डॉ. जगदीश गुप्त! ‘नवीनता' को एक मूल्य की तरह लेते थे। उन्होंने लिखा हैकि ‘‘प्रारम्भ से मेरी यह दृष्टि रही है कि नवीनता भारतीय सौन्दर्यबोध का निर्णायक तत्व रहा है। कृष्णपक्ष और शुक्लपक्ष में मूलतः कोई अंतर नहीं है। प्रकाश और अंधकार दोनों में समान रूप से मिलता है, किन्तु एक में विकासात्मक दृष्टि है एक में ह्रसोन्मुख। पूर्णिमा से अधिक द्वितीया का चाँद महत्व रखता है क्योंकि वह विकास का द्योतक है.......।'' सभी जानते हैं कि डा. जगदीश गुप्त ‘नयी कविता पत्रिका के संपादक होने के अलावा नई कविता के कवि और चित्रकार भी थे। साथ ही रीतिकविता और ब्रजभाषा की कविताओं में न केवल गहरी रूचि थी, बल्कि उन्होंने रीतिकाव्य संग्रह' का संपादन किया और ब्रज में कविताएं भी लिखी। उन्होंने रीति कविता और नई कविता पर कसे जा रहे एक ही एक ही फिकरे के सहारे दोनों को यू अलगाया है जो उनकी साफ काव्य (दृष्टि का) परिचायक है।
‘लोगन कबित्त की वो खेल करिजाबो है' कुछ (ऐसी ही बात आज भी) नयी कविता कही जाने लगी है पर दोनों स्थितियों में बड़ा अंतर है। उस समय - रीति काल में यह स्थिति अतिशय रूढिबद्धता के कारण उत्पन्न हुई थी, पर आज उसका कारण अतिशय रूढ़िहीनता है।
नएपन पर इतने जोर के चलते ही उन्होंने नयी कविता के संपादकीय में नई अभिरूचि और नए संतुलन का प्रश्न एकदम आरंभ में ही उठाया। उन्होंने स्थापित किया कि नवीन मौलिक रचनात्मक प्रयत्न का उद्देश्य नितान्त निरपेक्ष और सीमित आत्मतोष नहीं हो सकता।'' हर आत्माभिव्यक्ति आत्मविस्तार की भावना लिए रहती है जो अन्य सापेक्ष है। आज जो संतुलन घटित हो रहा है वह अब तक होने वाले संतुलनों की अपेक्षा अधिक तलस्पर्शी, अधिक मौलिक है। क्योंकि मानव व्यक्तित्व को इतना अधिक महत्व किसी युग में नहीं मिला और न उसके मानवता के सामूहिक निर्माण और विनाश का प्रश्न ही इससे अधिक उग्र हो कर कभी आया। किसी बाह्य शक्ति के स्थान पर अपना भाग्यविधाता वह स्वयं है और उसके निर्णयों के साथ समस्त मानवता का भविष्य जुड़ा हुआ है। इस बोध ने उसे नया व्यक्तित्व प्रदान किया है। व्यक्ति की महत्ता के साथ साथ एक व्यापक सामाजिक दायित्व का उदय इस युग की सर्वप्रमुख विशेषता कही जा सकती है। आज के नए साहित्य का यह विचित्र विरोधाभास है कि यह अनुभूति में व्यक्तिनिष्ठ होकर
भी उद्देश्य और दृष्टिकोण में अधिकाधिक सामाजिक होता जा रहा है। अब कवि न राज्याश्रय प्राप्ति के लिए आखर जोड़ता है और न किसी धार्मिक सम्प्रदाय के आगे आत्मसमर्पण करके ईश्वर, गुरू या देवता की कृपा अर्जित करने के लिए पद रचता है। आज काव्य प्रेरणा का मूल स्रोत उसकी अपनी चेतना है। इससे कथ्य व्यक्तिगत हुआ किन्तु इसीलिए व्यक्तिबोध के लिए सामाजिक दायित्व का एहसास और गाढ़ा हुआ जिसे जगदीश गुप्त नई कविता के संदर्भ में व्यक्तिवादी