आलेख - सर्वधर्म केन्द्र इलाहाबाद - संजय मिश्र

 इलाहाबाद विश्वविद्यालय से शिक्षा प्राप्त । पत्रकारिता के क्षेत्र में लम्बे समय से कार्य। हिन्दुस्तान सहित कई समाचार पत्रों एवं पत्रिकाओं में कार्य का अनुभव। सम्प्रति : अमर उजाला इलाहाबाद में कार्यरत।


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अपने कुंभ मेले के लिए दुनिया भर में प्रसिद्ध प्रयाग का क्षेत्र न सिर्फ हिन्दू परंपरा में पवित्र माना गया है, बल्कि अन्य धर्मों के लिए भी यह एक पवित्र क्षेत्र है। खासकर जैन एवं बौद्ध धर्मों में प्रयाग परिक्षेत्र के पुरातन शहर कौशाम्बी (वर्तमान कोसम) का विशेष महत्त्व है। वर्तमान समय में प्रयाग (इलाहाबाद शहर) में ईसाई सहित लगभग हर धर्म के अनुयायी रहते हैं और शहर की मौजूदा संस्कृति और विकास में इनका बराबर का योगदान रहा है।


जैन धर्म


प्रयाग क्षेत्र के कुछ स्थल वैदिक धर्म के साथ-साथ जैन और बौद्ध धर्मों से भी प्राचीन काल से संबद्ध रहे हैं। मध्यकालीन तीर्थ मालाओं में प्रयाग को प्रथम तीर्थंकर ऋषभनाथ की दीक्षा और केवलज्ञान कल्याणकों से संबधित बताया गया हैज्ञान सागर (१६वीं-१७वीं शती) ने सर्वतीर्थ वन्दना नामक ग्रंथ में प्रयाग ‘वटवृक्ष के नीचे ऋषभनाथ द्वारा ध्यान लगाने का उल्लेख किया है। प्रयाग की तीर्थ के रूप में प्रसिद्धि का कारण भी उन्होंने यही बताया है।


     जैन ग्रंथों में उल्लेख है कि श्रमण (जैन) परंपरा के पहले तीर्थंकर भगवान् ऋषभदेव अपने राज्य का विभाजन कर सभी पुत्रों को बाँटने के पश्चात् तपस्या के लिए गंगा-यमुना के संगम के निकट पहुँचे। संगम के निकट पुरिमताल नामक नगर था, जो वर्तमान झूसी के आसपास का स्थान कहा जा सकता है। यहाँ सिद्धार्थवन नामक एक घने जंगल में एक वट-वृक्ष के नीचे नग्नावस्था में पूर्वमुखी होकर वे तपस्यारत हो गए। चैत्र कृष्ण नवमी के संध्या समय उत्तराषाढा नक्षत्र में उन्होंने दीक्षा ली और पुनः तपस्यालीन हो गए। जैन ग्रंथों के मुताबिक भगवान ऋषभदेव के यहाँ सर्वपरिग्रह त्यागकर दीक्षा लेने के कारण ही पुरिमताल नामक नगर प्रयाग के नाम से विख्यात हो गया। प्रथम तीर्थंकर का उपदेश यहीं पर हुआ और भगवान ऋषभदेव ने धर्मचक्र का प्रवर्तन भी प्रयाग से ही किया।


     जैन धर्म की दृष्टि से प्रयाग क्षेत्र में कौशाम्बी, पभोसा, बालकमऊ, कड़ा, दारानगर, शहजादपुर, भीटा, लच्छागिर और सिंहपुर-कोहड़ार भी उल्लेखनीय हैं। इनमें कौशाम्बी महाजनपद काल से मध्य युग तक आर्थिक-सांस्कृतिक दृष्टि से सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण नगर था। जैन ग्रंथों में तीर्थंकर पार्श्वनाथ और महावीर तथा आर्य सुहस्ति और आर्य महागिरि द्वारा अनेक बार कौशाम्बी की यात्रा करने के उल्लेख मिलते हैं। छठवें तीर्थंकर पद्मनाभ का जन्म स्थान कौशाम्बी बताया गया है। उन्हें यहीं के सहस्रामवन पियुंग अथवा वटवृक्ष के नीचे कैवल्य प्राप्त हुआ था। इस कारण कौशाम्बी को जैन परंपरा में एक कल्याणक तीर्थ के रूप में पवित्र माना गया है।


     जैन ग्रंथों में तेइसवें तीर्थंकर पार्श्वनाथ द्वारा कौशाम्बी के वन में कायोत्सर्ग मुद्रा में तपस्या करने, नागराज धरण द्वारा पार्श्वनाथ का वन्दन करने और मेघमाली नामक असुर द्वारा पार्श्वनाथ की तपस्या में नानाविध उपसर्ग उपस्थित करने तथा अंततः निराश होकर पार्श्वनाथ से क्षमा याचना करने के संदर्भ हैं। पभोसा की दो गुफाओं में शृंगलिपि (प्रथम शती ई.पू.) में उत्कीर्ण लेखों में अहिच्छत्र के आषाढ़सेन द्वारा काश्यपीय अर्हतों के उपयोग के लिए गुफाओं के निर्माण का उल्लेख है। पभोसा से ही प्राप्त एक जैन आयागपट्ट लेख में सिद्धराजा शिवमित्र के राज्य के १२वें वर्ष में स्थविर बलदास के उपदेश से शिवनन्दी के शिवपालित द्वारा अर्हन्त पूजा के लिए आयागपट्ट स्थापित किए जाने का उल्लेख है।


