गोपाल रंजन
प्रयाग की महत्ता प्राचीन काल से ही एक तीर्थ के रूप में चली आ रही हैऋग्वेद में इसका प्रथम उल्लेख मिलता है। ऋग्वेद के अनुसार यहाँ पर सित और असित नदियाँ एक-दूसरे से मिलती हैं, जहाँ स्नान करने से स्वर्गलोक में उच्च स्थान प्राप्त होता है तथा आवागमन से मुक्ति मिल जाती है। परन्तु ऋग्वेद में सित और असित नदियों के संगम का तो उल्लेख है परन्तु प्रयाग नाम का उल्लेख नहीं है। प्रयाग का वर्णन महाभारत और रामायण के अतिरिक्त अन्य कई पुराणों में भी मिलता है। महाभारत (वनपर्व ८५, ६९, ९७) में इसे तीनों लोकों में सर्वश्रेष्ठ तीर्थ कहा गया है। सभी देवता मिलकर इसकी वंदना करते हैंयहाँ पर अत्यल्प दान करने पर भी महान् फल की प्राप्ति होती है। संगम के जल में स्नान करने पर व्यक्ति अश्वमेध यज्ञ के फल को प्राप्त करता है तथा अपने पितरों का उद्धार करता है। पुराणा साहित्य में प्रयाग का प्रचुर उल्लेख मिलता है। कूर्मपुराण के अनुसार इस तीर्थ की रक्षा ब्रह्मा तथा अन्य देवता मिलकर करते हैं। अग्निपुराण में कहा गया है कि तीन स्थानों पर गंगा नदी कठिनाई से प्राप्त होती है, १. गंगा द्वार, २. प्रयाग तथा ३. गंगा सागर (अग्नि पुराण, अ. ११)।
प्रयाग शब्द की उत्पत्ति ‘यज्' धातु से हुई है, जिसका अर्थ है, यज्ञ करना। ब्रह्मा ने यहाँ यज्ञ किया था, इसलिए इसका नाम प्रयाग पड़ा। शब्दकल्पद्रुम में प्रयाग नाम की व्याख्या करते हुए यहाँ पर होने वाले यज्ञों की बहुलता का उल्लेख किया गया है। (प्रकृष्टो यागो यत्र, पृष्ठ २८७)। पुराणों के अनुसार प्रयाग ‘प्र' तथा ‘याग' शब्दों के संयोग से बना हुआ है। ‘प्र' शब्द का अर्थ उत्कृष्ट होता है। पुराणों में 'प्र' शब्द की व्याख्या करते हुए कहा गया है कि सम्पूर्ण तीर्थों की समता में प्रयाग अधिक श्रेष्ठ है। (प्रभावात्सर्वतीर्थेभ्यः प्रभवत्यधिक विभो, मत्स्यपुराण, ११०, १११) । इसमें ‘याग' शब्द को स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि यहाँ पर यज्ञों के अनुष्ठान द्वारा महान् धार्मिक फलों की प्राप्ति होती है। (प्रकृष्टत्वात्प्रयागोऽसो, ब्रह्मपुराण, अ. १८) प्रयाग को तीर्थराज इसलिए कहा जाता है क्योंकि वह सभी तीर्थों में श्रेष्ठ है।
प्राचीन साहित्य में केवल गंगा-यमुना, इन्हीं दो नदियों का संगम प्रयाग में माना गया है। त्रिवेणी या गंगा-यमुना-सरस्वती, इन तीन नदियों के संगम की कल्पना मध्ययुगीन है। (दे. सरस्वती (२))। वाल्मीकि रामायण, महाभारत, प्राचीन पुराणों तथा कालिदास के ग्रंथों में सर्वत्र प्रयाग में गंगा-यमुना ही के संगम का वर्णन है। वाल्मीकि-रामायण में प्रयाग का उल्लेख भारद्वाज आश्रम के संबंध में है और इस स्थान पर घोर वन की स्थिति बताई गई है- 'यत्र भागीरथी गंगा यमुना-भिप्रवर्तते जग्मुस्तं देशमुद्दिश्य विगाह्य समुहद्वनम्। प्रयागमभितः पश्च सौमित्रे धूममुत्तमम्, अग्रेभगवतः केतु मन्ये सॅनिहितो मुनिः। धन्विनौ तौ सुखं गत्वा लंबमाने दिवाकरे, गंगायमुनयोः