हिन्दी के प्रतिष्ठित लेखक और पत्रकार। जनसत्ता से अपना कैरियर आरम्भ कर अमर उजाला और हरिभूमि जैसे कई प्रतिष्ठित अखबारों से जुड़े रहे। सम्प्रति : राज्य सभा टीवी में वे संसदीय और कृषि संबंधी विषयों के प्रभारी। हिन्दी अकादमी, इफको हिन्दी सेवी सम्मान और भारत सरकार के शिक्षा पुरस्कार समेत कई पुरस्कारों से सम्मानित एवं कई पुस्तकों के लेखक।
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उत्तर प्रदेश को कई कारणों से भारत का भाग्य विधाता राज्य कहते हैं। स्वाधीनता आंदोलन और गंगा-जमुनी तहजीब का केंद्र रहने के अलावा करीब २२ करोड़ की भारी भरकम आबादी वाले इसी प्रांत से दिल्ली की सत्ता का रास्ता भी जाता है। उत्तर प्रदेश से लोक सभा के ८० और राज्य सभा के ३१ सदस्य चुने जाते हैं। वहीं दो सदनों वाले उत्तर प्रदेश विधान मंडल में विधान परिषद के १०० और विधान सभा के ४०४ सदस्य हैं। उत्तर प्रदेश के इन दोनों सदनों ने अपने कामकाज से संसदीय इतिहास में एक अलग पहचान बनाई है। चाहे वह संसद हो या उत्तर प्रदेश का विधान मंडल, दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र की शान इन दोनों सबसे ताकतवर संस्थाओं पर किसी एक नगर ने अगर सबसे अधिक छाप छोड़ी है तो वह इलाहाबाद ही है। समय के साथ वैसे तो संसदीय राजनीति में तमाम दूसरे इलाकों के नायक हावी होते गए और बहुत कुछ तस्वीर बदली है। लेकिन इलाहाबादी नायकों ने जो लकीर खींची, वहां तक पहुंच सहज बात नहीं है।
दरअसल देश के तमाम नगरों में इलाहाबाद ( अब प्रयागराज) की तमाम क्षेत्रों में एक विशिष्ट पहचान रही है। साहित्य, राजनीति, कला, शिक्षा, न्याय, प्रशासन और तमाम दूसरे क्षेत्रों में इस नगर ने एक से एक शानदार प्रतिभाएं दी हैं। किसी भी नगर का अगर बहुत वैभवशाली और गौरवशाली इतिहास होता है तो उस पर समय के साथ तमाम परतें चढ़ती जाती हैं। इसी कड़ी में आज बहुत इलाहाबाद के ही बहुत से लोग इस तथ्य से अनजान हैं कि उत्तर प्रदेश का विधाई इतिहास इसी नगर से आरंभ हुआ था।
दरअसल १८५७ की महान् क्रांति की समाप्ति के बाद अंग्रेजों ने इलाहाबाद को नार्थ वेस्टर्न प्राविंस की राजधानी बनायायह नाम १९०२ में बदल कर संयुक्त प्रांत और १९५० में उत्तर प्रदेश हुआ। इलाहाबाद के बाद अंग्रेजी राज के दौरान ही लखनऊ उत्तर प्रदेश की राजधानी बन गया लेकिन तमाम महत्व की संस्थाओं के साथ न्यायिक राजधानी इलाहाबाद ही बना रहा। लेकिन इसमें भी सबसे खास बात यह है कि उत्तर प्रदेश का विधाई इतिहास इलाहाबाद में विधान परिषद् की स्थापना से शुरू हुआ। यह विधान परिषद भारत का चौथा सबसे पुराना सदन माना जाता है।
आज के कंपनी बाग या एल्फ्रेड पार्क में स्थित राजकीय पुस्तकालय, जो थार्नहिल मेमोरियल के नाम से भी जाना जाता है, वहीं पर ८ जनवरी, १८८७ को विधान परिषद की पहली बैठक हुई थी। १८६४ में बनी थार्नहिल मेमोरियल की शताब्दी के खास मौके पर १९६४ में लाल बहादुर शास्त्री ने इस पुस्तकालय को ज्ञान का मंदिर कहा था। पहली बार गठित विधान परिषद या लेजिस्लेटिव काउंसिल में तब केवल ९ मनोनीत सदस्य थे। इसमें भी केवल चार सर सैय्यद अहमद खां, राजा प्रताप नारायण सिंह, राय बहादुर दुर्गा प्रसाद और पंडित अजुध्या नाथ ही भारतीय थेये उस दौर की नामी गिरामी हस्ती थे। थार्नहिल मेमोरियल की इमारत दरअसल १८६४ में बनी थी।