    संवत् १८८१ मिते मार्गशीर्षशुक्लषष्ट्यां शुक्रवासरे काष्ठासंघे माथुरगच्छे पुष्करगणे लोहाचार्यान्वये भट्टारकश्रीजगत्कीर्तिस्तत्पट्टे भट्टारकश्रीललितकीर्तिस्तदाम्नाये अग्रोतकान्वये गोयलगोत्रे प्रयागनगर वास्तव्यसाधुश्रीराय जीमल्लस्तदनुजफे रूम ल्लस्तत्पुत्रासाधु-श्रीमेहरचन्दस्तद्भ्रातासुमेरू चन्दस्त दनुजसाधुश्रीमाणिक्यचन्दस्तत्पुत्र-साधुश्रीहीरालालेन कौशांब नगरबाहयप्रभासपर्वतोपरि श्रीपद्मप्रभजिनदीक्षाज्ञानकल्याण क्षेत्रे श्रीजिनबिंबप्रतिष्ठा कारिता अंगरेजबहादुरराज्ये शुभम्।।


   पभोसा जैन धर्मशाला लेख के नाम से प्रसिद्ध इस लेख में संवत् १८८१ मार्गशीर्ष शुक्लपक्ष की षष्ठी तिथि शुक्रवार को पद्मप्रभजिनदीक्षाकल्याणक क्षेत्र श्रीप्रभास पर्वत पर जिनबिम्ब की प्रतिष्ठा करवाए जाने का उल्लेख है। ए. फुहरर ने एपिग्राफिका इंडिका, खंड २ में इसे प्रकाशित किया है। अब इस लेख का कोई सुराग नहीं है।


    पभोसा धर्मशाला लेख से स्पष्ट है कि प्रभास पर्वत कौशाम्बी नगर की बाह्य सीमा पर स्थित था। आज भी कौशाम्बी में यमुना के किनारे एक मात्र यही पहाड़ी है तथा जैन तीर्थस्थली के रूप में विख्यात है। जैन परंपरा में यह तीर्थंकर पद्मप्रभ का दीक्षा कल्याणक क्षेत्र माना जाता है। यह लेख जैन धर्म की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण तो है ही, प्रयाग परिक्षेत्र में जैन धर्मावलम्बी अग्रोतक वंशी अग्रवालों, भट्टारकों की परंपरा और उनकी शाखा आदि के संदर्भ में विशिष्ट रूप से महत्त्वपूर्ण है।


एक अन्य लेख, जो जैन लेखसंग्रह में संकलित है, में भी प्रयाग नगर निवासी साधु श्रीहीरालाल, अग्रोतक वंश और भट्टारक परंपरा का उल्लेख है। यह लेख चम्पापुर (भागलपुर) में एक पाषाण बिम्ब के चरणपीठ पर उत्कीर्ण है।


    पभोसा लेख के अनुसार गोपाल गोत्रीय साधु हीरालाल प्रयाग नगर के निवासी थे। उनके द्वारा कौशाम्बी नगर के बाहर प्रभास पर्वत पर जिन प्रतिमा स्थापित कराई गई थी। उस समय अंग्रेजों का राज्य था। लेख में प्रतिमा प्रतिष्ठापक हीरालाल के पूर्वजों के नामों का भी उल्लेख है।


    प्रभासगिरि में जैन प्रतिमाओं की प्रतिष्ठा धार्मिक कृत्य थी। यह स्थल पद्मप्रभ का कल्याणक क्षेत्र है। जैन परंपरा के अनुसार पद्मप्रभ का जन्म कौशाम्बी में कार्तिक कृष्ण त्रयोदशी को हुआ था। उन्होंने कौशाम्बी के मनोहर उद्यान पभोसा में जाकर कार्तिक कृष्ण त्रयोदशी के दिन दीक्षा ली थी। इसी दिन भगवान का दीक्षा कल्याणक महोत्सव मनाया गया। पद्मप्रभ के दीक्षा और ज्ञान कल्याणक के कारण यह क्षेत्र कल्याणक तीर्थ माना गया। प्रभासगिरि जैन तीर्थ के रूप में प्रसिद्ध है। यहाँ पभोसा की पहाड़ी पर ई.पू. द्वितीय शती में आषाढ़सेन द्वारा काश्यपीय अर्हतों के लिए गुफा बनवाने के अभिलेखीय प्रमाण उपलब्ध हैं। पभोसा की पहाड़ी पर आज भी अनेक गुफाएँ विद्यमान हैं। यहाँ एक जैन मंदिर भी है।


