आलेख - प्रयाग कुम्भपर्व विमर्श - प्रो. देवी प्रसाद दूबे

जन्म : 15 फरवरी 1958 शिक्षा : राजकीय इंटर कॉलेज इलाहाबाद से इंटर के बाद इलाहाबाद विश्वविद्यालय से स्नातक एवं परास्नातक तत्पश्चात् डी.फिल। सम्प्रति : इलाहाबाद विश्वविद्यालय में प्राचीन इतिहास के प्रोफेसर।


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समस्त भूमण्डल के पर्यटन का मेरा भ्रम व्यर्थ रहा, बाद के लिए विद्या प्राप्त की, अपना स्व गंवाकर विभिन्न धराधीशों के आश्रय में पहुँचा, कमलमुखी सुन्दरियों पर दृष्टि डाली और वियोग दुःख झेला, सब व्यर्थ, जो प्रयाग में बस कर नारायण की आराधना नहीं की


          क्षोणीपर्यटनं भ्रमाय विहितं वादाय विद्यार्जिता ,


          मानध्वंसनहेतवे परिचितास्तेते धराधीश्वराः ।


          विश्लेषाय सरोजसुन्दरदृशामास्ये कुता दृष्टयः ;


          कु ज्ञानेन मया प्रयागनगरे ना ऽऽराधि नारायणः ।।


                                                                          (रसतरंगिणी, ५.५)


         ये उद्गार हैं रसमंजरी, रसतरंगिणी, अलंकार तिलक और अन्यान्य कृतियों के लेखक मैथिल कवि भानुदत्त के, जिनके अन्तिम आश्रयदाता बघेल राजा वीरभानु (१५४०-१५५५ ई.) थे। वह जब घूमते-घूमते प्रयाग पहुँचे तब उन्हें जीवनतत्व की समझ हुई, सांसारिक सुख, सुविधाएँ व्यर्थ लगीं, मनस्ताप हुआ और प्रयाग की पावन भूमि में गहरी आस्था हो गई, जिससे वह अपने अन्तिम वय में विषयों से चित्त को निवृत्त कर यहीं बस गए। वह आगे कहते हैं कि 'सुन्दर भवन त्यागकर निकुंज में रहना सुखकर है, धन दान की वस्तु है, संग्रह करने के लिए नहीं, तीर्थजल का पान कल्याणकर है, कुश की शैय्या पर शयन करना सभी आस्तरणों पर शयन से श्रेष्ठतम है, चित्त को धर्म-मार्ग में प्रवृत्त करना श्रेयस्कर है। तथा सर्वाधिक कल्याणकारी है, गंगा-यमुना के संगम पर रहकर पुराण-पुरुष का स्मरण करना।'


        हेयं हयमिदं निकुंजभवनं श्रेयः प्रदेयं धनं,


        पेयं तीर्थपयो हरेभंगवतो गेयं पदाम्भोरुहम्।।


        नेयं जन्म चिराय दर्भशयने धमें निधेयं मनः;


        स्थेयं तत्र सितासितस्य सविधै ध्येयं पुराणं महः ।।


                                                                      (रसतरंगिणी, ७.२९)


       धन्य है ऐसे प्रयाग का षट्कलोपलक्षित सिक्ताप्लवित प्रजापतिक्षेत्र जहाँ पहुँचकर कामीजन भी चित्त को ईश्वराराधन में लीन कर देते हैं और जहाँ प्रति बारहवें वर्ष माघ मास में मनाया जाता है, कुम्भ पर्व। विशाल जनसम्मर्द होता है यहाँ, जब इस पृथिवी पर मानवता का सबसे बड़ा मेला होता है। माघ मास में यहाँ होता है समस्त तीर्थों का संगम, देश


फोटो : एस.के. यादव


 


