशम ]]]]]][कुव]मुर-]]- णार्थम्] (?) [१ ]


१६. [अद्ध्येयः] सूक्त-मार्गः कवि-मति-विभवोत्सारणं चापि काव्यं को नु स्याद्यो(3)स्य न स्याद्गुण- [मति]विदुषां ध्यान-पात्रं य एकः [।। ८]


१७. तस्य विविध-समर-शतावरण-दक्षस्य स्वभुज-बलपराक्कमैकबन्धोः पराकमाङ्कस्य परशु शर-शङ्कुशक्ति-प्रासासि-तोमर-


१८. भिन्दिपाल-न [T]च-वैतस्तिकाद्यने क-प्रहरणविरूढाकुल-व्रण-शताक-शोभा-समुदयोप चितकान्ततर-वष्म॑णः 


१९. कौसलक-महेन्द्र-माह [T] कान्तार क-व्याघ्रराजकौरालक-मण्टराज-पैष्टपुरक-महेन्द्रगिरि-कौट्टरकस्वामिदत्तैर-डपल्लक-दमन-काञ्चेयक-विष्णुगोपावमुक्तक


२०. नीलराज-वैङ्गेयक-हस्तिवम-पालक कोग्रसेनदैव राष्ट्र क-कुबेर-कौस्थलपुरक-धनञ्जय-प्रभृतिसर्व्वदक्षिणापथ-राज-ग्रहण-मोक्षानुग्रह-जनितप्रतापोन्मिश्र-माहाभाग्यस्य


२१. रुद्रदेव-मतिल-नागदत्त-चन्द्रवर्म-गणपतिनागनागसेनाच्युत-नन्दि-बल-वर्माद्यनेकाय्र्या-वर्त-राजप्रसभोद्धर-णोद्वृत्त-प्रभाव-महतः परिचारकीकृतसव्र्वाटविक-राजस्य


 


२२. समतट-डवाक-कामरूप-नेपाल-कर्तृपुरादि-प्रत्यन्तनृपतिभिर्मालवार्जुनायन-यौधेय-माद्रकाभीर-प्रार्जुनसनकानीक-काक-खुरपरि कादिभिश्च-सर्व-कर- दानाज्ञाकरण-प्रणामागमन


२३. परितोषित-प्रचण्ड-शासनस्य अनेक-भ्रष्टराज्योत्सन्नराजवश-प्रतिष्ठापनाद् भूत-निखिल- भू.[व] न-[विचरण-श्रान्त-यशसः दैवपुत्रषाहिषाहानुषाहिशकमुरुण्डै; सँहलकादिभिश्च ।


२४. सव-द्वीप-वासिभिरामनिवेदन-कन्योपायनदानगरुत्मदक-स्वविषय-भुक्तिशासन-[य]]-चनाद्युपायसेवा- कृ त-बाह - वीय- पसर - ४ार णिबन्धास्य प्रिथिव्यामप्रतिरथस्य


२५. सुचरित-शतालङ्कृतानेक-गुण-गणोत्सिक्तिभिश्चरणतल-प्रमृष्टान्यनरपतिकीर्तेः साध्व-साधूदय-प्रलयहेतु-पुरुषस्याचिन्त्यस्य भक्यावनति-मात्र-ग्राह्य-मृदुहृदयस्यानुकम्पावतो(ऽ)नेक-गो-शतसहस्र-प्रदायिनः


२६. [कृ]पण-दीनानाथातुर-जनोद्धरण-सत्र३ दीक्षाभ्युपगत- मनसः समिद्धस्य विग्रहवतो लोकानुग्रहस्य धनदंवरुणेन्द्रान्तक-समस्य स्वभुज-बल-विजितानेकनरपति-विभव-प्रत्यर्पणा-नित्यव्यापृतायुक्तपुरुषस्य


२७. निशितविदग्धामति-गान्धव्व ललित वीडि त - त्रिदशपतिगुरु-तुम्बुरुनारदा-देविद्वज्जनो-पजीव्यानेककाव्य-क्रियाभिः प्रतिष्ठित-कविराज-शब्दस्य सुचिरस्तोतव्या नेकाद्भुतोदार चरितस्य