संधौ प्रापतुर्निलयं मुनेः। अवकाशो विविक्तो यं महानद्योः समागमे, पुण्यश्चरमणीपश्च वसत्विह भवान् सुखम्' -वाल्मीकि, अयो. ५४, २-५-८-२२। इस वर्णन से सूचित होता है कि प्रयाग में रामायण की कथा के समय घोर जंगल तथा मुनियों के आश्रम थे, कोई जनसंकुल बस्ती नहीं थी। महाभारत में गंगा-यमुना के संगम का उल्लेख तीर्थ रूप में अवश्य है किंतु उस समय भी यहाँ किसी नगर की स्थिति का आभास नहीं मिलता‘पवित्रमृपिभिर्जुष्टं पुण्यं पावनमुत्तमम्, गंगायमुनयोर्वीर संगम लोक विश्रुनम्' वन, ८७, १८। ‘गंगा यमुनयोर्मध्ये स्वाति यः संगमेनरः, दशाश्वमेधानाप्नोति कुलं चैव सामुद्धरेत्' वन. ८७, ३५। ‘प्रयागे देवयजने देवानां पृथिवीपते, ऊपराप्लुत्य गात्राणि तपश्चातस्थुरुत्तमम्, गंगायमुनयो चैव संगमे सत्यसंगराः' वन.९५, ४-५।
बौद्ध साहित्य में भी प्रयाग का किसी बड़े नगर रूप में वर्णन नहीं मिलता, वरन् बौद्धकाल में वत्सदेश की राजधानी के रूप में कौशांबी अधिक प्रसिद्ध थी। अशोक ने अपना प्रसिद्ध प्रयाग-स्तंभ कौशांबी में ही स्थापित किया था। यद्यपि बाद में शायद अकबर के समय में वह प्रयाग ले आया गया था। इसी स्तंभ पर समुद्रगुप्त की प्रसिद्ध प्रयागप्रशस्ति अंकित है। कालिदास ने रघुवंश के १३वें सर्ग में गंगा-यमुना के संगम का मनोहारी वर्णन किया है। (श्लोक ५४ से ५७ तक) तथा गंगा यमुना के संगम के स्नान को मुक्तिदायक माना है- 'समुद्र-पत्न्योर्जलसन्निपाते पूतात्मनामत्र किलाभिषेकात्, तत्वावबोधेन विनापि भूयः तनुस्त्यजां नास्ति शरीरबंधः' रघु, १३, ५८। विष्णुपुराण में, प्रयाग में गुप्त नरेशों का शासन बतलाया गया है- 'उत्साद्याखिल्क्षत्रजाति नवनागाः पद्यावत्यां नाम पुर्यामनुगगाप्रयागं गयायाश्च मागधा गुप्ताश्च मोक्ष्यन्ति।' विष्णु, ६,८,२९ से सूचित होता है कि इस पुराण के रचनाकाल (स्थूल रूप से गुप्त काल) में प्रयाग की तीर्थ रूप में बहुत मान्यता थी-‘प्रयागे पुष्करे चैव कुरुक्षेत्रे तथार्णवे कृतोपवासः प्राप्नोति तदस्य श्रवणान्नरः । युवानच्चांग ने कन्नौजाधिप महाराज हर्ष का प्रति पांचवें वर्ष प्रयाग के मेले में जाकर सर्वस्व दान कर देने का अपूर्व वर्णन किया है।'
प्रयाग की सीमाओं को प्रयाग मण्डल कहा गया है। मत्स्य पुराण के अनुसार प्रयाग की परिधि पाँच योजन के लगभग थी। प्रयाग मंडल में प्रत्येक पद-दान से अश्वमेघ यज्ञ के फल की प्राप्ति होती है (प्रविष्ट मात्रे तु तद्भमाश्वमेध:पदे पदे, मत्स्यपुराण १.४५)। कूर्म पुराण में भी प्रयाग-मण्डल की सीमा पाँच योजन बताई गई है (पंचयोजन विस्तीर्णः ब्रह्मणः परमेष्ठिन : २, ३५)। मत्स्य पुराण में प्रयाग मण्डल को प्रजापति का क्षेत्र कहा गया है (एतत् प्रजापतेः क्षेत्र तिषु लोकेषु विश्रुतम १०४, ५)। प्रयाग मण्डल प्रतिष्ठानपुरी (झूसी) से लेकर वासुकि हृद से होता हुआ कम्बल नाग, अश्वतर नाग तथा बहुमूलक नाग तक प्रसारित था। प्रतिष्ठानपुर प्रयाग मण्डल की पूर्वी सीमा का निर्माण करता थायह गंगा के पूर्वी तट पर स्थित था, जहाँ झूसी बसा हुआ है। उसको समुद्र कूप भी कहते थे। वासुकि हृद उत्तरी सीमा का निर्माण करता था। पश्चिमी सीमा का प्रतिनिधित्व कम्बलनाग तथा अश्वतर नाग करते थे। ये दोनों यमुना तट पर स्थित थे। बहुमूलक नाग दक्षिणी सीमा का निर्माण करता था। प्रमाणों के अभाव में कम्बल, अश्वतर और बहुमुलक नाग के स्थान की पहचान करना कठिन है।
