अभिमत - जरूरी सवालों पर एक सार्थक हस्तक्षेप - डॉ. अमिताभ शंकर राय चौधुरी ।


डॉ. अमिताभ शंकर राय चौधुरी । सृजन सरोकार के दूधनाथ सिंह वाले अंक का ‘आखिरी कलाम' (यानी आखिरी पन्ने पर) लिखते हुए उषा वर्मा (बिहार शरीफ) का मन्तव्य था -'असहिष्णुता, हिंसा और विभ्रम के इस अमानुषिक दौर में प्रेम और रचनात्मकता का फूल खिलाकर आपने हमें मानवीय मूल्यों के प्रति भरोसा दिया है। तो उसी ‘अभियान' की मशाल को आगे ले जाते हुए इस बार अपनी बात' में सम्पादक ने उन पुराने सवालों को फिर से उठाया जो आज भी जीवित हैं। ‘आज का समय साहित्य के लिए सबसे खतरनाक है' - खतरे की यह घंटी बजाते हुए वे यह उद्घोष करते हैं कि देश की स्वस्थ राजनीति के लिए साहित्य एक अनिवार्य शर्त है।' जाति और धर्म के नाम पर आए दिन जो अमानवीय कृत्य होते हैं और जिन पर कतिपय लोग अपनी छाती ठोंकते हैं उसकी एक निष्ठुर झलक तो ‘जीन काठी' (एस.आर. हरनोट) में ही मिल जाती है। इसी बीच साजीना राहत की ये पंक्तियां मानो ‘समयराग' का सरगम छेड़ने लगती हैं- सिरकटी लाशों की जो राख बहती थी/वह सब उसकी बेहाला छेड़ती/लहूलुहान । उंगलियों का राग बन गया था ......


     यहाँ से सीधे चलते हैं मानस के हंस के मोती बिखरने वाले के पास। अमृतलाल नागर की गगन स्पर्शी हँसी की तरह उनका निश्छल व्यक्तित्व भी सबको अपने आलिंगन में बांध लेता था। पान की लालिमायुक्त उनके होठों के रंग में सराबोर होकर आने-जानेवाले सभी गोपाल की तरह नाच उठते ! तभी तो दीप्ति जी आजतक उन अमरित बतिया को बिसरा न सकीं। खैर नागर जी की एक बात तो हम जैसे चवन्नियां लेखकों के हृदय में सदा अनुगुजित संगीत है- मेरे लिए तो सबसे बड़ा पुरस्कार है - मेरे पाठकों से मिलनेवाली सराहना और प्यार और मेरी रचनाओं से मिलने वाली रायल्टी। मेरी दिली तमन्ना है कि पूरी तरह सिर्फ अपने लेखन से मिलने वाली रायल्टी के बलबूते पर जीवन निर्वाह कर सकें।


    एस.आर. हरनोट ने लाहुल स्पिति के एक दर्द को उभारा है - किन्नर आलेख में। मीडिया और सिनेमा के उपेक्षा भरे रवैये से आज किन्नर जनजाति ही क्यों बदनाम हो गई? ‘पौराणिक ग्रन्थों ........ वेद-पुराणों और साहित्य तक में किन्नर हिमालय क्षेत्र में बसने वाली अति प्रतिष्ठित व महत्वपूर्ण आदिम जाति है जिसके वंशज वर्तमान जनजातीय जिला किन्नौर के निवासी माने जाते हैं। संविधान में भी इन्हें किन्नौरा और किन्नर से संबोधित किया गया है। तो गलत संदर्भ में इस शब्द का प्रयोग क्यों हो रहा है? और हाँ, लेख के साथ जो चित्र है, उसके नृत्य का नाम तो दे देते, जनाब।


