कविताएं - दीबा

दीबा शोधार्थी, हिंदी विभाग, शोध समिति की सचिव अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय अलीगढ़, उत्तर प्रदेश


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     मैं एक कविता लिखना चाहती हूं


मैं एक कविता लिखना चाहती हूं


जिसे रोज़ रोज़ पढ़ना चाहो तुम,


सारी जिंदगी


और रोज़ उसमें कुछ नया नया पाओ तुम...


एक कविता जो तुम्हें कई कई यात्राओं पर ले जाए


एक कविता जो तुम्हारे आंसुओं को पी जाए


एक कविता जो तुम्हारे जीने की वजह बने


गर ख़त्म हो जाएं सारी वजहें


एक कविता जो भारी रातों में


ठंडी हवा का झोंका हो जाए तुम्हारे लिए


मैं एक ऐसी कविता लिखना चाहती हूं...


जिसे पढ़ो तो खिल खिल जाओ तुम


तो कभी घण्टों गहरे डूबे रहो उसमें


और मंद मंद मुस्काओ तुम


कभी सुबह की महक देखो तुम उसमे


तो कभी चांदनी बन के बिखर जाए वो


हर रंग को महसूस करो तुम जिसे पढ़ कर


मैं एक ऐसी कविता लिखना चाहती हूं...


हर रंग तुम्हारे अंदर है साथी


हर खुशी तुम्हारे अंदर है।


पूरी दुनिया है तुम्हारे अंदर जिसे संवार सकते हो तुम


दुनिया को अपनी आंखों से देखना


हर खुशी को पहचान लेना तुम ।


तुम वो सारे संगीत सुनना जो तुम्हारे अंदर हैं।


और फिर पढ़ना मेरी लिखी वो कविता


जिसे मैं लिखना चाहती हूं...


जब उदास हो तुम तब भी पढ़ो उसे


जब खुश हो तुम तब भी उसे पढ़ो।


मैं एक ऐसी कविता लिखना चाहती हूं।


जो सुख दुख में चलती रहे तुम्हारे साथ हर दम


मैं लिखते लिखते, खुद ही कविता हो जाना चाहती हूं जैसे


तुम्हारी सबसे पसंदीदा कविता


मैं खुद को उतार देना चाहती हूँ उसमें


ताकि शब्द बन रोज़ तुम्हारी जुबां पर रहूं


भाव बन बस जाऊ तुम में


हमेशा के लिए


मैं एक ऐसी कविता लिखना चाहती हूं...


        मेरे घर में एक आरामदेह बिस्तर है।


मेरे घर में एक आरामदेह बिस्तर 


एक ठंडी हवा फेकता कूलर है।


जिनको पचाने के लिए कई बार


बहुत चलना पड़ता है मुझे


पर फिर भी मैं सो नहीं पाती हूँ।


कभी नहीं सो पाती हूँ मैं


एक बेचैनी है जो मुझे सोने नहीं देती।


आंख बंद करते ही।


वो लड़की जोर जोर से चीखने लगती है।


जिसके कपड़े फाड़ दिए गए हैं।


वो बच्चा रोता हुआ आता है।


जिसके पेट में भूख से बल पड़ गए हैं।


एक मां बदहवास सी बैठी दिखती है मुझे


जिसका जवान बेटा गुंडों ने मार दिया है।


एक बाप है परेशान सा


जो चक्कर लगाता है आंखों के सामने


उसकी बेटी जवान हो चली है।


सच मैं सो नहीं पाती हूँ।


जब एक किसान हाथ में अनाज के चंद दाने लिए रोता हुआ


दिखता है।


एक आदमी अपनी जिंदगी भर की कमाई को पाने के लिए


बैंक के चक्कर लगाता है।


पर कुछ नहीं पाता है।


बिना पैसों के जब कोई छोटी सी बीमारी से ही मर जाता है।


तब मैं सो नहीं पाती हूँ।


कड़ाके की ठंड और नंगे बदन


मुझे अंदर तक हिलाते हैं।


तेज़ धूप और नंगे पावं


मुझे खुद से नफ़रत कराते हैं।


एक लड़का जिसने अपनी जमीन बेच कर पढ़ाई की है।


वो बेबस सा आंखों के सामने बैठ जाता है।


तब मैं चाह के भी सो नहीं पाती हूँ।


एक पल में ही मेरा आरामदेह बिस्तर


कांटों सा लगने लगता है मुझे


एक आंसू आंख से निकल


गालों पर लुढ़कने लगता है।


तब मैं सो नहीं पाती हूँ।


यह सोने का समय ही नहीं है।


जाग जाने का समय है यह


मेरा समाज नंगा, भूखा विचलित है।


जिसके लिए हमारी नींद भयानक है।


जिसके लिए हमारी चुप्पी


धीमा जहर है........