    प्रयाग परिक्षेत्र में गुप्तकाल से जैन मूर्तियाँ मिलने लगती हैं। पाँचवीं शती की बालकमऊ से प्राप्त इलाहाबाद संग्रहालय में संरक्षित ऋषभदेव, पाँचवीं शती की कौशाम्बी से प्राप्त लखनऊ राज्य संग्रहालय में संरक्षित ऋषभदेव, पाँचवीं शती का संभवतः कौशाम्बी से प्राप्त मथुरा राज्य संग्रहालय में संरक्षित जिन सिर, छठवीं शती का कौशाम्बी से प्राप्त इलाहाबाद संग्रहालय में संरक्षित पार्श्वनाथ का सिर, सातवीं शती की कौशाम्बी से प्राप्त आसनस्थ अम्बिकामूर्ति (इलाहाबाद संग्रहालय) और पभोसा पर्वत के ऊपरी पृष्ठ तल पर पाँचवी शती की रखी ऋषभदेव मूर्ति महत्त्वपूर्ण पुरावशेष हैं।


    इस परिक्षेत्र से आठवीं से बारहवीं शती के मध्य की कुल २० जैन मूर्तियाँ प्राप्त हुई हैं, जिनमें से १३ इलाहाबाद संग्रहालय, एक इलाहाबाद विश्वविद्यालय के प्राचीन इतिहास विभाग के संग्रहालय, एक इलाहाबाद के चाहचन्द मुहल्ले में स्थित दिगम्बर पंचायती मंदिर और एक मूर्ति दारानगर के जैन मंदिर, एक पभोसा धर्मशाला संग्रहालय और तीन बालकमऊ गाँव में हैं।


    दारानगर मंदिर की मूर्ति चमकीले लाल पत्थर की हैजिस पर सं. १२३४ के अभिलेख हैं। शेष सभी मूर्तियाँ बलुए पत्थर की बनी हैं।


    इलाहाबाद के चाहचन्द मुहल्ले में दिगम्बर जैन पंचायती छोटे मंदिर में मूलनायक पार्श्वनाथ की कायोत्सर्ग दिगम्बर प्रतिमा विराजमान है। यह ग्यारहवीं शती की है। किंवदन्ती हैकि यह प्रतिमा किले में खुदाई करते समय निकली थी और बाद में लाकर वर्तमान मंदिर में स्थापित की गई। चाहचन्द मुहल्ले के जैन मंदिर पूरे इलाहाबाद शहर में जैनियों के पवित्र स्थल के रूप में महत्त्वपूर्ण हैं। इस मंदिर का निर्माण नौंवी शताब्दी में माना जाता है। दिगम्बर जैनों की इसमें अगाध निष्ठा है। जैन समुदाय ने तत्कालीन सरकार से अनुरोध कर ये मूर्तियाँ पंचायती दिगम्बर जैन मंदिर एवं बड़ा मंदिर में स्थापित करा दी।


    चाहचन्द मुहल्ले में ही श्री बड़ा मंदिर है, जिसमें प्राचीन प्रतिमाएँ स्थापित हैं। मंदिर में दाईं ओर की वेदी में कई कलात्मक प्रतिमाएँ हैं और बाईं ओर भगवान आदिनाथ की खड्गासन प्रतिमा है। इसके दोनों ओर सँवरवाहक खड़े हैं। नीचे और आसपास यक्षिणी की प्रतिमाएँ हैं। मंदिर परिसर में जैन धर्म के २४ तीर्थंकरों की प्रतिमाएँ बनाई गई हैं। इनमें २० पद्मासन तथा चार खड्गासन हैं। दो आकाशचारी देव हाथों में मालाएँ लिए हैं, छत्र पर एक देव दुंदुभि बजाता दृष्टिगोचर होता है। यहीं पर भगवान पद्मप्रभु की एक खड्गासन प्रतिमा है तथा एक जटाधारी भगवान आदिनाथ की कृष्णवर्ण प्रतिमा हैं।


बौद्ध धर्म


    प्रयाग क्षेत्र का एक अन्य नगर कौशाम्बी बौद्ध धर्म के महत्त्वपूर्ण तीर्थों में से एक है। बौद्ध काल में यह एक जनपद था। यहाँ के राजा उदयन के नाम का उल्लेख बौद्ध ग्रंथों में | कई जगह मिलता है। ललितविस्तर में वर्णन है कि कौशाम्बी के राजा सलानिक के पुत्र उदयन


वत्स का जन्म भी उसी दिन हुआ था जिस दिन महात्मा बुद्ध पैदा हुए थे।


     श्रीलंका के बौद्ध ग्रंथों में कौशाम्बी को भारत के १९ राजधानी नगरों में से एक बताया गया था। तिब्बत के ग्रंथों में भी कौशाम्बी के राजा उदयन का वर्णन मिलता है।