२८. लोकसमय-कियानुविधान-मात्र-मानुषस्य लोकधाम्नो देवस्य महाराज-श्रीगुप्त-प्रपौत्रस्य महाराज-श्रीघटोत्कच-पौत्रस्य महाराजाधिराज श्री-चन्द्रगुप्त-पुत्रस्य


२९. लिच्छवि-दौहित्रस्य महादेव्यां कुमारदेव्यामुत्फन्नस्य महाराजाधिराज-श्री-समुद्रगुप्तस्य सर्व-पृथिवीविजय - जानितोदय-व्याप्त - निखि लावनित ला कीर्तिमितास्त्रिदशपति


३०. भवन-गमनावाप्त-ललित-सुख-विचरणामाचक्षाण इव भुवो बाहुरयमुच्छ्रितः स्तम्भः [] यस्य प्रदान-भुजविक्रम-प्रशम-शास्त्रवाक्योदयैरुपयुपरिसञ्च-योच्छुितमनेकमार्ग यशः []


रुपयुपरिसञ्च-योच्छुितमनेकमार्ग यशः [] ३१. पुनाति भुवनत्रयं पशुपतेर्जटान्तर्गुहानिरोध-परिमोक्ष-शीघ्रमिव पाण्डु गांग [पयः] [।। ९] एतच्च काव्यमेषामेव भट्टारकपादानां दासस्य समीप परिसर्पणानुग्रहोन्मीलित-मतेः


३२. खाद्यटपाकिकस्य महादण्डनायक-ध्रुवभूति-पुत्रस्य सान्धिविग्रहि क-कुमारामात्य-म[हादण्डनाय]कहरिषेणस्य सर्व्व-भूत-हित-सुखायास्तु ।


३३. अनुष्ठितं च परमभट्टारक-पादानुध्यातेन महादण्डनायक तिलभट्टकेन।


१. वी० राधवन ने विशाले और भण्डाकर ने विकृष्टम् पाठका अनुमान प्रस्तुत किया है। विनशि पाठ सरकार का है।


२. भण्डारकर ने गणपानजौ समेत्यागतान होने का अनुमान किया है।


३. मूल में संत्र है। फ्लीट ने संत्र को मन्त्र के रूप में और दिवेकर ने सत्र के रूप में शुद्ध किया है। उचित पाठ सत्र ही होगा।


अनुवाद १


१     जो अपने वंश के लोगों से"""""नष्ट उसका


२.     """""जिसका """"


३.      जिसने """""नष्ट अपने धनुष की टंकार से""""" """"" "तितर बितर कर दिया"""""नष्ट किया """""फैला दिया"""""


४-६. जिसका मन विद्या की आसक्ति-जनित सुखानुभूति के योग्य है; जो शास्त्रों के वास्तविक रहस्य को जानने का एक मात्र अधिकारी है; जो उत्तम काव्यों के सौन्दर्य (श्री) के विरोधी तत्वों को पण्डितों द्वारा निर्दिष्ट गुणों की आज्ञा (शक्ति) से क्षीण करके विद्वानों की मण्डली में अत्यन्त स्पष्ट कविताओं से [उपलब्ध] यश के साम्राज्य का उपभोग करता है;


७-८,    [वह] जो सभासदों के [हर्ष से] उच्छवसित होते   और तुल्य-कुलजों (भाई-बन्धुओं) द्वारा म्लानमुखों द्वारा देखे जाते हुए [और] वात्सल्य से अभिभूत, तत्वदर्शी नेत्रों में आँसू भरे, भावातिरेक से रोमांचित पिता द्वारा स्नेहालिंगन कर कहा गया‘वस्तुतः तुम आर्य हो! तुम समस्त भूमण्डल का पालन करो';


९-१०.,   जिसके अलौकिक कार्यों को देखकर आश्चर्यमिश्रित हर्ष के साथ लोग भावपूर्वक आनन्द का आस्वादन करते हैं; और अन्य उसके पराक्रम के तेज से सन्तप्त होकर उसका शरणागत बन उसे प्रणाम करते हैं;


