आलेख - इलाहाबाद की संस्कृति और शायरी - सै. मोहम्मद अकील रिज़वी

 जन्म : 1930 में करारी के एदिलपुर (कौशाम्बी) में। शिक्षा : इलाहाबाद विश्वविद्यालय से परास्नातक और डी.फिल.। इलाहाबाद विश्वविद्यालय में ही अध्यापन बाद में उर्दू विभाग के अध्यक्ष। बहादुरशाह जफर अवार्ड सहित अनेक अवार्ड से सम्मानित। सेनानिवृत के बाद स्वतंत्र लेखन।


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इतिहास के पन्नों पर इलाहाबाद अपने पहले रूप में पराग, प्रयाग और पयाग, मिलता है। इन नामों में कुछ दौर (काल) इतिहास के धुंधलकों के दौर हैं। अकबर के शासन काल में इस सरज़मीन ने एक नया चोला बदला। अबुल फजुल के अकबरनामे के अनुसार ‘बादशाह ने एक शहर बसाया और उसका नाम इल्हाबास रखा। इससे पहले यह प्रयाग नाम का तीरथ स्थान था।'' ‘इल्हाबास' से इलाहाबाद भी अकबर ही के ज़माने में हुआ, मगर सुजानराय भण्डारी ने खुलासतुतवारीख में लिखा है कि इल्हाबास से इलाह आबाद शाहजहाँ ने तबदील किया। मगर यह ख्याल सही नहीं है।


     हिन्दी में पराग व पयाग मिलन के अर्थ में, इल्हाबास व इलाहाबाद के मानी प्रकृति का जाहिर होना है इसमें जात' (Generic Noun) जिसके मानी हैं रहने की जगह जिसका अर्थ ईश्वर का अवतरित होना और प्रकट होना उस स्थान पर, और इलाहाबाद के मानी ईश्वर का आबाद किया हुआ और इल्हाबास के मानी यह भी जहाँ ईश्वर रहे जो जल्ले जलालहू (Omnipotent) है। इसके अलावा निम्नलिखित प्रमाण इस बात का इनकार करते हैं कि इलाहाबाद नाम शाहजहाँ का रखा हुआ है। अकबर के ज़माने में जो सिके इलाहाबाद की टकसाल से निकले उनपर जुबे इलाहाबाद (इलाहाबाद के ढाले हुए यह शेर मिलता है।


    १. हमेशा यूँ जेर खुर्शीद ओ-माह रौशन बाद


    २. ब शर्को गर्ब जहाँ सिककए इलाहाबाद


     (अर्थ-हमेशा सूरज और चाँद की सुनहरी चमक की तरह पूरब और पच्छिम (पश्चिम) हर तरफ़ यह इलाहाबाद (टकसाल) इलाहाबाद' भी खुदा हुआ है। ‘तुजुके जहाँगीरी' और 'जहाँगीरनामे' में भी इलाहाबाद का नाम बार बार आया है


      इलाहाबाद की उन्नति का काल मुगलों के शासन काल से ही शुरू होता है, खास तौर पर अकबर के ज़माने से। मुगलकाल में भक्ति तहरीक का एक मरकज़ इलाहाबाद भी था। इलाहाबाद में सूफ़ियों के दायरों की तादाद (संख्या) बारह बताई जाती है, अगरचे इनके नामों में बड़ा विवाद है। मगर यह एक सियासी और मज़हबी मरकज़ (केन्द्र) भी रहा है। यहाँ मशहूर सूफ़ी बुजुर्ग मखदूम शाह तकी जिन्हें शेखतकी भी लिखा गया है, रहते थे। मखदूम शाह तकी का जीवन काल सन् १३२० ई. से सन् १३८४ ई. अर्थात् तुकूलक काल रहा है। अकबरी अहद में भी आँसी को अच्छी खासी अहमियत हासिल थी। यह जगह शाहजहाँ के अहेद (काल) तक खासी अहम रही।


    सन् १५७५ ई. में किले के कियाम (स्थापना) के साथ ही इलाहाबाद शहर में एक बहुत बड़े बाग का शिलान्यास हुआ जो बाद को ‘खुसरो बाग' के नाम से नामित हुआ। अकबर के एकलौते बेटे शहज़ादा सलीम ने अकबर के खिलाफ यहीं से बगावत का झंडा उठाया। डॉ. बेनी प्रसाद की तारीख जहाँगीर और डाक्टर फ्यूहरर (FUHRER) की किताब ‘यादगारहाए कदीमा' और उनके कतबातए (शिलालेखों) के अनुसार शहज़ादा सलीम के हुक्म से किले की तामीर से जो सामान और मसाला बच रहा था उससे खुसरो बाग तामीर हुआ (बना)।


    इलाहाबाद की तहजीबी और सक्राफ़ती (सांस्कृतिक) जिन्दगी में सूफ़ियों के दायरों की बड़ी अहमियत रही हैऔर इलाहाबाद की सांस्कृतिक जिन्दगी में शिक्षा व शिक्षण की हमेशा बड़ी अहमियत रही है। ऋषि भारद्वाज के शैक्षिक आश्रम से लेकर आजतक की शिक्षण संस्थाओं तक का विश्लेषण इस बात की तसदीक करता है। इलाहाबाद के सूफ़ियों के दायरे भी तालीम (शिक्षा) का मरकज़ (केन्द्र) पहले भी थे और आज भी हैं। इलाहाबाद अगरचे भिन्न भिन्न विचारों वाली हुकूमतों के समाजी और सियासी प्रभावों से प्रभावित होता रहा है, मगर बहुत सी बातों में उसने खुद अपना एक मिज़ाज पैदा किया है। शानदार तारीखी और तहजीबी रवायतों के साथ-साथ इलाहाबाद में शेरो-शायरी और अदब (साहित्य) का चरचा शुरू से ही रहा है। उर्दू शेर-ओ अदब की बिसात लगभग यहाँ भी उसी वक्त बिछती है जब दिल्ली में रेखता गोई का उरूज होता हैयानी मुहम्मद शाही दौर से।


