आलेख - साही : तेजस्विता की तरलता - परिचय दास

भोजपुरी-हिन्दी के द्विभाषी 11 से ऊपर कविता-संग्रह। हिन्दी अकादमी, दिल्ली शासन तथा मैथिली-भोजपुरी अकादमी, दिल्ली शासन के सचिव [प्रमुख कार्यकारी] रहे हैं। 'परिछन' के सस्थापक संपादक तथा 'इंद्रप्रस्थ भारती के संपादक रहे हैं। भोजपुरी-हिन्दी में इनकी लिखित-सम्पादित पुस्तकों की संख्या 25 से ऊपर हैं।


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विजय देव नारायण साही भारतीय साहित्य की एक ऐसी उपलब्धि हैं, जो नए पथ का निर्माण करती है। आलोचना में लीक से हटकर बात करने वाले साही की साहित्य में एक प्रचलित मुद्रा है : बहस करता आदमी। वास्तव में साही साहित्य के पक्ष में बहस करते हैं, साहित्य के माध्यम से आखिरी पायदान पर खड़े आदमी के पक्ष में बहस करते हैं। केवल बहस कर रहे होते तो एक बात होती, वे उनके लिए संघर्ष भी करते हैं: आत्म व बाह्य दोनों। इलाहाबाद शहर से लेकर बनारस के गाँवों तक। यानी देश व विश्व की समूची जड़ताओं से वे लड़ते रहे।


    १९७५ में जब लोकतंत्र खतरे में था, आपातकाल लगा दिया गया था तो राजनेता ही नहीं, अनेक साहित्यकार भी समूह में जाकर आपातकाल को समर्थन दे आए थे। आपातकाल में सारे लोकतांत्रिक अधिकार स्थगित थे, अभिव्यक्ति पर रोक थी, साहित्यकार की मूल प्रतिज्ञा है- अभिव्यक्ति के पक्ष में खड़ा होना। साही अभिव्यक्ति के पक्ष में खड़े हुए और जेल गए। निश्चित तौर पर एक लेखक व सकारात्मक विचारक जनता के मत व अपने विवेक का संघनन करता है।


     वैचारिक तौर पर वे मात्र मनोरंजक और मात्र सूचनापरक दोनों तरह के साहित्य की सीमाओं को अतिक्रमित करते हैं। साही कहते हैं: ‘‘वस्तुतः मात्र मनोरंजक और मात्र संदेशवाहक साहित्य अक्सर एक ही सिक्के के दो पहलू साबित हो जाते हैं। मनोरंजक साहित्य यह देखने के लिए तैयार ही नहीं होता कि जिंदगी को अर्थ से आलोकित करने वाले तत्त्व क्या हैं और कहाँ हैं?... मात्र संदेशवाहक साहित्य यह मानकर चलता है कि मूलभूत प्रश्न और मूलभूत उत्तर सब प्राप्त हो चुके हैं.... साहित्य में किसी दार्शनिक सिद्धांत और विचारधारा का वहन करना एक बात है और अपने युग की संपूर्ण चिंतनशीलता में उलझी हुई अनुभूति को आत्मसात करना दूसरी बात। यह आत्मस्थ चिंतनशीलता गंभीर साहित्य को एक बौद्धिक सघनता प्रदान करती है।''