के समस्त प्रान्तों और विदेशों से आए हिन्दू तीर्थयात्रियों और पर्यटकों का संगम, देव, दानव, साधु, असाधु, ऋषि और सिद्धों का संगम। सबके मनोमस्तिष्क में एक चाह, एक ललक होती है गंगा-यमुना, अन्तः सलिला सरस्वती के संगम में माघ अमावस्या को विशेषतः डुबकी लगाने, पुण्यार्जन, पाप प्रक्षालन करने और अद्भुत सम्मिलन महोत्सव का आनन्द उठाने तथा भारतीय संस्कृति की अनेकता में अनुस्यूत एकता की गहनता का भाव अनुभव करने की। इस अवसर पर करोड़ों तीर्थयात्री, जिनमें विभिन्न क्षेत्रों, भाषाओं और परिधानों के लोग होते हैं, एक साथ सामूहिक रूप से स्नान करते हैं। कुम्भ पर्व जैसा कोई अन्य मेला नहीं है, जो सम्पूर्ण हिन्दू संस्कृति को गहराई से प्रभावित करता हो। इस अवसर पर आकाशीय ग्रहों-राशियों, भू-विन्यास और कला का पवित्र उद्भव और एकीकरण झलकता है। न कोई प्रचार, न निमंत्रण और न घोषणा, फिर भी लाखों श्रद्धालु इस पर्व पर स्नानार्थ जुट जाते हैं। वस्तुतः बिना किसी प्रचार-प्रसार के इस पर्व में दर्शन और श्रद्धा का भाव निहित है।


     कुम्भ पर्व भारत का विशिष्ट स्नान पर्व है। प्रत्येक बारहवें वर्ष एक निश्चित ज्योतिषीय योग में यह पर्व भारत के चार तीर्थों में परम्परया मनाया जाता है। हरिद्वार में गंगा, प्रयाग में गंगा-यमुना के संगम, नासिक में गोदावरी और उज्जैन में शिप्रा नदी के तट पर यह आयोजित होता है। इसके आयोजन के लिए मूल रूप से दो परम्पराएँ हैं - महाकाव्य पुराण परम्परा और ज्योतिषीय परम्परा। प्रथम परम्परा समुद्र-मंथन में निकले अमृतघट पर कब्जा करने के लिए हुए देवासुर संग्राम से सम्बन्धित मानी जाती है। किन्तु जयन्त या गरुड़ के अमृत कलश को लेकर भागने और चार स्थानों पर असावधानीवश चार बूंदों के प्रस्रवण की चर्चा किसी भी महाकाव्य-पुराण में नहीं मिलती है।


     उपलब्ध साक्ष्य इस पर्व को बारहवीं सदी के पूर्व मनाने का कोई संकेत नहीं देते हैं। इस पर्व का आयोजन सर्वप्रथम हरिद्वार में हुआ, वहीं बृहस्पति कुम्भ राशि में होते हैं, जब यह पर्व आयोजित होता है। पन्द्रहवीं-सोलहवीं सदी में कभी कुम्भ नाम प्रयाग में वृहत् स्तर पर आयोजित किए गए माघ मेला पर प्रक्षेपित किया गया और प्रति बाहरवें वर्ष कुम्भ पर्व आयोजित करने की प्रथा का श्री गणेश हुआ। ब्रितानी अभिलेखों में प्रयाग में लगने वाले कुम्भ और अर्धकुम्भ पर्व का सर्वप्रथम उल्लेख इलाहाबाद के जिलाधीश के अगस्त १८६८ के एक पत्र में मिलता है, जिसमें १८६४ में आयोजित अर्धकुम्भ और १८७० में होने वाले कुम्भ मेला का उल्लेख है। नासिक में आयोजित पर्व का नाम है सिंहस्थ पर्व। १७४३ ई. से सिन्धिया राज्य के संस्थापक राण्येजी शिन्दे की इच्छानुसार उज्जैन में भी सिंहस्थ पर्व मनाया जाने लगा। इसके पूर्व वहाँ प्रति बारहवें वर्ष कालरात्रिपर्व कार्तिक अमावस्या के दिन मनाया जाता था, जो आज प्रतिवर्ष पन्द्रह दिवसीय गर्दभ मेला का रूप ले चुका है। वर्तमान सदी में देश के विभिन्न भागों में कुम्भ पर्व आयोजित करने की होड़ लग गई है। कहीं शबरी कुम्भ (२००८ गुजरात), कहीं आदिवासी कुम्भ (२०१० मण्डला, मध्य प्रदेश), कहीं कार्तिक कुम्भ (२०११ बेगूसराय, बिहार) और कहीं कुम्भकोणम कुम्भ (तमिलनाडु) शासन के सहयोग से आयोजित किए गएहैं। छत्तीसगढ़ शासन तो २००४ के बाद महानदी और प्रेतोद्धारणी नदियों के संगम पर रायपुर जिले में प्रतिवर्ष राजिम कुम्भ का माघ अमावस्या से फाल्गुन अमावस्या तक आयोजन कर रहा है। गत शताब्दी के नवें दशक से अति उत्साही कुछ अखबारनवीसों ने देश में जनसंख्या विस्फोट के कारण कुम्भ पर्वो पर जुटने वाली भीड़ को देखते हुए इसे महाकुम्भ नाम देना प्रारम्भ किया था, जो २००१ के प्रयाग कुम्भ की प्रादेशिक शासकीय रिपोर्ट में स्वीकृत कर लिया गया है। क्या किसी सांस्कृतिक परम्परा के मूल नाम तथा स्वरूप के साथ की गई यह छेड़छाड़ क्षम्य है?