११-१२. [जिसने] निरन्तर अत्यधिक क्षति पहुँचने वाले दुष्ट स्वभाव के लोगों को समर भूमि में अपने भुजाओं के बल से पराजित किया [और]; दिन प्रति दिन ; [जिसके प्रति ] उन्होंने अत्यन्त आनन्द और प्रेम से उत्फुल्ल और सन्तोष से उन्नत हो अन्तकरण से पश्चाताप किया ।


१३-१४. जिसने अपनी भुजाओं के अपार बल के वेग से अकेले ही क्षण मात्र में (संयुक्त रूप से आये) अच्युत, नागसेन, ग[णपति'''''' आदि] का उन्मूलन कर दिया [और] पुष्पपुर [नगर] में उत्सव मनाते हुए कोत-कुल में उत्पन्न राजा को अपनी शक्ति से बन्दी बनाया (दण्ड दिया); सूर्य नित्य ही""""तट"""";


१५-१६. [जो] धर्म-रूपी प्राचीर [के भीतर] सुरक्षित है; जिसकी चन्द्रमा के किरणों के समान निर्मल कीर्ति चारों ओर फैली हुई है, जिसकी विद्वत्ता तत्वभेदिनी है; जिसने देव-विहित मार्ग (सूक्ति-मार्ग) अपना लक्ष्य बना रखा है (अथवा आप्त-पुरुषों द्वारा प्रतिपादित मार्ग का अनुसरण करना ही जिसका उद्देश्य है); जिसके कहे वाक्य मननीय हैं; जिसका काव्य कवि-प्रतिभा की विभूति को उन्मुक्त रूप से प्रकाशित करता है (अथवा कवियों के काव्यविषयक अभिमान को चूर्ण कर देता है); सहृदय विद्वत्समाज को आकर्षित करने वाला कौन सा ऐसा गुण है जो उसमें न हो;


१७-१८, जो विभिन्न प्रकार के सैकड़ों रण-कौशल में कुशल है; जिसका बाहु-बल का पराक्रम ही एक मात्र सहायक (बन्धु) है, पराक्रम जिसका प्रतीक है;२ जिसके शरीर की कान्ति परशु (कठोर), शर (वाण), शङ्कु (ब), शक्ति (सांग), प्रास (भाला), असि (तलवार), तोमर (गड़ाँसा), भिन्दिपाल (ढेलवाँस), नाराच (कटीले-शर), वैतस्तिक (भुजाली) प्रभृति अनेक शस्त्रास्त्रों से लगे सैकड़ों गम्भीर घावों के निशानों से संवर्धित शोभा-समूह के कारण दुगुणित हो रही है;


१९-२०. [जिसका प्रताप] कोसल के [राजा महेन्द्र, महाकान्तार के [राजा] व्याघ्रराज, कौराल के [राजा] मण्टराज, पिष्टपुर के [राजा] महेन्द्रगिरि, कोट्टर के [राजा] स्वामिदत्त, एरण्डपल्ल के [राजा] दमन, काञ्ची के [राजा] विष्णुगोप, अवमुक्त के [राजा] नीलराज, वेंगि के [राजा] हस्तिवर्मा, पालक के [राजा] उग्रसेन, देवराष्ट्र के [राजा] कुबेर, कुलस्थलपुर के [राजा] धनंजय [आदि] दक्षिण भारत के राजाओं को बन्दी बना कर मुक्त कर देने की उदारता से परिपूर्ण है।


२१.   जिसने रुद्रदेव, मतिल, नागदत्त, चन्द्रवर्मा, गणपति नाग, नागसेन, अच्युत, नन्दि,३ बलवर्मा आदि [आर्यावर्त देश के विभिन्न राजाओं को बलपूर्वक उन्मूलन कर अपने प्रताप का विस्तार किया है; जिसने समस्त आटविक राजाओं को [जीतकर] अपना सेवक बनाया है;


