' आलेख - प्रेमचन्द और इलाहाबाद प्रो. अली अहमद फ़ातमी

प्रारंभिक शिक्षा मजीदिया हाई स्कूल इलाहाबाद से। उच्च शिक्षा इलाहाबाद विश्वविद्यालय से। इलाहाबाद केन्द्रीय विश्वविद्यालय में उर्दू के प्रोफेसर एवं विभागाध्यक्ष से अवकाश ग्रहण करने के बाद स्वतंत्र लेखन। अनेक अवार्ड से सम्मानित कई पुस्तकों के लेखक एवं हिन्दी-उर्दू के पत्रपत्रिकाओं में अनेक लेख प्रकाशित।


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    इलाहाबाद अद्भुत शहर है। नदियों के संगम ने इसे तालीमी और तहजीबी (शैक्षिक और सांस्कृतिक) हैसियत बक्शी (स्थान प्रदान किया) कि संगम ऋषियों, मुनियों और सूफियों का भी संगम बन गया। प्रत्येक वर्ष संगम के पास इंसानी तथा अवामी इजतेमा (जन समूह) ने इसे ऐसी तवज्जो (ध्यान) और सौन्दर्य प्रदान किया कि दूर-दूर से लोग आते गए और यहाँ बसते गए तथा शहर इलाहाबाद एक ऐतिहासिक व सांस्कृतिक शहर की हैसियत से जाना गया। प्राचीन काल से लेकर बीसवीं शताब्दी तक दूर-दूर से पहले ऋषि और सूफी, बाद में शायर (कवि) और अदीब (लेखक) इलाहाबाद आते गए और बसते गए। फिर इलाहाबाद ही उनका वतन (देश) ठहरा। हिन्दी के प्रसिद्ध शोअरा, उदबा (कवियों व लेखकों) निराला, पन्त, इलाचन्द जोशी, महादेवी वर्मा, अमरकान्त, मार्कण्डेय, शेखर जोशी इत्यादि वास्तविक रूप से इलाहाबाद के नहीं थे लेकिन इलाहाबाद में उनकी पहचान स्थापित हुई। उर्दू में भी फिराक गोरखपुरी, उपेन्द्रनाथ अश्क, बलवन्त सिह, एहतेशाम हुसैन, मसीहुज्जुमा, शम्सुर्रहामन फारूकी इत्यादि भी इलाहाबाद के न होकर इलाहाबाद के कारण पहचाने गए। बाद में यही शहर उनका वतन और मस्कन ठहरा। कुछ अदीब ऐसे भी थे जो इलाहाबाद को वतन के तौर पर तो न अपना सके लेकिन इलाहाबाद उनके जीवन और कारनामों पर विभिन्न तरीकों से असाधरण तौर पर प्रभाव डालता रहा। प्रेमचन्द का नाम ऐसे अदीबों (लेखकों) की सूची में सबसे उच्च स्थान पर आता है।


   यह सच है कि प्रेमचन्द का जन्म बनारस के एक गाँव में हुआ था। बचपन भी वहीं बीता। प्रारम्भिक शिक्षा भी वहीं प्राप्त की और इसके बाद कानपुर के मुन्शी दया नारायण निगम से घनिष्ठ मित्रता तथा 'जुमाना' पत्रिका में उनकी कृतियों के प्रकाशन के कारण इन दोनों शहरों से प्रेमचन्द के गहरे सम्बन्ध नज़र आते हैं। इन दोनों शहरों के बीच इलाहाबाद दबा-दबा और छिपा-छिपा सा दिखाई देता है लेकिन खोज के तहत देखा जाए तो प्रारम्भ से लेकर अन्त तक इलाहाबाद ने प्रेमचन्द के जीवन, रचनाओं और विचार व दृष्टिकोण को प्रभावित किया है। बस जूरा ध्यान से देखने और समझने की आवश्यकता है।


   प्रेमचन्द का बचपन बनारस और गोरखपुर में बीता जहाँ उनके पिता थे। यहीं उन्होंने फारसी, उर्दू पढ़ी और गोरखपुर से १८९९ ई. में इन्ट्रेन्स (हाईकूल) द्वितीय स्थान में उत्तीर्ण कियाउस समय में आस-पास के सभी कालेज इलाहाबाद विश्वविद्यालय से संबंधित थे। इसलिए कहा जा सकता है


            