प्रयाग की प्राचीनता का ऐतिहासिक प्रमाण नगर के पुरातात्विक स्थलों पर मिलते हैं। नगर के उत्तर में गंगा के द्रौपदी घाट पर ११०० ईस्वी पूर्व से ८०० ईस्वी पूर्व के बीच बस्ती होने के प्रमाण मिले हैं। भारद्वाज आश्रम के पास कुषाण काल (पहली) शताब्दी के अवशेष मिले हैं। मुसलमानों ने ११९४ में प्रयाग पर नियंत्रण किया। मुगल बादशाह अकबर ने नया शहर इलाहाबाद बसाया जब वह सन् १५७५ ईस्वी में गंगा और यमुना के संगम पर आया थावह इस स्थल के सामरिक महत्त्व से प्रभावित हुआ और वहाँ एक किला बनाने तथा पास में शहर बसाने का आदेश दिया। अकबर ने प्रयाग की स्थिति की महत्ता को समझते हुए उसे अपने साम्राज्य के १२ सूबों में से एक का मुख्य स्थान भी बनाया। इसमें कड़ा और जौनपुर के प्रदेश भी सम्मिलित कर दिए गए थे। कहा जाता है कि अशोक का कौशांबी-सतंभ इसी समय प्रयाग लाया गया था। अशोक और समुद्रगुप्त के प्रसिद्ध अभिलेखों के अतिरिक्त इस पर जहांगीर और बीरबल के लेख भी अंकित हैबीरबल का लेख उनकी प्रयाग यात्रा का स्मारक है- ‘संवत् १६३२ शाके १४९३ मार्गवदी ५ सोमवार गंगादाससुत महाराज बीरबल श्री तीरथ राज प्रयाग की यात्रा सुफल
: एस.के. यादव
लिखितम्'। खुसरू-बाग जहाँगीर के समय में बनाथा। यह बाग चौकोर है और इसका क्षेत्रफल ६४ एकड़ है। इसमें अनेक मकबरे हैं। पूर्व की ओर गुबंद वाला मकबरा जहांगीर के विद्रोही पुत्र खुसरू का है। इलाहाबाद के चौक में अभी कुछ समय तक वे नीम के पेड़ खड़े थे जिन पर अंग्रेजों ने १८५७ के स्वतंत्रता संग्राम में लड़ने वाले भारतीय वीरों को फाँसी दी थी। किले का निर्माण १५८३ में हुआ। सन् १६०२ ईस्वी में अकबर के पुत्र शहजादा सलीम ने आगरा जाने के बादशाह के आदेश का उल्लंघन करते हुए इलाहाबाद में दरबार लगाकर विद्रोह की घोषणा की। इसी किले में जहाँगीर के पुत्र शाहजादा खुशरू ने साम्राज्य पर कब्जे के लिए लड़ाई की योजना बनाई और गिरफ्तार किया गया। उसके भाई खुर्रम ने जो बाद में शाहजहाँ के नाम से गद्दी पर बैठा, सन् १६१५ में उसकी हत्या कर दी। सत्रहवीं शताब्दी के दौरान इलाहाबाद ने मुगल सल्तनत का पतन और मराठा साम्राज्य का उत्थान देखा।