भावना की जगह व्यक्तित्वनिष्ठ के रूप में रेखांकित करते है। इसी व्यक्तित्व निष्ठ अनुभूति के बल पर जगदीश गुप्त नयी कविता के कवियों द्वारा संघर्ष पूर्वक रूढ़िहीनता के दुरूपयोग न करने के प्रति आश्वस्त करते हैं और इन नए कवियों के दायित्वबोध की भावना के वकील की तरह यह पैरवी करते हैं कि नए कवि को पता है कि उनका दायित्व कविता को पूर्ववर्ती स्थिति से अधिक सशक्त बनाना है।
परिमलवृत्त के लेखकों में धर्मवीर भारती, विजयदेव नारायण साही, लक्ष्मीकांत वर्मा तथा जगदीश गुप्त नई कविता के मूल्यांकन में प्रतिमानों या नए सौन्दर्यशास्त्र की आवश्यकता को बेतरह महसूस कर रहे थे और उसके निर्माण व संधान की प्रक्रिया में एक तरह के आत्मसंघर्ष के गुजर रहे थे कि नयी कविता' पत्रिका का माध्यम से जगदीश गुप्त, रामस्वरूप चतुर्वेदी और विजयदेव नारायण साही ने कविता के नए प्रतिमानों की बहस को प्रचुर बौद्विक उर्जा प्रदान की। परिमलवृत में लक्ष्मीकांत वर्मा, विपिन कुमार अग्रवाल तथा जगदीश गुप्त अपनी चित्रकारी के लिए अलग से जाने गए। जगदीश गुप्त ने तो विधिवत् ‘प्रागैतिहासिक चित्रकला' तथा 'भारतीय कला के पदचिह्न' जैसे आलोचनात्मक ग्रंथ भी लिखे। ‘रीतिकाव्य संग्रह' में रीतिकाल की आधारभूमि पर विचार करते हुए डा. जगदीश गुप्त ने अपने सौंदर्यबोध का अनुप्रयोग किया है- “मेरी दृष्टि शुद्ध सौंदर्यपरक रही है। रूढ़िवाद और दरबारदारी से पृथक् रहकर केवल काव्य के कलात्मक सौंदर्य के आधार पर भी उसे (रीतिकविता को) देखा जा सकता है।'' उन्होंने अपनी काव्यदृष्टि के संदर्भ में भी माना है कि मेरी दृष्टि में 'शब्द' और 'अर्थ' की अन्विति ज्यादा महत्वपूर्ण है बनिस्पत ‘हितेन सहितम्' के। कुल मिलाकर नयी कविता के सौंदर्यशास्त्र के निर्माण की अकुलाहट में जगदीश गुप्त का यह कलावादी रूझान, रीतिकविता और ब्रजी का संस्कार तथा चित्रकला क कलाबोध भी मौजूद है।
जगदीश गुप्त ने कविता को मनुष्य मात्र की मातृभाषा माना है और मानवीय चेतना की अर्थपूर्ण अभिव्यक्ति का श्रेष्टतम रूप कहा। उन्होंने कविता के रूप-विधान को युग-विशेष की मन:स्थिति व व्यक्ति चेतना के विकास के साथ सम्बद्ध किया। वैदिक साहित्य के छंद संस्कृत के महाकाव्यकालीन छंदों की अपेक्षा अधिक उन्मुक्त और अधिक ऋतु प्रकृति के थे, किन्तु संस्कृत काल में समाज पग-पग पर सामन्ती संस्कारों और स्मृतियों की व्यवस्था से नियोजित होता गया जिसका प्रतिबिम्बन छंद, गण-विधान से युक्त अतिव्यवस्थित वृत्तों के रूप में मिलत है। संस्कृत वृत्तों में तुकान्त के अभाव को जगदीश गुप्त ने उस युग में जीवन के किसी एक छोर पर न बंध कर संपूर्ण रूप में बंधे होने के अर्थ में व्याख्यायित किया है; और कहा कि इस तुकान्त को आधुनिक स्वतंत्र मनोवृत्ति से जोड़ना सही नहीं है क्योंकि जहां अक्षर-अक्षर