यह विधान परिषद् इलाहाबाद में २६ नवंबर, १८८६ को जारी एक विज्ञप्ति के तहत नार्थ वेस्टर्न प्रोविंसेज एंड अवध लेजिस्लेटिव काउंसिल के नाम से ५ जनवरी, १८८७ से अस्तित्व में आई। परिषद के पास कोई स्थाई भवन नहीं था और बैठकें कई जगह होती थीं। लेकिन १८८७ से १९२० तक परिषद् की १५६ बैठकों में से अधिकतर इलाहाबाद में ही हुई। थार्नहिल मेमोरियल में १४, मेयोहाल में १७, म्योर सेंट्रल कालेज में तीन और गवर्मेंट हाउस में तीन बैठके हुईं। गवर्मेंट हाउस आज इलाहाबाद के मेडिकल कालेज के आवासीय परिसर में समाहित हो चुका है। उसके कुछ अंश ही बचे हैं। इलाहाबाद में ही लगभग ३८ महत्व के विधेयक और चार आम बजट विधान परिषद् में पास हुए और तमाम अहम फैसले लिए गए। पश्चिम बंगाल के मौजूदा राज्यपाल केसरी नाथ त्रिपाठी की खास पहल पर इस जगह को फिर से महत्ता मिली और यहां शिलापट्ट लगा। दरअसल वे उस समय विधान सभा के अध्यक्ष थे और उस समय विधान मंडल के स्थापना के उत्तरशती समारोह को ८ जनवरी २००३ को इलाहाबाद में समारोह के साथ मनाया गया। तब यहां के विधाई इतिहास के बारे में लोगों को जानने का मौका भी मिला।
८ जनवरी १८८७ को नार्थ वेस्टर्न प्राविंसेस एंड अवध की लेजिस्लेटिव कौंसिल की पहली बैठक हुई और जिसका उद्घाटन परिषद के तत्कालीन अध्यक्ष और उप राज्यपाल सर अल्फ्रेड ल्याल ने किया। लेकिन परिषद ने पहला विधेयक १९ फरवरी, १८८७ की बैठक में पारित किया। ये १८८७ का एक्ट संख्या १, नार्थ वेस्ट प्राविसेज एंड अवध जनरल क्लाजेज एक्ट के नाम से जाना जाता है। १८८९ में एक्ट संख्या-९ पटवारियों के वेतन से संबंधित था, जबकि १८९० का एक्ट संख्या २० प्रांत के प्रशासन की प्रादेशिक सीमाओं के पुनर्गठन के बाबत था।
१८९२ के इंडियन काउंसिल एक्ट में संशोधन के बाद विधान परिषद् सदस्यों की संख्या १५ हो गई। १९०९ में मार्ने मिंटो सुधारों के तहत भारतीयों का प्रतिनिधित्व और बढ़ा तो सदस्यों की संख्या ५० तक हो गई। बढ़े सदस्यों में अधिकतर गैर सरकारी थे और इनका निर्वाचन स्थानीय निकायों, बड़े उद्यमियों, व्यापारी संघों और विश्वविद्यालयों से कराए जाने का प्रावधान हुआ। भारत सरकार अधिनियम, १९१५ के तहत सदस्यों की संख्या ११६ और फिर १९१९ में १२३ हो गई। इलाहाबाद १९२२-२३ तक प्रदेश की राजधानी बना रहा लिहाजा विधाई कामों में उसका खास योगदान रहा और उसकी राजनीतिक हैसियत काफी रही।
परिषद् के सदस्यों में इसके गौरव और महान नायक पंडित मदन मोहन मालवीय और पंडित मोतीलाल नेहरू का जिक्र यहां उल्लेखनीय है। पंडित मदन मोहन मालवीय जनवरी १९०३ में परिषद् का सदस्य बने तभी यहां का नजारा बदलने लगा। सरकार पर सवालों की झड़ी लगने लगीउनके प्रवेश के साथ राष्ट्रीय आंदोलन की ऊष्मा भी सदन में पहुंची। १५ अप्रैल १९०५ को मालवीय जी ने प्रांतीय सरकार के बजट पर जोरदार हमला किया। उन्होंने कहा कि सेना के उच्च पद भारतीयों को नहीं दिए जा रहे हैं। प्रांतीय उद्योगों को संरक्षण देने और चीनी उद्योग के विकास की भी वकालत उन्होंने की।
शिक्षा के प्रति उनका खास अनुराग किसी से छिपा नहीं रहा। बाद में १९०९ में मालवीय जी केंद्रीय विधान परिषद का सदस्य बन कर कोलकाता चले गए। बाद में वे कांग्रेस के अध्यक्ष बनने वाले यूपी के पहले व्यक्ति थे।
मालवीयजी की रिक्तता तुरंत पंडित मोतीलाल नेहरू ने भर दी। वे ७ फरवरी, १९१० में परिषद् के सदस्य बने तो सरकार पर कठोर प्रहार शुरू हो गया। उन्होंने एक से एक नजीर पेश की। लेकिन बाद में उनकी सोच में काफी तब्दीली आ गई और करीब दो सालों तक वे मौन रहे और कामकाज में दिलचस्पी लेनी बंद कर दी। उन्होंने राष्ट्रीय आंदोलन में अपनी व्यस्तता के कारण १५ दिसंबर, १९२० की बैठक में परिषद् की सदस्यता त्याग दी। उनका त्यागपत्र आज भी परिषद के इतिहास का एक अहद दस्तावेज बना हुआ है।