२२. [जिसने] समतट, डवाक, कामरूप, नैपाल, कर्तृपुर आदि सीमान्त प्रदेश के राजाओं तथा मालव, आर्जुनायन, यौधेय, मद्रक, आभीर, प्रार्जुन, सनकानीक, काक, खर्परिक आदि [जन-राज्यों] को सभी प्रकार का कर देने, राजाज्ञा पालन करने, [राजधानी में] प्रणाम करने के लिए आने और [अपने] प्रचण्ड शासन (आदेश) को पूर्ण रूप से पालन करने के लिए बाध्य किया है;


२३-२५. जिसका शान्त-यश (कीर्ति), के कारण संग्राम में पराजित राजवंशों को फिर से अपने-अपने राज्य में प्रतिष्ठित करने के कारण विस्तृत भू-मण्डल के यात्रा से थकित (व्याप्त) है; [जिसके सम्मुख] दैवपुत्र  पाहि-षाहानुषाहि, शक-मुरुण्ड तथा सिंहल आदि सभी द्वीपवासी जातियों के राजाओं ने आत्मसमर्पण कर अपनी कुमारी कन्याओं को उपहार स्वरूप देकर विवाह किया है और अपने प्रादेशिक शासनाधिकार के उपभोग के निमित्त गरुड़-लांछन से युक्त राजकीय आज्ञा-पत्र की याचना की है[जिसने] अपने भुजबल के प्रसार से सकल भूमण्डल को समतल (धरणि-बन्ध)४ कर दिया; जिसका सम्पूर्ण जगत में कोई प्रतिस्पर्धा नहीं रहा[जो] अपने शताधिक सदाचरणों से विभूषित है; [जो] विविध गुणों का निधान है; [जिसने] अन्य भूपतियों के यंश को अपने पैरों तले रौंद डाला है[जो] सज्जनों के अभ्युदय और दुर्जनों के विनाश का कारण है; [जिसका] कोमल हृदय श्रद्धा से नतमस्तक लोगों के वशीभूत हो जाता है; जो मृदु हृदय (दयालु) अनुकम्पावान् है; [जिसने] लाखों गायें दान में दी हैं;


२६. [जो] दुखी, दरिद्र, असहाय और आर्तजनों के उद्धार रूपी यज्ञ में दत्तचित्त है; [जो] कल्याण का ज्वलन्त प्रतीक है; [जो] पराक्रम में कुबेर, वरुण, इन्द्र और यम के समान है; [जिसके] राजकर्मचारी उसके बाहु-बल से विजित राजाओं के वैभव पुनस्र्थापन में सदैव लगे रहते हैं।


२७-२९. [जिन्होंने अपनी] बुद्धि की तीक्ष्णता और विदग्धता तथा गान्धर्व-कला की प्रवीणता में गुरु (बृहस्पति), तुम्वरु और नारद को लज्जित कर दिया है; [जो अपने] विद्वन्समाज के बीच उपजीव्य५ है; [जिसने] अपनी काव्य रचनाओं से कविराज का पद प्राप्त किया है; [जिसके] विविध, अद्भुत एवं उदार चरित चिरकाल तक गान करने योग्य हैं; [जिसने] लौकिक व्यवहार के निर्वाह के लिए ही मनुष्य का शरीर धारण किया है। [अन्यथा जो इस ‘मर्त्यलोक में रहता हुआ] देवता है। [जो] महाराज श्रीगुप्त का प्रपौत्र, महाराज श्री घटोत्कच का पौत्र, लिच्छवि-कुल का दौहित्र और महादेवी कुमारदेवी से उत्पन्न महाराजाधिराज श्री चन्द्रगुप्त का पुत्र है; उस महाराजाधिराज श्री समुद्रगुप्त की सम्पूर्ण पृथ्वी के विजय से उत्पन्न [जो] कीर्ति समस्त विश्व में व्याप्त होकर इन्द्र के भवनों तक पहुँच गयी है, उस सुख पूर्वक विचरित ललित यश को प्रकट करने वाला यह स्तम्भ पृथिवी की भुजा के समान है;


३०. जिस [समुद्रगुप्त] का दान, बाहुबल के पराक्रम, ज्ञान आदि शास्त्रीय मान्यताओं द्वारा संचित यश, अनेक मार्गों से ऊपर उठता हुआ, शंकर के जटासमूह के बन्धन से मुक्त होकर वेग से बहती हुई गंगा की धारा के समान तीनों लोकों को पवित्र करता है,