का गुरूता-लघुता मूलक क्रम तक नियमित है वहां तुक का होना कोई मायने नहीं रखता। प्राकृत - अपभ्रंश के साहित्य में लोकव्यापी जीवन की तरलता से जिन छंदों की सृष्टि हुई उनमें संगीतात्मकता एंव समवेत-गायन की प्रवृति से उत्पन्न गेयता विशेष परिलक्षित होती है इसलिए उनमें सतुक का विधान है। अन्य अंशों में वे लोक जीवन की प्रवहमयता को सहज अभिव्यक्ति प्रदान करते हैं। आधुनिक युग तक कुछ परिवर्तनों के साथ मुख्यतया यही मात्रिक-गेय रूपविधान चलता रहा। अब नवीन परिस्थितियों के आक्षेप ने इस अप्रांसगिक बनादिया है। नवीन अनुभूतियों और भाव-स्वातंत्य के अनुभवको परंपरागत अनुर्वर और कुंठित माध्यमों से अब व्यजित नहीं किया जा सकता। जगदीश गुप्त के अनुसार कृत्रिमता से मुक्ति पाने की वृत्ति ने ही कदाचित ‘नयी कविता' को कुछ अंशों में गद्य के समीप ला दिया हैं । वस्तुतः यह अकृत्रिम रूप-विधान अधिक कलात्मकता दायित्व की अपेक्षा रखता हैक्योंकि गद्यात्मक विन्यास एवं छंद-रूढिविहीनता की वजह से मुख्य भाव-वस्तु की कमजोरी को छिपाने के उपकरणों को कम कर दिया है। जगदीश गुप्त की ‘नयी कविता' की गद्यात्मकता पर बड़ी दिलचस्प टिप्पणी है कि-
“यदि कहा जाए कि ‘पद्य कविता की सबसे पुरानी और सबसे बड़ी रूढ़ि? है तो अत्युिक्ति न होगी। निराला ने इसे झकझोर दिया था। 'नयी कविता' इसे तोड़कर आगे बढ़ रही है इसीलिए इतना हाहाकार मच रहा है। वह पुरानी राजसी-जड़ाऊ रूप-सज्जा को छोड़कर अब सहजवेश में प्रकट हो रही है।''
यहीं आकर जगदीश गुप्त ने 'अर्थ क लय की अवधारणा दी है। नया कवि पद्य, छंद, तुक को रूढिबद्ध रूप में ग्रहण न करके आवश्यकतानुसार इनका प्रयोग करना चाहता है। उसका आग्रह अनुभूति की सच्चाई और अभिव्यक्ति की ईमानदारी पर अधिक है। नयी कविता के काव्यरूप की दो कसौटियां है:
जो काव्यरूप कवि के कथन की प्रकृति के अनुकूल हो जिससे उसके मन की संगति स्थापित हो
जगदीश गुप्त आंतरिक संगति और लय को कविता के लिए अनिवार्य मानते हैंकिन्तु लय शब्द की ही नहीं अर्थ की भी हो सकती है; दरअसल कविता में ‘अर्थ की लय' की बात उठती ही इसीलिए है कि काव्य संगीत आदि कलाओं की तरह केवल ध्वनि केन्द्रित नहीं बल्कि ‘शब्दार्थ' केन्द्रित विधा है; तब अर्थ का महत्व स्पष्ट हैसंगीत में शब्द घ्वनि और नाद रूप में ग्रहीत होता है-अर्थ से असम्पृक्त, निरपेक्षा। किंतु कविता में ‘अर्थ’ निरपेक्षता असंभव है। ‘अर्थ की लय' को समझने पर एक तो छंद का स्थूल बंधन- गण-तुक-ताल आदि - स्वतः ढीला हो जाता है दूसरे कविता का आंतरिक और तात्विक आधार होने के कारण कविता की पंक्तियों को तोड़-तोड़कर लिख देने या उन्हें एक साथ गद्य की तरह छाप देने से उसका कवितापन कभी नष्ट नहीं होता। ‘अर्थ की लय' एक ऐसी वास्तविकता है जिसका लोप छापने या लिखने की बाह्य-विधि से संभव नहीं है।