परिषद् के अन्य सदस्यों में सर तेज बहादुर सपू कानून के अनूठे जानकार थे। वे १९१३ में सदस्य बने और तीन सालों तक अपनी आभा बिखेरी। बाद में वे चार साल तक केंद्रीय विधान परिषद् में रहेपहली बार १३ मार्च १९१३ को डाक्टर तेज बहादुर सपू ने परिषद् के अपने भवन और सदस्यों के लिए एक स्वतंत्र पुस्तकालय की स्थापना का मसला उठाया। उन्होंने अपनी मद्रास यात्रा के दौरान परिषद् का शानदार भवन और पुस्तकालय देखा था। बंगाल में पहले ही भवन बन चुका था, इस नाते उन्होंने सरकार पर दबाव डाला कि परिषद का अपना भवन और पुस्तकालय होना चाहिए।
विख्यात् पत्रकार सी.वाई. चिंतामणि १९१६ में परिषद के सदस्य बने। वे लीडर अखबार के संपादक थे, लेकिन उनका अनूठा संसदीय ज्ञान था। १९२१ में वे संयुक्त प्रांत में मंत्री भी बने। एक सैद्धांतिक सवाल पर राज्यपाल से विवाद हुआ तो एक मिनट में त्यागपत्र दे दिया। वे विरोधी दल के नेता भी बने। उन्होंने १६ साल तक परिषद् का सदस्य रहने के दौरान अनूठी छाप छोड़ी।
दिलचस्प बात यह है कि पंडित जवाहर लाल नेहरू भी १९२१ में परिषद् का सदस्य बनने-बनते रह गए। मोतीलाल नेहरू उनको १९२१ में विधान परिषद् का सदस्य बनाना चाहते थे और फतेहपुर निर्वाचन क्षेत्र भी तय कर दिया गया था। लेकिन पंडित जवाहर लाल नेहरू की इसमें दिलचस्पी नहीं थी। वे गांधीजी के परिषद् के बहिष्कार के फैसले से जुड़े थे। दरअसल २२ अगस्त, १९२० को आनंद भवन में हुईबैठक में परिषद् चुनाव के बहिष्कार का फैसला पंडित मदन मोहन मालवीय के प्रस्ताव पर हुआ था। हालांकि इसी के कुछ साल बाद पंडित जवाहर लाल इलाहाबाद नगर पालिका के चुनाव में उलझ गए और वे दक्षिणी कोतवाली क्षेत्र से चुनाव जीते। तब वे प्रदेश कांग्रेस के महामंत्री थे।
विधान परिषद् में आजादी के बाद इलाहाबाद के तमाम नेता सदस्य रहे। इसमें विख्यात् इतिहासकार डाक्टर ईश्वरी प्रसाद १९५२ से १९७० तक सदस्य रहे। जबकि हिंदी कीजानी मानी लेखिका महादेवी वर्मा १९५२ से १९५८ के मनोनीत सदस्य रहीं। अन्य सदस्यों में पायनियर के संपादक सुरेंद्र नाथ घोष, विश्वभरनाथ पांडेय, माधव प्रसाद त्रिपाठी, पत्रकार पीडी टंडन से लेकर विश्व नाथ प्रताप सिंह जैसे तमाम नाम शामिल रहे हैं।
दरअसल विधान परिषद् की स्थापना की पृष्ठभूमि १८५७ की महान् क्रांति थी। उसी समय ईस्ट इंडिया कंपनी की सत्ता ब्रिटेन के सम्राट के हाथों चली गई। देश में प्रतिनिधि संस्थाओं की स्थापना की राह प्रशस्त हुई। इंडियन काउंसिल एक्ट, १८६१ के तहत बंबई, मद्रास और बंगाल में विधान परिषदें बनीं। हालांकि सबसे ज्यादा आबादी वाला इलाका होने के बाद भी मौजूदा उत्तर प्रदेश में २५ साल बाद जो विधान परिषद् बनी, वह बाकियों से अलग रही। दूसरे राज्यों में परिषदों का नियंत्रण राज्यपालों के हवाले था लेकिन यहां उप राज्यपाल के जिम्मे। आरंभिक दिनों में परिषद् के सदस्यों का कार्यकाल दो साल का था। तमाम बंदिशें भी थी लेकिन बावजूद इसके परिषद् ने धीरे-धीरे शानदार काम किया और नई परंपराएं स्थापित कीं।
विधान परिषद् ने १९१० से १९२० के दशक में शानदार काम किएकानपुर एग्रीकल्चर कालेज, लखनऊ मेडिकल कालेज और लखनऊ विश्वविद्यालय की स्थापना इसी दौरान हुई। रुड़की के थामसन कालेज को नया रूप मिला। इलाहाबाद विश्वविद्यालय और इलाहाबाद हाईकोर्ट की शानदार इमारतें भी इसी दौरान बनीं। साथ ही कुली बेगार सहित कई कुप्रथाओं पर भी अंकुश लगा। परिषद् में ही आजादी की लड़ाई में समर्थन देने के एवज में पत्र-पत्रिकाओं की जब्ती का मसला भी बाद में उठा और सरकार ने माना कि १९२७ से १९३० के दौरान ११ पुस्तके जब्त हुई, उनमें पंडित सुंदरलाल की भारत में अंग्रेजी राज, गणेश शंकर विद्यार्थी की आयरलैंड का स्वाधीनता संग्राम, चांद को फांसी अंक प्रमुख थे।