    सन् १८०१ से सन् १८५० ई. तक इलाहाबाद में शेर-ओ-शायरी का काफी चरचा हो चुका था। दायरा शाह अजमल इन शेरी सोहबतों का खास तौर पर मुसतकर (अड़ा) था। बाद को दरियाबाद के शायर भी इन महफ़िलों में शामिल हो गए। पन्द्रह अगस्त १९४७ ई. को हिन्दुस्तान आज़ाद हो गया। इससे एक दिन पहले पाकिस्तान वजूद में आया। सोलह या सत्रह अगस्त को इलाहाबाद के पुरुषोत्तम दास टण्डन पार्क में कांग्रेस की एक बड़ी मीटिंग हुई जिसमें पंडित नेहरू, तारा पंडित (नयन तारा सहगल) और कैप्टन शाहनवाज़ ने तकरीरें कीं।


    तकसीम के वक्त इलाहाबाद में कोई फ़साद नहीं हुआ, हालाँकि लाहौर और पेशावर या लायलपुर के शरणार्थी जब इलाहाबाद आए तो उन्होंने यहाँ भी दिल्ली, भरतपुर और कपूरथला जैसी फ़सादी फ़ज़ा, पेश करने की कोशिश की। मगर १९४७ ई. में इलाहाबाद में कोई झगड़ा या कोई उथल-पुथल उस तरह की नहीं हो पाई। मार्च सन् १९४८ ई. तक इलाहाबाद का माहौल बिल्कुल नार्मल हो गया। सारे हिन्दुस्तान से उस वक्त तलबा (छात्र) ‘आक्सफोर्ड आफ दी ईस्ट' में पढ़ने आते थे। यूनीवर्सिटी में मुल्कगीर शोहरतयाफ्ता असातेज़ह, उस वक्त मौजूद थे।


     अंग्रेजी में ‘फ़िराक गोरखपुरी, हरिवंशराय बच्चन' जो ‘बच्चन जी के नाम से जाने जाते । तारीख में डॉ. ईश्वरी प्रसाद, डॉ. ताराचन्द्र (जो कभी-कभी क्लास लेते कि अब वह यूनीवर्सिटी के मुलाजमि न रह गए थे), डॉ. राम प्रसाद त्रिपाठी, उर्दू में डॉ. एजाज़ हुसैन, इकनामिक्स में प्रोफेसर जमशेद के खुसरो मेहता, फार्सी में डॉ. अब्दुस्सत्तार सिद्दीकी और प्रोफेसर नईनुर्रहमान, तारीख के प्रोफेसर सर शफाअत अहमद खान का कुछ ही दिनों पहले शिमले में कत्ल हो चुका था। गरजु कि यूनीवर्सिटी इस वक्त अपने उरूज (प्रगति के शिखर) की आखिरी मंजिल पर खड़ी थी। इलाहाबाद शहर की अदबी ज़िन्दगी अपने उरूज को पहुँच रही थी। एक तरफ मुशायरे होते जिनमें ‘फ़िराक, अहमद मुजतबा वामिक, मसूद अखतर जमाल, मासूम रज़ा राही, तेरा इलाहाबादी, नूह नारवी, मुकामी शायरों में होते और बाहर से जोश, मजाजू, जज़बी, आनन्द नारायण मुल्ला मुशायरों में शिरकत के लिए आ जाते। उन्हीं दिनों साहिर लुधियानवी भी लाहौर से निकल कर हिन्दुस्तान चले आए और फिर इलाहाबाद आकर एकामत पज़ीर हो गए (रहने लगे) एजाज़ साहेब कभी कभी ‘थर्सडे क्लब' में भी साहिर को ले आते।


    'थर्सडे क्लब' ही में साहिर ने अपनी वह गुजुल सुनाई थी जिसकी रदीफ़ थी ‘क्या गुजरी' उनके यह शेर हम तलबा की जुबान पर हर वक्त रहा करते। खुद ही बताते थे कि उन्होंने लाहौर में कही थी और और वहीं के एक मुशायरे में पढ़ी और जब यह शेर पढ़ा-


       चलो वह कुफ़ के घर से सलामत आ गए लेकिन


        खुदा की मुमलेकत में सौखता जानों पे क्या गुजरी


       एजाजू साहब के यहाँ अकसर अदबी नशिस्तें हुआ करतीं। कोई अदीब या शायर कहीं से आया, एजाज़ साहब यहाँ उसका पहुँचना लाज़मी था। उसी जमाने में सैयद एहतेशाम हुसैन इलाहाबाद यूनीवर्सिटी किसी सरकारी काम आए हुए थे। यूनीवर्सिटी के एक तालिम इल्म (छात्र) ने उनकी तरफ़ आटोग्राफ बुक बढ़ाई, एहतेशाम हुसैन ने उस पर लिखा ‘रूस में इनक़लाब आया, चीन में इनक़लाब आया सोचिए कि हिन्दुस्तान में इनकुलाब कब आएगा।' उस वक्त जो इलेक्शन हुआ उसमें कम्युनिस्ट पार्टी के जुलूसों में यह नारा लगता था देश की जनता भूखी है, यह आज़ादी झूठी है।'


     उस वक्त एक आम ख़याल था कि इमरोज़ो फरदा (आजकल) में हिन्दुस्तान सुख इनकेलाब से दो चार होने वाला था।