     साही विश्लेषण करते हैं तथा 'माक्र्सवादी समीक्षा और उसकी कम्युनिस्ट परिणति' निबंध में बताते हैं- 'एक ओर धीरे-धीरे साहित्य को प्रतिबिंब, फिर वर्ग का प्रतिबिंब, फिर मजदूर का प्रतिबिंब बनाया गया, दूसरी ओर जनता को समेटकर मजदूर वर्ग, फिर मजदूर वर्ग को कम्युनिस्ट पार्टी और कम्युनिस्ट पार्टी को भी पार्टी नेतृत्व में केंद्रित कर दिया गया। इस अप्रत्यक्ष परंतु निश्चित परिणति को इसलिए गति और भी मिली कि इससे आलोचना का कार्य अत्यधिक सरल और लचीला हो गया, जो एक ‘हथियार' के लिए आवश्यक है। संभवतः इसी कारण समकालीन कम्यूनिस्ट आलोचक गण प्रगतिशील साहित्य के सार्थक अन्वेषण के लिए साहित्य के विशाल इतिहास में डुबकी लगाने की आवश्यकता नहीं समझते। एक थका देने वाली एकरसता के साथ कम्युनिस्ट आलोचक लेखक के सम्मुख केवल इतना प्रश्न रखना ही पर्याप्त समझते हैं : कला के लिए है अथवा समाज के लिए। यह विरोधाभास कितना भ्रामक है, इसका संकेत हम पहले कर चुके हैं। लेखक स्पष्टतः यह मानता हैकि कला समाज के लिए है। इसके पश्चात्-आलोचना का पूरा कर्तव्य कम्युनिस्ट पार्टी की विजय, उसके राज्य की स्थापना और उसके आदर्शों का पालन करने में ही है। साहित्यालोचन से अधिक इन तर्को का क्षेत्र राजनीति से भी अधिक अंधश्रद्धा और अंधविश्वास के बीच है।.... पार्टी की कार्यप्रणाली के अनुसार पार्टी के सांस्कृतिक मोर्चे का सक्रिय कार्यकर्ता भी होता है। उसका कार्य है-बुद्धिजीवियों में पार्टी का प्रचार। अतः कौशल की बेदी पर उसे साहित्यिक दृष्टि का बलिदान भी करना पड़ता है।"


    साही एक ओर तो अज्ञेय अजय को कविता को फिर से संभव बनाने के कारण बल देते हैं परंत दूसरी ओर अज्ञेय को अनेक सैद्धांतिक चुनौतियाँ देते हैं। अज्ञेय ९ अज्ञय का प्रयोगवाद नई कविता पर लागू नहीं हो सका। वास्तविकता तो यह है कि नई कविता प्रयोगवाद के विरोध से उपजी। यद्यपि कोई आंदोलन संपूर्णतः विरोध का ही आंदोलन संपूर्णतः विरोध का ही प्रतिफलन नहीं होता। प्रगतिवाद की कम्युनिस्ट एकरसता से परे जाकर साहित्य रचना प्रयोगवाद में संभव हुई लेकिन प्रयोगवाद भी जन से सीधे जुड़ा न रह सका और अमूर्तन की ओर गया। साही को एकदम से नई कविता का आलोचक कहना गैरवाजिब है। वे अकेले कवि-आलोचक हैं जिनमें काव्य वैभव व जनजुड़ाव एक साथ है और यही माक्र्सवादी आलोचकों की परेशानी है। साही के लिए आलोचना व कविता के नए अध्याय को पुनः विवेचित करना होगा क्योंकि वे आलोचना व कविता दोनों के पथ का अंतरण करते हैं। साही एक नया विन्यास लाते हैं। वे गांधी, माक्र्स दोनों पर संशय प्रकट करते हैं। माक्र्स के अनुयायियों ने मार्क्स को सैद्धांतिक तौर पर रक्षित करने का प्रयत्न किया किंतु भारत के वर्ण व वर्ग के द्वंद्व को वे समझा न सके। जब इस प्रश्न पर साही उतरते हैं तो माक्र्सवादियों को इसमें विकृति नजर आती है। माक्र्सवादियों ने विचारधारा को इस तरह हस्तगत किया कि विचारधारा जैसे साहित्य में माक्र्सवाद का पर्याय हो गई हो। साही ने इस पर कड़ा प्रहार किया। साही की विशेषता यह है कि उनका साहित्य कोई विचारधारात्मक एजेण्डा लागू करने की स्थली नहींवे साहित्य को व्यापक स्थल मानते हैं। उनका साहित्य किसी वाद में नहीं समा पाता। समाजवाद, अस्तित्ववाद : सभी को क्रास करता हुआ। अंतिम आदमी का पक्ष उनका है, व्यवस्था-पक्ष को चुनौती देते हुए। इसलिए आपातकाल से कांग्रेस-कम्युनिस्ट गठजोड़ जो राजनीति व साहित्य में भारत में बना हुआ था, उसको भी वैचारिक रूप से बँधने व जनपक्ष को खड़ा करने का कार्य उन्होंने किया। यह यूँ ही नहीं कि विरल व लीक से परे लिखने व विचार रखने के बावजूद उन्हें उपेक्षित किया गया। यह आज तक जारी है। उनकी किताबें तक ठीक से उपलब्ध नहीं है।