विधान परिषद् के सभापति सर सीताराम की अध्यक्षता में ११ फरवरी, १९३१ को हुई बैठक में पंडित मोतीलाल नेहरू और मौलाना मुहम्मद अली के निधन पर शोक प्रस्ताव पास कर सदन की बैठक स्थगित करने का ऐतिहासिक फैसला हुआ। सदन के रिकार्ड में दोनों नेताओं के योगदान की अनूठी सराहना सदन में की गई। मोतीलाल जी पर सभापति की टिप्पणी की थी कि उन्होंने राजकुमार जैसा जीवन शुरू करके किसान सा जीवन जिया..अपनी इच्छा से गरीबी ओढ़ी और अपना सब कुछ देश को कानूनी अधिकार दिलाने के संघर्ष में लगा दिया।
आर्सेभिक दिनों में विधान परिषद की कार्यवाहियां अक्षरशः लिखी नहीं जाती थीं। एक संक्षिप्त रिपोर्ट बनती थी,जिस पर उप राज्यपाल का हस्ताक्षर होता था। आज भी सुरक्षित १८९३-९४ के दौरान की हाथ से लिखी कई कार्यवाहियां परिषद् के शानदार इतिहास की साक्षी हैं। ये लखनऊ, बरेली और इलाहाबाद से संबंधित हैं।
उत्तर प्रदेश विधान सभा और इलाहाबाद
विधान परिषद् ने १८८७ से १९३६ तक लगातार एक मात्र सदन के रूप में काम किया। बाद में विधान सभा का गठन हुआ तो भी उसकी बुनियाद रखने में भी इलाहाबादी नायकों का खास योगदान रहा। भारत सरकार अधिनियम, १९३५ के तहत जब प्रांतीय स्तर पर अधिक स्वायत्तता मिली तो ११ प्रांतों जिसमें संयुक्त प्रांत भी शामिल था, उनमें विधान सभाएं स्थापित करने का प्रावधान हुआ। इसमें से छह प्रांतों मद्रास, बांबे, बंगाल, संयुक्त प्रांत, बिहार और असम में दो सदनीय व्यवस्था हुई। १९३७ में संयुक्त प्रांत की विधान सभा के पहले अध्यक्ष इलाहाबाद के ही नायक राजर्षि पुरुषोत्तम दास टंडन बने। इसी तरह पहले मुख्यमंत्री पंडित गोविंद बल्लभ पंत की भी राजनीतिक दीक्षा इलाहाबाद में ही हुई थीये दोनों नायक कालांतर में भारत रत्न से सम्मानित हुए।
राजर्षि टंडन ३१ जुलाई १९३७ को जब पहली बार विधान सभा अध्यक्ष बने तो उन्होंने सदन में साफ किया कि वे राजनीति में भाग लेना जारी रखेंगे। उन्होंने ऐलान किया, वे देश की राजनीतिक स्वतंत्रता के लिए सतत् काम करते रहेंगे और विधान सभा में उनकी उपस्थिति उसी दिशा में एक कदम मात्र है। सक्रिय राजनीति में भाग लेते रहने के बावजूद उनकी निष्पक्षता पर सवाल नहीं उठा। उनकी ही देन थी कि उत्तर प्रदेश हिंदी के कामकाज में अग्रणी बना। आजादी के बाद जब विधान सभा की पहली बैठक ३ नवंबर, १९४७ को आरंभ हुई तो अगले ही दिन संकल्प पारित किया गया कि विधान सभा के सभी काम केवल हिंदी में होंगे। इसके पहले ही उन्होंने १९३७ में कई भूमिकाएं तय कर दी थीं। वंदेमातरम गाया जाना तब निषिद्ध था, लेकिन टंडनजी ने १९३७ में ही विधान सभा की कार्यवाही इसके सस्वर पाठ से शुरू करा दी। उनके कई फैसलों ने अंग्रेजों को आतंकित कर दिया। उसी दौरान इलाहाबाद की ही बेटी विजयलक्ष्मी पण्डित भारत के राजनीतिक इतिहास की पहली महिला मंत्री थीं। वे संयुक्त राष्ट्र की पहली महिला अध्यक्ष और स्वतंत्र भारत की पहली महिला राजदूत भी रहीं।
१९४६ में विधान सभा के आम चुनाव में फिर गोविंद बल्लभ पंत मुख्यमंत्री और राजर्षि पुरुषोत्तेम दास टंडन विधान सभा अध्यगक्ष बने। उसी दौरान भारत की संविधान सभा का चुनाव भी हुआ, जिसके ३१० सदस्यों में से जो ५५ सदस्य उत्तर प्रदेश से चुने गए। इसमें पंडित जवाहर लाल नेहरू, पुरुषोत्तम दास टंडन, गोविंद बल्लभ पंत और फिरोज गांधी समेत कई दिग्गज शामिल थे।
उत्तर प्रदेश विधान सभा की गरिमा को बुलंदी पर पहुंचाने का श्रेय राजर्षि पुरुषोत्तम दास टंडन को जाता हैजेल में रहने के दौरान भी वे विधान सभा सचिवालय के जरूरी काम वहीं से करते थे। उनके अध्यक्ष काल में जैसे ही जमींदारी उन्मूलन विधेयक सदन से पारित हुआ तो १० अगस्त, १९५० को उन्होने त्यागपत्र दे दिया। टंडनजी ने सदन में कहा कि मैं अध्यक्ष पद से त्यागपत्र देने के लिए इस विधेयक के पारित होने की प्रतीक्षा कर रहा था। बाद में वे इलाहाबाद से १९५२ में लोकसभा के लिए निर्विरोध जीते और १९५७ में राज्यसभा के सदस्य भी रहे और भारत रत्न से सम्मानित किए गए।