    महात्मा बुद्ध ने बोधिसत्व का छठा तथा नवाँ साल कौशाम्बी में बिताया था। ह्वेनसांग के मुताबिक उस समय (७वीं सदी) यहाँ लाल चंदन की लकड़ी से बनी महात्मा बुद्ध की एक प्रतिमा हुआ करती थी, जिसे राजा उदयन ने बुद्ध के जीवनकाल में ही बनवाया था। यह प्रतिमा पुराने शाही किले में थी।


    प्राचीन समय में कौशाम्बी बौद्धों का प्रधान केन्द्र हो गया था। भगवान बुद्ध ने यमुना किनारे स्थित इस शहर में प्रचारार्थ कई वर्ष व्यतीत किए, जिनका प्रमाण ‘घोषिताराम' के भग्नावशेष से मिलता है। कहा जाता है कि महात्मा बुद्ध ने ‘कोसंबीय सूत' का उपदेश यहीं किया था। इस स्थान के महत्त्व के कारण ही अशोक ने वहाँ स्तम्भ स्थापित कर लेख खुदवाया। इस स्थान की प्रमुखता के कारण ही अशोक ने यहाँ स्तूप का निर्माण भी कराया था। आज भी संघाराम के दक्षिण-पूर्व स्तूप के अवशेष देखे जा सकते हैं। यह २०० फीट ऊँचा स्तूप था, जो बुद्ध के नख एवं केश के ऊपर निर्मित हुआ था। फाहियान तथा ह्वेनसांग ने भी इसका वर्णन किया है।


    इलाहाबाद से मात्र ५० कि.मी. दूर स्थित कौशाम्बी (आधुनिक कोसम) में आज भी उस शाही किले के अवशेष विद्यमान हैंसामान्यतया यह ३०-३५ फीट ऊँचा है, लेकिन कहीं-कहीं इसकी ऊँचाई ५०-६० फीट तक भी है। ह्वेनसांग के मुताबिक इस समय कौशाम्बी जनपद २,८८० वर्ग कि.मी. के दायरे में फैला हुआ था ।


    प्रदीप कुमार ने अपनी किताब 'भारत की गुलामी के बाईस सौ साल' में अंग्रेजी अखबार ‘हिन्दुस्तान टाइम्स' में १३ अप्रैल १९९७ को छपे बी.के. केलकर के लेख 'विजनरी ऑफ-ए-एन्यू सोशल ऑर्डर' का हवाला देते हुए लिखा हैकि ६४३ ई. में राजा हर्षवर्द्धन ने प्रयाग में एक सभा मोक्ष परिषद् का आयोजन किया था। इसमें १८ राजसी मित्रों ने भाग लिया था और उसमें पाँच लाख से भी अधिक लोग शामिल हुए थे। गंगा की रेत पर अस्थायी इमारत बनाई गई थी। गौतम बुद्ध की मूर्ति रखी गई तथा बहुमूल्य वस्त्र तथा वस्तुएँ बाँटी गई थीं। चौथे दिन दस हजार बौद्ध भिक्षुओं - को दान दिया गया तथा प्रत्येक को एक सौ सोने के सिक्के, एक मोती तथा सूती वस्त्र तथा अन्य आवश्यक पदार्थ भेंट में दिए गए थे। ब्राह्मणों और जैन साधुओं को भी दान दिया गया था।


   ह्वेनसांग ने इस मोक्ष-परिषद् का वर्णन करते हुए लिखा है-“अब तक पाँच वर्ष का संचित धन व्यय हो चुका था। घोड़ों, हाथियों और सैनिक उपकरणों के अतिरिक्त जो राजसम्पत्ति की रक्षा और सुव्यवस्था के लिए आवश्यक थे, शेष कुछ न बचा। इसके अतिरिक्त राजा ने अपने हीरे और सामान, कपड़े और मालाएँ, काँटे, कंगन, कंठे, हार और चमकीले शिरो भूषण सब बिना भेदभाव के दान कर दिए थे। सब कुछ दे चुकने के बाद उसने अपनी बहन राज्यश्री से एक पुराना वस्त्र माँगा और उसे पहनकर उसने दस दिशाओं के बुद्धों की पूजा की और प्रसन्नता अनुभव की कि उसका कोष दान धर्म में समाप्त हो गया था।''


    गंगा-यमुना की वेणी से साम्य रखने के कारण संभवतः प्रयाग में वेणीदान की परंपरा चल निकलीबौद्ध धर्म में आस्था रखनेवाले महाराज हर्ष की नगरी होने के कारण प्रयाग का वातावरण बौद्ध सिद्धांतों से विशेष प्रभावित रहा है। हर्ष की प्रयाग धर्मसभा में मुडित भिक्षुओं को विशेष सम्मान और दान दिया जाता था। संभव है अन्य धर्मावलम्बी भी दान प्राप्ति के लिए प्रयाग में मुंडन कराने लगे, आगे चलकर यह प्रथा के रूप में स्वीकृत हो गया। हिन्दु धर्मशास्त्र स्त्रियों के मुंडन का निषेध करता है, तथापि राज्यश्री के अनुकरण पर अन्य स्त्रियों में भी वेणीदान लोकप्रिय हुआ होगा।


