'गांधी विमर्श - करो या मरो - नोआखाली में गाँधी - डॉ. सुजाता चौधरी

शिक्षा : एम.ए (द्वय) (राजनीतिशास्त्र, इतिहास), एल.एल.बी., पी-एच.डी., पत्रकारिता में डिप्लोमा। प्रकाशन : सैंकड़ों पत्र-पत्रिकाओं में लेख और कहानियाँ प्रकाशित।। प्रकाशित रचनाएँ: छः उपन्यास तीन कहानी संग्रह, सात पुस्तकें गांधी पर। अन्य अनेक पुस्तकें प्रकाशित। सम्प्रति : स्वतंत्र लेखन एवं सामाजिक कार्यकर्ता।


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चम्पारण यदि गाँधी के सत्य और अहिंसा की निर्भीक परख की प्रथम पाठशाला थी तो नोआखाली एक अलग सन्दर्भ में सत्य, अहिंसा, ब्रह्मचर्य एवं निर्भीकता की अंतिम प्रयोगशाला। १९४२ में भारत छोड़ो आन्दोलन'' में करो या मरो का शंखनाद करने वाले महात्मा गांधी ने अपनी सम्पूर्ण आत्मा उड़ेल कर एक बार फिर से उसी मंत्र ‘‘करो या मरो'' का आह्वान नोआखली में किया।


     मंत्र एक ही था, अंतर था तो परिस्थितियों का, मन:स्थिति का। १९४२ में इस मन्त्र का अर्थ था- उत्साह और ऊर्जा में लबालब होकर विदेशी सत्ता को उखाड़ फेंकने का, भारत को आजाद कराने का और इसके लिए आत्मबलिदान करने को भारतीय जनसमूह का एकजुट होकर प्रस्तुत होने का। नोआखाली में उदासी थी, नफरत था, भय था, धर्मोन्माद था, जिसमें मानवता शर्मसार हुई थी। यहाँ इस मन्त्र का अर्थ था- हिन्दू-मुसलमान भाई-भाई की तरह प्रेम, सहिष्णुता एवं सौहार्द के मौहाल में रखना सीखें और यदि ऐसा नहीं होता तो गाँधी अपनी कुर्बानी देने को प्रस्तुत थे।


       नोआखाली एक ऐसा नाम है जिसे कुछ वर्ष पहले तक भारत का बच्चाबच्चा जानता था। आज भी बहुत सारे लोग नोआखाली को जानते हैं परन्तु यह नहीं जानते कि नोआखाली बांग्लादेश में है, या भारत में। दो कारण से इस स्थान का नाम पूरी दुनिया में सुनाई पड़ा था। एक यहां घटित होने वाले दर्दनाक और शर्मनाक दंगे और दूसरा महात्मा गांधी का नोआखाली में जाकर चार महीने से अधिक समय तक वास करना।


      भौगोलिक दृष्टि से नोआखाली गंगा और ब्रह्मपुत्र के मुहाने पर बसा मेघना  नदी के किनारे एक जिला है जिसका मुख्यालय मैजदी है। 


       यहां की मुख्य उपज चावल, सन, नारियल और सुपारी है। यहाँ बारिश बहुत होती है। सारे जिलों में नहरों और पोखरों का जाल बिछा हुआ प्रतीत होता है। प्राकृतिक दृष्टि से अद्भुत सौंदर्य चारों ओर पसरा हुआ है। सारा प्राकृतिक दृश्य एक मुस्कुराते हुए उद्यान सदृश दिखता है। नारियल और सुपारी के आकाश छूने वाले घने झाड़ों के सिरे आपस मिलकर एक अनोखी छटा का अनुभव कराते हैं। केले, पपीते, अनानास, कटहल और आम के फल आम लोगों के लिए प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है। अफसोस कि प्राकृतिक दृष्टि से इतने सुंदर स्थान को ही सत्ता के लोलुप नेताओं ने नर्क बनाने की जिद ठान ली।


       


                                                                     नोआखाली में मार्च करते महात्मा गांधी


       मुस्लिम लीग की सीधी कार्रवाई जब कोलकाता में सफल नहीं हो पाई तो शस्य श्यामला नोआखाली पर उनका ध्यान गया। नोआखाली उस दौर में पूरे भारतवर्ष में मौलवियों और मुल्लाओं का निर्यातक था। बहुसंख्यक मुस्लिम के सामने अल्पसंख्यक हिंदुओं की संख्या नगण्य थी। पाकिस्तान प्राप्त करने के लिए नफरत, हिंसा, धर्मातरण बलात्कार जैसी घटनाओं के द्वारा अल्पसंख्यकों पर कहर ढाकर यह सिद्ध करने के लिए कि हिंदू-मुस्लिम साथ नहीं रह सकते, नोआखाली का ही चयन किया गया।