    इलाहाबाद के जुनूबी (दक्षिणी क्षेत्र) हलके से डॉ. जेड, अहमद कम्युनिस्ट पार्टी के टिकट से इलेक्शन लड़े। उनका जुलूस जब इलाहाबाद में पार्टी आफ़िस से निकला तो एक सिरा उसका हिवेट रोड (विवेकानन्द मार्ग) के चौराहे पर होता और दूसरा कोतवाली के पास से नखास कोहने की तरफ मुड़ता होता। पूरे शहर में हर तरफ़ सुर्ख झंडे लहराते होते। तब की इन जुलूमों की तसवीरें अमरीका से शायहोने वाली शोहरए आफ़ाक (विश्वविख्यात) मैगजीन नेशनल जोगरफिक में भी उस वक्त शय हुई (छपी) और फिर एक दिन अमरीकी हुकूमत ने सर तेज बहादुर सपू के बंगले को किराए पर लेकर उसमें कोई सोशल सर्विस डिप्लोमा कोर्स खोला। बहुत से अमरीकी मर्द-औरत, तालीम देने के लिए इलाहाबाद में इस बंगले में रहने के लिए आए और कई बरस तक यह कोर्स चलाया गया। गोया कम्युनिस्ट खयालात को खत्म करने के लिए यह सूरत अख़तियार की गई। अमरीका को सबसे ज्यादा सुख़ ख़तरा इलाहाबाद में नज़र आने लगा। कम्युनिस्ट पार्टी इलाहाबाद में हार गई। इलाहाबाद में शेर-ओ अदब में दो मुस्तकृर थे, शायरी में फ़िराक साहब और आम अदब में एजाज़ साहेब। एजाज़ साहब ने इसी ज़माने में एक उर्दू का अदबी रिसाला 'शुआ ए उर्दू' के नाम से निकाला। ‘शुआए उर्दू' बाद को ‘कारवाँ' में बदल गया। इसी जुमाने में अफ़साना निगारों की भी एक नई खेप आई, बलवन्त सिंह, महमूद अहमद ‘हुनर' और अतहर परवेज ने मिलकर एक रिसाला कटरा इलाहाबाद से ‘फ़साना' नाम का निकाला जिसमें पुराने अफ़साना निगारों के साथ कुछ नए लोग भी आए।।


     इलाहाबाद हमेशा से हिन्दी के अदीबों का गढ़ रहा है। उस वक्त भी उर्दू के मुकाबले में हिन्दी का अदब बेहतर था और हिन्दी के मशाहीर (सुविख्यात) अदीब भी इलाहाबाद में एकामत पज़ीर थे। ताहम अन्जुमन-ए-तरक्की पसन्द मूसनेफीन में उर्द-हिन्दी दोनों के अदीब बड़े शराफ (चाव) से शिरकत करते थे। पुराने अफ़साना निगारों और नावेल निगारों में श्री कृष्णदास और इला चन्द्र जोशी के झण्डे गड़े हुए थे। इनके बाद दूसरी नस्ल में भैरोप्रसाद गुप्त और अमृत राय थे जो बड़ी लगन और मेहनत से अदब की तखलीक में मुनहमिक थे। अमरित राय (अमृत राय) और इलाचन्द्र जोशी मिन्टो रोड पर नाले के पास रहते थे और वहीं सिरी कृषन (श्री कृष्ण) दास भी थे। अमृत राय की एक किताबों की दुकान भी जीरो रोड पर ताजमहल होटेल के नीचे हुआ करती थी जहाँ से प्रेमचन्द का ‘हंस' भी टेढ़े मेढ़े निकल रहा था।


    अमरकान्त ने भी उसी वक्त लिखना शुरू किया था। यह सब लोग अंजुमन-तरकुकी पसन्द मुसफ़ीन के जलसों में बड़ी बाकायदगी से आते मगर इनकी तहरीरों और मुबाहिसों से मालूम होता था कि यह अपना रास्ता अलग बनाने के फ़िक्र में हैं। अन्जुमन के जलसे कभी अमृतराय के घर पर होते, कभी भैरों प्रसाद गुप्त के घर स्टेनली रोड पर होते, कभी एजाज़ साहब के यहाँ, कभी पी.सी. गुप्त और पहाड़ी के यहाँ। पी.सी. गुप्त का शुमार हिन्दी के अच्छे नक्कादों में होता था। उस वक्त कमलेश्वर, मार्कण्डेय और राकिमुल हुरूफ पीछे की पंक्ति में (सफे नआल) में होते। उसी वक्त एक साहबजादे भी आए जो हिन्दी में ग़ज़ल कहने की मश्क कर रहे थे। यह जुबान तो हिन्दी-उर्दू की मिली जुली इस्तेमाल करते मगर बहरे सब फ़ार्सी गज़लों की होतीं, यह दुष्यन्त कुमार थे।


     हिन्दी की शेरी दुनिया में यह नई आवाज़ थी। इन्हीं जलसों में शमशेर बहादुर और त्रिलोचन शास्त्री भी आते और अपनी तखलीकात पेश करते। दुष्यन्त कुमार और शमशेर बहादुर ने हिन्दी की शायरी में उर्दू तौर तरीकों से बड़ा नाम कमाया। इन्हीं दिनों ‘फ़ारूक जूनँ' नाम के उर्दू शायर ने ‘लाइट आफ़ एशिया' का उर्दू अशार में तर्जुमाँ किया जो खासा अच्छा था। फिर अन्जुमन तरक्की पसन्द मुसनेफ़ीन के जलसे कानपुर रोड के एक बंग्ले में होने लगे। यहीं मैंने पहले पहल नागार्जुन और राम बिलास शर्मा को देखा और उनकी नई हिन्दी शायरी पर तकरीरें सुनीं। यही एक दिन उर्दू के एक नए शायर अपना नया शेरी मजमूआ (काव्य संकलन) लिए हुए आए और काफी देर तक अपनी नज्में सुनाते रहे जो एक तरह की तजरूबाती शायरी थी। यह हसन शहीर थे। और मजमूआ ‘सुबहे जिन्दाँ' था।