   उसी क्षेत्र में प्रचलित भुण्डा महायज्ञ पर आशा शैली का आलेख है और हरनोट की कहानी - जीन-काठी। एक दिन के लिए बेडा जाति के अछत के किसी को ब्राह्मणत्व या देवत्व का चोला पहना कर उसे पहाड़ की चोटी से लटकती घास की रस्सी से लटका दिया जाता है। अगर बेड़ा पार चला गया तो जय-जयकार वरना वह चला अनन्त यात्रा की ओर। हमारे समाज का बीभत्स रूप देखिए कि पति के जीते जी उस दिन सुबह उसकी पत्नी को विधवा का भेस धारण करना पड़ता है। आलेख के अंतिम पैरा में लिखा है कि स्थानीय ब्राह्मण पुत्रों ने गुफ़ा में घुसकर पुरातात्विक महत्व की बहुत सी सामग्री चुराकर तस्करों के हाथ सौंप दी।' सच, हमारे देश में अत्याचार और अपराधों की दास्तान बड़ी लम्बी है। पापी भूल जाते हैं -‘शब्द और लिपियां हमारे होने के साक्ष्य हैं/हमारे इतिहास का हिस्सा हैं। यहीं से शुरू हुई थी हमारी/ सभ्यता।' (प्राचीन लिपियां - स्वप्निल श्रीवास्तव)। खैर, जीन काठी के सहजू ने बड़े ही ‘डिप्लोमेटिक ढंग' से अपने पुरखों के अपमान एवं अपने बलिदान की कीमत अदा कर ली। जीते रहो सहजू!


    इलाचन्द्र जोशी के बड़े भाई इंग्लैंड से उनके लिए मनोविज्ञान की पुस्तके भेजते रहे। सिर्फ बारह साल की उमर में उन्होंने मनोवैज्ञानिक कहानी ‘साजनवाँ' लिख डाली। तो उनके रचना-साहित्य के माध्यम से डॉ. यासमीन सुलताना नक़वी हमें इलाचन्द्र जोशी के मनोजगत का भी सैर करवा देती हैं। इला-प्रिया हरी प्रिया से भी उनके मधुर सम्बन्ध थे। नारी शक्ति के समर्थन में जोशी जी ने कहा था, 'सुनो यासमीन ! एक सत्य ऐसा आएगा जब सदियों से दबी रहने वाली नारी पुरुष वर्ग के नैतिक प्रांगण में आग लगाए बिना नहीं रहेगी।'


   यहीं जरा डॉ. कविता विकास की कहानी 'दूसरा अध्याय' पर गौर कीजिए। एक बदमिज़ाज और बात बेबात अपनी सुंदरी पत्नी पर शक करनेवाले पति से विद्रोहिनी माया जीवन के संध्या बेला में तलाक ले लेती है। जबकि बेटे ने कहा था, 'तुम अपनी जिन्दगी जीने के लिए स्वतंत्र हो। यह कदम तो तुम्हे बहुत पहले लेना चाहिए था।' (यहीं अंजू शर्मा की ‘इक्कीसवीं सदी' से सुनिए- दाँव पर आज भी द्रौपदी है। यह इक्कीसवीं सदी है) फिर भी दो एक सवाल मन में उभरता है। क्या सिर्फ बेटे की परवरिश के लिए ही वह इतने दिनों तक लांछना सहती रही? फिर वह कोई रोजगार तो करती नहीं थी तो वकील के ‘क्या करोगी?' पूछने पर उसने यह कैसे बताया कि ‘सेविंग के पैसे से काम चलाऊँगी।' नौकरी करेगी, सो तो बाद में। वैसे यह भी सच है, अवसर देख कर ही विद्रोह करना उचित है। वरना वह पागलपन /अतिवाद कहलाएगा। वैसे अंततः तलाक में ही क्या नारी मुक्ति का आफ़ताब उगेगा? हमारे यहाँ निश्छल दाम्पत्य प्रेम की छलछल कहानी क्यों नहीं होती है? नदी में आई बाढ़ अगर हमारे घरों को तबाह कर सकती है तो उसकी लाई मिट्टी में आनेवाली फसलों के लिए जीवन का उर्वर प्राणसूत्र भी तो विराजमान रहता है। तो? ।


   आइए, चाय की चुस्की लेते हुए इसी संदर्भ में समीक्षा के पन्नों पर भी गुफ्तगू कर ली जाए ..