नई कविता के फलक पर इसकी प्रसंगानुकूलता का पर्यवेक्षण करते हुए जगदीश गुप्त ने अलंकार-रीति-वक्रोक्तिध्वनि आदि के समाधानों को मध्ययुगीन चिंताधारा से उत्पन्न माना है जिसमें स्वाभाविक तौर पर उस युग की विलास मूलकता तथा कौशल-प्रियता को विशेष महत्व मिला है; मानवीयता का अंश कम है। रसपरक समाधान अपेक्षाकृत मानवीय है परन्तु जहां एक ओर वह अलौकिक आनंदानुभूति का पोषक है वहां अनिवार्य रूप से उसकी स्थिति भाववेग के समक्ष बौद्धिक चेतना को उपेक्षित या पराजित माने बिना संभव नहीं होती। बुद्धि की क्रियाओं पर आवरण डालकर चित्तवृत्ति का स्थायी भाव से सम्पृक्त करके चरम आनंद की दशा तक ले जाना उसकी प्रक्रिया का निश्चित रूप माना जाता है। नयी कविता में अब ऐसे सौंदर्यबोध की अपेक्षा होने लगी है जिसमें उसकी भावात्मक सत्ता के साथ-साथ उसके बौद्धिक व्यक्तित्व का भी संतुलित समावेश हो। नयी कविता इसी नए सौन्दर्यबोध के आविर्भाव और आग्रह की सृष्टि हैजिसमें बिना किसी प्रकार की पराजय एवं बौद्धिक क्षोभ के वह अपनी संपूर्ण चेतना को आस्वादन से पूरा कर सके।
नयी कविता जीवन को एक विशेष दृष्टि से देखती है जिसमें वह (कवि) बड़ी से बड़ी अनुभूति के प्रगाढ़ आत्मविश्वास के साथ बिना अपने व्यक्तित्व को बिखराए या विचलित-प्रज्ञ हुए धारण करने की क्षमता रहती है जो गहरे आत्ममंथन और अनुभव की परिपक्वता द्वारा अर्जित की जाती है। नयी कविता का विश्वास प्रज्ञा का विचलित किए बिना विवेक की जाग्रत अवस्था में भावक को यथार्थ अनुभूति के तल पहुंचा देने में है, यही क्षमता काव्य की ‘रसानुभूति' हैजिसे जगदीश गुप्त ‘सह-अनुभूति' कहने की वकालत करते हैं क्योंकि रसानुभूति' में व्यक्तित्व और विवेक का परिहार होना आवश्यक है जबकि कवि और भावक दोनों के व्यक्तित्वों के सह-अस्तित्व में अनुभूति की प्रेषणीयता नयी कविता की मांग है। स्पष्ट है ‘रसानुभूति' को जहां केवल भाव-विस्तार ही अभीष्ट रहता है वहां सह-अनुभूति के लिए भाव और दृष्टिकोण- दोनों का विस्तार अपेक्षित है।
‘कविता के नए प्रतिमान' में डॉ. नामवर सिंह ने जगदीश गुप्त को ‘सह-अनुभूति' के सिद्धांत को ‘छायावादी अनुभूति' से जोड़कर उसकी आलोचना करते हैं और कहते हैं कि जगदीश गुप्त छायावादी संस्कारों से मुक्त नहीं हो पाए हैं-इसलिए तो उन्हें अनुभूति तो याद रह गई लेकिन ‘सृजनात्मकता' भूल गई- जिसे नयी कविता ने बड़े यत्न से काव्य-परंपरा में जोड़ा है। इसके अलावा इस बहस को आगे बढ़ाते हुए नामवर सिंह ने ‘रस के प्रतिमान की प्रसंगानुकूलता' में रस के ‘तत्वमीमांसा' तथा 'अर्थ-मीमांसा' के पक्ष को उठाया, जो अलग विवेचना की मांग करता है।