   एक प्राचीन बौद्ध प्रथा के अनुसार बौद्ध भिक्षु प्रत्येक शुक्ल पक्ष की द्वितीया तथा पूर्णिमा को एकत्र होकर अपने पापों का प्रायश्चित करते थे। सम्राट हर्ष के काल में 'आनंद की खेती के नाम से प्रसिद्ध यह प्रायश्चित्तायोजन प्रति पाँचवें वर्ष संभवतः अर्द्धकुंभ के अवसर पर होता था। कालांतर से इस परंपरा को गृहस्थों ने भी अपना लिया, वे इन अवसरों पर यथाशक्ति दान भी देने लगे।


इस्लाम


कुंभ और पवित्र संगम के रूप सदियों से ख्याति का भागी रहा प्रयाग एक नगर के रूप मुस्लिम शासकों के काल में ही विकसित हो सका। आक्रमणकारी महमूद गजनवी के दरबारी लेखक अलबरूनी ने अपने प्रयाग वर्णन में गंगा-यमुना और अक्षयवट का वर्णन किया है। इसके बाद कुतुबुद्दीन ऐबक ने कड़ा को अपनी राजधानी बनाया, जहाँ से अनेक लड़ाइयाँ लड़ी गईं। लगभग ३०० वर्षों के दौरान कड़ा कई मुस्लिम शासकों के अधीन रहा।


                                                                                                           


       प्रयाग सूफी मत का भी एक महत्त्वपूर्ण केन्द्र रहा। इसकी विभिन्न धाराओं के संतों ने यहाँ अपने उपदेश दिए और इस्लाम के इस उदारपंथ के विस्तार में योगदान किया। शेख हसमुद्दीन मानिकपुरी (सन् १४७७) मानिकपुर में चिश्ती धारा के संस्थापक थे। रफी हमीद शाह मानिकपुरी (सन् १४९५) हसमुद्दीन मानिकपुरी के आध्यात्मिक उत्तराधिकारी थे। मुगल पूर्व कड़ा मानिकपुर सुहरावर्दी धारा का भी महत्त्वपूर्ण केन्द्र था। शेख इस्माइल कुरैशी ने नाहरोली में एक सुहरावर्दी खानशाह स्थापित किया। ख्वाजा कडूक सुहरावर्दी (सन् १३२५) ने कड़ा-मानिकपुर के तत्कालीन सूबेदार अल्लाउद्दीन खिलजी को दिल्ली का बादशाह होने का आशीर्वाद दिया था। खाजा कड़क की मजार आज भी कड़ा में लोगों की श्रद्धा का केन्द्र बनी हुई है। झूसी भी चौदहवीं शताब्दी में सुहरावर्दी धारा का एक महत्त्वपूर्ण केन्द्र था। शेख अली बिन मुहम्मद झूसवी (सन् १३५८) में झूसी में इस धारा का शुरू किया था।


    संभवतः मुगलकाल में इलाहाबाद के सर्वाधिक चर्चित संत शाह मुहिबुल्लाह इलाहाबादी (सन् १६४८) थे। शाहजादा दारा शाह मुहिबुल्लाह इलाहाबादी का कट्टर अनुयायी था और उसने इलाहाबाद में शाह के निवास के कारण ही यहाँ की सूबेदारी स्वीकार की थी। सत्रहवीं शताब्दी में इलाहाबाद नक्शबंदी धारा के केन्द्र के रूप में भी उभरा। सुहरावर्दी धारा की तरह ही नक्शबंदी धारा की भी जड़ भारत से बाहर थी। अठारहवीं शताब्दी में भी नक्शबंदी सूफियों ने परम्परा बनाए रखी। शाह मुहम्मद अफजल इलाहाबादी, शाह रवुबुल्लाह इलाहाबादी (सन् १७२७) और शेख मुहम्मद फाकिर इलाहाबादी यहाँ के प्रमुख नक्शबंदी सूफी थे।


   सन् १५७४ ई. में मुगल बादशाह अकबर सर्वप्रथम प्रयाग आया था। १५८० में उसने कड़ा पर चढ़ाई करके सरदार इनायत खाँ को परास्त कियाइनायत खाँ भाग गया और अकबर का उसके किले पर अधिकार हो गया। अकबर ने गंगा-यमुना के संगम (प्रयाग) के सामरिक महत्त्व का सबसे पहले समझा और यहाँ एक किले का निर्माण कराया जो आज इलाहाबाद के किले के रूप में जाना जाता है।


    कई इतिहासकारों का यह भी मत है कि अकबर ने ‘दीन-ए-इलाही' मत की शुरुआत भी यहीं से की थी और इसीलिए शहर का नाम अल्लाहाबाद (बाद में इलाहाबाद) पड़ा। इससे पहले इसका नाम इलावास था। लेकिन “अल्लाहाबाद' नाम का कहीं पुरातात्त्विक प्रमाण नहीं मिलता है। अकबर के फरमानों और मुगलकालीन मुद्राओं में भी इस जगह का नाम ‘इलावास' ही अंकित है। इसके अलावा ‘अकबरनामा' में भी ‘इलावास' नाम का ही उल्लेख मिलता है।