      कुम्भ पर्व गंगाजल के अमरत्व का बोध कराता है। उन चार स्थानों में, जहाँ यह आयोजित होता है, हरिद्वार गंगा के तट पर अवस्थित है और प्रयाग स्थित है जहाँ गंगा-यमुना- अन्तः सलिला सरस्वती का संगम होता है। ब्रह्मपुराण में गोदावरी को गौतमी गंगा कहा गया है। नासिक में गोदावरी तट पर गंगा मन्दिर है जो प्रति बारहवें वर्ष पर्व पर दर्शन हेतु खुलता है। उज्जैन में उत्तरवाहिनी शिप्रा की तुलना काशी में उत्तरवाहिनी गंगा से की गई है। स्कन्दपुराण के आवन्त्यखण्ड के अनुसार उज्जैन में शिप्रा जिस स्थान से पूर्ववाहिनी होती है, वहाँ गंगेश्वर लिंग स्थापित है। वस्तुतः चारों स्थानों में गंगा की संस्कृति प्रवहमान है। गंगाजल विश्व की सभी नदियों के जल से विशिष्टतम है। इसलिए महाभारत में कहा गया है कि देवों के अमृत के समान ही मनुष्यों के लिए गंगाजल अमृत है-


          यथा सुराणाममृतं पितृणां च यथा स्वधा।


          सुधा यथा च नागानां तथा गंगाजलं नृणाम्।।


                                                                   (महाभारत १३/२७/४८)


      आज अपने भैषज्यीय गुण के कारण मनुष्य के लिए अमृत सदृश गंगाजल हरिद्वार के बाद विलुप्त हो गया है। गंगा प्रवाह को अक्षुण्ण बनाए रखने और उसे प्रदूषण से मुक्ति देने के लिए विगत वर्षों से कहीं गंगा कार्य योजना चल रही है, कोई आमरण अनशन कर रहा है, कोई आन्दोलन चला रहा है, तो कोई न्यायालयों में वादोपस्थापन कर रहा है। किन्तु सब व्यर्थ! ब्रह्मवैवर्त पुराण में पृथ्वी तल पर गंगा की अवस्थिति कलियुग के केवल पाँच सहस्र वर्षों तक बताई गई है


        अद्य प्रभृति देवेशि! कले पंचसहस्रकम्।


        वर्ष स्थितिसते भाख्याः शापेन भारते भुवि।।


        ऐसी ही ऋषिवाणी गंगा के सन्दर्भ में स्कन्दपुराण में भी मिलती है


         कलेर्दश सहस्रान्ते विष्णुस्त्यजति मेदिनीम्।


         तदर्थं जाह्नवीतोयं तदर्थं ग्रामदेवता ।।


         इसलिए गंगा के अस्तित्व के लिए अरण्यरोदन बन्द होना चाहिए, जनता की गाढ़ी कमाई के धन की गंगा अभियान के नाम पर बर्बादी रोकी जानी चाहिए। यह कलियुग का ५११३ वर्ष है। गंगा अब सरस्वती नदी की राह पर चल पड़ी है।


        जब बृहस्पति मेष राशि चक में होता है और सूर्य तथा चन्द्र मकर राशि में माघ अमावस्या के दिन होते हैं, तब कुम्भपर्व प्रयाग में मनाया जाता हैगा । है


        मेषराशिगते जीवे मकरे चन्द्रभास्करौ।


        प्रयागे कुम्भयौगो वै माघमासे विधुक्षये।।


        (धर्मकृत्योपयोगितिथ्यादिनिर्णयः कुम्भपर्वनिर्णयासका,


                                                               [DTKN],१०,२२)