      'अंगारों के गीत' और 'मौत की शहनाई' के नाम से उनके दो और मजमूए (संकलन) उसी दरमियान शाय हुए। ‘अंगारों के गीत' पर आले अहमद सुरूर साहेब का मुकद्दमा भी तहरीर था।


      हम लोग एम.ए. साल-ए-दोउम (द्वितीय वर्ष) में थे कि इलाहाबाद इण्डियन पीपुल्स थिएटर (IPTA) का एक इजलास रेलवे इन्स्टीट्यूट में हुआ। इलाहाबाद में इप्टा से दिलचस्पी लेने वालों में नेमी चन्द जैन और उनकी बीबी रेखा जैन खास थीं। नेमी चन्द जैन की अदब से दिलचस्पियाँउस वक्त मन्जरे आम पर न थीं। वह इलाहाबाद के सिविल लाइन्स में ‘प्यूपुल्स बुक हाउस' चलाते थे और पहाड़ी के साथ मार्कसी अदब पर धुवाँधार बहसें करते थे।


     इप्टा के लिए बाहर से आने वालों में प्रेम धवन, और हबीब तनवीर थे। अभी हबीब तनवीर का ‘आगरा बाज़ार नहीं आया था और न ड्रामे से उनकी कोई खास दिलचस्पी थी, वह ड्रामा और शायरी के बीच मुअल्लक (टंगे हुए) थे। इलाहाबाद तो वह एक मुशायरे के लिए आए थे। यह याद नहीं कि मुस्लिम बोर्डिंग हाउस के मुशायरे के लिए या किसी और मुशायरे के लिए मगर उन्होंने मुस्लिम बोर्डिंग हाउस के मुशायरे में शिरकत की थी और एक नज्म बड़े जोर शोर से पढ़ी थी जिसका एक शेर याद है।


     आज तेरे आँचल की नर्म सरसराहट में बर्फ ही के तैवर हैं।


     और मुझको यह बिजली ऊँचे-ऊँचे महलों पर आज ही गिरानी है।


    इप्टा में रेखा जैन ने बेहतरीन रक्स पेश किया था और प्रेम धवन ने एक खास धुन में अपना तांगे वाला गाना 'चल मेरे घोड़े चला चल' पेश किया था, और फिर एक गीत भी जिसका मुखड़ा था -


     *आज हड़ताल-हड़ताल-आज चका बन्द


     और जब प्रेम धवन ‘आज हड्ताल-हड़ताल कहते'' तो पूरा मजमा उनके साथ पुरजोर आवाज़ में कहता ‘आज चका बन्द'। और इस ‘आज चका बन्द' कहने पर पूरी फ़िज़ा पूँज उठती थी। इस मजमे में ज्यादातर नौकरी पेशा, कुली, और मज़दूर थे और प्रेम धवन की इस आवाज़ को लोग अपने दिल की आवाज़ समझते थे।


    रेखा जैन बड़ी अच्छी आर्टिस्ट थीं। उन्होंने बम्बई के इप्टा (IPTA) में भी काम किया था।


    हिन्दी थिएटर भी इन्हीं दिनों इलाहाबाद में खासा मकबूल हुआ था। श्री कृष्णदास ने इलाहाबाद के उस वक्त के एक कलक्टर जगमोहन रैना की बीवी के साथ मिलकर एक रंगमंच की तशकील थी। यह थिएटर ‘रंगशाला' के नाम से मौसूम (नामित) हुआ। स्टेज और थिएटर का शौक रखने वाले बहुत से फ़नकार उनके गिर्द जमा हो गए और रंगशाला' का रंग कुछ दिनों तक खूब चोखा रहा। श्री कृष्ण दास अच्छे आर्गनाइज़र और ड्रामा नवीस भी थे। उन्होंने एजाज़ साहब को भी अपने साथ लपेटा। एजाज़ साहब ने भी उनके लिए दो एक ड्रामे लिखे मगर एजाज़ साहेब के ड्रामे ‘रंग शाला' में चले नहीं। फिर एजाज साहेब ने यूनीवर्सिटी के 'उर्दू एसोसिएशन के लिए कुछ और ड्रामे लिखे जो स्टेज भी हुए और बाद को ‘अदबी ड्रामे' के नाम से कई मर्तबा शाय हुए।


    हिन्दी में निराला, पंत, महादेवी वर्मा और रामकुमार वर्मा, छायावादियों का एक गुरूप अलग था जो बाद को एक स्कूल बन गया। मगर सन् १९५०-५१ ई. तक, यह मिज़ाज बासी हो गया। हिन्दी की नई नसल ने छायावादियों को तोड़कर रख दिया कि यह हकीकृत से गुरेज़ाँ (भागने वाले) हैं। छायावादी ज़िन्दगी की तेजुगामी का साथ नहीं दे सके। इसका एक अजीब सीन देखने में आया। इलाहाबाद यूनिवर्सिटी के शोबए हिन्दी (हिन्दी विभाग) के किसी ड्रामे का इफ्तेताह (उद्घाटन) हो रहा था, महादेवी वर्मा ने एक तकरीर अपने ढंग की, कीजब तक़रीर खत्म हुई तो विजयदेव नारायण साही' मजमें से उठे और उन्होंने कहा कि देवी जी ने जो कुछ कहा हम कुछ नहीं समझे। यह क्या भाषा बोलती हैं और किसके लिए। इस पर कुछ हंगामा हुआ और देवी जी रूठ कर चली गई। विजयदेव नारायण साही' हम लोगों के गुरूप के आदमी थे। वह खुद को सोशलिस्ट कहते थे, मगर यह सोशलिज्म राम मनोहर लोहिया, वाली सोशलिज्म थी। ‘साही' थे तो शायर मगर उन्होंने हिन्दी की नई तनकीद (आलोचना) में भी नई नस्ल को राह दिखाई। मगर 'निराला', 'पंत', 'महादेवी वर्मा' और 'बच्चन' जैसा शायर फिर इलाहाबाद में हिन्दी में कोई और पैदा न हुआ। हाँ कहानियों का जो नया मंच सजा उसमें नए लोगों ने रास्ते पैदा किए।