सन् १८०१ में अंग्रेजों ने शहर और किले पर नियंत्रण कर लिया। सन् १८५७ के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के बाद अंग्रेजों ने उत्तर-पश्चिम प्रांत का मुख्यालय इलाहाबाद में स्थानांतरित कर दिया। १८५७ में सेना में विद्रोह हो गया और मौलाना लियाकत अली ने खुशरू बाग में अपना झंडा फहराकर स्वयं को गवर्नर घोषित कर दिया। सरकारी खजानों को लूटकर कई अंग्रेज सैनिक अफसरों और सैनिकों को मौत के घाट उतार दिया गया। इसी शहर में सन् १८५८ ईस्वी में लार्ड कैनिंग ने ब्रिटिश महारानी को ईस्ट इंडिया कम्पनी से सत्ता सौंपी। सन् १८८८ से १८९२ ईस्वी तक इलाहाबाद कांग्रेस के लिए पसंदीदा सम्मेलन स्थल रहा। स्वतंत्रता संग्राम के दौरान इलाहाबाद सत्याग्रह और भारत छोड़ो आन्दोलन जैसे राजनैतिक आंदोलनों का केन्द्र रहा। सन् १९२० में इलाहाबाद में ही महात्मा गाँधी ने भारत छोड़ो आन्दोलन की घोषणा कर ब्रिटिश साम्राज्य के विरुद्ध जन आंदोलन प्रारम्भ किया। आगे के वर्षों में पं. जवाहर लाल नेहरू ने अपने निवासस्थल आनन्द भवन से आन्दोलनों का नेतृत्व किया। पं. नेहरू ने स्वतंत्रता के बाद प्रथम प्रधानमंत्री के रूप में १९६४ तक राष्ट्र की सेवा की।
इलाहाबाद यद्यपि सदैव सत्ताधारियों द्वारा उपेक्षा का शिकार रहा जबकि धार्मिक रूप से इसका महत्त्व अन्य स्थानों की तुलना में बहुत अधिक था। अंग्रेजों के सत्ता सम्भालने के बाद इलाहाबाद को उत्पीड़न और उपेक्षा का शिकार अधिक होना पड़ा क्योंकि इलाहाबाद के लोगों का स्वभाव विद्रोही था। हरकोर्ट बटलर ने जो षड्यंत्र किया उससे इलाहाबाद के विकास को गहरा धक्का लगा और यह शहर सुविधाओं के नक्शे से गायब हो गया।
सन् १९०० में अवध में तालूकेदारों की संख्या २५० से ज्यादा थी, दो-तिहाई जमीन पर उनका नियंत्रण था और संयुक्त प्रांत के राजस्व का छठा भाग उनके जरिए आता था। इनमें से कुछ तुलनात्मक रूप से कमजोर थे लेकिन शेष काफी अमीर थे। १९वीं सदी के अंतिम चार दशकों में अंग्रेजों की नीति तालुकेदारों के हितों के अनुरूप थी। इसे ‘अवध नीति' के नाम से जाना जाता है। ये अमीर तालुकेदार पैसे जुटाने का महत्वपूर्ण माध्यम थे चाहे राजनीतिक उद्देश्यों के लिए हो या लखनऊ के विकास के लिए। उनके राजनीतिक महत्व का सीधा मतलब था कि ब्रितानी सरकार उनके हितों का पूरा ध्यान रख रही थी, तालुकेदारों के विरोध के कारण ही न्यायिक कमिश्नर की अदालत कभी लखनऊ से इलाहाबाद नहीं गई और अंततः प्रांतीय न्यायिक प्रक्रिया कभी तर्कसंगत नहीं हो पाई। वास्तव में तालुकेदारी और ‘अवध नीति' ने ही ऐसे समय में जब भाग्य इलाहाबाद के साथ दिख रहा था, लखनऊ के प्रांतीय राजधानी बनने की संभावनाएँ बनाई।
ऐसै गई राजधानी
प्रयाग यद्यपि तीर्थराज के रूप में स्थापित है परंतु इलाहाबाद को राजनैतिक और व्यावहारिक रूप से उसे वह स्थान नहीं मिला जिसका वह अधिकारी है। प्राचीन काल से एक पवित्र नगर के रूप में प्रयाग की चर्चा होती रही हैऔर वेदों और पुराणों में भी इसके महत्त्व का प्रमुखता से उल्लेख किया गया है। यहाँ द्रौपदी घाट और भारद्वाज आश्रम में खुदाई के दौरान सिंधु कालीन सभ्यता के अवशेष मिले हैं तथा जैन व बौद्ध धर्म में भी इसे पर्याप्त स्थान दिया गया है। हर्षवर्द्धन के काल में चीनी यात्री ह्वेन सांग ने अपने वर्णन में प्रयाग का विस्तार से उल्लेख किया है परंतु उस समय भी राजनैतिक