    साही अज्ञेय व मुक्तिबोध दोनों से भिन्न है : एक अलग पारिभषिकता लिए हुएमुक्तिबोध से बेहतर भाषा व रचना-शिल्प साही के पास है तथा अज्ञेय से अधिक प्रखर जनोन्मुखता। मुक्तिबोध की काव्य संरचना संश्लिष्ट है, साही की संरचना भी संश्लिष्ट है लेकिन काफी हद तक सुसंप्रेष्य। आधुनिकता के सारे प्रत्यय होने के बाद बनारस व इलाहाबाद की मिट्टी की गंध भी। अपने तरह की काव्यलय। उनकी लंबी कविता हो या छोटी कविता : लघु मानव का वैभव उसमें दिखता है। जिस समय माक्र्सवाद चरम पर था, उससे असहमति रखते हुए श्रेष्ठ क्लासिक रच पाना आसान नहीं। यह न भूलें कि उदार होने के बावजूद मुक्तिबोध का मूल आधार माक्र्सवाद ही था। इसीलिए साही अपनी प्रखरता में, तीक्ष्णता में, तरलता में तथा कविता में शैलीगत नावीन्य लाने में मुक्तिबोध से न केवल काफी अलग है अपितु नए पथ की रचना करते हैं तथा विचारने का नया सूत्र देते हैं। वे व्यक्तिवादी सोच के व्यक्ति नहीं, इसी तरह यंत्रीकृत समाजवाद भी उन्हें अपील नहीं करता। वे मुक्तिबोध व अज्ञेय दोनों से अधिक ‘खुले' तथा 'पुनर्रचनाकार' लगते हैं। शमशेर की तरह वे कवियों के कवि नहीं किंतु साही को समझने के लिए साहित्य की प्राथमिक तमीज चाहिए। शमशेर पर उनकी आलोचना भारतीय आलोचना का कीर्तिमान है। पास्तरनाक का उपन्यास ‘डॉ. जिवागो' जब सोवियत संघ में प्रकाशित किया गया तो डॉ. राम विलास शर्मा ने लेख लिखकर खुश्चेव द्वारा उसके प्रतिबंधित किएजाने का समर्थन किया था। साही अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के पक्ष में थे।


    साही प्रगतिशीलों के साथ-साथ प्रतिक्रियावादियों व पुनरूत्थानवादियों के लिए भी चुनौती हैं क्योंकि वे मूलतः मध्यकालीन सोच रखते हैं। दलानुशासन तथा संस्कृति का अवैज्ञानिक सौंदर्यशास्त्र दोनों उन्हें साहित्य-विरोधी लगता है। साही समसामयिकता पर नहीं, समकालीनता पर अपनी दृष्टि की सापेक्षता बनाते हैं। साही बने बनाए उत्तर में विश्वास नहीं रखते। वे जीवन-यथार्थ से परिपूर्ण उत्तर में भरोसा रखते थे जो संघर्ष से आता थावे नेहरू की हिन्दी-नीति से सहमति नहीं रखते थे। उनके प्रिय कवियों में कबीर, जायसी व शमशेर हैं किंतु । या साही शैल्पिक अन्वेषक, भाषाई समंजक तथा अपनी संरचना में अपनी अवधारणाओं के संप्रेषक हैं। समकालीनता व तेजस्विता जहाँ एकाकार होती है, उसे , विजयदेव नारायण साही कहते कि हैं। ऐसा विलक्षण, नवोन्मेषक, नई वैचारिकता को धार देने वाला, साहित्य की अंतरंगता से नए रास्ते सुजित करने वाला तथा सबसे निचले पायदान पर रहने वाले आदमी के पक्ष में दहाड़ने वाला मिलना मुश्किल है। उनमें मुक्तिबोध से अधिक खतरा उठाने की क्षमता है तथा अज्ञेय से अधिक सात्विक जीवंतता व यथार्थ।