   ‘किसी कोशिश में ही दिखती/जिन्दगी/प्यार बना रहता है।प्यार/जब तक उसे पाने/या हासिल करने की/दिखती है। कोशिश' (सामने से मेरे)-चंद्रेश्वर के कविता संग्रह पर समीक्षा लिखते हुए उमाशंकर सिंह परमार ने वाजिब फरमाया - 'मानवीय मूल्यों और आपसी भाईचारा पर हो रहे फासिस्ट हमलों और आवारा पूँजी की नापाक हरकतों के कारण कवि का गुस्सा देखने और पढ़ने की चीज नहीं महसूसने की चीज है। विशेषकर हासिल प्यार, प्यार, ...कितना सुख ..... जैसी बीसों कविताओं में 'प्रेम' की भूमिका और उसके अपरूपों को परखा जा सकता है।' चंद्रेश्वर ‘जन संगठनों और लेखक संगठनों में कार्यकर्ता रहे मगर पद और लाभ के लिए संगठनों और मंचों का उपयोग नहीं किया। उसी में - एक चरित्र - जिसे संगठन का चरित्र कहा गया है - जुमा खान - कामरेड हैं, पूँजी के खिलाफ लड़ते हैं, जमीनी कार्यकर्ता हैं। तमाम अवसरवादी अन्य पार्टी का टिकट लेकर विधायक मन्त्री बन जाते हैं। वे अपनी सियासी जमीन पर अविचल खड़ा रहते है।


   परमार ‘कुलीन लोक से मुठभेड़ करती कविताएँ' में कौशल किशोर का काव्य संग्रह ‘वह औरत नहीं महानद थी' में गोते लगाते हुए इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि वक्त के दरिया में नाव खेते हुए किस तरह कौशल किशोर धूमिल और नक्सलवादी कविता के प्रभाव से खुद को मुक्त कर लेते हैं। कौशल किशोर मूल रूप से वाम कार्यकर्ता हैं। आजीविका के लिए पत्रकारिता की, जीवन भर विभिन्न आन्दोलनों, अभियानों में आयोजनों का गुरुतर उत्तरदायित्व निर्वहन किया ....'। यहीं फिर से हम एकबार और अपनी बात' वाले पृष्ठ की ओर लौटते हैं। गोपाल रंजन उवाच- वर्तमान राजनैतिकता में, जनतंत्र के मूल समीकरण में तीव्र बदलाव हुआ है और काफी हद तक वामपक्ष ने बदलते परिप्रेक्ष्य में अपनी भूमिका को तलाशा है परंतु परिणाम को देखते हुए ऐसा महसूस होता है कि उसकी कोशिश में कहीं बड़ी व्यावहारिक बाधा है।'


   तो इस महानद में एक वाम कार्यकर्ता अपनी भूमिका को तलाशते हुए एक एक्टिविस्ट-संघर्षशील औरत की तस्वीर पेश करता है। नारी के लिए केवल यौन मुक्ति ही नहीं बल्कि एक वर्ग के रूप में संगठित होना एवं अपने अधिकारों के लिए लड़ना, यही है नव वामपंथ की उद्घोषणा।


   इतिहासविद् कवि संतोष कुमार चतुर्वेदी का संग्रह ‘दक्खिन का भी अपना पूरब होता है' की समीक्षा में अवनीश यादव ने लिखा है, इस संग्रह में कवि के भावों एवं विचारों का विस्तार है।'....बेअसर पड़ता जा रहा है सांप का जहर/ और लगातार जहरीला होता जा रहा है आदमी।' इसके बाद भी आलोचक कैसे लिख देते हैं कि -'आज हमारे समाज में आखिर ऐसी कौन सी माक्र्सवादी, वामपंथी, पूंजीवादी, हिन्दुत्ववादी, एवं साम्प्रदायिक ताकतें हैं जो हमारे जेहन में विष घोल रही हैं, मानव को दानव बनाने पर तुली हैं? क्या उन्हें नहीं मालूम कि गोरक्षा के नाम पर सिर्फ अलवर जिले में ही अप्रैल २०१७ से आजतक तीन-तीन इंसानों पर कातिलाना हमले कर उनकी हत्या कर दी गई? और तमाम हिन्दुस्तान की सरजमीं पर ऐसी हत्या की संख्या कम-से-कम ४६ है! हत्यारा जो लहू बहाता है, उसका रंग लाल होता है और जुल्म और हताशा के अंधकार को चीरकर जो अरुणोदय होता है। उसका रंग भी लाल होता है। दोनों में फर्क नहीं है?


