अपनी बात - इलाहाबाद एक नशा है - गोपाल रंजन, प्रधान संपादक

गोपाल रंजन, प्रधान संपादक 


बकौल रवीन्द्र कालिया, इलाहाबाद शहर नहीं एक नशा हैइससे भले ही कोई दूर हो जाए, इसकी गिरफ्त से अलग हो पाना संभव नहीं है। इसके भीतर गाँव है और ऊपरी तौर पर शहर। विद्रोह इसके खून में हैइसीलिए कोई भी वक्त हो गलत मुद्दे पर इसने कभी कोई समझौता नहीं किया। समय बदलता रहा, सल्तनतें बदलती रहीं परन्तु इसका मिजाज नहीं बदला। यदि यह शहर जीता है तो अपनी सांस्कृतिक पहचान के साथ, अपने साहित्यिक रंग के साथ और अपने अनगढ़ स्वभाव के साथ। आप ऊपर से कोई रंग इसपर पोत दें, आन्तरिक रूप से इसके रंग को परिवर्तित नहीं कर सकते। इसीलिए जब भी इसकी पहचान होती है तो उसमें अल्हड़ सांस्कृतिक परिवेश और ठसक भरे साहित्यिक रंग के साथ होती है। मेरे एक मित्र ने लिखा है कि इलाहाबाद को जब आप छोड़ते हैं तो यह भी आपसे अलग हो जाता है। मेरी समझ से यह सही नहीं है। मुझे लगता है कि इस शहर से कोई भी व्यक्ति अपना पीछा नहीं छुड़ा सकता। जब इस ज़मीन पर आदमी साँसे लेता है तो उसे लगता है कि बहुत कठिन है यहाँ जी पाना। लेकिन जब परिस्थितिवश कोई इस शहर को छोड़कर जाता है तो इसकी धड्कन दिल में पूरी तरह बसी रहती है।


       आज इसकी पहचान बदलने की कोशिश हो रही हैलेकिन ऐसा करने वालों को यह जान लेना चाहिए कि कहीं इस बदलाव से इस शहर की साँस ही न घुट जाए। इलाहाबाद को प्रयागराज कर देना इस शहर को कहीं-न-कहीं एकांगी कर देता है। इस शहर का एक अंग प्रयाग है तो दूसरा इलाहाबाद। इलाहाबाद में पुराना और नया इलाहाबाद बसते हैं। जो अपनी शक्ल से ही अलग नजर आते हैं। तीनों को एक में मिलाया नहीं जा सकता। तीनों की अपनी अलग-अलग संस्कृतियाँ हैं। केवल धार्मिक नगरी के रूप में इसकी पहचान कायम नहीं की जा सकती और नाम परिवर्तन से इसी प्रयास का संकेत मिलता है। लेकिन यह भी सत्य है कि सारी कोशिशों के बावजूद इलाहाबाद को अस्तित्वविहीन कर देना संभव नहीं। अपने स्वभाव, अपनी संस्कृति और अपने साहित्य के दम पर इलाहाबाद हमेशा जीवित रहेगा। खबर आ रही है कि पूरा इलाहाबाद रंगों में समेटा जा रहा हैजिससे एक बड़ी आबादी कहीं-न-कहीं असहज महसूस कर रही हैसरकारों का काम प्रशासन के साथ-साथ विकास करना होता है। लेकिन यह भी देखना जरूरी हैं कि इस विकास की कीमत किस रूप में चुकानी पड़ रही हैं।