कि उनको पहली महत्वपूर्ण डिग्री इलाहाबाद से मिली और गायबाना (अदृश्य) तौर पर इलाहाबाद से शैक्षिक सम्बन्ध दृढ़ हुआ। पिता की मृत्यु के बाद मां और भाई-बहनों की जिम्मेदारियों के कारण प्रेमचन्द को जल्दी नौकरी करनी पड़ी और वह पहली बार जुलाई १९०० ई. में बहराइच में शिक्षक के तौर पर तैनात किए गए लेकिन जल्द ही प्रशिक्षण के लिए इलाहाबाद आना पड़ा। इलाहाबाद आकर वे १९०२ ई. से लेकर १९०४ ई. तक ठहरे। कमल किशोर गोयनका के अनुसार- * अप्रैल १९०४ ई. गवर्नमेंट सेन्ट्रल ट्रेनिंग कालेज इलाहाबाद से जूनियर इंगलिश टीचर सर्टिफिकेट का इम्तेहान दिया और अव्वल दर्जे (प्रथम श्रेणी) में इम्तेहान पास कियायही वह दौर था जब इलाहाबाद में उन्होंने उर्दू के अलावा अंग्रेजी साहित्य का अध्ययन किया और यही वह जमाना था कि जब उन्हें बनारस, गोरखपुर, प्रतापगढ़ के छोटे और घुटे माहौल से निकल कर निस्बतन (तुलना में) एक बड़ी और खुली जगह सांस लेने का अवसर मिला। यही वह शहर है जहाँ उन्हें खुलने और हंसने के अवसर मिले। उसी समय के मित्र बाबू कृष्ण लाल जो प्रेमचन्द के सहपाठी थे, अपने एक लेख में प्रेमचन्द के इसी दौर के जीवन के संबंध में लिखते है- “प्रिन्सिपल साहब आपसे (प्रेमचन्द) बहुत खुश थे इसलिए उन्होंने आपको ट्रेनिंग कालेज मॉडल स्कूल का हेडमास्टर मुकर्रर (तैनात) कर दिया था। जिस तरह उनकी वजअ कृतअ (वेशभूषा) सादा थी आदतें और एखलाक (व्यवहार) भी सीधा सच्चा और तसन्नों (बनावट) से बालातार (उपर) था खुलूस (मेलमिलाप) आपका हमेशा से शेआर (तरीका) था, आवाज़ बलन्द थी और ब्राहमख्वाह किसी से दबने वाले आदमी न थे। हास्टल में किसी से लड़ना-झगड़ना दर किनार उन्हें कभी किसी से नामुलायम या खिलाफ तहजीब गुफ्फगू करते भी नहीं देखा गया। पढ़तेलिखते वक्त अक्सर अपना कमरा अन्दर से बन्द लिया करते और तफरीह (मनोरंजन) के वक्त दिल खोलकर तफ़रीह करते। जब हंसते तो खूब हंसते और कृहकृहा (ठहाके) लगाते चले जाते। इस वजह से हम लोग और खासकर मैं और गिरजा किशोर उनको 'बम्बूक' कहा करते थे''


    बम्बूक का ये दिलचस्प नाम भी इलाहाबाद में पड़ा। बाद में सोजे वतन के हादसे के बाद की कुछ तहरीरें इसी फर्जी नाम से प्रकाशित हुईं।


    इलाहाबाद ट्रेनिंग कालेज में प्रेमचन्द यानी धनपत राय लगभग दो साल रहे। इलाहाबाद का साहित्यिक और रचनात्मक माहौल जो उनकी बहुत उचित प्रतीत हो रहा था, इसने उनके अन्दर बकायदा कोई बड़ी तख़लीक (कृति) या नावेल लिखने पर उकसायापरिणामस्वरूप उन्होंने अपने जीवन का पहला उपन्यास ‘असरारे मआबिद' इसी शहर में लिखना प्रारम्भ किया और यहीं आवाजे खुल्क में १८ अक्टूबर से किस्त वार (कई बार में) प्रकाशित होता रहा। इस सिलसिले की सबसे महत्वपूर्ण तथा ध्यान देने योग्य बात है कि आवाज़-ए-खुल्क जिसमें इस उपन्यास की किस्त प्रकाशित होती थी, उसके आन्तरिक पृष्ठ पर उपन्यास के शीर्षक के पश्चात् उनका नाम यूं लिखा होता- 'मुसन्निफ (लेखक) मुन्शी धनपत राय साहब उर्फ नवाब राय इलाहाबादी।'' प्रेमचन्द जो बनारस में पैदा हुए जिनकी प्रारम्भिक शिक्षा गोरखपुर में हुई जब वह अपनी प्रथम पूर्ण रूप से बड़ी तखलीक (कृति) रकम (तहरीर) करते है तो अपने नाम के आगे बनारसी या गोरखपुरी के बजाय इलाहाबादी लगाना पसन्द करते हैं। यह बात ध्यान देने योग्य है इसलिए न सिर्फ इस दौर में इलाहाबाद की अदबी-तहजीबी (साहित्यिक सांस्कृतिक) अहमियत (महत्व) का अनुमान लगाया जा सकता है बल्कि हुलाहाबाद के थोड़े कृयाम (ठहरने) के दौरान उनपर पड़ने वाले प्रभाव और इस शहर से उनका दिमागी और वैचारिक सम्बन्ध का भी अनुमान लगाया जा सकता है, और यह भी कहा जा सकता है कि वह धनपत राय जो प्रेमचन्द के मार्ग पर चल पड़े थे, उसकी पहली सीढी या पड़ाव इलाहाबाद था और ये भी कहा जा सकता है कि प्रेमचन्द के रचनात्मक तरीके को आगे बढ़ाने और प्रकाशन की मन्जिल तक लाने में इलाहाबाद ने बुनियादी रोल अदा किया तो गलत न होगा। इसके उदाहरण और भी हैं।