   वहीं संतोष जी सुभाष राय के काव्य संग्रह ‘सलीब पर सच' पर टिप्पणी करते हुए लिखते हैं कि सभी शासकों ने धर्म को (शासन व शोषण के) एक औजार के रूप में भरपूर । इस्तेमाल किया। सच, जो कवि कभी किन्हीं सांप्रदायिक तत्वों से जुड़े रहे उन्होंने अपने जमीर को किस तरह सलीब पर चढ़ाया होगा कि एकदिन वे यह कह सकें -“उनसे मुझे कुछ नहीं कहना/..... जो मुर्दो की मानिन्द घर से निकलते हैं। बाजार में खरीददारी करते हैं और खुद खरीदे हुए सामान में बदल जाते हैं।


    यानी आत्मसुख में लीन दीन दुनिया से बेखुबर तबका।


     गंभीर सिंह पालनी की समीक्षित पुस्तक 'मेंढक तथा अन्य कहानियाँ' की मेंढक कहानी के बारे में डॉ. नेहा भाकुनी की टिप्पणी-भारत के गांवों और शहरों में ऐसे लाखों विद्यार्थी हैं जो विज्ञान पढ़ना चाहते हैं। बाद में वे भयावह मोहभंग और हताशा के शिकार हो जाते हैं। उसी तरह किसी कहानी में संबंधों के मिठास के बदले उपजी खटास', तो कहीं 'मनुष्य के भीतर अपराध-बोध का खत्म होना' या किसी में भगवान का नाम लेते शैतान। हमारे समाज, हमारी व्यवस्था के कृष्ण पक्ष और शुक्ल पक्ष की तस्वीर।


    मकबूल फिदा हुसैन के चित्र किस तरह सूफियाना। रंगों में सराबोर होते थे, इस पर डॉ. जूही शुक्ला ने बखूबी लिखा है। ‘सरस्वती चित्र में ........ स्त्री आकृति को उभारने के लिए काला या कहिए भूरा रंग भी .... सूफी सादगी की बयानी करता है।' या, 'हरे रंग का घोड़ा शस्य-श्यामला धरती का प्रतीक है।'


    जाते-जाते कुछ और गुनगुना लें। कोई डाक्टर अपने हुनर में कितना भी बड़ा क्यों न हो, उसका इलाज कितना भी क्यों न असरदार हो, अगर आर्थिक या अन्य कारणों से हम बीमार होने पर उन तक पहुँच ही नहीं सकते हैं तो वो धन्वन्तरी हमारे किस काम के? शोषण, अन्याय और हिंसा की भृकुटि भरे इस तमस में बेसहारा आहों को सहलाने की, दर्द से कराहते होठों पर कमसे कम खुशी की एक मुस्कान जगाने की क्या कोई जिम्मेदारी नहीं है हम कलमकारों पर? क्योंकि 'तख्त पर भूल-गलती/आज बैठी है जिरह बख्तर पहन कर दिल के/चमकते हैं खड़े हथियार उसके दूर तक/आँखें चिलकती हैं नुकीले तेज पत्थर-सी/खड़ी हैं सिर झुकाये/ सब कतारें/बेजुवाँ सलाम में। (मुक्तिबोध: भूल गलती)


    तो सबसे पहली शर्त है कि हम जिनके लिए लिख रहे हैं, हमारी कहानी/कविता उनके पल्ले तो पड़े। फिर तो आनन्द आने या प्रबुद्ध करने की या जज्बा भरने की बात आएगी।


   तभी तो हमने सूरज के लिए' में फूलचन्द गुप्ता ने लिखा है:- (हमने) मजदूरों, किसानों, शोषितों .... और तमाम वंचितों के हितों में ... कविताएँ लिखीं / सारी पृथ्वी पट गई कविताओं से। लेकिन नतीजा फिर वही/ढ़ाख के तीन पात !/उन्हें मालूम ही नहीं था/ हम उन्हें ही मजदूर, किसान, दलित,...... वंचित के नाम से पुकारते हैं।


   आज के अभियान में हमारे मशालची राजेन्द्र आहुति का आह्वान सुनिए- सभी आते हैं सड़क पर/घर के लिए/ फिर न जाने क्यूं सड़क पर आ जाने से/हर आदमी डरता है।