     अंग्रेजी हुकूमत इस दंगे को हवा देने में अपनी विशिष्ट भूमिका निभा रही थी। उसे अब भी उम्मीद थी कि वह दुनिया के सामने साबित कर देगी कि इस देश के नागरिक स्वतंत्र रहने की योग्यता नहीं रखते। अंग्रेजी हुकूमत अपनी चहेती मुस्लिम लीग की पीठ थपथपा रही थी। कुछ कट्टरवादी हिंदू ताकतें भी अंग्रेजी हुकूमत से पोषित होकर अलगाववाद का समर्थन कर रही थीं। १९४६ में बंगाल में मुस्लिम लीग सत्तासीन थी, और जब सत्ता ही दंगे की प्रायोजक हो तो उसकी चरमावस्था का सहज अनुमान लगाया जा सकता है। १० अक्टूबर १९४६ को नरक पाशविक लीला का तांडव नृत्य प्रारंभ हुआ। एक सप्ताह तक बाहर की दुनिया को कुछ भी पता नहीं चला। नोआखाली के सर्वनाश और निराशा की घड़ी में अंधकार के सिवा कुछ दृश्यमान नहीं था।


       दिल्ली की नंगी बस्ती के एक छोटे से कमरे में महात्मा गांधी सेवाग्राम जाने की तैयारी कर रहे थे, उसी समय नोआखाली का हृदय विदारक समाचार उन्हें ज्ञात हुआ। उन्होंने फैसला कर लिया-अब सेवाग्राम नहीं, नोआखाली जाना है।


       चर्चित अमेरिकी पत्रकार प्रेस्टन ने सवाल किया - क्या मुस्लिम लीग के होते हुए मुसलमान आपकी बात सुनेंगे?


        गांधीजी का उत्तर था- मुझे पता नहीं परंतु मुझे आशा रखने का अधिकार है। जो आदमी अपने कर्तव्य करने के लिए जाता है, वह केवल यही आशा रख सकता है कि ईश्वर उसे कर्तव्यपालन की शक्ति देगा।


        उसी ईश्वर को, अपने अंतस में बसने वाले राम के साथ अट्टहतर साल के वयोवृद्ध गाँधी हाथ में एक अहिंसक लाठी लेकर कूच कर गए ,उत्तर पश्चिम से सीधे पूरब। उस स्थान के लिए जहां दावानल धधक रहा था। जहां पहले वे कभी नहीं गए थे; जहां की न भौगोलिक जानकारी थी, न भाषा की। उन्हें चेतावनी दी जा रही थी, उनकी गाड़ी में खिड़कियों से तेजाब फेंका जा सकता है। गांधी जी के मित्रों की नजर में ऐसा खतरा उठाना उचित नहीं था पर गांधी जी नहीं माने- जब तक मैं वहां नहीं जाऊंगा, मुझे आंतरिक शांति नहीं मिलेगी। अब किसी के पास रोकने के लिए शब्द नहीं थे।


         दिल्ली से कोलकाता के रास्ते में पड़ने वाला एक भी ऐसा स्टेशन नहीं था जहाँ विशाल जन समुदाय अपने महात्मा सभा में की एक झलक पाने के लिए लालायित नहीं था।


         दंगा पीड़ित महिलाओं के साथ गांधी


        कोलकाता में किसी ने उनसे पूछा- आप यहां क्यों आए हैं? गांधी ने सहजता से उत्तर दिया- मैं बंगाल किसी का न्यायाधीश बन कर नहीं जा रहा हूं। मैं वहां ईश्वर का सेवक बनकर जा रहा हूं, जो ईश्वर का सच्चा सेवक है उसे सारी सृष्टि का सेवक बनना पड़ता है। लीगी समर्थक एक मौलवी ने आरोप लगाते हुए कहा- मुंबई, अहमदाबाद और छपरा छोड़कर नोआखाली इसी से आए हैं न, क्योंकि पीड़ित हिंदू हैं?