    प्रशिक्षण पूरा करके वह ४ मई १९०४ ई. को फिर प्रतापगढ़ चले गए लेकिन इलाहाबाद ट्रेनिंग कालेज के प्रधानाचार्य जे.बी. केमेस्ट्री इस तरह खुश थे कि उन्होंने प्रेमचन्द को फिर से इलाहाबाद बुलवा लिया। प्रोफेसर कुमर रईस लिखते हैं- “१४ फरवरी १९०५ ई. तक वह इलाहाबाद में मॉडल स्कूल के शिक्षक के ओहदे (पद) पर काम करते रहे। लिखने-पढ़ने का जौक (शौक) भी बढ़ता रहा। इसी साल उनका एक उपन्यास हम खुरमा व हम सवाब महोदव प्रसाद वर्मा ने लखनऊ से शाया (प्रकाशित) किया।''


    दूसरा उपन्यास लखनऊ से प्रकाशित ज़रूर हुआ लेकिन ये भी इलाहाबाद में ही लिखा गया। इलाहाबाद के इसी कृयाम (ठहरने) के दौरान उनका पत्र व्यवहार कानपुर के मुन्शी दया नारायण निगम से हुआ। एक पत्र में एक नए उपन्यास का ज़िक्र मिलता है, ये नावेल ‘किशना' है जो प्रकाशित तो १९०६ ई. में हुआ लेकिन यकीन है कि ये उपन्यास भी इलाहाबाद ही में लिखा गया। चूंकि इसी के फौरन बाद उनका तबादला (स्थानांतरण) कानपुर हो गया इसलिए इसके बाद का ये तीसरा उपन्यास कानपुर में लिखा गया होगा।


    आम तौर पर कानपुर के कुयाम (ठहरने) को प्रेमचन्द की ज़िन्दगी और उनकी कृतियों व प्रकाशन में महत्वपूर्ण समझा जाता है लेकिन इलाहाबाद में बिताए हुए उनके कुछ वर्ष भी महत्व रखते है, जहाँ से वह अपने तखलीकी सफ़र (यात्रा) को प्रारम्भ करते हैं और एक नहीं तीन-तीन नावेल इलाहाबाद में लिखते हैं और अपने नाम के आगे इलाहाबादी लगाना पसन्द करते हैं।


   इलाहाबाद की अपनी सूफियाना कलंदरांना रवायत (परम्परा) रही हैइसका अपना एक तारीखी व तालीमी ऐतिहासिक व शैक्षिक) तथा तहजीबी माहौल (सांस्कृतिक वातावरण) रहा है, इसलिए इलाहाबाद ने उन पर प्रभाव न डाला हो ये सम्भव ही नहीं। ये अलग बात है कि इलाहाबाद में उन्हें दया नारायण निगम जैसा ही मित्र और 'जुमाना' जैसी पत्रिका या कोई उचित प्रकाशन न मिल सका जिसके कारण उनकी कृतियाँ बनारस, लखनऊ, कानपुर से प्रकाशित हुई और प्रेमचन्द की ज़िन्दगी में इलाहाबाद को वह सीन न मिल सका जो बाद में कानपुर को मिला। अमृत राय ‘कलम का सिपाही' में लिखते हैं- “पिछले बरसों में उसने (प्रेमचन्द) न जाने कितना कुछ पढ़ा था लेकिन उसमें ज्यादा तर राजा रानी के किस्से थे। तिलिस्म और अय्यारी (जादू) के किस्से थे। पढ़ने में ये बहुत अच्छे लगते थे मगर लिखना वो कुछ और चाहता था। इस तरह के किस्से फिर लिखकर क्या होगा, ठीक है इनसे दिल बहलाव होता हैं मगर सवाल ये हैं कि हम आखिर कब तक इसी तरह दिल बहलावा करते रहेंगे। इस तरह तो तारीख के सफ़हात (इतिहास के पन्ने) से हमारा नाम भी मिट जाएगा। ज़रा अपने समाज की हालत भी तो देखें, कैसी मुर्दा की सी नींद सो रहा है। इसका दिल बहलाने की ज़रूरत है कि झकझोर इस कदर जगाने की? न जाने कब से सो रहा है, इसी तरह क्या कयामत तक सोता रहेगा। ये तो मौत है सरासर अगर कुछ लिखना ही है तो ऐसा लिखो जिससे ये मौत और अकलियत की नींद कुछ टूटे। कुछ मुर्दनी दूर हो।''