   मार्कण्डेय, कमलेश्वर और अमर कान्त के बाद दूधनाथ सिंह, शेखर जोशी, कालिया और उनकी बीवी ममता कालिया ने कहानियों की दुनियाँ की तौसीआ (फैलाव) की, मगर शायरी की हिन्दी दुनियां सुस्त पड़ गई।


    इलाहाबाद ने शेरी दुनिया में कोई खास तरक्की न की। अकबर इलाहाबादी के अलावा किसी और को उरूज हासिल न हुआ। अजीब बात है कि फ़िराक ने इलाहाबाद से शायरी शुरू की और इलाहाबाद में ही उनकी शायरी ने जवानी और बुढ़ापे सबकी मंजिलें तय कींमगर वह हमेशा अपने को गोरखपुरी ही लिखते रहे। यही सूरत कुरीब-करीब असगर गोंडवी की भी हुई। मेरे सामने इलाहाबाद में छोटी-छोटी अंजुमनें उर्दू की कायम थीं जिनका मकसद सिर्फ मुकामी मुशायरे करना रह गया था। इनमें खूब झगड़े भी होते और खूब शायरी भी। ‘नूह नारवी' की अन्जुमन सफ़ीनए-अदब थी। फिर एक अन्जुमन उनसे एखुतेलाफ़ करके उनके शागिर्द  सुखदेव प्रसाद बिस्मिल' इलाहाबादी ने भी कायम की।


    बिस्मिल, गुलशन, जिद्दत, सिराज और राज़ काफ़ी मशहूर हुए, करीब करीब सभी के दीवान शाय हुए। राज़ (राष्ट्रीय स्तर) मुल्कगीर शोहरत के हासिल हैं मगर मुशायरों के शायर हैं। उस्ताद नूह' नारवी को कबूतर पालने का बड़ा शौक था, इलाहाबाद के रईस ‘मुनवा जी' भी कबूतर पालते थे, यह न मालूम हो सका कि शौक कबूतरबाज़ी उस्ताद को ‘मुनवा जी' से करीब ले गया या जौक-ए-शायरी मूनवा जी को उस्ताद के करीब लाया।


    अपना-अपना शौक है। इलाहाबाद के एक रईस ने जब अपनी ‘फ़ोर्ड' कार खरीदी तो उसे दुकान से लेने के लिए नूर जहाँ नाम की एक तवाईफ को देहात से लेकर आए कि सबसे पहले कार पर वह बैठेगी। नाम तो उनका नूर जहाँ था, मगर वह चेहरे-मुहरे से तिलिस्म-ए-होशरूबा की ‘तारीक शक्ल क्रश' (तिलिस्म-ए होशरूबा का एक चरित्र) लग रही थी।


    इलाहाबाद स्टेशन पर एक मजार है जिसे लाइन बाबा का मज़ार कहा जाता है। इस मजार पर हर जुमेरात को बाकायदा कव्वाली की महफ़िल सजती है। अब तो बाकायदा पुख्ता और शानदार मज़ार बन गया है, मगर मेरी तालिब इल्मी के ज़माने में यहाँ सिर्फ चूने से रंगी हुई एक कुब हुआ करती थी। हम लोग भी कव्वाली सुनने और शीरीनी (प्रसाद) लेने अकसर यहाँ जाते। यहाँ हाज़रीन में हिन्दू मुस्लिम, ईसाई सब पहले भी होते थे और आज भी होते हैं।


   इलाहाबाद की खानकाहों में हिन्दू भी आते हैं और मुसलमान गंगा भी नहाते हैं। यही हमारी मिसवा और गंगा-जमनी तहजीब है। मुहर्रम में चौक इलाहाबाद में हिन्दू ताजियों पर फूलों की बारिश करते हैं, ताजियों पर से अपने बच्चों को वारते, और ऊंचे ऊंचे मचान बांध कर दस मुहर्रम को उस पर बैठकर रेवड़ियाँ भी अवाम में तक़सीम करते हैं। और यह सरकारी आदमी नहीं होते। यह सब ब्रिटिश हुकूमत में भी होता था और आज भी होता है।


    इलाहाबाद में दसहरे के मौके पर कभी-कभी हिन्दू मुस्लिम फ़साद भी हो जाया करता था। मुझे सन् तो नहीं मालूम मगर लोगों से सुना कि सन् १९२७-२८ ई. में इतना फ़साद हुआ कि अंग्रेजों ने इलाहाबाद में दसहरा बन्द करा दिया जो तकरीबन आठ साल तक बन्द रहा। तो सन् १९३८ ई. में मुहर्रम से चन्द दिनों पहले एक सुबह सारे शहर में खबर फैल गई कि अतरसुइया की एक मस्जिद में सुबह को एक सुअर का कटा हुआ सर पड़ा मिला। बस फिर क्या था यह खबर आग की तरह फैल गई। जिसे देखो अतरसुइया की तरफ भागा चला जाता है। यह छोटी सी मस्जिद ‘राम किशुन अत्तार' की दुकान से मिली हुई थी जो आज भी है। नखास कोहना और रानीमण्डी के हजारों मुसलमान इकट्ठा हो गए और उधर लोकनाथ और अतरसुइया के हिन्दू भी इकट्ठा हो गए और थोड़ी देर में ईंट-पत्थर चलने लगे और झगड़ा हो गया। अभी यह ईंट पत्थर चल ही रहे थे कि शहर के हुक्काम भी कलक्टर के साथ मौकए वारदात पर पहुंच गएयह कलक्टर विटिल (Whitil) का ज़माना था। कलक्टर साहब खुद मुआइने के लिए मस्जिद तक गए, तो पुलिस ने बैटन (Baton) चार्ज करके मजमे को भगा दिया।