     ... नक्षत्रों के बंधन टूटे


     लुत्ते-सी उड़ गई धरित्री


     आसमान का नील चँदोवा


     फूल-फूल कर


     पगलाए भैजे सा फूट कर तार हो गया :


     एक विकट चीत्कार छोड़ कर


     दिशाकाल का बहुत पुराना महल गिर गया।


     अर्थ का आलोक


     विजयदेवनारायण साही की सोच में सकारात्मक परिवर्तन रहा है। वे शब्दों को प्यार करते थेवे शब्दों के उमड़ते सिलसिले, उनके बहाव को महत्व देते थेवे महसूस करते थे कि वे सुरीली झनझनाहट के साथ खोले जा रहे हैं। जैसे चलचित्र की रील खोली जाती है। वे मानते थे कि वे रजत पट पर फिंकते हुए चित्रों की तरह हैं, जिसमें चित्रों से अधिक महत्वपूर्ण है उनका खुलना, चिरंतन खुलना और इस खुलने का तरल संगीत। वास्तव में साही अपनी रचना में तरल संगीत की तरह खुलते हैंकविता में तरलता और संगीत दोनों। साही खुलने या बंद हो जाने; बोलने या मौन में एक बारीक सी सुख की रेखा देखते हैं तथा दोनों में अंतर नहीं। उनकी आत्मा दोनों में विद्यमान हैं और वे दो हिस्सों में बंटे नहीं हैं


    साही अंत:मन से संघर्ष के बहाने व्यवस्था के भीतर उठते चीत्कार व अंतिम जन की नियति (जिसे स्वीकार नहीं किया जा सकता) को उभारते हैं-


    ओ मेरे जिद्दी मन के निर्मम निर्माता । तुमने मुझको किस चौराहों पर / जो शीश झुकाए हुए अजब नगर में छोड़ दिया? मुसाफिर चलते हैं।


    ये कहां जा रहे हैं इनकी क्या मंजिल है । कोई बतलाता नहीं मुझे / शायद इनमें बातें करने की रस्म नहीं । सारा का सारा नगर महज चुप है।/ तुमने मुझको किस अजब नगर में छोड़ दिया?


     साही को चुप्पी खलती है। वे संवाद चाहते हैं। लोग हैं कि बात नहीं करते और शीश झुकाकर अज्ञात स्थल की ओर चले जा रहे हैंऐसे चौराहे साही को मार्मिक उलझन में डालते हैं। साही मानते हैं कि संवाद शब्दों और मुद्राओं दोनों से परे भी संभव है। वे सिर उठाते हैं और कहते हैं कि वे अपनी उपस्थिति दर्ज करते हैं तो व्यवस्था टूटती-सी दिखती है। वे जब कहते हैं कि वे सिर नहीं नवाते तो समुदाय आहत हुआ। उन्हें निराशा व आश्चर्यानुभूति होती है कि लोग मोम जैसे हो गए व राष्ट्र कच्चे कांच का गुंबद बन गया।


    साही देख रहे हैं कि सभी सो रहे हैं। साही को नींद नहीं। वे बदलना चाहते हैं। उनके सामने कई दृश्य हैं : बीमार बूढ़ा है, कठी पर लाश है, अंधा भिखारी है, समूची सृष्टि है।