   ये बेदारी (चेतना) का एहसास उन्हें इलाहाबाद के शैक्षिक और खुले वातावरण में ज्यादा हुआ जब वह यहाँ आकर पढ़ने लिखने में व्यस्त हुए और पढ़े-लिखे लोगों से मिले भी। खुश फिक्र व खुश मिज़ाज (प्रसन्न विचार व प्रसन्नचित) अंग्रेजी प्रधानाचार्य मेहरबान हुआ। अंग्रेजी भाषा व साहित्य के समीप आए। दूसरे गम्भीर शिक्षकों से मित्रता हुई और फिर इलाहाबाद का ऐतिहासिक तथा सांस्कृतिक वातावरण का अपना एक अलग जादू था जो प्रेमचन्द के विचार और कुलम पर अपना प्रभाव डाल रहा था।


    तकरीबन इस वक्त इलाहाबाद में उर्दू प्रकाशन का माहौल ज्यादा न था या कोई प्रकाशन या प्रेस न रहा होगा इसीलिए प्रेमचन्द को अपने उर्दू उपन्यास दूसरे शहरों से प्रकाशित करवाने पड़े लेकिन हिन्दी के सम्बन्ध से ऐसा न था इसीलिए उन्होंने अपने उपन्यास ‘हम खुर्मा व हम सवाब' का हिन्दी अनुवाद ‘प्रेमा' के नाम से इण्डियन प्रेस इलाहाबाद से १९०७ ई. में छपवाया। कमल किशोर लिखते हैं- “उन्होंने अपनी ज़िन्दगी का आगाज (प्रारम्भ) उर्दू जुबान से किया लेकिन उनमें हिन्दी के पढ़ने वालों तक पहुँचने की खुवाइस शुरू से ही रही। इसी वजह से उन्होंने अपने उर्दू नावेल 'हम खुरमा-व-हम सवाब' का हिन्दी तरजुमा ‘प्रेमा' के उन्वान (शीर्षक) से १९०७ में इन्डियन प्रेस इलाहाबाद से शाया(प्रकाशित) कराया''।


    हिन्दी में भी उनकी यह पहली रचना जो अनुवाद के कारण ही सही, पहली बार इलाहाबाद से प्रकाशित हुई। इसके बाद ‘सोज़-ए-वतन' का हादसा धनपत राय से प्रेमचन्द बनने का वाक्या, दिसम्बर १९१० ई. में प्रेमचन्द के नाम से पहली कहानी ‘बड़े घर की बेटी का प्रकाशन। नौकरी से अलग होना और आजादी। स्पष्ट है कि इन सब कार्यों के सम्पादन या रद्द होने में दूसरे शहरों में इलाहाबाद का भी अमल दखल (हस्तक्षेप) रहा जिसके विस्तार में जाने का समय नहीं। इसी दौरान उन्होंने अपने शैक्षिक तथा साहित्यिक जीवन को अधिक मजबूत करने के लिए स्नातक करने का इरादा किया। वह ये डिग्री प्राइवेट या किसी तरह से भी हासिल कर सकते थे लेकिन इलाहाबाद के अलावा उनकी नज़र कही न गई इसलिए कि इस समय शहर इलाहाबाद और इलाहाबाद विश्वविद्यालय को जो महत्व प्राप्त था, किसी और को नहींउन्होंने पहले १९१६ में इलाहाबाद से इण्टरमीडियट और इसके पश्चात् १९१९ ई. में इलाहाबाद विश्वविद्यालय से स्नातक की डिग्री प्राप्त कीबी.ए. में उनके विषय अंग्रेजी, फ़ारसी और इतिहास थे। इसी समय वे गांधीजी से अत्यधिक प्रभावित हुए और उनके विचार और दर्शन को अपनी रचनाओं में प्रस्तुत करने लगे।