अपने ‘अर्थ की लय', रसानुभूति और सह-अनुभूति के सिद्धांत के अलावा जगदीश गुप्त, लक्ष्मीकांत वर्मा द्वारा स्थापित ‘लघुमानव' की धारणा के बरक्श ‘सहजमानव' की अवधारणा 'नए मनुष्य' के रूप में करते हैं। उन्होंने ‘लघुता' को मानवमूल्य इसनिए नहीं माना क्योंकि इसमें मानव के व्यक्तित्व और स्वाभिमान के विरोध का स्वर निहित है। लघुता' को दूसरों की ‘महानता' के बरक्श ही प्रतिमानीकृत किया जा सकता है। ‘‘राम सो बड़ो है कौन मो सो कौन छोटो'' की भावना की भाँति लघुता कदापि महानता का विरोध करते हुए वरेण्य नहीं है क्योंकि दोनों अन्योन्याश्रित हैं। मनुष्य वास्तव में ‘महान' के आतंक से पूरी तरह तभी मुक्त हो सकेगा जब वह अपने को ‘लघु' कहना छोड़ दे। पहले अपने को लघु कहना फिर लघुता का महत्व प्रदर्शित करना प्रकारान्तर से अपने को महान् कहना ही है।
जगदीश गुप्त ने जिस सहज और नए मनुष्य की प्रतिष्ठा की उसकी विशेषताएं बताते हुए उन्होंने लिखा कि नया मनुष्य रूढ़िग्रस्त चेतना से मुक्त, मानवमूल्य के रूप में स्वातंत्र चेतना के प्रति सजग, सामाजिक दायित्व का स्वयं अनुभव करने वाला, संकीर्णताओं और कृत्रिम विभाजनों के प्रति क्षोभ का अनुभव करने वाला, प्रत्येक व्यक्ति के स्वाभिमान के प्रति सजग, दृढ़ एवं संगठित अंत:करण संयुक्त तथा मानव व्यक्तित्व के उपेक्षित, निरर्थक व नगण्य सिद्ध करने वाली किसी दैनिक या राजनैतिक सत्त के आगे अनवनत होगा।
इस प्रकार जगदीश गुप्त ने ‘नयी कविता' पत्रिका के माध्यम से नयी कविता' आंदोलन व कवि-कर्म की सैद्धांतिक-वैचारिक पीठिका रची तथा उसकी विचारोत्तेजक पैरवी की। नयी कविता काल में जगदीश गुप्त का कार्य छायावादी कविता के समय के ‘पल्लव की भूमिका' में सुमित्रानन्दन पन्त और ‘परिमल की भूमिका में निराला के कार्य की याद दिलाता हैजगदीश गुप्त के चिंतन के सहारे आज की हिन्दी कविता के लिए हिन्दी के अपने काल्पशास्त्र की खोज के सूत्र मिल सकते हैं।
-------------------------------------------------------
संदर्भः
१. नयी कविता (खंड-दो), रचना-पक्ष; संपादक: जगदीश गुप्त, लोकभारती प्रकाशन, द्वितीय संस्करण, २०१०, 'भूमिका' से
2. रसानुभूति और सह-अनुभूति, डा. जगदीश गुप्त, नयी कविता (खंड-एक), लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद ।
३. रीतिकाव्य संग्रह, जगदीश गुप्त, ग्रन्थम् कानपुर, १९९३
४. नयी कविता: नया संतुलन; जगदीश गुप्त, वही
5. कविता के नये प्रतिमान; नामवर सिंह, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली
६. नयी कविताः नये मनुष्य की प्रतिष्ठा; जगदीश गुप्त, वही
७. नयी कविता के प्रतिमानः लक्ष्मीकांत वर्मा
८. ६वां दशक; विजयदेव नारायण साही, हिन्दुस्तानी अकादमी, इलाहाबाद
9. परिमलः स्मृतियां और दस्तावेज; केशवचन्द्र वर्मा, प्रतिमान प्रकाशन, एकांश इलाहाबाद
१०. परिमल के स्थापना के समय की पतिस्थितियां; बिशन नारायण टंडन, इलाहाबाद संग्रहालय, इलाहाबाद
सम्पर्क : मो.नं.: 8004130639