         प्रथम ज्योतिषीय व्यवस्था प्रयाग में माघ में २०१२ में थी, किन्तु आने वाले विधानसभा चुनाव के मद्देनजर उत्तर प्रदेश शासन ने इसे नहीं मनाया और किसी स्वनाम धन्य धर्माधिकारी का साहस नहीं हुआ कि शासन की अधार्मिक इच्छा का विरोध कर सके। माघ मेला प्रशासन तो तैयार ही नहीं था किन्तु शुभ योगों और सोमवार को पड़ने वाली २०१२ की माघ अमावस्या के दिन एक करोड़ से अधिक का जो जन सैलाब प्रयाग में उमड़ा उससे मेला प्रशासन की नींद उड़ गई थी। आम जन के लिए वह कुम्भ पर्व-स्नान था।       फोटो : एस.के. यादव


उन्हें शासकीय उद्घोषणा और सुविधाओं की अपेक्षा नहीं थी। वे आए, नहाए और चले गए। मेला प्रशासन ने राहत की साँस ली, कोई अप्रिय घटना नहीं घटी। ऐसी ही स्थिति १९६५-६६ में आई थी। शासन प्रयाग में कुम्भ पर्व का आयोजन १९६६ में करना चाहता था, द्वादश वर्षीय अन्तराल के आधार पर, क्योंकि १९५४ में कुम्भ पर्व यहाँ पड़ा था। किन्तु धर्म सम्राट् स्वामी हरिहरानन्द करपात्री जी प्रथम व्यवस्था में १९६५ में ही कुम्भ पर्व मनाने के पक्षधर थे, शासन को झुकना पड़ा और दोनों वर्ष उसे व्यवस्था करनी पड़ी। ज्ञातव्य है कि १२ वर्ष की परम्परा सदैव लागू नहीं होती। बृहस्पति सूर्य परिक्रमा पूरा करने में ११.७८ वर्ष का समय लेता है, जिससे १२ सौरवर्षीय चक में ५० दिन का क्षय हो जाता हैइसलिए कुम्भपर्व ११वें या १३वें वर्ष में भी लग सकता है। वस्तुतः १२वें सौर वर्ष में कुम्भ पर्व होता है, यह वचन बाहुल्याभिप्रायक है। आज सन्त हैं, साधु हैं और संन्यासी भी हैं (शास्त्रानुसार कलियुग में संन्यास वर्ल्स है), किन्तु स्वामी करपात्री जी जैसा शास्त्र पारंगत और मेधावी सन्त का घोर अकाल है।


      प्रयाग में २०१३ में माघ मास में वृष की वैकल्पिक व्यवस्थानुसार कुम्भ पर्व का आयोजन जोर-शोर के साथ हुआ। १० फरवरी २०१३ रविवार को माघ अमावस्या थी। शनिवार १४.२३ बजे से अमावस्या शुरू हुई और रविवार को १२.४२ बजे तक रहीधन्य हैं, हिन्दू धर्म के सन्त महात्मा और नागा अखाड़े जो सूर्य निकलने के काफी बाद पवित्र जल में कुम्भ स्नान करते हैं। यह स्नान शास्त्रों में अधम स्नान माना गया है। जब आकाश में तारे टिमटिमा रहे हों और ब्राह्ममूहूर्त हो तब उत्तम स्नान कहा जाता है, जिसमें इस देश की भोली-भाली गॅवई जनता संगम स्नान करती है और सूर्योदय के समय का स्नान मध्यम कोटि का कहा गया है। साधना से विमुख श्री सम्पन्न झंडा गाड़ने, शिविर हेतु मेला क्षेत्र में अधिकाधिक जमीन के लिए प्रशासन पर दबाव डालने के लिए अनशन करने वाले, भोथरे और जंग लगे हथियारों के साथ उछलते-कूदते स्नान के लिए मुख्य तिथियों पर जुलूस निकालने वाले विश्रृंखलित साधु समाज का कल्याण हो। यह कुम्भ पर्व सकुशल सम्पन्न हो, भोली-भाली, सुविधा वंचित । श्रद्धालु जनता का मेले में कष्ट न हो, यही कामना है। ।


१. षटकूलोपलक्षित-यानी छह तटों से परिवेष्टिक क्षेत्र अर्थात् गंगा के दो तट, यमुना के दो तट और दोनों नदियों के संगम पर सम्मिलित धारा के दो तटों का मतलब है षटकू             लोपलक्षित।