कविताएं - रोहित ठाकुर

रोहित ठाकुर जन्म : 6 दिसम्बर 1978 शैक्षणिक योग्यता : परा-स्नातक राजनीति विज्ञान विभिन्न प्रतिष्ठित साहित्यिक पत्रिकाओं में कविताएँ प्रकाशित, विभिन्न कवि सम्मेलनों में । काव्य पाठ वृत्ति : सिविल सेवा परीक्षा हेतु शिक्षण रूचि : हिन्दी-अंग्रेजी साहित्य अध्ययन


                                                                         - ----------------------------------


          कीलें


मेरी चप्पलों में ठुकी हुई हैं कीलें


मैं कीलों के साथ इस धरती का चक्कर लगा रहा हूँ


मेरी गर्दन में एक झोला टंगा है


मुझे हर जगह दिखाई दे रही है कीलें


बित्ते भर की जगह खाली नहीं है।


मैं एक कील चाँद पर ठोक दूंगा


मैं अपना झोला चाँद पर टांग दूंगा


चाँद की यात्रा पर मेरे साथ होगी कीलें


मैं कीलों को मानता हूँ नियति


मेरे जैसे लोगों के भीतर जो लोहा है


उससे कोई कीलें ही बनाएगा


इस नुकीले समय में 


मैं यही उम्मीद करता हूँ


            संसद


संसद कितनी असंवेदनशील है


संसद की दीवार कितनी मोटी है।


संसद एक उड़नतश्तरी है


मेरे जैसे लोगों के लिए


एक भूखा आदमी


समय को चक्रवात के रूप में परिभाषित करता है


एक आदमी अपनी जमीन बेच कर आया है


उसे लगता है कि भूकंप का केंद्र उसके पांव के नीचे है


सुबह से शाम तक एक आदमी लाइटर बेचता है


एक आदमी बेचता है हवा मिठाई


मैं उन दोनों से आँख मिलाने से बचता हूँ


उनके जीवन में आग और हवा का समीकरण


लगभग चुक गया है


एक आदमी कहता है कि अब क्रांति नहीं होगी


आगे लिखा है कि रास्ता बंद है


एक आदमी पेशाब करते हुए अपने गुस्से को थूक देता है


फिर वह नब्बे के दशक का कोई गाना गुनगुनाता है


इस संक्रमण काल में जब खतरा बना रहता है


सीटी की आवाज सायरन की तरह सुनाई देती है


बच्चों की टोली हँस रही है।


उन्होंने अपने सपने में बहते देखा है भात की नदी को 


पेड


पेड़ तुम कितने भले हो


तुम्हारी छाँव में बैठते हैं


औरत और मरद जात


गाय - गोरू


बच्चा लोग खेलता है


बारात पार्टी सुस्ताता है


यह सब देखकर


बहुत अच्छा लगता है


पेड़ तुम कितने बुरे लगते हो


जब तुम पर झूलती है


किसी लड़की की लाश


तुम्हारे डाल से लटक कर


किसान आत्महत्या करता है


तुम्हारे डाल से लटका देता है


सबल निर्बल को मारकर


तुम्हारी जड़ों से होकर


पाताल लोक तक जाता है


मनुष्य का रक्त ।।


          गोली


गोली चलाने से पलाश के फूल नहीं खिलते


बस सन्नाटा टूटता है


या कोई मरता है


तुम पतंग क्यों नहीं उड़ाते


आकाश का मन कब से उचटा हुआ-सा है


तुम मेरे लिए ऐसा घर क्यों नहीं ढूंढ़ देते


जिसके आंगन में सांझ घिरती हो


बरामदे पर मार्च में पेड़ का पीला पत्ता गिरता हो


तुम नदियों के नाम याद करो


फिर हम अपनी बेटियों के नाम किसी अनजान नदी के नाम


पर रखेंगे


तुम कभी धोती-कुर्ता पहनकर तेज कदमों से चलो


अनायास ही भ्रम होगा दादाजी के लौटने का


तुम बाजार से चने लाना और


ठोंगे पर लिखी कोई कविता सुनाना।।


                                                                                                                    सम्पर्क : जयंती-प्रकाश बिल्डिंग, काली मंदिर रोड, संजय गांधी नगर, कंकड़बाग,                                                                                                                             पटना, बिहार, मो.नं. : 7549191353