रूप से इसकी भूमिका की पर्याप्त चर्चा नहीं है। मध्यकाल में अवश्य इलाहाबाद के रूप में नए शहर का निर्माण होने के बाद इसकी राजनैतिक हैसियत में वृद्धि हुई। मुगल बादशाह अकबर के शासन काल में इलाहाबाद को सूबे का दर्जा मिला। इस सूबे में १० सरकारें (उपप्रांत) और १७७ परगने थे। औरंगजेब के समय १७ सरकारें थी। अंग्रेजों ने जब इस पर नियंत्रण किया तो उस समय ५ सरकारें और २६ परगने थे। इससे स्पष्ट होता है कि मुगल काल में इलाहाबाद की राजनैतिक स्थिति बेहतर थी। अंग्रेजों ने भी सन् १८३६ में ४१ जिलों को मिलाकर पश्चिमोत्तर देश' नामक प्रांत बनाया तथा और उसकी देखरेख के लिए इलाहाबाद में लेफ्टिनेंट गवर्नर की नियुक्ति की परंतु एक वर्ष बाद ही राजधानी आगरा चली गई और सन् १८५७ तक वहीं रही। हाई कोर्ट १८४३ तक यहाँ रहा, फिर आगरा चला गया। सन् १८६८ में हाईकोर्ट फिर इलाहाबाद आया। बोर्ड ऑफ रेवेन्यू सन् १८४३ में यहाँ स्थापित हुआ और तब से यहाँ बना हुआ है।
सन् १८५७ के बाद इलाहाबाद को राजनैतिक रूप से काफी महत्त्व मिला। सन् १८७७ में अवध और आगरा को मिला दिया गया और राजधानी इलाहाबाद ही रही परंतु सन् १९२० में स्थिति उलट गई और इलाहाबाद के प्रभुत्व में क्षरण होता गया जबकि स्वतंत्रता संग्राम में सबसे महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाने वाली कांग्रेस की गतिविधियों का केन्द्र यही था। यह विचारणीय विषय है कि प्राचीनकाल से लेकर अंग्रेजों के शासनकाल तक कई बार इलाहाबाद को सत्ता का केन्द्र बनने का अवसर मिला परन्तु राजनैतिक रूप से उसकी प्रतिष्ठा पूर्ण रूप से स्थापित नहीं हो सकी, जबकि धार्मिक रूप से इसका महत्त्व स्थाई रहा। यद्यपि इलाहाबाद को लगातार झटके लगते रहे परंतु सन् १९२० में जो झटका इसे लगा, उससे यह नगर फिर उबर नहीं पाया।
सन् १८०१ में अंग्रेजों ने इलाहाबाद और किले पर निमंत्रण किया। उस समय उसका शासन कलकत्ता से होता था। सन् १८५७ के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के बाद अंग्रेजों ने उत्तर-पश्चिम प्रांत का मुख्यालय इलाहाबाद में स्थानांतरित कर दिया। सन् १८५७ का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम इलाहाबाद के लिए कई मायनों में उल्लेखनीय रहा। विद्रोह के स्तर का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि मेवातियों के दो गाँवों को तोपों से ध्वस्त कर वहाँ कम्पनी बाग बना दिया गया और इलाहाबाद से महगाँव के बीच सड़क के किनारे जितने पेड़ थे, उनपर लटकाकर लोगों को फाँसी दी गईखुशरू बाग क्रांतिकारियों का केन्द्र बना, जहाँ कुछ वर्ष पूर्व बादशाह शाह आलम आकर तीन महीने रुका था। इसी शहर में सन् १८५८ ईस्वी में लार्ड कैनिंग ने ब्रिटिश महारानी को ईस्ट इंडिया कम्पनी की ओर से सत्ता सौंपी। सन् १८८८ से सन् १८९२ ईस्वी तक इलाहाबाद कांग्रेस के लिए पसंदीदा सम्मेलन स्थल और सत्याग्रह और भारत छोड़ो आन्दोलन जैसे राजनैतिक आंदोलनों का केन्द्र रहा। आगे के वर्षों में पं. जवाहर लाल नेहरू ने अपने निवास-स्थल आनन्द भवन से आन्दोलनों का नेतृत्व किया। पं. नेहरू ने स्वतंत्रता के बाद प्रथम प्रधानमंत्री के रूप में १९६४ तक राष्ट्र की सेवा की।