स्वाधीनता आंदोलन और राष्ट्रनिर्माण में भूमिका
भारत के स्वतंत्रता आंदोलन में इलाहाबाद का अपना अलग महत्व रहा है। इस शहर से देश के अग्रणी नायक पैदा हुए। एक लंबे समय तक कांग्रेस का मुख्यालय रहने के नाते इलाहाबाद का राष्ट्रपिता महात्मा गांधी तथा अन्य राष्ट्रीय नेताओं के साथ गहरा जुड़ाव रहा है ।
१९२० में स्वराज की मांग करनेवाले मुख्य प्रस्तावक पंडित मोतीलाल नेहरू ही थे। सेंट्रल लेजिस्लेटिव एसेंबली में स्वराज पार्टी के ४५ सदस्य थे और पंडित मोतीलाल नेहरू उसके नेता थे, लिहाजा उनको विरोधी दल के नेता की मान्यता मिली हुई थी। १९२६ में केंद्रीय एसेंबली से त्यागपत्र देनेवाले भी वे पहले नेता थे। केंद्रीय एसेंबली में इलाहाबाद से पंडित मदन मोहन मालवीय, सी वाई चिंतामणि तथा कृष्णकांत मालवीय थे। पराधीन भारत में केंद्रीय एसेंबली १९४६ की आंतरिम सरकार और फिर संविधान सभा में कई इलाहाबादी राजनेता शामिल थे। २ सितंबर १९४६ में बनी अंतरिम सरकार में पं. जवाहर लाल नेहरू प्रधानमंत्री बने जबकि संविधान सभा में इलाहाबाद से केके भट्टाचार्य व मसुरिया दीन सदस्य बने।
पंडित जवाहर लाल नेहरू, लाल बहादुर शास्त्री, श्रीमती इंदिरा गांधी, राजीव गांधी, वीपी. सिंह तथा चंद्रशेखर जैसे भारत के पूर्व प्रधानमंत्रियों का गहरा संबंध इलाहाबाद से रहा। नारायणदत्त तिवारी से लेकर हेमवतीनंदन बहुगुणा जैसे कई नेताओं ने राजनीति का पहला पाठ यहीं सीखा और तमाम शीर्ष पदों पर रहे। इसी तरह फिरोज गांधी, हरे कृष्ण शास्त्री, कमला बहुगुणा, उमा नेहरू, गोपाल स्वरूप पाठक, ए.सी. गिल्बर्ट, धर्मवीर, एच.एन. कुंजरू, एसएन मुल्ला, एमआर शेरवानी, एसएन कक्कड़, संत बख्श सिंह, केशव देव मालवीय, मुजफ्फर हसन, कल्याणचंद मोहिले (छुन्ननू गुरू), सालिगराम जायसवाल, चौ. शिवनाथ सिंह, चौ.नौनिहाल सिंह, डा. राजेंद्र कुमारी वाजपेई, मोहम्मद अमीन अंसारी, के.पी. तिवारी, रेवती रमण सिंह से लेकर प्रो. मुरली मनोहर जोशी,तमाम राजनेता केंद्र और प्रांत की राजनीति में अग्रणी भूमिका में रहे। महावीर प्रसाद शुक्ल, सालिग राम जायसवाल, राम पूजन पटेल, रूप नाथ सिंह यादव,केसरी नाथ त्रिपाठी, सत्य प्रकाश मालवीय, लक्ष्मी सहाय सक्सेना, सर्व सुख सिंह, अजय कुमार बसु, छोटे लाल यादव, के.बी अस्थाना, रमेश चंद्र श्रीवास्तव और श्यामसूरत उपाध्याय के योगदान को भी इलाहाबाद नहीं भूल सकता है।
इलाहाबाद विश्वविद्यालय से कई प्रांतों और देश के नायक पैदा हुए। इसमें गोविंद बल्लभ पंत, आचार्य नरेंद्र देव, डा.कैलाश नाथ काटजू, पंडित द्वारिका प्रसाद मिश्रा, बी.ए. मंडलोई, शंकरदयाल शर्मा, अर्जुन सिंह, राम निवास मिर्धा, केदारनाथ सिंह, वीरभद्र सिंह, जनेश्वर मिश्रा, माखनलाल फोतेदार, नेपाल के पूर्व प्रधानमंत्री सूर्यबहादुर थापा, पी.के.कौल, प्रभाकरनाथ द्विवेदी, मोहन सिंह, बृजभूषण तिवारी, बृजेश सिंह, मदनलाल खुराना, अरुण कुमार सिंह मुन्ना, अनुग्रह नारायण सिंह और राकेश धर त्रिपाठी से लेकर नामों की लंबी सूची है।
इलाहाबाद विश्वविद्याल छात्रसंघ का इतिहास भी कम गौरवशाली नहीं रहा है। १९२३ में स्थापित छात्र संघ के भवन की नींव ५ अगस्त १९३९ को पंडित गोविंद बल्लभ पंत ने रखी। इसके आभक अध्यक्षों में आदित्यनाथ झा, शिवराम सिंह तथा सी.वी.राव जैसे लोग आईसीएस बने। वहीं दौलत सिंह कोठारी शिक्षा सुधारों के क्षेत्र में अग्रणी और विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के अध्यक्ष बने। यहीं १९२६- २७ में श्याम कुमारी नेहरू छात्र संघ का अध्यक्ष बनने वाली देश की पहली महिला थी। स्वतंत्रता आंदोलन में भी यहां के छात्रों ने पढ़ाई और लड़ाई साथ-साथ जारी रखी। भारत छोड़ोआंदोलन में यहां के छात्र नेता लाल पद्मधर सिंह ने अपना बलिदान देकर एक नई परंपरा स्थापित की।