    यहीं दुष्यन्त कुमार याद नहीं आते ? - दस्तकों का अब किवाड़ों पर असर होगा ज़रूर/ हर हथेली खून से तर और ज्यादा बेकरार।


    चूंकि समीक्षा करना एक टेढ़ी खीर है और यह बनारसी बजरबट्ट बंगाली साहित्य की बलिवेदी पर शहीद होने को लालायित नहीं है यानी अगर कहीं जुबान फिसल गई हो तो हे कृपासिंधु, कृपा करें! तो चाय की आखिरी चुस्की लेते हुए तुलसी बाबा को ही अपना वकील बना लेते हैं- जौं अनीति कछु भाषौ भाई। तौ मोहि बरजहु भय बिसराई।।


    । अंत में आप सब रचनाकारों एवं पाठकों को आलिंगन एवं अभिनन्दन करते हुए मंगलेश डबराल के एकाउन्ट से कुछ यूं निकाल भी लें- हमें वे शब्द दो जिनके बीच कभी तो होगा यू निकाल भी ले- हमें वे शब्द दी जिनक ब / हमारा सूर्योदय।।


                                                                                                                                     सम्पर्क : सी, 26/35-40, रामकटोरा, वाराणसी-221001, उत्तर प्रदेश,                                                                                                                                                                मो.: 09140214489, 09455168359


                                                                    ऊषा गंभीरता और दायित्व बोध


                                                                                                                                  ऊषा वर्मा


 ‘   सृजन सरोकार' का जुलाई-सितम्बर १८ अंक मिला। पिछले अंकों की तरह इस अंक ने भी भरोसा दिया कि यह जनपक्षधरता की मशाल बनकर साहित्य का वास्तविक उत्तरदायित्व संभालेगा, गंभीर शोधात्मक, अन्वेषी, कलात्मक रचनाओं के द्वारा मनुष्यहित में सार्थक बहस करता यह मंच हमें सुखद अनुभूति दे रहा है। आज जीने का जो माहौल बन रहा है, वह सबको रौंदता हुआ, मनुष्य को निगलता हुआ बेखौफ आगे बढ़ रहा है। मनुष्य को बचाए रखने की कोई आवश्यकता वहाँ नहीं है, बल्कि वही सबसे फालतू विषय है। ‘सृजन सरोकार' में रचनाओं का चयन निश्चित रूप से बहुत गंभीरता और दायित्व बोध के साथ किया जा रहा है।


      सर्वप्रथम अमृतलाल नागर पर भावभीना संस्मरण नागर जी के खुले, उदार और जीवन्त व्यक्तित्व की व्यापक संसार को उजागर करता है। नागर जी की सम्पूर्ण लेखनी भावभीनी संवेदनशील रचनात्मक दक्षता की मिसाल है। एस.आर. हरनोट का ‘किन्नर' और 'जीनकाठी' उनकी अपार विद्वता और गहन रचनात्मकता का परिचायक है। आशा शैली का *भुण्डा महायज्ञ' अच्छी शोधपूर्ण जानकारी देता है। हरनोट की कृतियों से गुजरना एक विस्मयकारक आनंद है।


      ‘समकालीन कवियों का देशान्तर' हमें पचास वर्षों की राजनीतिक चेतना के प्रखर कवियों की राजनीतिक प्रबुद्धता से परिचित कराते हुए विश्व धरातल पर राजनीतिक रुझान पर प्रतिबद्ध कवियों का विश्लेषण देता है। ये सभी कवि विश्व की आकुल आवाज हैं, मनुष्यत्व के प्रति गहन संवेदनशीलता से प्रतिबद्ध हैं, समर्पित हैं।


      कहानियाँ अच्छी हैं। कहीं शोधपरक गहरा व्यंग्य है। (ताजपोशी), आकित करने वाला, कहीं रूह भी सहजता (असामान्यता) है, कहीं विद्रोह का साहसिक विस्फोट (दूसरा अध्याय) है, कहीं पारंपरिक भव्यता के साथ मनुष्य की जिजीविषा (जीनभाग) है तो कहीं बदलते हालात में मनुष्य की पराजित होती, दयनीय होती जाती परिस्थिति (बहुवंश) है। डॉ. हरनोट की ‘जीनकाठी' अपने काव्य और शिल्प की सघन बुनकारी में मुग्ध करती है।