    अकबर के बाद बादशाह बनने वाले उसके बेटे जहाँगीर ने इलाहाबाद किले में लगी अशोक की लाट पर अपनी वंशावली फारसी में अंकित कराई। जहाँगीर के पुत्र खुशरू को इसी शहर में दफनाया गया था। उस जगह पर एक बगीचा बनाया गया है, जिसका नाम खुशरूबाग है। सन् १६५८ में जब औरंगजेब ने गद्दी सँभाली तो अपने भाई शुजा से उसकी लड़ाई यहीं पर हुई थीऔरंगजेब कड़ा और इलाहाबाद का किला-दोनों जगहों पर रहा। शाहजहाँ का बेटा दारा शिकोह धार्मिक प्रवृत्ति का था। वह अक्सर इलाहाबाद के साधु-संतों की संगत में रहा करता था। उसने संस्कृत की भी पढ़ाई की थीइलाहाबाद के एक मुहल्ले दारागंज का नाम उसी के नाम पर रखा गया था। उसकी पत्नी नादिरा बेगम के नाम पर बेगम सराय बसाया गया।


  एक बार बादशाहों की आवाजाही शुरू होने के बाद इलाहाबाद में नगर भी बस गया। अंग्रेजों ने भी अकबर के बनाए किले का सामरिक महत्त्व समझा और इसका उपयोग सैन्य उद्देश्यों के लिए किया। इस प्रकार हिन्दुओं के इस तीर्थ में मुस्लिम आबादी और संस्कृति का रंग भी मिल गया।


ईसाई


शहर के विकास और समाजसेवा में इलाहाबाद के चर्चा का भी काफी योगदान रहा है। हिन्दुओं और मुसलमानों के साथ ईसाई मिशनरियों ने शैक्षणिक, सामाजिक, सांस्कृतिक एवं अन्य क्षेत्रों में कंधे-से-कंधा मिलाकर काम किया है। सभी धर्मों एवं संप्रदायों के लोगों में आपसी सद्भाव एवं सौहार्द फैलाने की दिशा में फादर धीरानन्द भट्ट के प्रयासों की आज भी सराहना की जाती है।


     


    इलाहाबाद में आने वाले सबसे पहले मिशनरी डॉ. मैथ्यूज डी कैस्टरो थे। वे मुगल-तिब्बती मिशन के प्रतिनिधि के रूप में १६६९ ई. में यहाँ आए थे। उनके बाद अकबर के समय में पुर्तगाली मिशनरी भारत आए। शहर में ईसाई मिशन की स्थापना १८५८ में फादर फेलिक्स ऑफ तुरिन ने की थी। इसके बाद बिशप ने अपना मुख्यालय पटना से इलाहाबाद स्थानान्तरित कर लिया।


   आज इलाहाबाद में दो कैथेड्रल हैं-ऑल सैंट्स कैथेड्रल (प्रोटेस्टेंटों के) और रोमन कैथोलिक कैथेड्रलसफेद बलुआ पत्थर से बना ऑल सेंट्स कैथेड्रल स्थापत्य के बेहतरीन नमूनों में से एक है। इसका प्रारूप ब्रिटिश आर्किटेक्ट सर विलियम इमर्सन ने १८७१ ई. में तैयार किया था। यह इलाहाबाद रेलवे स्टेशन के पास महात्मा गाँधी मार्ग और सरोजनी नायडू मार्ग के चौराहे पर स्थित है।


   रोमन कैथोलिक कैथेडल का निर्माण १८७९ में हुआ था। यह संत जोसेफ को समर्पित है। थॉर्नहिल रोड पर स्थित इस कैथेडरल पर १९४० में पेंटिंग और सजावट कर इसे और खूबसूरत बनाया गया।


   प्रोटेस्टेंट और रोमन कैथोलिक चर्चा ने शिक्षा और समाजसेवा के क्षेत्र में सराहनीय काम किया है। प्राटेस्टेंट चर्च द्वारा कई शैक्षणिक संस्थाओं का संचालन होता है, जैसे-इविंग क्रिश्चियन कॉलेज; इलाहाबाद कृषि संस्थान, नैनी; मेरी वानामेकर कॉलेज; गर्ल्स हाई स्कूल; बॉयज हाई स्कूल और बिशप जॉनसन हाई स्कूल। इसी प्रकार रोमन कैथोलिक संस्थानों में सेंट जोसफ कॉलेज, सैंट मेरी कॉन्वेंट, और नाजरथ हॉस्पिटल तथा साहित्य, धर्म आदि पर विचारों के आदान-प्रदान के लिए जिज्ञासु केन्द्र उल्लेखनीय हैं।


    अब इलाहाबाद के चर्च दूसरे संप्रदायों के सुख-दु:ख में पहले के मुकाबले ज्यादा सहभागिता दिखाते हैंआज दुसरे धर्मों के साथ सामंजस्य, शांतिपूर्ण सह अस्तित्व और देश की मुख्य धारा में साझेदारी इनका मूलमंत्र है।