इलाहाबाद १९२२-२३ तक उत्तर प्रदेश की राजधानी रहा। फिर राजधानी लखनऊ हो गई। राजधानी चली गई तो १९७५ तक नगर की आबादी घटती रही।
भारत की राजनीति, संस्कृति ,साहित्य तथा कला के विकास के क्षेत्र में निर्विवाद रूप से इलाहाबाद नगर का बेहद अहम योगदान रहा है। एक प्राचीन तथा गौरवशाली नगर के रूप में इलाहाबाद का विकास सदियों की देन है। इस नगर में देश-विदेश से बड़ी संख्या में पर्यटक तो आते ही हैं, कुंभ, अर्धकुंभ तथा माघ मेलों के मौके पर देश तथा दुनिया के हर कोने से जनसमुद्र उमड़ता है। इलाहाबाद नगर तथा आसपास फैली पुरासंपदाएं तथा धरोहरें जहां इसकी शान हैं, वहीं दूसरी ओर समय के साथ बदलने के बाद भी इस शहर की तमाम पुरानी परंपराएं और गंगा-जमुनी संस्कृति यहां की पहचान है। शिक्षा का महान् केंद्र होने के साथ ही यह नगर देश को हमेशा साहित्य के क्षेत्र में दिशा देता रहा है और एक लंबे समय तक देश की राजनीतिक दिशा को भी तय करता रहा है।
इलाहाबाद में ही १८८८ और १८९२ में कांग्रेस का अधिवेशन हुआ। इससे स्वाधीनता आंदोलन को और गति मिली। स्वराज भवन राजनीतिक गतिविधियों का केंद्र बना। इलाहाबाद में हाईकोर्ट, एजी आफिस, पुलिस मुख्यालय से लेकर तमाम बड़े दफ्तर खुले। परिषद् के साथ ही स्थापित इलाहाबाद विश्वविद्यालय से भी कई नायक पैदा हुए। आंदोलन की आंच परिषद् तक पहुंचनी ही थी। १८८७ से १९३६ तक विधान मंडल के एकमात्र सदन के रूप में काम किया। फिर १९३७ से दूसरे सदन के रूप में भूमिका निभाई।
उत्तर प्रदेश विधान सभा
उत्तर प्रदेश विधान सभा की बुनियाद रखने में भी इलाहाबादी नायकों का खास योगदान रहा हैभारत सरकार अधिनियम, १९३५ के तहत जब प्रांतीय स्तर पर अधिक स्वायत्तता मिली तो ११ प्रांतों मद्रास, बांबे, बंगाल, संयुक्त प्रांत, पंजाब, बिहार, मध्य प्रांत और बरार, असम, उड़ीसा और सिंध आदि में विधान सभाएं स्थापित करने का प्रावधान हुआ। छह प्रांतों मद्रास, बांबे, बंगाल, संयुक्त प्रांत, बिहार और असम में दो सदनीय व्यवस्था हुई। १९३७ में संयुक्त प्रांत विधान सभा बनी तो उसके अध्यक्ष इलाहाबाद के ही नायक राजर्षि पुरुषोत्तम दास टंडन बने और पहले मुख्यमंत्री पंडित गोविंद बल्लभ पंत की भी राजनीतिक दीक्षा इलाहाबाद में ही हुई थी। २६ जनवरी, १९५० को संविधान लागू होने के बाद राज्य और सदन दोनों का नाम बदला। संयुक्त प्रांत से उत्तर प्रदेश और लेजिस्लेटिव असेंबली से विधान सभा। संविधान के तहत वैकल्पिक विधानमंडल का पहला सत्र २ फरवरी, १९५० को आरंभ हुआ तो फिर राजर्षि पुरुषोत्तम दास टंडन अध्यक्ष बने।
राजर्षि टंडन ३१ जुलाई १९३७ को जब पहली बार विधान सभा अध्यक्ष बने तो उन्होंने सदन में साफ ऐलान किया था कि वे देश की राजनीतिक स्वतंत्रता के लिए सतत काम करते रहेंगे और विधान सभा में उनकी उपस्थिति उसी दिशा में एक कदम मात्र है। वे सक्रिय राजनीति में भाग लेते रहे लेकिन कभी उनकी निष्पक्षता पर सवाल नही उठा। यह उनकी ही देन थी कि उत्तर प्रदेश हिंदी के कामकाज में अग्रणी बना। आजादी के बाद जब विधान सभा की
पहली बैठक में ३ नवंबर, १९४७ को नए वातावरण में हुई तो अगले ही दिन बैठक में संकल्प पारित किया गया कि विधान सभा के सभी कामों और कार्यवाहियों में केवल हिंदी का प्रयोग हो।