    अभी यह झगड़ा चल ही रहा था कि कोतवाली की तरफ़ से एक ताँगा आकर चौराहे से कुछ पहले रुका जिसमें से पंडित जवाहर लाल नेहरू और उनके साथ दो एक आदमी और ताँगे से उतरे। जवाहर लाल जी के हाथ में बंद (बेंत) की एक छड़ी थी जिसे वह खामोशी से दोनों मजमों के सामने घुमाते रहे। उनके आते ही हिन्दू-मुसलमान, सब खामोश हो गए।


    जवाहर लाल जी बिल्कुल खामोश एक दुख के आलम में थोड़ी देर खड़े रहे, फिर रानी मण्डी वाली गली में जहाँ मुसलमान जोश-ए-इन्तकाम (बदले की भावना) में भरे खड़े थे बड़े इतमीनान से चलने लगे मगर किसी से एक लफ्ज (शब्द) भी नहीं कहा। जवाहर लाल जी और उनके साथी खामोशी से चलते हुए दायरा शाह अजमल तक गएवहाँ उन्होंने यूसुफ़ कांग्रेसी और शाहिद फाखुरी से कुछ बातें कीं (जैसा कि लोगों में बाद में मशहूर हुआ) और उसी इतमीनान से छड़ी घुमाते हुए वापस ताँगे तक आए। हम मीर हुसैनी के इमामबाड़े के चबूतरे पर खड़े यह मन्जुर देख रहे थेताँगे पर बैठने से पहले उन्होंने एक मरतबा लोकनाथ के हिन्दुओं की तरफ़ तेज़ नज़रों से देखा फिर मुसलमानों की तरफ़ नज़र उठाई और जुरा ऊंची आवाज़ में कहा 'भारत माता की जय' और अपने तांगे पर बैठकर रवाना हो गए। अब इस आवाज़ में क्या जादू था कि लोगों ने अपने हाथों से ईंट पत्थर फेंक दिए और अपने अपने घरों को वापस चले गए। दो तीन दिनों के बाद मुहर्रम उठा तो हिन्दू-मुसलमान उसी तरह मुहर्रम में शरीक हुए। कोतवाली के पास सुर्ख रंग का एक बड़ा सा बैनर दो बाँसों में फैलाकर लगा था जिसमें रूपहले हरफों से उर्दू में लिखा था ।


    'हम इलाहाबाद के हिन्दु, अपने मुसलमान भाइयों के साथ मुहर्रम के गम में शरीक हैं।'


    जो लोग इलहाबाद से बाहर रहते हैं, वह आम तौर पर यही समझाते हैं कि इलाहाबाद में तीन दरिया मिलते हैं। सफ़ी लखनवी ने भी यही लिखा कि-


     *तेरा दामन तीन तिरबेनी की है एक अन्जुमन'


     और नासिख़ ने ग़जूल में कह दिया।


     तीन तिरबेनी हैं दो आंखें मेरी


     अब इलाहाबाद भी पंजाब है।'


    मगर असलन सिर्फ दो दरिया गंगा और जमुना मिलते हैं और तीसरा दरिया सरस्वती तो किसी को दिखाई नहीं देता। शायद यह यूनीवर्सिटी और मदरसों में हल हो गया है कि इल्म जाहेरी आंखों से कहाँ दिखाई देता है, मगर आम अकीदा यही है कि यह संगम तीन दरियाओं का है, मगर यह तो सब जाहिरदारी में है।


    असल संगम तो तहजीबों और मतों का है


    बुद्धमत, जैनमत के मानने वाले, सनातन धर्म के पुजारी, कौन यहाँ नहीं आया। इसलाम की तबलीग तो यहाँ कभी नहीं हुई और न आज होती है, मगर इसलामी लिटरेचर की दुकानें जमाअत-ए-इसलामी के कार्यकर्ता लगाते हैं। और उन्हें मेले की इनतेजामिया (प्रशासन) बाकायदा स्टाल एलाट करती हैऔर कोई उनके काम से रुकावट नहीं डालता। आचार्यों और शंकराचार्यों की धार्मिक सभाएं लगती हैं, जहाँ हिन्दू धर्म का बख़ान होता है। मखुतालिफ़ मसलों पर सेमिनारनुमा बहसें होती हैं। एक आम खयाल है कि साधू सन्त सब महदूद इल्म (सीमित ज्ञान) रखते होंगे, या महेज संस्कृत या हिन्दी के वाकफ़िकार (ज्ञाता) होते होंगे। यह बात सही नहीं है, इनमें कुछ बहुत पढ़े लिखे लोग भी होते हैं। इलाहाबाद यूनिवर्सिटी के कई प्रोफेसरों को मैं जानता हूँ जो रिटायरमेंट के बाद साधू हो गए। इनमें प्रोफेसर सत्य प्रकाश (प्रोफेसर और हेड केमिस्ट्री विभाग), प्रोफेसर रघुवर मिट्टलाल शास्त्री और डाक्टर मुरलीधर खास हैं। मेरे उस्ताद डॉ. ईश्वरी प्रसाद जो तारीख (इतिहास) के आलिम थे, वह भी साधू हो गए थे, अगरचे उन्होंने गेरूआ बस्तर नहीं पहना था।