इलाहाबाद की मिट्टी में सम्भवतः कुछ ऐसा है जो उसे त्याग और बलिदान के लिए विवश करता है या वह षड्यंत्रों का शिकार हो जाता है। सन् १९०० में अवध में ताल्लुकेदारों की संख्या २५० से ज्यादा थी, दो-तिहाई जमीन पर उनका नियंत्रण था और संयुक्त प्रांत के राजस्व का छठा भाग उनके जरिए आता था। इनमें से कुछ तुलनात्मक रूप से कमजोर थे लेकिन शेष काफी अमीर थे। १९वीं सदी के अंतिम चार दशकों में अंग्रेजों की नीति ताल्लुकेदारों के हितों के अनुरूप थी। इसे 'अवध नीति' के नाम से जाना जाता हैये अमीर ताल्लुकेदार पैसे जुटाने का महत्त्वपूर्ण माध्यम थे- चाहे राजनीतिक उद्देश्यों के लिए हो या लखनऊ के विकास के लिए। उनके राजनीतिक महत्त्व का सीधा मतलब था कि ब्रितानी सरकार उनके हितों का पूरा ध्यान रख रही थी। ताल्लुकेदारों के विरोध के कारण ही न्यायिक कमिश्नर की अदालत कभी लखनऊ से इलाहाबाद नहीं गई और अंततः प्रांतीय न्यायिक प्रक्रिया कभी तर्कसंगत नहीं हो पाई। वास्तव में ताल्लुकेदारी और अवध नीति' ने ही ऐसे समय में जब भाग्य इलाहाबाद के साथ दिख रहा था, लखनऊ के प्रांतीय राजधानी बनने की संभावनाएँ बनाई।
मुख्य राजनीतिक केन्द्र के रूप में लखनऊ के उदय के साथ महत्वपूर्ण बात थी, इलाहाबाद के साथ राजधानी बनने की इसकी जंग। इस जंग में १९२१ तक लखनऊ की अघोषित जीत में सबसे ज्यादा योगदान था हरकोर्ट बटलर का, जो अपने समय के सफलतम नागरिक प्रशासकों में से एक था, उसके नाम पर बाद में ऑस्टिन चैम्बरलीन, विंस्टन चर्चिल और लॉर्ड रीडिंग के साथ वायसराय पद के लिए भी विचार किया गया था। बटलर लखनऊ के प्रेम में अंधा था। उसने अपने एक भाषण में कहा था- “मेरे लिए लखनऊ यौवन की प्रेरणा है, ज्यादा उम्र का सहारा है, सुंदर आवासीय शहर, मेरा भारतीय घर। ३१ साल पहले मैंने पहली बार रेसीडेंसी को देखा था और गोमती में मेढ़कों की टर्र-टर्र सुनी थी, जब मैंने पहली बार लोहे के पुल से ‘पूर्व का ऑक्सफोर्ड-दृश्य' देखा था- गुंबद और तोरण अस्ताचलगामी सुनहले सूरज की रोशनी में नहाए। मेरे पास जो सर्वोत्तम था और शायद उससे भी कुछ ज्यादा, मैंने लखनऊ को दिया।''
व्यक्तिगत रुचि के अलावा लखनऊ को बढ़ाने की बटलर की चिंता उसकी ‘अवध नीति' का एक महत्त्वपूर्ण कारण थी। वास्तव में अवध नीति : दया की नीति' नामक पूण बटलर का दूसरा पम्फलेट लखनऊ का गुणगान ही बनकर रह गया। इसमें शासक और शासित के बीच सौहार्द बनाने की पूरी कोशिश की गई थी। ताल्लुकेदारी के हितों की रक्षा के लिए यह आवश्यक था कि उनकी अपनी अदालत हो, जिसकी भाषा उर्दू हो न कि इलाहाबाद उच्च न्यायालय की तरह अंग्रेजी। संयुक्त प्रांत के प्रशासन में ताल्लुकेदारी का सबसे प्रभावी उपयोग करने के लिए यह जरूरी था कि प्रांत का राजनीतिक केद्र