३१-३२. उन्हीं भट्टारक [समुद्रगुप्त] के चरणों के सेवक खाद्यपाठक निवासी७, महादण्डनायक ध्रुवभूति के पुत्र सन्धिविग्रहिक, कुमारामात्य, महादण्डनायक हरिषेण की, जिसकी बुद्धि उनके समीप रहने की अनुकम्पा से विकसित हुई है, यह काव्यरचना सभी प्राणियों के लिए कल्याणकारी और आनन्ददायक हो।


३३. [इस काव्य को] परमभट्टारक (समुद्रगुप्त) के चरणों में दत्त-चित्त महादण्डनायक तिलभट्ट ने [पत्थर पर खुदवा कर] अनुष्ठित किया।


१. प्रस्तुत अनुवाद फ्लीट का कोरा अन्धानुकरण न होकर स्वतन्त्र अनुवाद हैहरिषेण की इस रचना में अनेक रूढ़-प्रयोग और पारिभाषिक शब्द हैं जिनका समुचित तात्पर्य फ्लीट ग्रहण न कर सके हैं। ऐसे स्थलों पर मूल परिभाषा ग्रहण कर अनुवाद प्रस्तुत किया गया है। अनेक शब्दों की समुचित परिभाषा हम भी ढूँढ़ नहीं सके। ऐसे स्थलों का अनुवाद संदिग्ध हो सकता है।


२. सम्भवतः यहाँ तात्पर्य उसके विरुद पराक्रम से है जो उसके कपितय के सोने के सिक्कों पर अंकित पाया जाता हैं१ 


३. भण्डारकर अच्युत और नन्दी को दो नाम स्वीकार नहीं करता वे अच्युतनन्दि एक ही नाम अनुकरण करते हैं।


४. फ्लीट ने धरणिबन्ध का अनुवाद ‘बाइंडिंग दुगेदर द होल वर्ल्ड' किया है; और उनका ही अनुसरण कर अन्य विद्वानों ने इसको ‘भू-मण्डल के बाँधने' के अर्थ में ग्रहण किया है। भण्डारकर ने इसका अर्थ 'बाँध दिया है। वस्तुतः ‘धरणि-बन्ध' भारतीय चित्रकला का एक प्राचीन पारिभाषिक शब्द है; उसका तात्पर्य चित्र प्रस्तुत करने के निमित्त समतल भूमि तैयार करना है। कवि ने यहाँ इसी पारिभाषिक शब्दावली को अपनाया है।


५. 'विद्वजनोपजीव्यनेक काव्य विक्रयाभि:' का अनुवाद फ्लीट ने ‘वेरियस कम्पोजीशन्स टैट वाज फिट टु बी मीन्स आव सबसिस्टेंस आव लर्नेड पीपुल' किया है। उन्हीं का अनुसरण कर लोगों ने इसका अनुवाद प्रायः ‘विद्वानों की जीविका के योग्य रचनाएँ किया है। वस्तुतः ‘मीन्स आव सबसिस्टेंस' के अर्थ में ‘उपजीव्य' की कोई संगीत नहीं है। ‘उपजीव्य' ऐसे शासक को कहा जाता था जो अपनी विद्वत्सभा के अध्यक्ष होते थे और स्वयं राज-कवियों को नये-नये भाव बताने की क्षमता रखने वाली काव्य-रचना की क्षमता रखते थे। भण्डारकर आदि केवल गुप्त नाम स्वीकार करते हैं।


६. भण्डारकर आदि केवल गुप्त नाम स्वीकार करते हैं। उनकी दृष्टि में भी मात्र अलंकरण है।


७. कुछ विद्वानों ने ‘खाद्यटपाकिक' का तात्पर्य किसी राज-पद विशेष से लिया है और उसे भोजन-शाला का निरीक्षक समझा है। किन्तु पंक्ति को ध्यान पूर्वक देखने पर ज्ञात होता है कि वह स्थान बाकी ही है, किसी पद का बोधक नहीं।