    नौकरी से पद त्याग के पश्चात् वह पढ़ने लिखने और जीवन बिताने के लिए तरह-तरह के संघर्ष करते रहे। बनारस, लखनऊ, कानपुर, इलाहाबाद एक करते रहे। इस दौरान इलाहाबाद उनसे कभी अलग न हुआ बल्कि उन सब पर हावी रहा। गोयनका का विचार है कि उन्हें सबसे ज्यादा इलाहाबाद की अन्जुमनों ने मदद की। वह २० फरवरी १९२०, अक्टूबर १९२१, दिसम्बर १९३०, १२ जनवरी १९३६, १४ जनवरी १९३६ को अदबी जलसों में हिस्सा लेने के लिए इलाहाबाद गए। इलाहाबाद विश्वविद्यालय की हिन्दी परिषद् के एहतेमाम से दिसम्बर १९३० के गल्प सम्मेलन में यहाँ के तुल्बा (छात्र) हरिवंश राय बच्चन के साथ जब उनसे मिले तो उन्होंने कामयाब कहानी लिखने के कई गुर सिखाए।''


   इलाहाबाद से जो उनके वैचारिक सम्बन्ध बन गए थे, वह सम्पूर्ण जीवन स्थापित रहे, इसका सबसे बड़ा प्रमाण दिसम्बर १९३५ ई. में उनकी सज्जाद जहीर और उनके मित्रों से भेंट है और प्रगतिशील (तरक्की पसन्द) लेखक संघ के घोषणा पत्र (मेनीफेस्टो) पर हस्ताक्षर है और बाद में उसकी पहली कान्फ्रेंस में उपस्थिति है कि गोयनका दिसम्बर १९३५ ई. का इतिहास नजर अन्दाज़ कर गए।


   जब सज्जाद जहीर विदेश से अपनी शिक्षा पूर्ण करके इलाहाबाद आए तो उनके विचार में सबसे बड़ा मामला प्रगतिशील लेखक संघ के कृयाम (गठन) का था। सबसे पहले वह अहमद अली (शिक्षक अंग्रेजी विभाग इलाहाबाद विश्वविद्यालय) से मिले और उनके ज़रिये फिराक गोरखपुरी और हुसैन से मुलाकातें हुई। प्रगतिशील लेखक संघ के उद्देश्यों व इरादों पर विचार विमर्श किया। इन्हीं दिनों डाक्टर ताराचन्द हिन्दुस्तानी अकादमी की तरफ से उर्दू हिन्दी लेखकों का एक जलसा बुलाया गया था जिसमें प्रेमचन्द उपस्थिति होने वाले थे इसके अतिरिक्त जोश मलीहाबादी, अब्दुल हक, रशीद जहाँ की भी उपस्थिति की आशा थी। प्रेमचन्द और सज्जाद जुहीर की पहली भेंट इसी शहर इलाहाबाद में हुई। सज्जाद जुहीर ने अपनी पुस्तक ‘‘रौशनाई'' में इस भेंट का विस्तृत और रुचिकर दृश्य प्रस्तुत किया है। एक दो अंश प्रस्तुत हैं - “अब मुझे वह तफ़सीलें याद नहीं कि हम यानी रशीद जहाँ, अहमद अली, फिराक मै इस कान्फ्रेंस में आने वाले किनकिन लोगों से मिले और उनमें क्या बात हुई लेकिन मुंशी प्रेमचन्द से पहली मुलाकात मेरे दिल पर नक्श है। कान्फ्रेंस के दौरान एक गार्डेन पार्टी हुई। इलाहाबाद विश्वविद्यालय के विजय नगरम हॉल से मुतस्सिल (जुड़ा हुआ) जो खूबसूरत लॉन है, वहाँ कान्फ्रेंस के अवकात (समय) में तो किसी से मिलने और बात करने का मुश्किल से मौका मिलता था। इसलिए हमने सोचा कि गार्डेन पार्टी में कोशिश करके हम उन लोगों से कम अज़ कम मुतारिफ (परिचित) हो जाएं जिनसे मिलना हमारे लिए जरूरी था। मुझे याद है कि किसी वजह से मै गार्डेन पार्टी में देर से पहुँचा मैने पहुँचते ही फिराक को ढूँढना शुरू किया ताकि उनके वसीले (माध्यम) से प्रेमचन्द से मेरा तआरूफ हो जाए।''