          गांधी का उत्तर था- आपके बताए हुए स्थान पर अवश्य जाता, यदि वहां भी नोआखाली जैसी भीषण घटनाएं हुई होतीं। अत्याचार और बलात्कार की शिकार बनी हुई नोआखाली की नारियां मुझे बुला रही हैं। आवश्यक हुआ तो मैं नोआखाली में मर जाऊंगा पर हार नहीं मानूंगा और गांधी ने हार नहीं मानी।


        अपना पूरा जीवन कसौटियों पर कसने वाले गांधी ने जीवन के हर लम्हे को एक वैज्ञानिक की तरह जिया था। नोआखाली को उन्होंने अपना प्रयोगशाला बनाकर प्रयोग करना प्रारंभ कर दिया। प्रयोग का पहला सूत्र था—निर्भीकता। बिना एक पल गंवाए गांधी अनुसंधान में जुट गए। मुस्लिम हो या हिंदू एक-एक से संवाद स्थापित करने लगे- आखिर हुआ क्या था?


         जैसा हमेशा होता है, बलशाली कमजोर को ही दोषी बनाता है। शेर और बकरी की कहानी हर स्थान पर फिट बैठती है। मस्लिम लीगियों ने रोष में भरकर बताया-यहाँ कोई दंगा नहीं हुआ है। शरणार्थियों को घर छोड़कर कहीं पर जाने की वजह झूठे अखबारी प्रचार हैं। एक लीगी विधायक ने यहां तक कहा–हिंदुओं द्वारा लीग सरकार को बदनाम करने के लिए यह सब किया जा रहा है। मुसलमानों द्वारा पन्द्रह हिंदू मारे गए जबकि सैनिकों द्वारा इसके दुगने मुसलमान मारे गए।


        गांधी ने तीखे स्वर में पूछा - इसका मतलब हिंदू ही दंगों के अपराधी हैं? इस पर कोई विश्वास नहीं कर सकता। लोग अपने घरों से क्यों भागे? लीगियों को बदनाम करने के लिए कोई अपना सर्वस्व लुटा देगा।


        गांधी समझ गए, कमजोर निरपराधियों को दोषी बनाया जा रहा है, ठीक उसी तरह जैसे चंपारण में निलहे साहब गरीब किसानों को बना देते थे। गांधी ने कट्टर नेताओं को समझाते हुए कहा-मेरे हृदय में इस्लाम के पैगंबर का आदर आपसे कम नहीं है, परंतु तानाशाही और बलात्कार किसी धर्म को भ्रष्ट करने का मार्ग है, न कि उसे आगे बढ़ाने का।।


         हिंदू अल्पसंख्यकों के भय की कोई सीमा नहीं थी। गांधी उनके अंदर निर्भीकता भरने का यत्न कर रहे थे- आप अपने अंदर के भय को निकाल दें। खतरे का सामना करने की बजाए उससे भागना मनुष्य में, ईश्वर में और अपने आप में भी श्रद्धा का अभाव सूचित करता है।


          गांधी जब चौमुहानी (नोआखाली) पहुंचे, चारों तरफ विनाश का तांडव था। गली, घर, चौराहे से सड़ांध, बदबू आ रही थी। गांधी और उनके सहयोगियों ने घरों की मरम्मत, गलियों की सफाई से लेकर टूटी सड़कों के निर्माण का जैसे जिम्मा ले लिया। पुनर्वास के लिए गृह निर्माण आदि कार्यों में लोगों को श्रमदान करने के लिए स्थानीय लोगों को राजी किया। मुस्लिमों द्वारा उनके घरों की मरम्मत, साफ-सफाई करने में श्रमदान करते देख अल्पसंख्यको हिंदुओं का विश्वास लौटने लगा। सिर्फ घरों की मरम्मत नहीं हो रही थी, दिलों की रफुगिरी करने की कोशिश भी की जा रही थी। पाँच हजार जनसंख्या वाले स्थान चौमुहानी में पन्द्रह हजार से अधिक लोगों ने गांधीजी के सायंकाल की प्रार्थना में शिरकत किया, जिनमें अस्सी प्रतिशत मुस्लिम थे। प्रार्थना सभा में रामधुन गाने के बाद गांधी ने कहा- मैं क्रोध से नहीं, दुख से बात कर रहा हूँ; जब से बंगाल आया हूं, मुस्लिम अत्याचार की भयानक कहानियां सुन रहा हूं। इस्लाम शब्द का अर्थ ही अमन और शांति है, इसमें इन बातों की इजाजत नहीं है।