      इसके बाद अकबर के सुप्रसिद्ध मंत्री बीरबल का लेख ३ पंक्तियों में अंकित है


      संवत १६३२ साका १४९३ मार्गबदी पंचमी


      सोमवार गंगादाससुत महाराज वीरवर श्री


      तीर्थराज प्रयाग के यात्रा सफल लेखितम।


       जहाँगीर के लेख में कोई विशेष बात नहीं हैउसने स्तंभ को एक जगह छिलवाकर फारसी अक्षरों में अपनी वंशावली अंकित कराई है, जिसका नागरी अक्षरांतर यह है-


       ‘अल्लाह अकबर नूरुद्दीन महम्मद जहाँगीर बादशाह गाजी, या हाफिजइब्न अकबर बादशाह गाजी, या हफीज इब्न हुमायूं बादशाह गाजी, या हैय इब्न बाबर बादशाह गाजी, या कयूम इबून अमर शेखमिर्जा, या मुक्तदर इब्न सुल्तान अबू सईद, या नूर इब्न सुलतान महम्मद मिर्जा, या हादी इबून मीरा शाह, या बदीअ इब्न अमीर तैमूर साहब करा या कादिर-अहद इलाही शहर पूर माह मुवाफिक रबीउस्सानी १०१४।।'


      यह लेख १६०५ ई. का खुदा हुआ है जो जहाँगीर के राज्यकाल का पहला वर्ष था। इसमें उसकी वंशावली तैमूर तक लिखी हुई है जो उसका नवाँ मूल-पुरुष था। प्रत्येक पीढ़ी के बीच-बीच में परमेश्वर के विविध नाम दिए हुए हैं। आरंभ अल्लाह अकबर से हुआ है जो उसके पिता अकबर के समय में अभिवादन में प्रयुक्त होता था, और जिसका शाब्दिक अर्थ यह है कि परमेश्वर महानु है।


पातालपुरी का मंदिर


पातालपुरी मंदिर किले के आंगन में पूर्व वाले फाटक की ओर पृथ्वी के नीचे तहखाने में है। इसकी लंबाई पूर्वपश्चिम ८४ फीट और चौड़ाई उत्तर-दक्षिण लगभग ५० फीट है। ऊपर पत्थर की छट साढे ६ फीट ऊँचे खंभों के ऊपर ठहरी हुई है। बारह-बारह खंभों की ७ पंक्तियाँ हैं, परंतु बीचवाली पंक्ति में दोहरे खंभे है। कुल खंभों की संख्या १०० के लगभग है। पश्चिम की ओर मुख्य द्वार है, जिसमें कुछ सीढ़ियों से नीचे उतरना पड़ता हैकुछ दूर तक सीधा रास्ता पूर्व की ओर चला गया है, उसके आगे मंदिर का मुख्य भाग मिलता है। इस रास्ते में धर्मराज इत्यादि की बड़ी-बड़ी मूर्तियाँ दाहिने हाथ बैठी हुई हैं। बीच-बीच में कहीं-कहीं शिवलिंग भी स्थापित है। सब मिलाकर कुल ४३ मूर्तियाँ हैं। माना जाता है कि यह मंदिर अपनी सजावट और विलक्षण चमत्कारों के लिए विख्यात है। इसके विषय में प्रसिद्ध है कि जो कोई यहाँ एक पैसा चढ़ाए, उसने मानो और तीर्थ स्थानों में एक सहस्र सुवर्ण-मुद्राएँ चढ़ाई और यदि यहाँ आत्मघात द्वारा अपने प्राण विसर्जन कर दे तो वह सदैव के लिए स्वर्ग में चला जाता है।


सरस्वती कूप


किले में स्थित सरस्वती कूप (कुंआ) का भी खासा महत्त्व है। कहा जाता है कि गंगा, यमुना और अदृश्य सरस्वती के संगम तट पर मौजूद किले के अन्दर इस कुंए में सरस्वती का जल हैहर बसंत पंचमी पर इसे लोगों के लिए खोला जाता है। इतिहासकार मानते हैं कि इस कुंए का जल बहुत मीठा हैऔर इसे इसी उद्देश्य से बनवाया गया रहा होगा।