   फ़िराक साहब हस्बे दस्तूर (आदत के मुताबिक) एक जगह किनारे पर बैठे हुए बातें कर रहे थे। वहां कोई दो ढाई सौ आदमी रहे होंगे। प्रेमचन्द से बड़ा अदीब यहाँ कौन था? इसलिए हम समझे कि वह भी कहीं सोफे पर बैठे होंगे। प्रेमचन्द कहीं नज़र नहीं आए। इतने में फ़िराक ने कहा 'वो हैं बिल्कुल एक किनारे पर तीन-चार आदमियों के हल्के में बिल्कुल गैर अहम से एक साहब खड़े थे। खैर हम उनके करीब पहुँचे। फ़िराक़ ने कहा- भई इनसे मिलो ये सज्जाद ज़हीर है। तुमसे मिलने के बड़े ख्वाहिश मन्द हैं। फ़िराक़ प्रेमचन्द से अच्छी तरह वाकिफ थे और गालिबन मेरा ज़िक्र इसके पहले उनसे कर चुके थे। वह दोनों कायस्थ बिरादरी के थे और दोनों जिला गोरखपुर के रहने वाले थे।''


   इस वक्त प्रेमचन्द जी से मेरी क्या बातें हुई, ये मुझे बिल्कुल याद नहीं। अलबत्ता मेरे दिल पर जो पहला तास्सुर (प्रभाव) इस पहली मुलाकात में हुआ, वह आज पन्द्रह साल गुजर जाने के बाद भी ताजा थे। मैंने यह नहीं महसूस किया कि मैं अपने अदब के एक अजीम फ़नकार से मिल आया हूँ। उनका अन्दाज़ बड़ा सादा बे तकल्लुफी का था। कुछ ऐसा मालूम होता था जैसे वह मुझ से कह रहे हैं, “भई सज्जाद जुहीर, हम तो खुली किताब हैंद्ध तुम्हें अगर दिलचस्पी हो तो पढ़ लो बल्कि जी चाहें तो हमें ले लो।''


   मुझे एकदम महसूस हुआ कि जैसे हम जिस वस्तु कीखोज में थे, वह हमें मिल गई। मतलब ऐसा दोस्त और हमदर्द जिसके दिमाग की दहकती हुई मशाल चारों तरफ धुंधलके में रोशनी के चमकते हुए कुमकुमे (बल्ब) लगा दें, हमारी राहों को रोशनी से भर देगी।


   इसके एक दिन के बाद हमने तय किया कि मौलवी अब्दुल हक, प्रेमचन्द और जोश साहब को एकत्र करके उनसे सलाह लें और विचार करें। अपने साहित्यिक स्थान और उम्र के हिसाब से उर्दू ज़बान (भाषा) में उस वक्त उनसे बढ़कर और कौन तरक्की पसन्द था?


  ये मुलाकात सज्जाद के घर पर ही हुई जिसमें प्रेमचन्द के अतिरिक्त जोश, अब्दुल हक, दया नरायण निगम, रशीद जहाँ, फ़िराक व एजाज हुसैन इत्यादि उपस्थित हुए। सज्जाद ज़हीर आगे लिखते हैं-''हमने काफी डर, इन्केसार और झिझक के साथ गुफ्तगू शुरू की। छोटा मुंह बड़ी बात मालूम होतीथी कि हम उन बुजुर्गों से तरक्की पसन्द अदब (प्रगतिशील साहित्य) की तहरीक के अगराज मक़ासिद (उद्देश्य व लक्ष्य) और तन्जीम की गुफ्तगू करें। ऐसी सूरत में मेनीफेस्टो का मुसव्वदा (घोषणा पत्र) हमारे बड़े काम आया। इसकी एक कापी सबको पढ़ने के लिए दी- मुन्शी प्रेमचन्द खुश मालूम होते थे। शायद वो सोच रहे थे कि उनकी बरसों की अदबी काविश (साहित्यिक प्रयास) अब बार आवर (सफल) हो रही है। कम अजु कम चन्द नौजवान जुबान से ही सही लेकिन वाजेह (साफ) तौर पर ये कहने के लिए खड़े तो हो गए थे कि अदब का सबसे बड़ा मकसद कौम में इन्सानियत और आजादी का जज्बा और इत्तेहाद (मिलाप) पैदा करना है। जुल्म (अत्याचार) की मुखालिफत (विरोध) करना है। मेहनत कश अवाम की तरफ़दारी (पक्षपात) करना है। वह हमारा हाथ पकड़कर हमें आगे ले चलने और हमारी मदद करने को पूरी तरह तैयार मालूम होते थे।''