सिख पंथ


     सिखों के नवें गुरु श्री तेग बहादुर जी ने श्री आनन्दपुर साहिब, पंजाब से पूर्वी भारत की यात्रा प्रारम्भ की। तेग बहादुर जी रोपड़, पटियाला, पिहोवर, कैथल, रोहतक, मथुरा, आगरा, कानपुर इत्यादि की यात्रा करते हुए, लोगों से मिलकर अमृतोपदेश करते हुए १६६६ ई. में मकर संक्रांति के दिन इलाहाबाद पहुँचे।१०


    कहते हैं, उस वर्ष कुम्भ में सर्वप्रथम गुरु तेग बहादुर ही पहुँचे थे। उस समय गुरु जी अपनी माता (माता नानकी), धर्मपत्नी (माता गुजरी), अपने साले कृपाल चन्द जी, अपने शिष्य भाई मती दास, भाई सती दास, भाई गुरबख्स सिंह जी मसन्द, बाबा गुरदित्ता जी एवं अन्य अनेक लोगों एवं अनुयायियों के साथ इलाहाबाद पधारे थे। उनके इलाहाबाद आगमन के दिन मकर संक्रांति का उत्सव था। सबसे पहले नवम बादशाह गुरु तेगबहादुर जी ने संगम में डुबकी लगाई तथा स्नानोपरांत ब्राह्मणों को दान-दक्षिणा भेंट किया। गुरु तेग बहादुर के पहुँचने का समाचार मिलते ही अनेक ब्राह्मण एवं गरीब लोग वहाँ पहुँचने लगे, जिन्हें गुरु जी ने पर्याप्त दान दिया।११


   तेगबहादुर जी के संगम स्नान के उपरान्त परिवार के अन्य सदस्य एवं शिष्यों ने भी कुंभ में पवित्र संगम में स्नान किया। जब इलाहाबाद नगर के लोगों को नवम् गुरु के आगमन की खबर हुई, तब उनके अनेक शिष्य गुरुदर्शन की श्रद्धा से त्रिवेणी पर कई प्रकार की भेंट वस्तुएँ लेकर आए। सभी शिष्यों ने कुम्भ के शुभ अवसर पर त्रिवेणी पर गुरुदर्शन करके स्वयं को बड़भागी माना तथा गुरु को भेंट एवं श्रद्धा अर्पित की। सभी शिष्यों ने पूर्व में ही इच्छा प्रकट की थी कि गुरु जी को कुम्भ पर्व में कुछ काल तक यहाँ रुकना चाहिए ताकि सबको गुरु के मार्गदर्शन के साथ-साथ कल्पवास का उत्तम फल प्राप्त हो सकेशिष्यों के इसी निवेदन पर गुरु तेग बहादुर का इलाहाबाद की त्रिवेणी में आगमन हुआ था। उस समय त्रिवेणी के समीप ही एक खत्री भगत का घर था। उस भगत ने गुरु जी को अपने घर में ही रुकने का एवं लोगों के मार्गदर्शन का निवेदन किया। गुरु तेग बहादुर यहाँ छ: महीने नौ दिनों तक रुकेउन्होंने नित्य संगम स्नान एवं पूजन किया। संगम पर प्रतिदिन शिष्य एकत्र हो जाते थे। इन शिष्यों को निरंतर गुरु का मार्गदर्शन प्राप्त होता रहा। संगम प्रवास के अनन्तर एक दिन माता नानकी ने अपने पति अर्थात् आठवें गुरु हरगोविन्द सिंह की बातों का स्मरण किया, जब उन्होंने कहा था कि तुम्हारा बेटा नवम् गुरु होगा जो हिन्दू धर्म की रक्षा करेगा। उसका पुत्र महान् योद्धा होगा, जो तुम्हारी गोद में खेलेगा।१२, १३