    एक कुम्भ मेले के ज़माने में एक मर्तबा मेरी बहिन लन्दन से हम लोगों से मिलने आ गई। उनके साथ उनके बेटे की जर्मन बीवी भी थी। वह लोग यही समझो कि जैसे आम तौर पर मेला लगता है, कुछ उसी तरह का होगा। एक शाम हम लोग दो मोटर कारों में लद फैदकर मेले पहुँच गए। जर्मन बहू की हैरत की इन्तेहां न रही, जब उसने इनसानों का इतना बड़ा मजमा देखा। वह तस्वीरों पर तस्वीरे खींचे जा रही थी। उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि क्या-क्या कैमरे मेंकैद कर लें। एक साधू जो काँटों पर लेटा हुआ था और ऊपर से एक काँटों का टहना ओढ़े हुए था, उसकी समझ से बाहर था। वह समझी कि यह कोई रोबुट (Robot) है। मैंने कहा यह गोश्त पोस्त का इनसान है। इसको पैसे दो और इसका हाथ छूकर देख लो। उसने ऐसा ही किया तो उसकी हैरत और बढ़ गई। साधू को पैसे देते देखकर एक तान्त्रिक जरमन बहू के पास आया और जब उस तान्त्रिक ने जर्मन बह के हाथ में दबी हुई मिट्टी को बेले का फूल बना दिया तो करीब था कि जर्मन बहू बेहोश हो जाए। वह तान्त्रिक को पैसे देकर वहाँ से भागी कि कहीं तान्त्रिक उसे भेड़ या बकरी न बना देउसने अंग्रेज मुसन्निफ़ीन (लेखकों) की किताबों में पढ़ा था कि हिन्दुस्तान, जादूगरों, साधुओं और सपेरों का देश है। यहाँ राजे महाराजे भी रहते हैं और साधू और जादूगर भी।


    अंग्रेजों के दौर-ए हुकुमत में इलाहाबाद के सिविल लाइन्स में क्रिसमस बड़े जोर-शोर से मनाया जाता था। तमाम बड़े अफ़सर सिर्फ अंगरेज हुआ करते कि क्रिसमस में छोटे दर्जे के अहलकार और मामूली अफ़सर भी ‘साहब' के घर ‘डाली' लेकर क्रिसमस के दिन जाते थे, और 'साहब' को क्रिसमस की मुबारकबाद 'हैपी किशमिश' कहते थे। उनको क्रिसमस किशमिश ही समझ में आता था। डाली लगाना उस वक्त की खास रस्म थी जिसे आज की नस्ल नहीं जानती। तभी तो अकबर इलाहाबादी ने अपने ढंग का वह मशहूर शेर इसी इशारे के साथ कहा था-


   रहजन-ए-दिल बन गई हैं अब यह ठेठर वालियाँ


    मैं लगाऊँगा गुल-ए-दाग़-ए जिगर डालियाँ


    इलाहाबाद के सिविल लाइन्ज़ के पछुमी कोने पर एक गिरजाघर 'आलसेन्ट्स कैथीडूल' नाम का है। ऐसा खूबसूरत गिरजाघर सिवा 'वेस्ट मिन्सटर एबे' के मैंने लन्दन में और कहीं नहीं देखा। इलाहाबाद में अंग्रेजों की बनाई हुई कोई एमारत इतनी खूबसूरत नहीं है। हाँ इसके बाद इलाहाबाद यूनीवर्सिटी का म्योर कालिज और उसका टावर है जो यकीनन आक्सफ़र्ड यूनीवर्सिटी के टावर से ज्यादा खूबसूरत है और म्योर कालिज जैसी बिल्डिग आक्सफ़र्ड के किसी कालिज की नहीं है। कैम्बिज का भी कोई कालेज इतना सुबुक और खूबसूरत नहीं बना। इलाहाबाद के चौक में भी एक गिरजाघर मुसलमानों की मस्जिद के मुकाबले में बनाया गया मगर यह गिरजाघर बिल्कुल खूबसूरत नहीं है, बल्कि भद्दा है। अजीब बात है कि यह गिरजाघर उसी जगह बनाया गया है जहाँ सन् १८५७ ई. के गदर के बाद सैकड़ों बेगुनाहों को नीम के पेड़ों में लटका कर फाँसियाँ दी गई थीं। उन नीम के पेड़ों में से एक नीम का पेड़ आज भी बाकी है, कहा जाता है इसी गिरजाघर पर अकबर इलाहाबादी ने वह जूमानी (PUN) मिसरा (पॅक्ति) कहा था जो यूँ है-इलाही खानए-अंग्रेजु गिरजा' (मुझे सही नहीं मालूम कि यह मिसरा ‘अकबर' का है मगर बुजुर्गों से यही सुना है) यह बयाने वाकया भी है, और बद्दुआ भी।


    सन् १९६० ई. के बाद इलाहाबाद फिर नई अदबी सरगर्मिओं का मरकज़ बनने लगा। उर्दू में तरक्की पसन्दी कीतरह जदीदियत (Moderinism) की तहरीक भी इलाहाबाद से शुरू हुई, जिसकी इबतेदा एक रिसाले से (पत्रिका से) हुई। पहले इसका नाम ‘तशा' रखा गया, फिर मालूम नहीं कैसे रातों रात यह शबखून में बदल गया। इबतेदा में इसके एडीटर डाक्टर एजाज़ हुसैन हुए और तमाम तरक्की पसन्दों का इलाहाबाद का ग्रुप इस नए रिसाले (पत्रिका) के साथ था, जिसमें सैयद एहतेशाम हुसैन, ‘राकमुिलहुरूफ़' (मैं खुद), डाक्टर मसीहुज्जृमाँ और दूसरे हज़रात इसमें मज़ामीन और रिव्यू लिखते रहे। फिर शम्सुर्ररहमान फारूकी औरहामिद हुसैन हामिद ने इस रिसाले को बिल्कुल नया रंग- रूप देना शुरू किया; और रफ्ता इस रिसाले में अलामत निगारी (प्रतीकवाद) का गुलबा (वर्चस्व) होने लगा जो मोहमलियत (अर्थहीनता) तक जा पहुँचा। इलाहाबाद की उर्दू-की अदबी महफ़िलों में इसी रंग का चर्चा होने लगा हिन्दी में भी यह रीति कुछ दिनों पहले ‘नई कविता' के नाम से वात्सायन 'अज्ञेय' जी ने चलाई थी। मगर इलाहाबाद में इसका जोर बहुत नहीं हुआ।