       नोआखाली में गांधी अर्द्धउपवास कर रहे थे। वे छह सौ  कैलोरी से भी कम पोषण ले रहे थे- ढाई सौ ग्राम बकरी का दध और ढाई सौ ग्राम उबली सब्जी का रस। महात्मा गांधी  के लिए नोआखाली एक यज्ञ स्थली थी तभी तो उन्होंने अपने पैरों से चप्पल तक उतार दिया। उनका मानना था जिस स्थान पर निर्दोष लोगों ने इतने कष्ट सहे। उनका कष्ट तपस्या बन गया है और उस तपस्या से यह भूमि इतनी पवित्र बन गई है। कि चप्पल पहनकर चलना उन्हें स्वीकार्य नहीं था। नंगे पांव चलने से उनके पैरों में घाव हो गए थे, घाव की पीड़ा शायद उनके पीड़ित मन को संतोष देती होगी।


      महात्मा गांधी ने कठोरतम सत्य लोगों से कहा, कुछ छिपा कर नहीं रखा, कोई चीज दबाई नहीं, किसी बात में लल्लो चप्पो नहीं की, फिर भी उनकी वाणी से किसी को आघात नहीं पहुंचा।



         नोआखाली के गांवों में जो हिंदू स्त्रियां उपद्रव के दिनों में मुसलमान बना ली गई थी, उन सभी को वापस अपने मूल धर्म में लाया गया। गांधी जी के सामने उन सबने ताल के साथ मिलाकर रामधुन गाया। महात्मा गांधी के शांति मिशन के प्रभाव से थोड़ी ही अरसे में समस्त नोआखाली जिले में जबरदस्ती मुसलमान बना हुआ कोई व्यक्ति ऐसा नहीं रहा जो अपने मूल धर्म में वापस न आ गया हो। गांधी सामूहिक रूप से धर्मातरण को स्वीकार नहीं करते थे, उनकी सोच थी- अपनी जान माल को बचाने या सांसारिक लाभ पाने के लिए धर्मांतरण हरगिज़ नहीं किया जा सकता। नोआखाली में जो कुछ हुआ उसका केवल इस्लाम में ही क्यों, सभी धर्मों में निषेध है। नोआखाली के अनेक नेक मुल्लाओं ने भी इस बात का समर्थन किया कि भयभीत करके इस्लाम स्वीकार कराने से इस्लाम का अपमान होता है। इस्लाम श्रद्धा सहित धर्मग्रहण करने की इजाजत देता है।


       महात्मा गांधी एवं उनके सहयोगियों की उपस्थिति में अल्पसंख्यकों का आत्मबल लौट रहा था, किंतु वे अकेले में घबराते थे। महात्मा गांधी ने नोआखाली के लोगों के सबसे बड़े शत्रु को पहचान लिया था, और वह शत्रु था-भय। डरने वाले और डराने वाले दोनों ही इसके शिकार थे इस भय को समाप्त करने के लिए गांधीजी ने एक अलौकिक निर्णय लिया। अभी तक वे और उनके सहयोगी एक साथ किसी छावनी में रहकर लोगों के बीच काम कर रहे थे। गांधी ने कहा-मैं लोगों से कहता हूं। अकेले रहो पर डरोमत और स्वयं इतने लोगों से घिरा रहता हूं। महात्मा गांधी ने अपने तमाम साथियों को एक-एक पीड़ित गाँव में भेज दिया कि हम सब अल्पसंख्यकों की सुरक्षा में जामिन बन जाएँ। महात्मा गांधी स्वयं भी वैष्णव जन..... की प्रार्थना के बाद अकेले एक छोटी सी नाव पर सवार होकर अंधकारपूर्ण अज्ञात का सामना करने के लिए चल दिए।