   ये थी वह ऐतिहासिक घटना जो इलाहाबाद में प्रेमचन्द की निगरानी में घटित हुई और जिसने आगे चलकर एक ऐतिहासिक स्थान प्राप्त कर लिया। इसी इलाहाबाद से प्रेमचन्द ने प्रारम्भिक जीवन में अपनी रचनात्मक यात्रा आरम्भ की थी और इसी इलाहाबाद में जीवन के अन्तिम वर्ष में वह एक नए साहित्यिक इतिहास को जन्म देने जा रहे थे। इस समय प्रेमचन्द की उपस्थिति ओर मैनीफेस्टो पर हस्ताक्षर के साधारण अर्थ न थे। यह वह समय था, कमर रईस के अनुसार -“ये ज़माना प्रेमचन्द की मकबूलियत (लोकप्रियता) और उनकी फन्नी पोख्तगी के इन्तेहाई उरूज (वैजारिक दृढ़ता की चरम सीमा) का ज़माना थामुसल्लेमा तौर (पूर्णरूप) पर वह हिन्दी ओर उर्दू के सबसे बलन्द पाया अफसाना नवीस और नावेल निगार (उपन्यासकार)थे। गऊदान शाया (गोदान प्रकाशित) हो चुका था और उसे नाकिदों ने (अलोचकों ने) हिन्दी का बेहतरीन नावेल करार दिया था। इसके मासिवा (अतिरिक्त) बाज़ार हुस्न, गोश-ए-मजाज और मैदान-एअमल इस अहद के बेहतरीन नावेलों में शुमार होते थे। मुल्क की नुमाइंदा इल्मी व अदबी अन्जुमनों हिन्दुस्तानी अकादमी, हिन्दुस्तानी साहित्य परिषद और लेखक संघ वगैरह के मुमताज और सरमर्ग रूक्न थे। कितने ही नौजवान अदीबों (लेखको) को उन्होंने लिखना सिखाया और अपने गेहँ कुद्र मशवरों (अमूल्य राय) से उन्हें फन व अदब (कला व साहित्य) का शऊर बख्शा (तरीका प्रदान किया) उन्हें अदब की गायत (मतलब) और कौमी ज़िन्दगी में अदीब के मनसब (पद) और फराएज़ फर्ज से रूशनास (सामना) कराया''


   और आगे वह लिखते हैं- “मुल्क में हिन्दी या उर्दू जुबान व अदब से मुतालिक (सम्बन्धित) कोई भी कान्फ्रेंस या इजतेमा हो सबसे पहले प्रेमचन्द को इसकी सदारत (अध्यक्षता) के लिए मदऊ (आमन्त्रित) किया जाता। अन्जुमन तरक्की पसन्द मुसन्निफीन की पहली कान्फ्रेंस के लिए जब सज्जाद जुहीर ने प्रेमचन्द को लिखा तो जवाबन (उत्तर में) उन्होंने बड़ी इनकेसारी (विनम्रता) से मजबूरी का इज्हार (प्रकट) किया।''


    लेकिन सज्जाद ज़हीर के इसरार (हठ) पर उन्होंने न केवल अध्यक्षता की बल्कि यादगार व अमर अध्यक्षीय भाषण प्रस्तुत किया। यह सब यूँही न था बल्कि कृमर रईस के ख्याल (विचार) के मुताबिक-“तरक्की पसंद मुसन्निफीन प्रगतिशील लेखक संघ) की तहरीक और तसव्वुरात से प्रेमचन्द की वाबस्तगी (सम्बन्ध) और दिलचस्पी नई नहींथी। वह अर्से से एक ऐसी ही अन्जुमन के बारे में सोच रहे थे। चुनांचे (इसीलिए) इस इजतेमा (जलसे) से तकरीबन एक साल कृब्ल (पहले) इंगलिस्तान में जब डॉक्टर मुल्क राज आनन्द, डॉक्टर तासीर, डॉक्टर घोष और सज्जाद जहीर वगैरह ने इस अन्जुमन की बुनियाद रखी तो प्रेमचन्द ने इसके अगराज व मक़ासिद (लक्ष्य व उद्देश्य) से इत्तेफाक करते हुए इस मौजू विषय पर 'हंस' में एक एदारिया (संपादकीय) लिखा था ओर जेल के अल्फाजू (निम्नलिखित शब्दों) में इस अन्जुमन का खैर मकदम (स्वागत ) किया था


   “हम इस एदारे (निज़ाम) का दिल से खैर मकदम करते है और उम्मीद करते हैं कि वह जिन्दा व ताबिन्दा (चमकता) हो। हमें असल में ऐसे ही अदब की जरूरत हैऔर हमने यही आदर्श अपने सामने रखा है। 'हंस' भी इन्ही मक़ासिद (लक्ष्यों) के लिए जारी किया गया है।''


