कविताएं - अशोक सिंह

अशोक सिंह जन्म : 8 फरवरी 1971, दुमका, झारखण्ड शिक्षा :स्नातक हिन्दी । प्रकाशन : देश के विभिन्न प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाशित


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        लड़कियाँ


लड़कियाँ बनाती हैं


मकान को घर


और घर को


मकान में तब्दील होने से बचाती हैं


बच्चों के हाथ पकड़


‘ह' से हाथ लिखना सिखाने से लेकर


घर के बीमार बूढ़े-बुजुर्गों को


दवा-दारू करने तक


लड़कियाँ ही रखती है ख्याल


अपनी तमाम व्यस्तताओं के बावजूद


लड़कियों की ही खासियत है


कि एक काम पूरा करने के बाद ही


लगाती हैं दूसरे को हाथ


और तो और


नहीं भूलती इस्तेमाल के बाद


वापस निश्चित जगह पर रखना घर के सामान


इतना ही नहीं


हर चीज को देख-परख


मोल-भाव कर खरीदने की उनकी कला


और दाम से ज्यादा काम को


महत्व देने की उसकी आदत ही


बचाती है घर की फिजूलखर्ची


जगह कोई भी हो


कहीं भी हो, कैसी भी हो


लड़कियाँ ही हैं।


जो खुद को ढाल लेती हैं।


सहजता से उसके अनुरूप


कोई टीका-टिप्पणी किए बगैर


न जाने किस मिट्टी की बनी होती हैं वे


नहीं पड़ता जल्दी संगत का उस पर कोई असर


बल्कि वे ही छोड़ जाती हैं अपनी छाप


जहाँ, जिस जमात में होती हैं वे


लड़कियाँ अपनी कामयाबी का जश्न नहीं मनाती


न ही करती हैं कभी बढ़-चढ़कर उसका प्रचार


नाम-फाम की चाहत से दूर


कभी कुछ करती भी हैं तो एक हाथ से


दूसरे हाथ तक को भी पता नहीं चलता !


वे झूठ भी बोलती हैं तो सलीके से


और सच को सच की तरह


बोलने में भी बरतती हैं विनम्रता


उसकी सरलता


और भोलेपन का भी क्या कहना


गलती तो गलती


कभी-कभी बिन किए अपराधों के लिए भी


वे सहजता से


माँग लेती हैं क्षमा


बिना कोई तर्क-वितर्क किए


धैर्य और साहस में भी उसका जबाव नहीं


मुसीबतों में बन जाती है ढाल


और मुश्किलों में औजार बन, कर देती हैं।


मुश्किल से मुश्किल काम को भी आसान


और तो और


हाल-ए-दिल बयां करने के मामले में भी


जल्दबाजी नहीं करतीं वे


एक शब्द कहने से पहले


एक हजार बार सोचती हैं।


और सौ बार देखती-परखती हैं।


सामने वाले को


उसके हाथ में हाथ देने से पहले


वे होती हैं।


रिश्तों के व्याकरण में निपुण


और घर के घरेलू-गणित में पारंगत


इतना ही नहीं परंपरा का आग्रह हो


या आधुनिकता का आकर्षण


वे गढ़ लेती हैं समय के अनुकूल


अपने समय का समाजशास्त्र


उनकी पकड़ और समझ के भी क्या कहने


वे किताबों से ज्यादा आदमी के चेहरे पढ़ती हैं।


और बिना कागज कलम के लिखती हैं।


घर की परिधि में दिन भर दौड़ती-भागती


सबसे छुप-छुपाकर अपनी अनकही आत्मकथा !


       यह जो तुम्हारे गाँव से आती बस है


मेरे भीतर इंतजार भरा है इसका


मैं जानता हूँ इसका समय


इसके इंजन तक की आवाज पहचानता हूँ मैं


रोज के वे चेहरे ड्राइवर, कन्डक्टर, खलासी के


लोहे के इस ढाँचे में


मेरी संवेदना


और स्मृति का संसार लदा है।


कौन जानेगा मेरे सिवा !


इसी से आना होता था तुम्हारा


लौटना तीन-बीस की हड़बड़ी में


खचाखच भरी बस में


और वे खिड़की से हिलते हुए


विदा में मुलायम हाथ....


इस धरती पर कितनी ही बसें चलती हैं।


तुम भी हँसती हो ।


मुझे अपने गाँव की ओर जाती


बसों के समय का पता नहीं है जानकर !