१९३७ में उत्तर प्रदेश विधान सभा में लाल बहादुर शास्त्री, श्रीमती विजय लक्ष्मी पंडित समेत तमाम राष्ट्रीय हस्तियां पहुंची। अंग्रेजी राज में कदम-कदम पर अवरोध थे लेकिन जनता के कल्याण के काम जारी रहे। तब वंदेमातरम गाया जाना निषिद्ध था, लेकिन टंडनजी ने चुने जाते ही विधान सभा की कार्यवाही इसके सस्वर पाठ से शुरू करा दी। उनके कई फैसलों ने अंग्रेजों को आतंकित कर दिया।
१९४६ में विधान सभा के आम चुनाव में फिर गोविंद बल्लभ पंत मुख्यमंत्री और राजर्षि पुरूषोत्तम दास टंडन विधान सभा अध्यमक्ष बने। उसी दौरान भारत की संविधान सभा का चुनाव भी हुआ, जिसके ३१० सदस्यों में से जो ५५ सदस्य उत्तर प्रदेश से चुने गए, उसमें पंडित जवाहर लाल नेहरू, पुरुषोत्तम दास टंडन, गोविंद बल्लभ पंत, केके भट्टाचार्य और मसुरिया दीन के साथ फिरोज गांधी जैसे इलाहाबादी नेता शामिल थे।
उत्तर प्रदेश विधान सभा की गरिमा को बुलंदी पर पहुंचाने का श्रेय राजर्षि पुरुषोत्तम दास टंडन को जाता है। जेल में रहने के दौरान भी वे विधान सभा सचिवालय के जरूरी काम वहीं से करते थे।
भारत के स्वतंत्रता आंदोलन में इलाहाबाद का अपना अलग महत्व रहा है। इस शहर से देश के अग्रणी नायक पैदा हुए। एक लंबे समय तक कांग्रेस का मुख्यालय रहने के नाते इलाहाबाद का राष्ट्रपिता महात्मा गांधी, सरहदी गांधी, सुभाष चंद्र बोस, सी. राजगोपालाचारी, चित्तरंजन दास, जय प्रकाश नारायण, राम मनोहर लोहिया, अली बंधु, डा. राजेंद्र प्रसाद, आचार्य जेबी कृपलानी जैसे तमाम नेता आंदोलन को गति देने आते रहे। १९२० में स्वराज की मांग करनेवाले मुख्य प्रस्तावक पंडित मोतीलाल नेहरू ही थे। सेंट्रल लेजिस्लेटिव एसेंबली स्वराज पार्टी के ४५ सदस्य थे और पंडित मोतीलाल नेहरू उसके नेता थे लिहाजा उनको विरोधी दल के नेता की मान्यता मिली हुई थी। १९२६ में केंद्रीय एसेंबली से त्यागपत्र देनेवाले भी वे पहले नेता थे। केंद्रीय एसेंबली में इलाहाबाद से पंडित मदन मोहन मालवीय, सी वाई चिंतामणि तथा कृष्णकांत मालवीय थे। पराधीन भारत में केंद्रीय एसेंबली १९४६ की आंतरिम सरकार और फिर संविधान सभा में कई इलाहाबादी राजनेता शामिल थे। २ सितंबर १९४६ में बनी अंतरिम सरकार पं. जवाहर लाल नेहरू प्रधानमंत्री बने और आजादी के कई सालों तक राष्ट्रनिर्माण में अनूठी भूमिका निभाई ।
बाद में प्रधानमंत्री बने लाल बहादुर शास्त्री, श्रीमती इंदिरा गांधी, राजीव गांधी, वीपी. सिंह तथा चंद्रशेखर आदि का भी गहरा संबंध इलाहाबाद से रहा। नारायण दत्त तिवारी से लेकर हेमवतीनंदन बहुगुणा जैसे कई बड़े नेताओं ने राजनीति का पहला पाठ यहीं से सीखा।
१८५७ की क्रांति में इलाहाबाद
१८५७ के प्रथम स्वाधीनता संग्राम के दौरान भी इलाहाबाद का अपना अलग महत्व रहा। यहां क्रांति के नायक एक साधारण परिवार से आने वाले मौलाना लियाकत अली थे जो जन्म से जुलाहा और और कर्म से अध्यापक थे। लोग उनकी इज्जत करते थे, जिस कारण उनको अपना नेता माना। तब वह खुशरोबाग बगावत का केंद्र बना, जिसका अपना पुराना इतिहास है। मुगल सम्राट जहांगीर के बागी बेटे खुशरो की कब्र होने के साथ यह इलाहाबादी अमरूदों का भी केंद्र है, जहां करीब दो हजार मदरप्लांट हैं और देश विदेश के ४७ अमरूद प्रजातियां हैं।