   हिन्दुस्तानी एकेडमी का कृयाम (स्थापना) और उसका वो समारोह जो उर्दू हिन्दी को करीब लाने के लिए किया गया था और जिसके प्रेमचन्द असाधारण तौर पर सहायक थे और इसी भावना से वह उपस्थित होने आए थे। इस समारोह के पश्चात वह कई बार इलाहाबाद आए, एक तो उनके लड़के इलाहाबाद में शिक्षा हासिल कर रहे थे, दूसरे निस्बतन आज़ादी भी थी और कुछ ये भावना भी थी। अमृतराय के अनुसार- “कहाँ तो अदबी तक़रीबात से भागे फिरते थे। अब जहाँ देखो वहाँ पहुँचे हुए हैं। कौन जाने वह कौन सा अनदेखा जज्बा है जो उन्हें हर जगह खींचे ले जाता है। मिल लो सबसे सब कुछ बांट दो जो कुछ इस ज़िन्दगी से पाया है। सुख दुख, तजरबे (अनुभव) इल्म वगैरह- या बात शायद इससे छोटी है बस इतनी कि तबीयत इन जगहों में जाने से भागती है जहाँ बस पूज पूजय्या है या अपना तमाशा बनता है लेकिन जहाँ नई पौध (नस्ल) है वहाँ जाने की तबीयत खुद बखुद (अपने आप) भा गई है।''


   इलाहबाद ऋषि मुनियों का शहर होने के बावजूद बाह्य आडम्बर पूज पूज्य्यां से बहुत दूर था। आम जीवन में भी साधारणतः और गम्भीरता बल्कि एक टेढ़ा और चंचलपन भी जो प्रेमचन्द अदब व अदीब (साहित्य व लेखक) के लिए जरूरी समझते थे और जो उन्हें इलाहाबाद में अधिक दिखाई पड़ता था।


   दिसम्बर १९३५ ई. में इलाहाबाद में अन्जुमन (संघ) की तशकील (गठन) के बाद वह २६ फरवरी १९३६ में इलाहाबाद फिर आए। इस बार औरतों का समारोह था जिसमें शिवरानी देवी को उपस्थित होना था। वह उनके साथ आए। फिर आगरा गए। सेन्ट जोन्स कालेज में उनके सम्मान में एक समारोह था। इसी रात इलाहाबाद फिर वापस आ गए। अमृत राय कहते हैं कि इलाहाबाद में वह महादेवी वर्मा से अवश्य मिलते थे। प्रेमचन्द की डायरी में एक वाक्य मिलता है- “महादेवी वर्मा से मिला, उनकी खुशदिल बात चीत से जी खुश हुआ।''


   १८ फरवरी १९३६ की डायरी में एक जगह और लिखते हैं- “युइंग क्रिश्चियन कालेज के जलसे में शरीक होने के लिए इलाहाबाद पहुँचा। हिन्तुस्तानी एकेडमी गया। दोस्तों से मिला। तीन बजे सज्जाद जहीर के यहाँ पहुँचा मगर वह यूनिवर्सिटी से लौटे न थे। पांच बजे शाम यूइंग कालेज पहुँचा। बड़ी शानदार इमारत है। जमुना किनारे कैसी खूबसूरत नज़र आती है।''


   इलाहाबाद में ये इनका अन्तिम आगमन था।


   जीवन के अन्तिम वर्ष में वह भारतीय संस्कृति, मानवीय एकता, प्रगतिशीलता पर आवश्यकता से अधिक बल देते रहे। हालांकि माक्र्सवाद को भी स्वीकार किया और कई महत्वपूर्ण लेख लिखे। गोर्की की मृत्यु पर बनारस में हुई शोक सभा में इसी बीमारी और कमजोरी की स्थिति में उपस्थित हुए और शोक प्रपत्र पढ़ा। ये सब के सब वैसे तो उनके निजी शौक और विचार और दष्टिकोण के कारण था लेकिन किसी साहित्य की सोच व वैचारिक शिक्षा में वातावरण ओर समाज का जो महत्वपूर्ण रोल हुआ करता है। प्रेमचन्द की ज़िन्दगी में वह रोल इलाहाबाद और इसके अदबी (साहित्यिक) माहौल व समाज ने अदा किया। ये सच है कि बनारस उनका वतन (देश) था। कानपुर, जमाना और निगम ने उनके जीवन में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। लेकिन शिक्षा और इससे अधिक विचार एवं दृष्टिकोण की तशकील (बनावट) और उसूलों की बुनियादों की संरचना में जो महत्वपूर्ण भूमिका इलाहाबाद ने अदा की वह कोई और शहर न कर सका इसलिए प्रेमचन्द को इलाहाबाद और इलाहाबाद को प्रेमचन्द से अलग करके देख पाना लगभग असम्भव है।


                                                                                                                                                      संपर्क : मो. : 9415306239