      इस अंक में इलाहाबाद की संस्कृति, साहित्य और इसके इतिहास से संबंधित काफी कुछ लिखा गया हैऔर इसके साथ ही बदलाव के प्रति असहमति का स्वर भी मुखर हुआ है। यह स्वर किसी खास वर्ग का नहीं है बल्कि इसमें बहुसंख्य लोगों की आवाज शामिल है। कुम्भ धार्मिक आयोजन से अधिक लोक सम्मिलन का पर्व है। इसे केवल अध्यात्म और धर्म के दायरे में नहीं बांधा जा सकता। इतिहास बताता है कि जब भी सियासत ने इसे संचालित करने का प्रयास किया, लोक ने कभी यह स्वीकार नहीं किया। पिछला कुम्भ इसका प्रमाण है। सरकारी आयोजन के बावजूद उसके एक वर्ष पहले ही लोगों ने कुम्भ का आयोजन कर लिया था। इसलिए लोक संचेतना को नजरअंदाज कर केवल एक पक्ष को उजागर करते हुए सफल अनुशासित आयोजन तो किया जा सकता है। लेकिन उस आयोजन में विभिन्न रंगों के दर्शन नहीं होंगे। एक बात और, कभी-कभी लाभ के लिए अलग ढंग से किया गया काम प्रतिकूल परिणाम दे जाता है। इलाहाबाद का विकास हुआ है लेकिन यह विकास स्थायी रहे तो उसका लाभ सत्ता को जरूर मिल सकता हैलेकिन अस्थायी विकास कहीं-न-कहीं भारी नुकसान भी पहुंचा सकता है। इसलिए कोई भी प्रयोग सोच समझकर किया जाए तो उससे जनमानस को भी जोड़ने में सफलता हासिल होगी। विडंबना यह है कि अभी तक जो कुछ भी नजर आ रहा है वह अल्पकालिक प्रयास ही लग रहा है। लोग विकास से खुश जरूर हैं लेकिन उनके मन में एक कशिश भी है। कहीं-न-कहीं सवाल उठ रहा है कि यह तात्कालिक लाभ के लिए तो नहीं है। इलाहाबाद बहुत सारी समस्याओं से जूझ रहा है। इस शहर के साथ बहुत अन्याय हुआ है। यहाँ चिकित्सा सम्बन्धी सुविधाओं का अभाव है। शिक्षा के क्षेत्र में चर्चित होने के बावजूद वास्तविकता में अविश्वास के वातावरण से गुजर रहा है। कभी राजधानी रहा यह शहर जिले का दर्जा लेकर जीने को मजबूर है। राजधानी गई, कार्यालय जाने लगे और अब तो असहाय सा खड़ा यह शहर खुद को ऐसे देख रहा है जैसे कोई अकेला व्यक्ति किसी चौराहे पर खड़ा हो। यदि सत्ता को स्थायी विकास देना है तो इस शहर की गरिमा को बहाल करना होगा। यहाँ इतनी सुविधाएं मुहैया करानी पड़ेंगी कि लोग अपनी छोटी-छोटी जरूरतों के लिए महानगरों की दौड़ लगाने से बच सके। विश्वविद्यालय को केन्द्रीय दर्जा दे दिया गया लेकिन क्या यह तीसरा सबसे पुराना विश्वविद्यालय सुविधा और स्तर के मामले में अपनी पहचान बना पाया। उद्योग के मामले में भी धीरे-धीरे इस शहर का क्षरण हुआ है। यदि इस समस्याओं पर ध्यान दिया जाए तो सरकार के बारे में यहाँ के लोगों की धारणा बदलेगी। वरना जो एकांगी विकास के बारे में लोगों की धारणा बन रही है, उससे सरकार अपने साथ यहाँ के लोगों को नहीं जोड़ पाएगी।


     यह अंक लम्बे समय से इलाहाबाद के महसूस करते दर्द को उकेरने के लिए लाया गया है। इसमें जहाँ इसके आध्यात्मिक और धार्मिक पक्ष को उजागर किया गया है वहीं सामाजिक, सांस्कृतिक और साहित्यिक पक्ष को विस्तार से सामने रखा गया है। यह विचारणीय विषय है कि सांस्कृतिक और साहित्यिक रूप से जो पहचान इस शहर की रही है उसे बचाने के लिए लोगों की ओर से भी प्रयास नहीं हुआ। यह शहर महानगर बनने की प्रक्रिया से जूझ तो रहा है लेकिन इसकी जो प्रकृति हैउसे ही बचाने में सक्षम नहीं हो पाया है। यह एक ऐसा दर्द है जो केवल महसूस करने से दूर नहीं हो सकता। दुनिया बहुत तेजी से बदल रही है। पूरी दुनिया एक छोटे से मोबाइल में कैद होकर रह गई है। आदमी इसे अपनी छोटी छलांग में ही कैद कर लेना चाहता है। लम्बी दूरी की दौड़ कोई नहीं करना चाहता। इसीलिए पहचान बनाएरखने के लिए अतिरिक्त श्रम और प्रयास करने की जरूरत होगी। जो केवल आमजन के लिए संभव नहीं है जब तक कि सत्ता की ओर से उसे भरपूर मदद नहीं मिले। एक और बात, इलाहाबाद समावेशी संस्कृति को जीने वाला शहर है। केवल एक रंग देकर इसकी आत्मा बचाया नहीं जा सकता। यदि सरकार चाहती है कि इलाहाबाद के सारे रंगों को बचाया रखा जाए तो इसकी सांस्कृतिक पहचान, साहित्यिक गरिमा और राजनैतिक प्रभाव को पुनस्र्थापित करना पड़ेगा। यह काम इतना आसान नहीं है।


     अंत में, इस अंक का प्रकाशन तब तक संभव नहीं हो सकता था जब तक इलाहाबाद के मित्रों का भरपूर प्यार इसे नहीं मिला होता। मैं अपने उन सभी मित्रों का आभारी हूं।