    प्रयाग में माता नानकी ने गुरु हरगोविन्द सिंह की कही बातें गुरु तेगबहादुर को बताते हुए कहा कि अब मैं बहुत बुढी हो गई हैं और मैं अपना पोता देखना चाहती हूँ। माता की बातें सुनकर गुरु तेग बहादुर ने कहा कि तुम्हारी इच्छा पूर्ण होने का समय अब निकट आ गया है। उस समय गुरु ने सबको कहा कि जाओ गंगा स्नान करो और ग्रन्थ साहिब की वाणी श्रद्धा और ध्यान से सुनो अर्थात् स्मरण करो, ईश्वर तुम्हारी इच्छा शीध्र पूर्ण करेगा। यह सुनकर सभी लोग गंगा स्नान करने चले गए। तब माता नानकी ने कहा कि मैं बहुत बूढ़ी हो गई हूँ और गंगा में जाकर स्नान नहीं कर पाऊँगी। तब गुरु ने गंगा का आवाहन किया और वहीं कोने में स्थित एक कुएँ में गंगा जी पधार गईं। इस छोटे कुएँ के गंगाजल में माता ने डुबकी लगाया। पवित्र गंगा संगम स्नान के बाद गुरु तेग बहादुर ने ग्रन्थ साहिब का अखण्ड पाठ प्रारम्भ किया। सती दास, मति दास, गुरबख्श सिंह मसन्द, दयाला जी एवं बाबा गुरदित्ता जी ने मिलकर यह अखण्ड पाठ किया। सब लोगों ने बहुत श्रद्धा से अखण्ड पाठ श्रवण किया। यह सिखों के इतिहास का प्रथम अखण्ड पाठ था। प्रयाग संगम पर हुए इस प्रथम अखण्ड पाठ से ही गुरु ग्रन्थ साहिब के अखण्ड पाठ कीपरम्परा प्रारम्भ हुई। पाठ होते हुए जब छ: माह व्यतीत हो गए। तब गुरु तेग बहादुर ने अनी पत्नी गुजरी देवी को आशीर्वाद दिया, ‘अब तुम्हारे गर्भ से एक पूर्ण पुरुष का जन्म होगा। वह क्रूर आततायीयों से धर्म की रक्षा करेगा।'१४, १५


    उसी समय ईश्वर-आज्ञा से गुरु गोविन्द सिंह जी अपनी माता गुजरी देवी के गर्भ में आए।१६


   यह बात गुरु गोविन्द सिंह ने अपने विचित्र नाटक में लिखा है। उन्होंने वर्णन किया है कि जब उनके पिता पूर्वी भारत की यात्रा करते समय कई स्थानों से होते हुए प्रयाग पहुँचे, तब वहाँ उन्होंने कई दिनों तक स्नान, पूजा इत्यादि की। तभी गुरु गोविन्द सिंह अपनी माता गुजरी देवी के गर्भ में आए। इस प्रकार गुरु तेग बहादुर ने प्रयाग में छः माह नौ दिन तक प्रवास किया तथा शिष्यों को आशीर्वचन सुनाया। यहाँ उन्होंने सोरठ राग में जो सबद सुनाया वह सब अब गुरु ग्रन्थ साहिब का हिस्सा है।१७


   संगम के निकट का खत्री भगत का घर जहाँ गुरु तेगबहादुर ने छः महीने नौ दिन तक निवास किया था वह घर आज पक्की संगत गुरुद्वारा नाम से विख्यात है। गुरु ग्रन्थ साहिब के अखण्ड पाठ परम्परा का प्रारम्भ एवं गुरु गोविन्द सिंह के गर्भावतरण के विशेष ऐतिहासिक प्रसंगों का साक्षी रहा है यह पक्की संगत गुरुद्वारा स्थल१८


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१. एवमुक्त्वा प्रजा यत्र प्रजापतिमपूज्यत। प्रदेशः स प्रयागाख्यो यतः पूजार्थयोगतः ।।


२. उत्तर प्रदेश में जैन पुरावशेष, डॉ. डी.पी. दूबे + डॉ. ए.के. दूबे, पृष्ठ संख्या-३२, चित्र ४


३. संवत् १८८१ मागशीर्षशुक्लषष्ट्यां शुक्रवारे काष्ठासंघे माथुरगच्छे पुष्करगणे लोहाचार्याम्नाये भट्टारक श्रीजगत्कीर्तिस्तदाम्नाये अग्रोतकान्वये पिपलगात्रे प्रयागनगरवास्तव्या सा. श्रीहीरालालस्यपुत्रऋशभदास पुत्र सन्नूलाल .......... अगरवाल प्रभासा ..... श्रीपद्मप्रभ ....... प्रतिष्ठा कारिता।


४. प्राचीन भारतीय स्तूप, गुहा एवं मंदिर : डॉ. वासुदेव उपाध्याय


5. Fortyfied cities in Ancient India : Ratanlal Mishra


6   Muhammad Ghulam Sarwar, Khazinalöl Asfiya, Kanpur 1902, Vol I, P. 409; मुहम्मद गुलाम सरवर, काजीनतुल अस्फिया, कानपुर १९०२, खण्ड १, पृ. ४०९, मकतुबात-ए-शाह, मुहिबल्लाह इलाहाबादी


७. अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के पुस्तकालय में संरक्षित पाण्डुलिपि फोलियो १९४


८. मीर गुलाम अली आजाद बिलग्रामी, मासिरुल किराम, आगरा १९१०, खण्ड-१


९. Kumbh City Prayag-Dr. S.K. Dubey


१०. सूरज परकाश, रास आसु ५४


११. सूरज परकाश, रास आसु ५४


१२. सूरज परकाश रास ८, आसु ५६


१३. गुरु बिलास पातशाही, ६, अ. १


१४. श्री गुरु पन्थ प्रकाश, पुरवारद विसरण ३४


१५. विचित्र नाटक, चैप्टर ७


१६. सूरज प्रकाश, दास ११, आसु ५६


१७. गुरुग्रन्थ साहिब, पृ. ६३३


१८. pakkisangat.com