      महात्मा गांधी ने नोआखाली के सैंतालिस पीड़ित गांवों का न सिर्फ भ्रमण किया बल्कि वहां रहकर समस्याओं का अंत करने के लिए अपने आपको पूरी तरह झोंक दिया। महात्मा गांधी नोआखाली में १६ घंटे तक मेहनत कर रहे थे। वे रात्रि के ग्यारह बजे सोते थे और तीसरे प्रहर दो बजे ही बजे उठ जाते थे। वे वहाँ चिकित्सक के दायित्व का भी निर्वहन कर रहे थे और साथ ही एक परीक्षार्थी की तरह बांग्ला भाषा भी सीख रहे थे। वहाँ दूसरी ओर विद्यालय की स्थापना कर रहे थे। धीरे-धीरे गांधीजी का खमीर काम करने लगा। श्रीरामपुर में छह सप्ताह रहते-रहते उन्होंने अधिकांश लोगों का दिल जीत लिया। जब भी वे बाहर निकलते सभी जगहों पर फलों की भेंट लिए मुस्लिमों की भीड़ खड़ी होने लगी। अब सब लोग यह जान गए थे कि गांधीजी हममें से एक हैं। उनके साथ मानवता का ऐसा नाता है जो जाति और धर्म के सारे भेदों से परे हैं। हिंदओं में भी गांधी जी के प्रेम के संदेश के कारण नूतन उर्जा का संचार होने लगा। ४ दिसम्बर को छह सौ हिंदू नर-नारियों और बालकों का एक जुलूस छह मील दूर गांव से खोल करताल के साथ संकीर्तन करते हुए गांधीजी के पास जब पहुंचा तो सभी विह्वल, आनंदमग्न और आत्मसंतोष से सराबोर हो रहे थे।


     भगाई हुई अथवा जबरदस्ती मुसलमान बनाई हुई स्त्रियां और लड़कियों के बारे में महात्मा गांधी के मजबूत रवैये का वांछित परिणाम यह हुआ कि पीड़ित लड़कियों को बिना किसी कठिनाई के सामान्यतः अपने परिवारों में वापस ले लिया गया। देश भर से ऐसे नौजवानों के बहुत से प्रस्ताव आए जो सारे पूर्वाग्रहों को छोड़कर औरों की अपेक्षा ऐसी लड़कियों के साथ विवाह करने को तैयार थे।


     गाँधी के हृदय की पीड़ा सिर्फ नोआखाली के हिंदुओं के लिए नहीं थी। उनका मन बिहार के पीड़ित मुसलमानों के लिए भी उतना ही तड़प रहा था। बिहार के हिंदुओं के कुकृत्य को इसके लिए माफ नहीं किया जा सकता कि दंगे की शुरुआत मुसलमानों ने की है। उन्हें विश्वास था, बदले की भावना एक दिन सब कुछ जला कर ख़त्म कर देगी। वे बिहार के पीड़ित मुसलमानों की सहायता पर अपनी पैनी दृष्टि रखे हुए थे। जवाहरलाल नेहरू, सरदार पटेल, राजेंद्र प्रसाद और बिहार के मुख्यमंत्री श्री कृष्ण सिंह के कार्यकलापों एवं दंगा पीड़ितों के पुनर्वास की मॉनिटरिंग वे अपने सहयोगियों के माध्यम से स्वयं कर रहे थे।


    महात्मा गांधी ने अपनी प्रार्थना सभा में दंगाइयों को जो सलाह दी थी, वह आज के परिप्रेक्ष्य में भी उतना ही उपयोगी और प्रासंगिक है, विश्व को विनाश से बचने का नुस्खा भी यही है। गांधी ने कहा था-प्रतिशोध न तो शांति का मार्ग है। और न मानवता का, अगर आप थप्पड़ मारने वाले को क्षमा नहीं कर सकते तो वहां जाकर कुकृत्य करने वाले दंगाइयों से बदला लें लेकिन बदले में किसी को मार देना मानव गौरव को कलंकित करना है। लेकिन इतना याद रखिएगा, खून के बदले खून का नारा देना जंगलीपन है।।


   उस समय कट्टर मुस्लिम महात्मा गाँधी पर हिन्दुओं को बचाने का आरोप लगा रहे थे तो दूसरी ओर कट्टर हिन्दुओं द्वारा मुस्लिमों को बचाने के भी आरोप लगाए जा रहे थे। परन्तु सच्चाई तो यही थी महात्मा गाँधी न हिन्दू को बचा रहे थे और न मुस्लिम को, वे पूरी मानवता को बचा रहे थे।


   नोआखाली में गाँधी ने सत्य अहिंसा, निर्भीकता के मार्ग पर चलकर इन यंत्रों के शाश्वत, सर्वकालिक, सार्वजनीन मूल्यों को स्थापित किया। नोआखाली में उन्होंने न केवल मानवीय मूल्यों की रक्षा ही नहीं की, बल्कि बेहतर मानव को गढने का प्रयास भी किया।


                                                                                                                   सम्पर्क : घूरन पीर बाबा कचहरी चौक, भागलपुर, बिहार मो.नं. : 943187167