    हाँ हिन्दी कहानियों में कुछ नए चेहरे भी सामने आए। नीलकान्त', अजीत पुष्कल, सतीश जमाली वगैरा, अजामिल, बुद्धिसेन शर्मा, नीलाभ', अशोक भौमिक और एहतेराम इसलाम में नई नस्ल बोलती नज़र आई।


    एक बात दिलचस्प इलाहाबाद के हिन्दी माहौल में हमेशा से रही है कि यहाँ हिन्दी-उर्दू वाले हमेशा से मिल जुल कर काम करते रहे हैं, और यह सूरत उस वक्त और बढ़ गई, जब प्रगतिशील लेखन का यहाँ जोर हुआ। हिन्दी के अदीब उर्दू तखलीकात में दिलचस्पी लेते और उर्दू के अदीब हिन्दी अदब में। श्री कृष्णदास, अमृतराय, पी.सी.गुप्त, अमरकान्त, भैरों प्रसाद गुप्त सब उर्दू की महफ़िलों में भी दिलचस्पी से शिरकत करते और एजाज़ हुसैन, एहतेशाम हुसैन, अजमल अजमली, फारूक जुनून, नाफ़ रिज़वी, राकर्मुिल हुरूफ़ (स्वयं लेखक), बड़ी पाबन्दी से हिन्दी की गोष्ठियों में शामिल होते।


    बीसवीं सदी की छठी दहाई में हिन्दी की एक अन्जुमन परिमल, बड़ी जोर शोर से बनी। उसकी रूहेरवाँ तो असलन धर्मवीर भारती, विशन नारायण टण्डन और जगदीश गुप्त थे, मगर इसमें यूनिवर्सिटी के हिन्दी विभाग के लगभग सारे अध्यापक खास तौर पर नई नस्ल के लोग शामिल थे जिनमें डाक्टर रघुवंश, डॉ. रामस्वरूप चतुर्वेदी और अंग्रेजी के शोबे (विभाग) के विजय देव नारायण साही खास थे। शायद यह ‘अज्ञेय जी' की नई कविता आन्दोलन से मुतास्सिर थे (प्रभावित थे) और दर पर्दा इलाहाबाद में जो प्रगतिशील लेखक संघ का बड़ा जोर था उसके तोड़ के लिए भी यह अन्जुमन बनी थी।


    भला इस पूरे अदबी मन्जुर नामे (साहित्यिक परिप्रेक्ष) से उपेन्द्र नाथ ‘अश्क' तर्जाकिरा कैसे छोड़ा जा सकता है। अश्कअज़हर जी गालिबन सन् १९४८ में अचानक इलाहाबाद के अदबी मंच पर प्रकट हुए। ‘अश्क' नाम तो उन्होंने उर्दू शेरओ-अदब की दुनिया से बतौर तखल्लुस अख्तियार किया था कि शुरू में शायरी करते थे ।


   ज्यादातर तो वह हिन्दी में लिखते, मगर उर्दू में भी कहानियाँ और नाविल लिखने की फिक्र करते रहते।


    इलाहाबाद से शबखून के साथ ही साथ छठी दहाई में दो रिसाले और निकले एक का नाम ‘शबरंग' था और दूसरे का ‘शहपर। शबरंग मेरी ही निगरानी में निकलता था, और ‘शहपर' के अडीटर अज़हर अली फारूकी साहब थे। यह रिसाले आठ दस नम्बर निकाल कर बन्द हो गए जैसा कि उर्दू के रिसालों का मुकदर हुआ करता है मगर 'शबखून' आज भी निकल रहा है और अपना मिशन जारी किए हैं। ‘शबरंग' और 'शबखून' से कुछ पहले बलवन्त सिंह ने हिन्दी में उर्दू साहित्य नाम का एक रिसाला निकाला जिसमें उर्दू की रचनाएँ डाइजेस्ट की जाती थीं। सन् १९८० ई. के बाद जब फिर इलाहाबाद के अदबी स्टेज पर कुछ रोशनी हुई तो फिर कुछ नए पुराने लोग आए जिनमें मजहर नसीम, अजीज इलाहाबादी, अतीक इलाहाबादी, इक़बाल दानिश, असलम इलाहाबादी, नवाब अहसन, नय्यर आकिल, अखुतर अज़ीज़, अहमद अबरार सभी तरह के लोग थे।


    उर्दू कहानियों की दुनियाँ इलाहाबाद में, बलवंत सिंह और ‘अश्क' जी के बाद खासी सूनी हो गई है। इर्दू के अब ऐसे आफ़साना निगार इलाहाबाद में कहाँ। मगर असरार गाँधी ने अपनी कहानियों से अफ़साने की लौ को फिर ऊंची करने की फ़िक्र की है।


    अगरचे तनकीद (आलोचना) भी अमुल्लाह इलाहाबादी के तकिए-ए-मसर्रत अफ़ज़ा' से लेकर अली अहमद फातमी तक अपने जलवे दिखाती रहती है।


                                                                    साभार : 'इलाहाबाद की संस्कृति और शायरी'-सै. अकील रिजवी