वे महसूस करते हैं कि इन सबका उनकी जिंदगी के फैलाव में हिस्सा है। कवि सोचता है कि अपने हिस्से काट-काटकर वह इन ‘अधूरे देवताओं के लिए दे देगा? क्या ही अच्छा होता वह समूचा ही इन्हें दे दिया जाता' परन्तु सच है कि ये ‘अधूरे देवता' अंधेरी दीवारों से ताक रहे हैं, सिर हिलाते हैं, उन्हें अपने हिस्से के अलावा नहीं चाहिए। समाज के असहायों पर कवि की गहरी संवेदनशील दृष्टि है। वह सक्रिय भूमिका निभाना चाहता है, वह बेहतरी चाहता है।


    विजयदेवनारायण साही की कविता में संश्लिष्टता है। यह संश्लिष्टता जीवनानुभवों के परावर्तन हैं। नई दृष्टि के साथ उनमें प्राचीनता की स्मृतियां हैं। प्राचीनता पर उनका सचेतन अभिप्राय है। प्रकृति, ऋतुएं उनके यहां आती हैं तो मात्र पारंपरिकता को अभियुक्त करने नहीं। उनको कवि ने एक नया बोध व भंगिमा प्रदान की है। चूंकि उनका कंसर्न सामान्य आदमी है, इसलिए उसके पक्ष की लयात्मकता उनकी कविता का आधार है। साही की कविता-भाषा में एक ओर तो सहजता व साधारणता है, दूसरी ओर उसमें समयानुकूल नयापन है, लीक से हटकर कथ्य है। साही में समय और समय से आगे का अननाद है : एक अद्भुत वातावरण की अनुगूंज! संघर्षशील मनुष्य की सूक्ष्म व्यंजना, विचारणा निश्चय ही अपरिमेय है।


    साही को मालूम था कि आपातकाल का समर्थन करने वाले किस बारीकी से अन्याय के पक्ष में होकर भी जनता में अपनी छवि चमकाए रखना चाहते हैं। अंधकार, बहुत घना अंधकार, साही के सामने है।


    उसने अपनी आंखें / ऊपर चमकते तारों / और नदी कहीं शून्य में टिका दीं / अंधेरा जहां सबसे घना था।/ और अंधकार में / अदृश्य पानी के बहने की आवाजें आती रहीं।


    साही अंधकार में अदृश्य पानी के बहने की आवाजें सुन लेते हैं। यह समय को अतिक्रांत करने वाला कवि ही सुन सकता है। जो कान रहते हुए सुनते नहीं, जो आंखें रहते हुए देखते नहीं, वे ही अन्याय का, आपातकाल का समर्थन करते हैं। वे साहित्य में भी अपनी चलाते रहते हैं। वे ही अंधेरे के शिल्प को ग्लैमराइज करते हैं। वास्तव में वे प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से अंधेरे के पक्ष में खड़े होते हैं।


    साही सपाट धुंधलेपन के लिए अर्घ्य देते हैं-


    जिन आकाशभाषितों ने/अंतरिक्ष में/स्तब्धता फाड़कर चकाचौंध पैदा की थी/उनकी थरथराहट खत्म हो गई है। हर गली में फहराती हुई/रंगीन प्रकाशन की पताकाएं/कहां विलीन हो गई?... नदी के ठिठुरते पानी में कमर तक प्रविष्ट/आखिरी मंत्र न जाने कब का पूरा हो गया/अंत में मैंने ऊबकर अर्थ्य गिरा दिया/सूरज के लिए नहीं संदिग्ध से बादलों के लिएजो सपाट अंतरिक्ष में फैले हुए थे/और जिनके भीतर से/न अंधकार न रोशनी/एक अपरिभाषित सा धुंधलापन/वातावरण पर छा गया था। फिर मैं चुपचाप ऊपर चला आया। सुडौल पत्थरों के बीच/नदी बहती रही/धनुषाकार, वेगवान।