मौलाना लियाकत अली ने खुशरोबाग को अपना मुख्यालय बना कर तहसीलदार, कोतवाल और अन्य अफसरों की नियुक्ति कर नगर में शांति स्थापना की कोशिश की। अंग्रेजों के हाथ से इलाहाबाद के किले को छोड़कर सब कुछ निकल गया था। इसी नाते लाई केनिंग ने कर्नल नील को गोरे, सिख तथा मद्रासी सिपाहियों के साथ इलाहाबाद को कब्जे में करने के लिए भेजा। नील ११ जून को इलाहाबाद पहुंचा और दूसरे ही दिन दारागंज के नाव के पुल को अपने कब्जे में करने के बाद १३ जून को झूसी और १५ जून को मुट्ठीगंज और कीटगंज पर कब्जा कर लिया। काफी तैयारी के साथ १७ जून १८५७ को खुशरोबाग पर धावा बोला जहां दिन भर क्रांतिकारियों ने मोरचा लिया। लेकिन मौलाना लियाकत अली ने समझ लिया कि नील की बड़ी सेना के आगे क्रांतिकारियों का ठहर पाना संभव नहीं, इस नाते तीस लाख के भारी खजाने के साथ वे भरोसेमंद साथियों साथ कानपुर की तरफ निकल गए। इसके बाद इलाहाबाद की तमाम बस्तियों पर नील का कोप बरपा। सम्साबाद, मलाका और छीतपुर गांव को उजाड़ कर कंपनीबाग बना दिया गया और ग्रामीण इलाकों में भारी नरसंहार हुआ। बड़ी संख्या में लोगों को गोली से उड़ाया गया, फांसी दी गई और जाने कितने स्त्री, पुरूष, बच्चे और पशुओं को आग के हवाले कर दिया गया।
मौलाना लियाकत अली को पकड़ने के लिए पांच हजार का इनाम घोषित किया गया। वे बंबई में गिरफ्तार कर कालापानी यानि अंडमान की जेल में भेजे गए जहां आखिरी सांस तक रहे। इतिहासविद् बीएन पांडेय ने लिखा है कि नील ने इलाहाबाद में जैसा नरसंहार किया, उसके सामने जालियांवाला बाग भी कम लगता है। केवल तीन घंटे चालीस मिनट में कोतवाली के पास नीम के पेड़ पर ६३४ लोगों को फांसी दी गई। सैनिकों को जिस पर शक हुआ, उसे गोली से उड़ा दिया गया। खुद अंग्रेज इतिहासकारों होम्स और मैलीसन तक ने ऐसे अत्याचारों की कठोर निंदा की है। चौक में समाजवादी धारा के नेता और विधायक कल्याण चंद मोहिल यानि छुन्नन गुरू ने १ जनवरी १९५७ को एक स्मारक बनवाया, जिस पर लिखा गया कि अंग्रेजों द्वारा मारे गए ८०० निर्दोष भारतीयों की पुण्य स्मृति में।
सदियों से देश के राजनीतिक नक्शे पर इलाहाबाद की खास जगह रही है। देश के बेहतरीन किलों में एक इलाहाबाद का किला इसके महत्व का एक प्रमाण है। मुगल बादशाह अकबर ने १५८३ में इलाहाबाद किले की नींव डाली। इस किले में सिके भी ढलते थे। अकबर ने यह किला अवध और बंगाल पर नियंत्रण और निगरानी के इरादे से बनाया था। इसका इतना महत्व था कि सलीम यहां का सूबेदार रहा जो बाद में जहांगीर के नाम से बादशाह बना। इलाहाबाद किले में ही सेना आयुध वाहिनी १८०१ से हैयह किला धार्मिक लिहाज से भी काफी अहम है और अक्षयवट, पातालपुरी का मंदिर और अशोक की लाट के साथ बहुत कुछ है और इस कारण किला और संगम पर्याय बन गए हैं।
१८५७ की क्रांति दबने के बाद इलाहाबाद से ही उत्तर भारत में राजनीतिक उथल पुथल आरंभ हुई। कांग्रेस का चौथा अधिवेशन इलाहाबाद में दिसंबर १८८८ में करने की घोषणा हुई, जिसे विफल बनाने में अंग्रेजों ने सारी ताकत झोंक दी। वायसराय डफरिन ने कांग्रेस के प्रति अपनी दुभावना जता दी थी। खुशरोबाग, इलाहाबाद किले के पास और फिर पायनियर दफ्तर के करीब कांग्रेस अधिवेशन का प्रयास सरकारी अड्गे के नाते विफल रहा। आखिर में दरभंगा महाराजा ने लूथर कैसल जो बाद में दरभंगा कैसिल कहलाया, उसे खरीद कर कांग्रेस अधिवेशन के हवाले कर दिया। पंडित अजुध्यानाथ स्वागत समिति के अध्यक्ष और मोतीलाल नेहरू बने। तमाम हिचक के बाद भी पंडित मोतीलाल नेहरू अपने जीवन में पहली बार कांग्रेस के अधिवेशन में शामिल हुए थे।
बाद में १९२२ के आखिर में गया में पंडित मोतीलाल नेहरू ने अपने एक मुवक्किल के घर हुई बैठक में स्वराज्य पाटी के गठन का फैसला किया। देशबंधु चित्तरंजन दास इसके अध्यक्ष और मोतीलाल नेहरू सचिव बने। १४ अक्तूबर १९२३ को इलाहाबाद में पंडित मोतीलाल नेहरू के हस्ताक्षर से स्वराज्य पाटी का घोषणापत्र जारी हुआ। इलाहाबाद में स्वराज भवन अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी का स्थाई कार्यालय बनाया गया था। १९४२ में कांग्रेस कायालय पर पुलिस ने कब्जा कर लिया और सशस्त्र गारद तैनात कर दी गई।