लखनऊ में हो जहाँ ताल्लुकेदारी का प्रभाव सबसे ज्यादा महसूस किया जा सकता था। सरकार की नीति थी कि न्यायिक कमिश्नर की अदालत को लखनऊ से इलाहाबाद स्थानांतरित कर सरकार के स्थानांतरण की प्रक्रिया पूरी की जाए और सन् १८८४ से सन् १८९६ के बीच कई बार अवध की अदालतों की अयोग्यता को लेकर यह मुद्दा उठाया गया, लेकिन कभी राज्य के सचिव ने तो कभी भारत सरकार ने इस पर (अदालत के स्थानांतरण पर) वीटो लगा दिया। सर एन्टोनी मैकडोनेल (सन् १८९५ - सन् १९०१ तक लेफ्टिनेंट गवर्नर) भी इस नीति के प्रति कटिबद्ध रहे। बटलर हमेशा की तरह अनौपचारिक तरीके से इसका विरोध करता रहा।
बटलर ने संयुक्त प्रांत की राजधानी लखनऊ ले जाने का मन बना लिया था। उसका तर्क था कि बंगाली और मराठी आबादी तथा भारतीय राष्ट्रीयता के साथ निकट संबंध के कारण इलाहाबाद को प्रांत की राजनीति का केंद्र बनाए रखना काफी खतरनाक है। फरवरी १९०५ में अपने एक रिश्तेदार को लिखे एक निजी पत्र में बटलर ने अपनी योजना के बारे में बताया – “आगरा में लोगों की राय लखनऊ को राजधानी बनाने की दिशा में काम कर रही है ...... जिसे विश्वास हो उसे जल्दबाजी नहीं दिखानी चाहिए। मैं इसके लिए काम करता रहूँगा - यह एक ऐसा उद्देश्य है, जिसके लिए मैं जब तक हूँ, काम करता रहूँगा। कई एकोद्देशीय प्रयास एक साथ शुरू करने होंगे। सौभाग्य से जिन बिंदुओं पर काम किया जाना है, उनमें ज्यादातर मेरे विभाग से संबद्ध हैं और मैं बिना वास्तविक उद्देश्य जाहिर किए उनपर काम कर सकता हूँ, जब तक कि हथौड़ा मारने के लिए सही समय न आ जाए।''
बटलर ने अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए उच्च न्यायालय को इलाहाबाद से लखनऊ ले जाने की सलाह देनी शुरू कर दी थी। दो साल तक उसने इस विचार पर काफी काम किया। सन् १९०६ के ग्रीष्म में ले. गवर्नर ला टोचे (सन् १९०१०७) ने इस डर से कि राजधानी इलाहाबाद से हटाने पर कहीं इलाहाबाद में राजनीतिक उग्रपंथ जोर न पकड़ ले, बटलर को शांत रहने को कहा।
यद्यपि इस समय तक बटलर अपनी योजना को दूसरे तरीके से अंजाम दे रहा था। उसने लखनऊ में एक मेडिकल कॉलेज बनाने की योजना बनाई, जो राजधानी के तौर पर शहर की दावेदारी को पुख्ता करती। १९०६ में यह लखनऊ का जिला आयुक्त बना और ‘एडवोकेट' के संपादक के साथ मिलकर शहर के विकास और सुन्दरीकरण की वृहद् योजना बनाई। उसने बगीचे बनाए, स्मारकों का पुनरुद्धार किया, सड़कों को बेहतर बनाया और सड़कों पर लाइटें लगवाईं। जब नए ले. गवर्नर हेविट (सन् १९०७-१२) ने गवर्नमेंट हाउस के आसपास के इलाकों को बेहतर बनाने में रुचि दिखाई तो वह काफी खुश हुआ"इसस लखनऊ का गौरव बढ़गा। गवर्नमेंट हाऊस जितना अच्छा होगा ले. गवर्नर उतने ही लंबे समय तक यहाँ रुजेंगे।' जाहिर है कि जब करीब एक दशक बाद इलाहाबाद के लोगों ने नई परिषद् भवन के लिए जमीन तलाशने में प्रांतीय सरकार की विफलता के खिलाफ वायसराय के पास याचिका दायर की तो लखनऊ लखनऊ को मिले अनुचित लाभ का भी जिक्र किया, जिसके फलस्वरूप शहर के सुन्दरीकरण के लिए राजस्व का काफी पैसा दिया गया था।