     कविताओं का चयन मनोहर है। हवाओं में खिलती फूलती खुशबू उड़ाती, चकमक सी कतार, कविता के संसार को नापने निकले पर्यटक का विहार। विभिन्न संवेदनाओं पर निर्मित, विभिन्न संवेदनाओं पर निर्मित, विभिन्न रंग-रोशन से सजे छोटे-छोटे महल।


     मकबूल फिदा हुसैन कहीं से विवादास्पद कलाकार नहीं हैं, उन्हें विवादास्पद बनाया गया है। इसके अनेक कारण । वह सिर्फ एक विलक्षण, समर्पित महानु चित्रकार हैं। कला की बारीकियों ने डूबकर, कला की नई तह तक जाने की साधना जो नहीं जानते, सर्जनात्मकता की सूक्ष्म सीढ़ियों को चढ़कर अनुभूतियों का वाहक अनुपम गृह में पहुंचकर प्राप्त उपलब्धियों को नहीं मानते, वही उन्हें विवादास्पद बनाते हैं। उनपर सामग्री देकर स्पष्ट किया गया है कि सूफी भावना की अभिव्यक्ति का साधन साहित्य और संगीत ही नहीं रंग और रेखाएँ भी हैं। हुसैन ने इसकी विशिष्ट प्रस्तुति की है। डॉ. जूही शुक्ला इसके लिए धन्यवाद की पात्र हैं।


     चार पुस्तकों की समीक्षाएँ हैं, स्तरीय हैं, उत्कृष्ट भी हैं। ‘मेढ़क तथा अन्य कहानियाँ' (गंभीर सिंह पालनी) की समीक्षक डॉ. नेहा भाकुनी ने एक-एक कहानी का परिचय देकर उसकी विशेषताओं का सूक्ष्म विवेचन किया है तथा व्यवस्था के विद्रूप से जूझते हुए मनुष्य की सच्चाई को दिखाया है। ‘दक्खिन का भी अपना पूरब होता है' (सन्तोष कुमार चतुर्वेदी) कविता संग्रह में संकलित कविताओं का विवेचना द्वारा अवनीश यादव ने स्पष्ट किया है कि कवि ने दमित, उपेक्षित, पीड़ित वर्ग की व्यथा कथा कहकर आज के विषधर समाज की कलई को खोला है, जो प्रासंगिक है, सत्य है।


     उमाशंकर सिंह परमार ने, 'वह औरत नहीं, महानद थी' (कौशल किशोर) की समीक्षा करते हुए स्पष्ट किया है। कि इस कविता संग्रह में दो समयों की कविताएँ हैं। कुछ साठोत्तरी कविताओं की भावनाओं पर आधारित है और कुछ नए विजन के साथ आधी आबादी को समर्पित हैं। समीक्षक उमाशंकर सिंह परमार ने इन कविताओं को गहन विश्लेषण करते हुए समय की धारा और चुनौतियों का सहज संवेदनापूर्ण मार्मिकता के साथ प्रस्तुत किया है। समीक्षक उमाशंकर सिंह परमार ने ही ‘सामने से मेरे' (चंद्रेश्वर) की समीक्षा की है। उनका कहना है कि कवि की वेदना और समझ युग की विभीषिकाओं का चित्र खींचकर संभावनाओं का शक्तिशाली स्थापत्य रचती है। चंदेश्वर भाव और शिल्प दोनों के प्रति सजग हैं तथा ‘सामने मेरे' में वर्तमान में घटती समस्याओं को सामाजिक ऐतिहासिक शक्तियों से जोड़कर देखते हैं। कवि की चरित्र आधारित कविताएँ बहुत प्रभाव डालती हैं। समीक्षक उमाशंकर सिंह परमार का समीक्षा कौशल उन्हें एक संवेदनशील कवि का भी खिताब देता है।


    कुल मिलाकर ‘सृजन सरोकार' का यह अंक सुखद, सन्तुष्टि की अनुभूति देता है। 


                                                                                                                                                                                                मो.नं. : 7352622062