    इसमें कोई दो राय नहीं कि साही के पास वाक्पटुता है। वे असंप्रेषणीय कवि नहीं। यहां संप्रेषणीयता को व्यापक अर्थ में लिया जा रहा है। ऐसा लगता है कि साही कविता के बहाने जन की कथा के साथ आत्मकथा भी लिख रहे हैं। इसलिए उनकी कविता की पंक्तियों के उजाले में अधिक अर्थपूर्ण, अधिक हृदयगाही, अधिक स्वच्छ, अधिक बेचैन सूत्र मिलते हैं जो नेपथ्य को भी समझने का सामर्थ्य देते हैं। भारत के सामने व भारत के नेपथ्य में। कवि के अंतर्लोक में अंतिम मनुष्य के पक्ष का राग है, एक तरह से आलोडन, जो जड़ता से मुक्ति दे। साही को मथने वाले अंतर्द्वद्व उन्हें कवि बनाते हैं। जो अंतर्द्वद्व उन्हें विचारणा का आधार देते हैं, वे ही शिल्प बिंबित भविष्य भी उन्हें देते हैं। साही उन लोगों में नहीं जो शब्द का रूपांतर विचार में करके कविता से इतिश्री कर लेते हैं। विचारों के जड़ व्याकरण को भी वे तोड़ते हैं। सतत गतिशील किन्तु आवश्यक विराम।।


    साही कांति का विस्फोट करते हैं। एक ऐसा रूपाकार, जो दुर्लंघ्य है, हरा-हरा उठता है। वहीं से अर्थ का आलोक सृजित होता है


    एक जड़ता और / जिसे हमने तीव्र अपनी कांति के विस्फोट से / जीवित किया / एक क्षण को / हरहरा उठा वह दुर्लंघ्य रूपाकार / कांपते रहे जिसमें करोड़ों परमाणु ज्वरआक्रांत- /फिर यह लहर /


    जो हमारे अर्थ को आलोक देकर बह गई। यह हमारी सृष्टि है, हम नहीं।


    यह साही के लिए ही संभव है कि कला भाषा में रचते हुए कलावादी नहीं है, अंतिम मनुष्य पर लिखते हुए स्थूल जनतावादी नहीं हैं। शब्दों के साथ क्रीड़ा करते हैं, सरल-सहज कथन करते हैं, नए पथ बनाते हैं, नई दृष्टि देते हैं तथा संप्रेषणीय बने रहते हैं। परंपरा में जाकर भी अतीतगामी नहीं होते, अस्तित्व पर समझ करते हुएअस्तित्ववादी नहीं होते। वे कविता के व्याकरण को बदल देते हैं, इस अर्थ में कि कविता को विरल बारीकी से साधते हैं, कविता के लिए अर्थ के मेरुदण्ड को मोड़कर तोड़ते हुए आगे बढ़ते हैं।


                                                                                                                                 


       किन्तु वो ममतालु । दौड़ आया हूँ यहां तक /आत्मविस्मृत, तपः पूत, विभोर / अपने खुलेपन से ही प्रताड़ित, बिद्ध, / चारों ओर उच्छल नीलिमा से घिरी / मेरी डूब जाने की अलौकिक प्यास, /


      मुख से विकल / स्वर्गिक, मुग्ध और असमर्थ बाहों की विरलता बीच / बिछती जा रही है। सुनो, / ओ सलिला, / तुम्हारे हृदय की तल-वासिनी यह रेत / मुट्ठी में उठा / तप्त मस्तक से लगाकर / मांगता हूं।


     साही शब्दों को उसका अर्थ लौटाते हैं, व्याकरण को लौटाते हैं और तार्किकता लाते हैं। साही के शब्द अपनी गतिमयता, लयधर्मिता और लक्ष्यमयता की शक्ति से गतिमान हो जाते हैं। साही शब्द को लक्ष्यमय बनाते हैं।