वास्तव में लखनऊ में ले. गवर्नर और गवर्नर के तौर पर (१९१८-२२) बटलर की दूसरी नियुक्ति ने सारा मामला तय कर दिया। उसने आते ही अगले पचास सालों में शहर के विकास के लिए वृहद् योजना तैयार की और तालुकदारों को भरोसा दिलाया कि न्यायिक कमिश्नर की अदालत इलाहाबाद नहीं जाएगी। उसने नगरपालिका बोर्ड में घोषणा की कि इस बात पर उसका निश्चित मत है कि लखनऊ का अपना विश्वविद्यालय हो। बटलर के कार्यकाल के अंत तक लखनऊ इम्प्रूवमेंट ट्रस्ट बन चुका था, न्यायिक कमिश्नर की अदालत के लिए इमारत निर्माणाधीन थी और लखनऊ विश्वविद्यालय की स्थापना के लिए कानून बन चुका था और इसे सीनेट और प्रांतीय विधान परिषद् की मंजूरी मिल चुकी थी। विश्वविद्यालय के लिए २,५०,००० पौंड की राशि एकत्र की जा चुकी थी, जिसमें ज्यादातर योगदान ताल्लुकेदारों का था। सर एडविन ल्यूटन ने इसकी इमारत की रूपरेखा तैयार की थी और इसकी आधारशिला भी रखी जा चुकी थी। इस तरह बटलर ने इसे प्रांत के प्रमुख शहर के रूप में विकसित करने की अपनी योजना पर काम जारी रखा था।
मांटेग्यू-चेम्सफोर्ड सुधारों में शक्ति के विघटन की व्यवस्था ने, जिसका बटलर ने विरोध किया था, उसे लखनऊ को राजधानी बनाने में निर्णायक फैसला लेने का मौका दिया। पहले से बड़े और अधिक सक्रिय लेजिस्लेसिव कौंसिल के लिए नए भवन की जरूरत थी। बटलर ने तय किया कि नया भवन लखनऊ में बनेगा। इलाहाबाद के विरोध और भारत सरकार के संशय को दरकिनार कर उसने लखनऊ में कौंसिल भवन का निर्माण कराया। अपने वास्तविक उद्देश्य को छिपाते हुए उसने इलाहाबाद के याचिकाकताओं का जवाब में कहा कि राजधानी के स्थानांतरण का सवाल ही नहीं उठता। भारत सरकार को भी यही जवाब दिया गया थाहालांकि उसने अपनी जीवनी में लिखा है कि उसका यही (राजधानी का स्थानांतरण) उद्देश्य था। उस समय वह बेहद प्रसन्न था। उसने अपनी माँ से कहा : ''मैंने लखनऊ को हर्षित कर दिया और इलाहाबाद को मायूस, जो कभी नहीं भूला जा सकेगा।''
सन् १९२० के पश्चात् यद्यपि अंग्रेज शासकों और ताल्लुकेदारों के साथ-साथ कांग्रेस के रफी अहमद किदवई और चन्द्रभानु गुप्त के दबाव ने लखनऊ को राजधानी के रूप में स्थापित कर दिया परंतु स्वतंत्रता के कुछ दिनों बाद तक प्रशासनिक रूप से इलाहाबाद का स्थान महत्त्वपूर्ण रहा। इसके साथ ही शिक्षा, साहित्य और संस्कृति का यह विस्तृत केन्द्र भी बना रहा लेकिन राजनेताओं और अधिकारियों की उपेक्षा ने इसे महज प्रति छः वर्ष में आने वाले अर्धकुंभ और १२ वर्ष में आने वाले कुम्भ तक ही सीमित कर दिया। आज इलाहाबाद राजनैतिक षड्यंत्रों के कारण अपने पुराने गौरव को खो रहा है जबकि इसने पाँच प्रधानमंत्री और हजारों प्रशासनिक अधिकारी दिए हैं। आज भी प्रशासनिक कार्यालयों का यहां से स्थानांतरण जारी है। राजनीतिक उपेक्षा का क्या परिणाम होता है यह इलाहाबाद भली-भांति महसूस करता है।