मुझे इस बस से नहीं जाना कभी


शायद ही मुझे इस बस की जरूरत पड़े


पर मैं इस बस के बारे में पूरे विश्वसा से


इसके मालिक और सवारियों से ज्यादा जानता हूँ


गोकि उनके लिए यह एक सवारी गाड़ी-भर है!


रोज सुबह इंतजार होता है इसका


रोज तीन-बीस में


तुम्हारे वे हिलते हुए हाथ विदा में.....!


       सिर्फ तुम तक ही सीमित नहीं मेरी दुनिया


माफ करना!


मेरी दुनिया सिर्फ तुम तक ही सीमित नहीं है।


तुम्हारे रिश्ते की सीमा तक ही नहीं है इसका विस्तार


उसके पार भी


 दूर तक फैली फैली दुनिया से है, मेरा सरोकार


मैं अकेले जब कुछ सोच रहा होता हूँ।


तो जरूरी नहीं कि


तुम्हारे ही बारे में सोचें।


यह भी जरूरी नहीं


कि जब मैं कुछ लिख रहा होता हूँ।


तो तुम्हारे नाम प्रेम-पत्र ही लिख रहा होऊ


हो सकता है मैं


किसी के जलने-मरने


और देष के सुलगने की खबरें लिख रहा होऊ


या फिर रोते हुए बच्चों के लिए लोरियाँ


या फिर गाँव में बीमार पड़ी माँ को खत


देखो, मैं अभी तुम्हारे साथ नहीं जा सकता


मुझे माला के कमर दर्द के लिए दवाइयाँ लानी है।


और बच्चे को छोड़ने जाना है स्कूल


ऑफिस भी तो जाना है जरूरी


और मित्र राहुल को भी उसकी किताबें लौटानी हैं।


बीमार दीनबंधु को देखने जाना है अस्पताल


और शाम जन-पुस्तकालय में आयोजित वि


चार गोष्ठी में शामिल होकर रखना है।


झारखण्ड की दशा-दशा पर अपने विचार भी


इसलिए फिलहाल तुम जाओ


अभी नही जा सकता मैं तुम्हारे साथ


 


 कितना मुश्किल है


कितना मुश्किल है।


इस दौर में झूठ के खिलाफ


दहाड़ते आतंक के बीच


फटकार कर सच बोलना


उठाना असहमति में अपने हाथ


किसी गंभीर दिखती बहस में


लगभग पूरी सहमति के बीच


रात को रात


खून को खून


और दुश्मन को सीधे दुश्मन कहना


मुश्किल है कितना


याद रखना सफर की पिछली सारी बातें


और वे तमाम चेहरे भी


जिसे याद रखना


बहुत जरूरी होता है हमारे लिए!


भूल पाना अपनी इच्छाओं को


रसोई से बिस्तर तक के बीच हो रहे निरंतर .....


बाजारू हमले के बीच रहते हुए


कितना मुश्किल है।


दुनिया के टंटों से खुद को दूर रखते


एक छोटी सी साफ-सुथरी सौम्य जिन्दगी जीना


यह सच है कि


तुम्हारे बारे में सोचते हुए


एक अजीब सी खुश्बू से


भर जाती है दुनिया


पर कैसे बताऊँ कितना मुश्किल है।


एक व्यस्त शहर में रहते


दाल-रोटी की जुगाड़ में लगे रहने के बीच ।


अपनी जेब में रखी पर्स में लगी तुम्हारी तस्वीर को ।


बार-बार निकाल कर देखना


           जब भूख पर चर्चा होगी


जब भूख पर चर्चा होगी


तब रोटी का जिक्र आयेगा ही


ठीक वैसे ही


जैसे अंधेरे पर बात करो


तो उजाला आ ही जाता है बीच में ।


और गरीबी की बात पर रोटी का जिक्र


रोटी का जिक्र स्वाभाविक ही नहीं।


जरूरी भी है भूख के लिए


और भूख के लिए।


रोटी के सवाल का उठना भी तो जरुरी है।


जब हम रोटी की बात करते हैं तो जाहिर है।


हम भूखे लोगों के पक्ष में खड़े होकर


अघाए लोगों से बहस करते हैं।


अघाए लोगों का तर्क है।


कि रोटी पर बहस करना


रोटी की राजनीति करना है।


अगर यह सच है


तो मैं ऐसी राजनीति के पक्ष में हैं।


अब देखना है


कि हमारे पक्ष में कौन-कौन हैं??


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