      साही शब्द की धमनियों में नए अर्थों का संचार करते हैं। वे शब्द को सहज सौहार्द के रूप में उपयोग में लाते हैं। साही जानते हैं कि शब्द-शक्ति समष्टिगत शक्ति है, सामाजिक शक्ति है। वे भाषा के चरित्र व रूपायन को नई क्रांति देते हैं। उनकी वाक्य रचना की शैली, उनका अव्ययों का प्रयोगकारक विभक्तियों का प्रयोग, पद का प्रयोग कविता के व्याकरण से भिन्न है। उनमें जरूरी अस्वीकार है। वे चुनौतियों को स्वीकारते हैं


     प्रथम बार जब तुमने झूठा ईश्वर देखा / मानव के घायल मस्तक की साक्षी देकर / मैंने अस्वीकार किया था, जीवित करता हूँ मैं वे अभियान पुराने- / भय : तुमको था अंधकार का। / लोभ : तुम्हें था सार्थकता का।मोह : तुम्हें था आलंबन का।/ अंधकार के सूनेपन से हार मानकर / वैभववाले इंद्रजाल से छाया की भीख मांगना / कायरता है। अपने पौरुष की जिजीविषा से भय खाकर इतिहासों के नागपाश में / इष्ट नियति के बादल रचना / कायरता है।/ हां मैं वही पुराना द्रोही / आज तुम्हारी व्यथित अनास्था की साक्षी दे । निरवलंब मानवता को आमंत्रित करता।/ तुम्हें चुनौती फिर देता हूं / पितृहीन होना ही केवल / यदि ईश्वरत्व का लक्षण हैतो हम सबके सब ईश्वर हैं।


     अनेक बार साही भाषा में विघ्न पैदा करते हैं परन्तु तब वे रूपकों का सहारा नहीं लेते। वास्तव में उनकी समूची वाक् - भंगिमा एक घनसंबद्ध रूपक है। यह सब करते हुए वे अतियथार्थवादी (सुपर्रियलिस्टिक) नहीं होते। व्याकरण व यतिचिह्नों को भी पूरा उलट-पुलट कर वांछित परिणाम प्राप्त करने का प्रयत्न करते हैं।


      साही में कमजोर का आर्तस्वर है। वे इतिहास के संधिलग्न में खड़े होकर भविष्य की ओर दृष्टिपात करते हैं, अपने समय से मुठभेड़ करते हुए। ‘इलाहाबाद : आधी रात' कविता में वे रात के विकराल तम की प्रवंचना देख लेते हैं, क्योंकि ‘रोशनी का भंवर वह बेचैन, जो तिमिर के अतल जबड़ों में समाता जा रहा है।' साही की कविता का वृहत् अर्थ है : संसर्ग, तादात्म्य, अखण्डता। वे रचनाकार व पाठक की दूरी कम करते हैं। इसका अर्थ है, कविता के व्यक्तित्व को सर्वजन ग्राह्य बनानायह साहित्य की मूल प्रकृति के पक्ष में है। यह अंतिम मनुष्य के पक्ष में है। यह बेचैन मनुष्य के पक्ष में है। वे साहित्य और भाषा के शुद्धतम उत्स की तलाश करते हैं। वे तर्कों पर विश्लेषण मात्र नहीं करते, आवेश का संश्लेषण करते हैं, जहां कविता में बंधीबधाई अभ्यस्त संज्ञा से शब्द को मुक्ति मिल जाती है। इसीलिए साही का एक प्रयास प्रवहमान समय के खिलाफ एक विद्रोह है।


                                                                                                                                                                         सम्पर्क : 76, दिन अपार्टमेंट्स, सेक्टर-4,


                                                                                                                                                                 द्वारका, नई दिल्ली-110078, मो.नं.: 9968269237